दीपक रूहानी
अक्सर किसी कवि, लेखक या शायर की प्रासंगिकता पर सवाल उठाये जाते हैं। मेरे ख़याल में प्रासंगिकता किसी व्यक्ति विशेष की नहीं होती बल्कि उसके लेखन की ही होती है। लेखन में भी ध्यान दें तो प्रासंगिकता उसके मुद्दों की होती है। आज अगर प्रेमचंद जी हिंदी साहित्य में प्रासंगिक हैं तो मात्र अपने मुद्दों के कारण। जिस दिन समाज से ऊँच-नीच, जाति-पाँति, धार्मिक भेदभाव और भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ समाप्त हो जायेंगी उस दिन से हम प्रेमचंद जी को पढ़ना छोड़ देंगे। जिन मानव-मूल्यों को पाने की छटपटाहट प्रेमचंद जी के यहाँ है, जब हम उन्हें पा लेंगे तो उनका लेखन स्वतः प्रासंगिकता खो देगा।
ये बातें मैं इसलिए कह रहा हूँ कि किसी भी रचनाकार को जाँचने-परखने के जो टूल्स हमने आलोचना के हवाले से विकसित किये हैं, उनमें प्रासंगिकता को मापने का एक पैमाना यह भी है। इस पैमाने पर अगर हम राहत इन्दौरी की शायरी को परखने की कोशिश करें तो पायेंगे कि उनके यहाँ सामाजिक सरोकारों की जो लड़ाई है, उनकी शायरी में लोकतंत्र के लिए जो जद्दोजहद है वो उन्हें तब तक प्रासंगिक बनाए रखेगी जब तक समाज को इसकी ज़रुरत है। जब तक हमारा भारतीय समाज जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार के तमाशे देखता रहेगा तब तक राहत साहब के शेर उद्धृत किए जाते रहेंगे।
यहाँ मैं राहत साहब की शायरी और उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी घटनाओं की कुछ चर्चा कर रहा हूँ। इन बातों से बहुत-सारे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । ये निष्कर्ष प्रत्येक पाठक के अपने होंगे और वो अलग-अलग भी हो सकते हैं, यहाँ तक कि किसी एक ही बात पर परस्पर विरोधी निष्कर्ष भी निकाले जा सकते हैं ।
राहत साहब नौवीं क्लास में थे तो नूतन हायर सेकेंड्री स्कूल में पढ़ते थे। एक बार वहाँ मुशायरा होना तय हुआ। राहत साहब और स्कूल के ही कई लड़कों को तरह-तरह के कामों के लिए तैनात किया गया। राहत साहब भी शायरों की ख़िदमत में लगे थे। जाँ निसार अ़ख्तर (जावेद अ़ख्तर के वालिद) भी आये हुए थे। राहत साहब अपने एक-दो साथियों के साथ उनके पास ऑटोग्रा़फ लेने पहुँचे। राहत साहब ने उनसे कहा– ‘‘मैं भी शेर कहना चाहता हूँ, इसके लिए मुझे क्या करना होगा?’’ जाँ निसार बोले– ‘‘पहले कम-से-कम पाँच ह़जार शेर याद करो।’’ राहत साहब बोले- ‘‘इतने तो मुझे अभी याद हैं।’’ तो वे बोले– ‘‘तो फिर अगला शेर जो होगा वो तुम्हारा ख़ुद का होगा।’’
इसके बाद वो ऑटोग्रा़फ देने लगे। जाँ निसार साहब ने अपनी ग़ज़ल का एक शेर लिखना शुरू किया– ‘हमसे भागा न करो दूर, ग़ज़ालों की तरह’….. ये पहला मिस्रा वो लिख ही रहे थे कि राहत साहब के मुँह से बेसा़ख्ता दूसरा मिस्रा निकल गया– ‘हमने चाहा है तुम्हें चाहनेवालों की तरह’ । जाँ निसार साहब ने सर उठाकर हैरत और ख़ुशी के मिले-जुले भाव से राहत साहब को देखा। उनकी मुस्कुराहट में राहत साहब के लिए दुआ थी। बाद में जब राहत साहब बाक़ायदा मुशायरों में जाने लगे तो जाँ निसार साहब से कभी-कभी मुला़कात भी हो जाती थी। राहत साहब उनका बहुत एहतराम करते थे।
