मैनेजर पांडेय को जो भी जानता है वह इस बात पर ध्यान दिए बगैर नहीं रह सकता कि जन संस्कृति के साथ उनका जुड़ाव वर्तमान आलोचकों में सबसे अधिक है। इस गहरे जुड़ाव को हम महज उनकी ग्रामीण पृष्ठभूमि के जरिए नहीं व्याख्यायित कर सकते। कारण यह कि हिंदी आलोचना में सक्रिय वरिष्ठों की पीढ़ी में तकरीबन सभी की जड़ें गाँवों में ही रही हैं। इस मूल को अन्य अधिकांश आलोचकों ने जहाँ भुलाने और दबाने की कोशिश की, वहीं मैनेजर पांडेय ने इसे न सिर्फ़ बहुधा घोषित किया बल्कि जन संस्कृति मंच के साथ जुड़कर इसे सैद्धांतिक ऊँचाई भी दी। मैनेजर जी का यह पहलू ही इस लेख का विषय है ।
जन संस्कृति मंच (जसम) की स्थापना एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा था । पिछली सदी के अस्सी के दशक में लोकतांत्रिक संगठनों का उभार देश भर में बड़े पैमाने पर हुआ था। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि ऐसा आपातकाल के विरोध से बने वातावरण के चलते सम्भव हुआ था। इस व्यापक वैचारिक माहौल के असर से सांस्कृतिक दुनिया में नुक्कड़ नाटकों की धूम थी। जनता पार्टी के बिखराव के बाद इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद लोकतांत्रिक ताकतों की बड़े पैमाने पर गोलबंदी हुई थी। ऐसे ही वातावरण में बनारस में 1980 में प्रेमचंद की जन्म शताब्दी पर आयोजित एक सम्मेलन में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और पटना के एक सम्मेलन में नवजनवादी सांस्कृतिक मंच का गठन हुआ था। इसी तरह के अनेक संगठनों के निर्माण और उनकी आपसी चर्चा का समेकन जसम के रूप में सामने आया। ये सभी मंच और मोर्चे हिंदी की साहित्यिक सांस्कृतिक दुनिया में नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव को प्रतिबिंबित कर रहे थे । रोचक तथ्य है कि बांगला, तेलुगू या पंजाबी जैसी अन्य भारतीय भाषाओं के मुकाबले हिंदी में यह प्रभाव संगठन के रूप में अपेक्षाकृत देर से सामने आया लेकिन जब आया तो बेहद परिपक्व रूप में ।
जसम के साथ मैनेजर पांडे के जुड़ाव का एक कारण इसके संस्थापक महासचिव गोरख पांडे भी थे । गोरख जी देवरिया जिले के रहनेवाले थे जो मैनेजर जी के घर गोपालगंज जिले के लोहाटी गाँव से ज्यादा दूर नहीं है। इस सिलसिले में हिंदी कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के बारे में भी कुछ कहना जरूरी है। उनके संबंध में नामवर सिंह के अंधभक्त संस्मरण लेखकों ने एक प्रवाद फैला रखा है। बारम्बार ऐसा लिखा गया कि उन्होंने होली के दिन रंग डालने से नामवर सिंह को रोकने के लिए कुश्ती कर ली थी। इससे लगता है मानो वे भारतीय संस्कृति के विरुद्ध रहते थे। इसे साहित्यकारों की आपसी ईर्ष्या के बतौर भी प्रस्तुत किया जाता है। उस घटना के बारे में लिखने वाले लोगों ने यह नहीं बताया कि उस साल होली भगत सिंह के शहीद दिवस के दिन पड़ी थी। अब के लोहियावादी भी लगभग भूल गये हैं कि लोहिया अपना जन्मदिन इसीलिए नहीं मनाते थे क्योंकि वह भगत सिंह की शहादत के दिन पड़ता था। लेकिन सर्वेश्वर को यह याद था। तो ऐसी ही मान्यताओं वाले सर्वेश्वर अपने अंतिम दिनों में वामपंथी आंदोलन की तीसरी धारा की ओर खिंचे थे। वे आई पी एफ़ के स्थापना सम्मेलन में शरीक तो हुए ही उसके राष्ट्रीय पार्षद भी चुने गये थे। वे भी गोरख के पड़ोस बस्ती जिले के रहनेवाले थे। बहरहाल उनकी मृत्यु जन संस्कृति मंच की स्थापना से पहले ही हो गयी अन्यथा वे भी इस प्रयास के सहभागी होते ।