राहत साहब के साथ किसी मुशायरे में फ़िराक़ साहब भी थे, जब इन्होंने शेर पढ़े तो फ़िराक़ साहब बोले– ‘‘मियाँ, जब शेर ख़ुद ही अच्छा है तो ची़खने की क्या ज़रुरत है।’’ फ़िराक़ साहब का इतना कह देना राहत साहब के लिए तारी़फ जैसा था। राहत साहब फ़िराक़ गोरखपुरी के ज़बरदस्त मद्दाह हैं। सैकड़ो शेर याद हैं।
ये ची़खना भी एक आर्ट है। मुशायरा एक ‘परफार्मिंग आर्ट’ बन गया है। ऐसी स्थिति में आवा़ज का ख़ास रोल हो गया है। राहत साहब की आवा़ज की फ्रीक्वेंसी बहुत अधिक है। ये भी कह सकते हैं कि उनकी आवा़ज की ‘रेंज’ बहुत ज़ियादा है। इसे आप सुनकर तो महसूस कर ही सकते हैं, साथ ही कभी इसे कम्प्यूटर स्क्रीन पर मापने की कोशिश करें तो भी आप देखेंगे कि जब इनकी आवा़ज शुरू होती है तो ग्रा़फ बहुत हाई फ्रीक्वेंसी तक जाने लगते हैं। टेक्निकली उनकी आवा़ज का माइक्रोफोन के साथ बेह्तर तालमेल बिठाना उनकी शानदार पेशकश को और भी अधिक शानदार बनाता है। यही नहीं, वे माइक्रोफोन का सटीक इस्तेमाल करना भी जानते हैं। राहत साहब की एक ख़ास आदत है जिसे वो नेचुरल तौर पर करते हैं। करते क्या हैं, मेरे ख़याल से ऐसा हो जाता होगा। गायन की भाषा में कहें तो वे अपनी आवा़ज को माइक्रोफोन के सहारे ‘फेड इन’ और ‘फेड आउट’ करते हैं। आजकल तो कम्प्यूटर और बहुत-सारे उपकरण आ गये हैं, जिनके सहारे गायन में ‘फेड इन’ या ‘फेड आउट’ कर दिया जाता है, लेकिन पहले के गायकों के सामने जब किसी मिस्रे में इस तरह के इफेक्ट लाने होते थे, तो वे अपने मुँह और माइक्रोफोन के बीच की दूरी को कम या ज़ियादा करते थे। गाते हुए दूर से धीरे-धीरे मुँह माइक तक लाकर ‘फेड इन’ करते और ‘फेड आउट’ की ज़रूरत पड़ने पर मुँह को माइक्रोफोन से दूर ले जाते थे।
राहत साहब भी प्राय: ऐसा करते हैं। उनकी आवा़ज का वॉल्यूम ज़रूरत के मुताबि़क कम- ज़ियादा होता रहता है, लेकिन अक्सर वो अपनी आवाज का वॉल्यूम बराबर रखते हुए माइक से अपने मुँह की दूरी को संतुलित करते हैं। इस तरह वे अपने मिसरों को ‘फेड आउट’ या ‘फेड इन’ करते हैं। इससे एक ख़ास कैफ़ीयत पैदा होती हैं और सामईन पर एक ख़ास असर पड़ता है।
राहत साहब की ख़ुश क़िस्मती ये रही कि शुरू से ही उस व़क्त के जितने बड़े और उम्दा शोअरा ह़जरात थे, उनकी दुआएँ इन्हें मिलती रहीं। ख़ुमार बाराबंकवी, शमीम जयपुरी, कृष्णबिहारी नूर, फ़ना नि़जामी, कैफ भोपाली जैसे लोगों की मुहब्बतें इन्हें शुरू से ही मिलती रहीं। ऐसे पायेदार शायरों के साथ ही इनका स़फर शुरू हुआ। भुसावल के उस मुशायरे में कृष्णबिहारी ‘नूर’, निहाल ताबाँ, ताबाँ झाँसवी, ख़ुमार साहब, कैफ भोपाली व़गैरह शामिल थे। अपनी टूटी-फूटी तरन्नुम के साथ राहत साहब भी थे। तरन्नुम के शायर के रूप में थोड़ी-बहुत पहचान बन चुकी थी। उस मुशायरे के स़फर के दौरान ही राहत साहब ने एक ग़ज़ल कही, लेकिन उसका कोई तरन्नुम नहीं था। ‘तरन्नुम नहीं था’ का मतलब है कि राहत साहब उस अल्हड़पन के दौर में भी कभी ग़जल गुनागुनाकर नहीं कहते थे। शेर के मिस्रे उनके ज़ेहन में तहत में उतरते थे और बाद में वे उसका तरन्नुम निकालते थे।
ग़जल हो गयी और व़क्त कम होने के कारण तरन्नुम नहीं सेट हो पाया था। राहत साहब कृष्णबिहारी ‘नूर’ के पास पहुँचे और कहा– ‘‘सर! मैंने एक ग़जल कही है, उसके कुछ शेर आपको सुनाना चाहता हूँ।’’ नूर साहब सोचे कि अभी ये तरन्नुम में ही सुनायेगा। राहत साहब ने तहत में ही वो ग़जल उन्हें सुनायी और उन्होंने बहुत दाद दी, बड़ी तारी़फ की। नूर साहब ने कहा– ‘‘राहत आज सुनाओ इसे मुशायरे में।’’ राहत साहब बोले– ‘‘ज़रूर सुनाऊँगा, लेकिन अभी इसकी तरन्नुम नहीं सेट हो पायी है।’’ नूर साहब बोले कि– ‘‘ये ग़जल ऐसी है कि इसके लिए तरन्नुम की ज़रूरत नहीं है; तुम इसे तहत में ही सुनाओ। इस ग़जल के शेर ऐसे हैं कि इसमें गाने की गुंजाइश ही नहीं हैं।’’ उस ग़जल का एक शेर था–
जिन चराग़ों से तअस्सुब का धुआँ उठता है
उन चरा़गों को बुझा दो तो उजाले होंगे
मुशायरों की परम्परा में बेशुमार पेचो-ख़म हैं। ग़जल पर जितना काम पिछले चार-पाँच सौ बरसों में हुआ है उतना हिन्दी-उर्दू मिलाकर किसी अन्य विधा पर नहीं हुआ। ग़जल पर हुए बेशुमार कामों ने इसमें इतनी चमक पैदा की है कि उर्दू की अन्य विधाएँ (अस्ना़फ) इसके सामने फीकी पड़ जाती हैं। ‘अदब’ का एक मतलब ‘लिहाज़’ भी होता है। मुशायरों में ‘अदब’ की हिफ़ाज़त होती थी, यानी ‘लिहाज़’ की भी हिफ़ाज़त होती थी। एक मिसाल राहत साहब ने सुनायी– किसी शेरी महफ़िल में जिगर मुरादाबादी और असग़र गोंडवी मौजूद थे। जिगर मुरादाबादी असग़र साहब को अपना उस्ताद मानते थे। असग़र साहब कोई ग़जल पढ़ने लगे तो एक कीड़ा जिगर साहब की शेरवानी में घुस गया। उसने ज़ख़्म़ बनाना शुरू किया, लेकिन जिगर साहब टस-से-मस नहीं हुए। इसमें उस्ताद की बेहुर्मती थी। आख़िरकार जब असग़र साहब ने मक्ता पढ़ा तब जिगर साहब उठकर दूर गये और किसी तरह उस कीड़े को निकाला। तब तक वो का़फी बड़ा ज़ख़्म बना चुका था। इसी तरह पहले के मुशायरों में नये शायरों को दाद देने तक की इजाज़त नहीं रहती थी। उनसे ये उम्मीद की जाती थी कि पहले वो ठीक से सुनना सीखें, फिर उसे समझना सीखें तब दाद देने की कोशिश करें। पहले के मुशायरों में कोई नया शायर जिस तरह बैठ जाता था उसी तरह घंटों बैठा रहता था। बार-बार हाथ-पाँव इधर-उधर फैलाना-सिकोड़ना बेअदबी माना जाता था और कहा जाता था कि फ़लाँ साहब को तो महफ़िल में बैठने की भी तमी़ज नहीं, बार-बार पहलू बदलते रहते हैं। राहत साहब भी मुशायरों की हर रिवायत को जितना मुम्किन हो सका निभाते आये हैं। अपने से बड़े शायरों का उन्होंने हमेशा ख़याल रखा। अगर किसी मुशायरे में सामईन सीटी बजाने लगते तो राहत साहब फ़ौरन उन्हें टोक देते और तरह-तरह की नसीहतें देकर उन्हें क़ायल करते। अगर सामईन सीनियर शायरों को बिना सुने जाने लगते तो राहत साहब खड़े होकर अपील करते और सामईन को कुछ देर और रोक लेते थे। जब तक हालात ऐसे नहीं हुए कि इन्हें पहली स़फ में आकर बैठना पड़े तब तक बु़जुर्गों के एहतराम में पिछली स़फों में बैठना ही मुनासिब समझा। अभी ऊपर राहत साहब के एक शेर का ज़िक्र आया है–