जन संस्कृति मंच के साथ मैनेजर जी का जुड़ाव शुरुआत से ही हो गया था । जसम के निर्माण के लिए बनी तैयारी समिति में तो वे थे ही, उसकी स्वागत समिति में भी थे। स्थापना सम्मेलन दिल्ली में हुआ था ।
जन संस्कृति मंच की स्थापना 1985 में हुई । गोरख पांडे इसके महासचिव और पंजाबी के मशहूर नाटककार गुरुशरण सिंह अध्यक्ष निर्वाचित हुए । प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडे सम्मेलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। इसके तुरंत बाद हुए दिल्ली राज्य सम्मेलन में वे दिल्ली इकाई के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की अकादमिक व्यस्तताओं के बावजूद वे चंडीगढ़ मे हुए पहले सालाना जलसे और फिर हजारीबाग की गोष्ठी में गोरख जी के साथ ही शरीक रहे। हिंदी साहित्य का वह दशक कवियों की अस्सी दशक की पीढ़ी की आत्ममुग्धता के समक्ष नक्सलबाड़ी के योगदान को दबाने या नकारने की कोशिशों का था। गोरख पांडे के साथ ही मैनेजर जी ने भी आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में नक्सलबाड़ी के योगदान को बल देकर रेखांकित किया। विभिन्न सभाओं और गोष्ठियों में उन्होंने कहा कि समाज के इतिहास में साहित्य के हस्तक्षेप के तो छोटे उदाहरणों को भी साहित्यवादी विचारक बढ़ा चढ़ा कर दिखाते हैं लेकिन साहित्य के इतिहास में समाज के हस्तक्षेप की परंपरा के भीतर नक्सलबाड़ी की चर्चा उदाहरण के बतौर भी नहीं होती । इस परिघटना पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि इस आंदोलन ने न सिर्फ़ अपने समय की जन विरोधी साहित्यिक प्रवृत्तियों को खामोश कर दिया बल्कि अपने पूर्ववर्ती साहित्य की प्रासंगिकता में भी हस्तक्षेप किया।
प्रगतिशील कवि नागार्जुन, त्रिलोचन और केदार नाथ अग्रवाल उस तमाम समय में सक्रिय रहे जब नयी कविता और उसके बाद विभिन्न आधुनिकतावादी काव्य प्रवृत्तियों का जोर रहा लेकिन इस शोरगुल में उनकी आवाज दबी रही थी। नक्सलबाड़ी से उपजी वैचारिकी ने उन्हें दोबारा प्रासंगिक बना दिया। न सिर्फ़ प्रगतिशील काव्यधारा बल्कि रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लोहियाई विपक्ष के कवियों को भी नक्सलबाड़ी ने पुनर्जीवन दिया ।
बहरहाल जन संस्कृति मंच का दूसरा सम्मेलन पटना में 1988 में गोरख पांडे के जीवनकाल में ही हुआ लेकिन मानसिक स्वास्थ्य ठीक न होने से वे इसमें भाग न ले सके। इस सम्मेलन तक परिस्थिति बदल जाने से एक नया दस्तावेज पेश किया गया जिसके ढीले ढाले ढंग से सूत्रबद्ध होने पर मैनेजर जी ने आपत्ति जाहिर की। सम्मेलन ने राणा प्रताप को महासचिव और शिव मंगल सिद्धांतकार को कार्यकारी अध्यक्ष चुना। मैनेजर पांडे कार्यकारिणी के सदस्य बने रहे ।
सम्मेलन के बाद के वर्षों में बिहार, लालू यादव मार्का सामाजिक न्याय के उभार की प्रयोगभूमि बना जिसमें दलितों के संहार और लोकतांत्रिक संस्थाओं की बदहाली विशेष रहे। सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर पारंपरिक वामपंथ लालू के साथ खड़ा हो गया। किसी भी जीवंत संगठन की तरह जसम भी इसके चलते बिखराव का शिकार हुआ। इस दौर में न सिर्फ़ बिहार बल्कि केंद्र में भी जनता दल की सरकार को अपूर्व आमसहमति के तौर पर भाजपा और माकपा दोनों का समर्थन प्राप्त हुआ था। स्वाभाविक रूप से किसी भी जनविरोधी सरकारी कदम का विरोध करते हुए जनता के हाथ बँधे रहते थे। बिहार में एक के बाद एक नरसंहार होते रहे लेकिन सरकारी वामपंथ हाथ बाँधे खड़ा रहा । उस समय की विडंबना को मैनेजर जी सभाओं और गोष्ठियों में एक लोककथा के माध्यम से अनेक बार बताते थे। कथा के मुताबिक जंगल को काटने का आदेश हुआ तो पेड़ों में हलचल मची लेकिन एक बुजुर्ग पेड़ ने कहा कि जब तक हममें से ही कोई इन पेड़ काटनेवालों का साथ नहीं देगा तब तक चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। अंततः पेड़ काटने वालों के पास के हथियारों में एक पेड़ की लकड़ी का बेंट लगा तभी वे पेड़ काटने में कामयाब हो सके। यह कथा शासक वर्ग के साथ वामपंथ की एक धारा के खड़े हो जाने से जनता के निहत्थे हो जाने की विडंबना को बखूबी जाहिर करती थी ।