जिन चरा़गों से तअस्सुब का धुआँ उठता है
उन चरा़गों को बुझा दो तो उजाले होंगे
इस शेर पर राहत साहब को इतनी ज़ियादा तारी़फ क्यूँ मिली, इस बात पर गौर करना ज़रूरी है। ब़जाहिर तो दूसरे मिस्रे में ‘चरागों को बुझाने पर उजाला’ होने की बात की जा रही है, जो कि फ़ित्री तौर पर बिल्कुल सही नहीं है। इस शेर की तहें इसके हवालों (सन्दर्भों) में हैं और उन हवालों की तरफ़ तरन्नुम से इशारा नहीं किया जा सकता। इस शेर का एक राजनीतिक अर्थ (सियासी मानी) भी है इसलिए उस अर्थ का गला गलेबा़जी करके नहीं घोटा जा सकता। मुझे इस शेर के अर्थ की तऱफ शब्बीर कुरैशी साहब ने इशारा किया था जो कि राहत साहब के क़रीबी दोस्त हैं।
जो लोग भारतीय जनता पार्टी का इतिहास जानते हैं, उन्हें पता है कि इसकी उत्पत्ति मूलत: भारतीय जनसंघ (जिसे जनसंघ भी कहते हैं) से हुई। इस पार्टी की स्थापना (1951) श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने की। 1952 के संसदीय चुनाव में इसे दो या तीन सीटें मिली थीं। 1975-1976 में कांग्रेस सरकार द्वारा लागू किये गये आपातकाल के बाद भारत के अन्य राजनैतिक दलों और इस जनसंघ को मिलाकर जनता पार्टी बनी।
जनसंघ अपनी स्थापना के दिनों से ही साम्प्रदायिक विचारोंवाली पार्टी थी। फ़िलहाल, उन सब बातों का लम्बा इतिहास है, जिसकी यहाँ अभी ज़रूरत नहीं है। इसी जनसंघ पार्टी का चुनाव चिह्न था ‘जलता हुआ दीपक’ या ‘दिया’। चूँकि ये ‘जलता हुआ दिया’ था, इसलिए इसमें से धुआँ उठने की बात प्राकृतिक रूप से तर्कसंगत लगती है। इस पार्टी की साम्प्रदायिक मानसिकता को देखते हुए ‘तअस्सुब’ (धार्मिक पक्षपात, बेजा तऱफदारी) लफ्ज़ का इस्तेमाल भी एकदम सटीक ढंग से हुआ था। इन सब हालात के खुलकर सामने आने से अब दूसरे मिस्रे में चरागों को बुझाने पर उजाला होने की उलटबाँसी भी तर्कसंगत लग रही। कॉंग्रेस पार्टी के लोग अपने कार्यक्रमों में राहत साहब के इस शेर का बहुत जोरदार ढंग से प्रयोग करने लगे। यहाँ तक कि इसी शेर से उनके कार्यक्रमों, चुनावी सभाओं और रैलियों की शुरूआत भी होने लगी थी। कांग्रेसवाले पहले भी जनसंघ के चुनाव चिह्न को लेकर कई नारे लगाया करते थे– जनसंघ के दीप में तेल नहीं, सत्ता चलाना कोई खेल नहीं। या इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं।
जहाँ इस तरह के घिसे-पिटे तुकबंदीवाले नारे लगाये जाते थे, वहाँ राहत साहब का शेर बहुत प्रतीकात्मक था। अब ज़रा सोचिए कि इस शेर को पढ़ने पर जनसंघ के विपक्षियों में किस प्रकार की शोरअंगे़जी होती रही होगी। एक बात इस सिल्सिले में साफ़ करना और ज़रूरी है– राहत साहब ने जानबूझकर ये शेर जनसंघ पर नहीं कहा था। शेर की आमद हो गयी तो ख़याल इस तरफ़ भी गया।
राहत साहब ज़बान की तमाम सच्चाइयों को शुरू से समझ रहे थे; और ये भी समझ रहे थे कि उनके ऊपर उर्दू को किताबी ज़बान बनने से बचाने की भी ज़िम्मेदारी है। उन्होंने डिग्री कॉलेज में पढ़ाया भी। पढ़ाने के दौरान उन्होंने पूरे उर्दू-साहित्य को अपने सामने पाया होगा। चाहते तो ये भी भाषाई दाँव-पेंचवाली शायरी कर सकते थे, लेकिन इन्होंने ऐसा नहीं किया। ज़बान में तो ये आसान बने ही रहे, साथ ही इन्होंने पुरानी अलामतों का भी इस्तेमाल नहीं किया। आसान ज़बान का इस्तेमाल तो कोई भी कर सकता है, लेकिन नये प्रतीकों (अलामतों)का प्रयोग करना एक प्रकार से रिस्क उठाने जैसा होता है, साथ ही मुशायरों में प्रतीकात्मक शायरी पेश करने पर नाकाम हो जाने का ख़तरा हमेशा बना रहता है, लेकिन राहत साहब ने ये ख़तरे भी ख़ूब उठाये हैं।
मुशायरों में सबसे बड़ी दि़क़्कत ये होती है कि वहाँ आये सामईन में कई अंदरूनी विभाजन होते हैं, जैसे एक तो उम्र का फ़र्क होता है। पंद्रह-बीस साल के लड़कों से लेकर पैंसठ-सत्तर तक के लोग आते हैं। इन सबको एक साथ संतुष्ट कर पाना मेढक तौलने जैसा है। एक को उठाया तो दूसरा बाहर, दूसरे को साधा तो तीसरा ग़ायब। राहत साहब अपने बाकमाल हुनर से सबको एक-एक करके साध लेते थे। इनके पास बहुत-सी ग़जलें और अश्आर ऐसे हैं जो पंद्रह से लेकर पचीस-तीस साल के नौजवानों का हल्ला-गुल्ला शांत कराने के काम आती हैं। उसके बाद राहत साहब पैंतीस से पचास तक घर-गृहस्थी, दुनियादारी और सियासत में उलझे लोगों के लिए कुछ-न-कुछ अपनी झोली से निकालते हैं। फिर तीसरी रेंज पचास साल से ऊपरवालों के लिए है। इस तरह वे धीरे-धीरे पूरे मुशायरे को अपनी गिऱफ्त में ले लेते हैं। उम्र के अलावा अलग-अलग मानसिक स्तर के लोग भी मुशायरों में आते हैं। जींस-टी शर्ट वाले लड़कों से लेकर चौगोशा सर पर रखे हुए लोग आपको मुशायरों में दिख जायेंगे। इन अलग-अलग प्रकार की ‘वैरायटी’ में किसी शायर का मंच पर आधा घंटा भी जम पाना बड़ा कारनामा होता है, लेकिन राहत साहब दो-तीन घंटे तक अकेले माइक पर डटे रहते थे। सबको संतुष्ट कर पानेवाली ‘रेंज’ राहत साहब की शायरी के अलावा और कहीं भी बहुत कम है। इनकी शायरी सुनकर हर उम्र और हर वर्ग का अपने लिए कोई-न-कोई शेर पा सकता है। यहाँ एक बात और भी सा़फ कर दूँ कि राहत साहब का आज तक जितना कलाम छपकर आया है, लगभग इतना ही इन्होंने रद्द भी किया है। मुशायरों के लिए, सि़र्फ मुशायरों के लिए कही गयी जाने कितनी ही ग़जलों को इन्होंने का़ग़ज तक नहीं आने दिया। यहाँ ये भी ज़िक्र करना ज़रूरी है कि राहत साहब ने अपनी ज़बान से अपने हमअस्र (समकालीन) शायरों को बहुत मुतास्सिर किया। इनकी देखा-देखी बहुत-सारे शायरों ने आम और आसान ज़बान को अपनाया।
राहत साहब को सबसे अलहदा बनाती है, वो है इनके शेर पढ़ने का अंदा़ज। इनके शेर पढ़ने के अंदाज़ में संगीत का सहारा बिल्कुल नहीं है। शायरी की आंतरिक लय ही राहत साहब की लय है। तरन्नुम छोड़कर राहत साहब ने अपनी शायरी को तरन्नुम के दायरों से उठाकर बहसों-मुबाहिसों के दायरों में पहुँचा दिया। पढ़ने का अंदाज़ ही एक-एक शेर को सामईन के दिलो-दिमाग़ में पैवस्त कर देता है। जब से राहत साहब मंचों पर हैं तब से जाने कितने शोअरा आये और चले गये। पिछले पचास सालों में राहत साहब की आँखों के सामने एक युग की शुरूआत हुई और वो युग समाप्त भी हो गया। उनके लिए पैसा भी बहुत मायने नहीं रखता था। बच्चे ख़ुद सक्षम हैं कि वे अपना घर-परिवार चला सकें। पिछले कई सालों से राहत साहब ने शराब भी नहीं पी, लेकिन मुशायरों में बराबर जाते रहे थे। वे कभी शराब के मोहताज नहीं रहे। अगर राहत साहब मंचों पर डटे रहे, जमे रहे तो सिर्फ़ अपनी शायराना काविशों की बदौलत। शायरी ही सिर्फ़ एक ज़रीआ है, एक वसीला है जो उन्हें ख़राब तबीअत और ख़राब मौसम में इस मुशायरे से उस मुशायरे तक लेकर जाती रही थी। वे आजीवन शायरी को समर्पित शायर हैं। कभी उन्होंने दर-दर अपने इसी भटकने को लेकर कहा था–
तुम्हें पता ये चले घर की राहतें क्या हैं
अगर हमारी तरह चार दिन सफ़र में रहो
ऐसा नहीं है कि राहत साहब से पहले उर्दू-ग़जल में एहतेजाज या विरोध का कोई पहलू नहीं था। परम्परागत उर्दू-शायरी में इंसान की आ़जादी के लिए जितनी काविशें-कोशिशें हैं उनको दरकिनार करके अगर हम जदीद दौर के सियासी एहतेजाज की बात करें तो भी ऐसे शायरों की कमी नहीं है जिनके यहाँ विरोध ओर विद्रोह की आवा़ज बुलंद है। जोश, साहिर, फ़ै सला, फ़ राज़ व़गैरह जैसे और भी कई शायर मौजूद हैं। राहत साहब की शायरी इन सबसे अलग है, या यूँ कहें कि राहत साहब की स्थिति इन सबसे अलग है। ‘संसद-भवन में आग लगा देनी चाहिए’ जैसे मिस्रे अगर राहत साहब ने कहे तो इसे रिसालों और किताबों में छपवाने के लिए नहीं कहे। इसे जिस झुँझलाहट, जिस झल्लाहट में कहा गया था, उसी झुँझलाहट और झल्लाहट से मुशायरों में पढ़ा भी गया। आज भी पढ़ा जाता है। मुशायरे इस बात का ज़िन्दा सुबूत होते हैं कि शायर कितना ज़िन्दा है। आज की शायरी में वो माहौल नहीं है कि शायर धर्म और मज़हब के कर्मकांडों का विरोध करे और लोग उसे हँस-हँसकर दाद दें। हमारे दौर में नासेह, वाइ़ज, शे़ख, काबा, बुत़खाना, काफ़िर, शराब व़गैरह के हवाले से प्रतीकात्मक शायरी करने पर युवा पीढ़ी के सामईन शायद ही कुछ समझ पायें, लेकिन ‘रवायतों की स़फें तोड़कर बढ़ो वर्ना, जो तुमसे आगे हैं वो रास्ता नहीं देंगे’ जैसे मिस्रे सीधे-सीधे ज़ेहन में उतर जाते हैं। राहत साहब का पूरा शब्दकोश ही अलग है। आख़िर में राहत साहब का ही के शेर याद आ रहा है-
भूल जाना उसे आसान नहीं
याद रखना भी हुनर है उसको
(दीपक रूहानी जाने-माने शायर और अनुवादक हैं। उर्दू से हिन्दी अनुवाद के कई महत्त्वपूर्ण कार्य कर चुके । अभी पिछले बरस ही इनकी एक किताब “राहत साहब : मुझे सुनाते रहे लोग वाक़िया मेरा” नाम से राहत इन्दौरी की ज़िन्दगी पर आयी, जो कि राहत-प्रेमियों में ख़ासी चर्चित रही।अमेज़न की वेबसाइट पर यह किताब तीन महीनों तक लगातार ‘बेस्ट रीड’ में रही। दीपक रूहानी आजकल बिहार प्रान्त के मधुबनी ज़िले में हिन्दी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क–9415142314, deepakruhani@gmail.com)