इसके उपरांत लंबे अंतराल के बाद तीसरा सम्मेलन वाराणसी में हुआ जिसमें त्रिलोचन शास्त्री अध्यक्ष और राम जी राय महासचिव चुने गए । मैनेजर पांडे को कार्यकारिणी में यथावत बनाये रखने का फ़ैसला सम्मेलन ने किया । सम्मेलन का केंद्रीय विचार विंदु भाजपाई उभार के विरुद्ध एक नये नवजागरण की जरूरत था । चौथा सम्मेलन इलाहाबाद में हुआ जिसमें यही टीम जारी रही । इसमें भी पांडेय जी कार्यकारिणी में चुने गये । भाजपा संचालित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी अभियान के विरोध में अनेकशः उन्होंने कहा कि यह भारत की दूसरी खोज का अभियान है। पहली खोज के पीछे स्वाधीनता अर्थात भविष्य के भारत की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आकांक्षा थी तो इस दूसरी खोज के पीछे प्राचीन भारत की पुनर्स्थापना की हताशा भरी कोशिश काम कर रही है ।
जसम का पाँचवाँ सम्मेलन 1998 में दिल्ली में हुआ जिसमें बृज बिहारी पांडे महासचिव चुने गये। सम्मेलन के कुछ ही दिन पहले नागभूषण पटनायक की मृत्यु होने के कारण पहले दिन का खुला सत्र शोकसभा में बदल गया जिसमें मैनेजर पांडे शरीक रहे। छठवाँ सम्मेलन बनारस में हुआ जिसमें अजय सिंह महासचिव बने। सातवाँ सम्मेलन पटना में हुआ जिसमें मैनेजर पांडे को उपाध्यक्ष चुना गया । आठवाँ सम्मेलन राँची में हुआ जिसमें मैनेजर जी को जसम का अध्यक्ष चुना गया । तबसे निरंतर प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय लम्बे समय तक न सिर्फ़ संगठन के अध्यक्ष पद पर बने रहे, बल्कि एक सक्रिय कार्यकर्ता और नेता की तरह निरंतर संगठन का मार्गदर्शन करते रहे । इस दौरान जसम का नवाँ सम्मेलन बेगूसराय में हुआ जिसमें प्रणय कृष्ण को महासचिव चुना गया। दसवें और ग्यारहवें सम्मेलन क्रमशः धूमिल के गाँव खेवली और भिलाई में हुए जिनमें पदाधिकारियों की यही टीम जारी रही।
मैनेजर पांडे की सक्रियता और नेतृत्व जसम के प्रत्येक कार्यक्रम में दिखायी पड़ती रही। भिलाई सम्मेलन में दस्तावेज पर चल रही बहस में निर्णायक हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने परिस्थिति को निराशाजनक बताने के विचार का खंडन करते हुए लातिन अमेरिकी जनता के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों की ओर प्रतिनिधियों का ध्यान खींचा। देश के स्तर पर भी उन्होंने जगह जगह चलने वाले भूमि अधिग्रहण विरोधी संघर्षों की सकारात्मक भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने किसानों की आत्महत्याओं का उदाहरण देते हुए कहा कि दुनिया में अन्य किसी भी देश में इतने बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या नहीं की है इसलिए प्रथम किसान की आत्महत्या वाले दिन को राष्ट्रीय शर्म दिवस के बतौर मनाया जाना चाहिए । कहने की जरूरत नहीं कि वर्तमान किसान आंदोलन ने उनके इस सरोकार पर मुहर लगायी है ।
स्थापना सम्मेलन में ही मैनेजर जी ने जसम का व्यापक परिप्रेक्ष्य सामने रखते हुए कहा था कि ‘पहली बार संपूर्ण सांस्कृतिक संदर्भों को ध्यान में रखकर संगठन बनने जा रहा है। यह सिर्फ़ लेखकों का संगठन न होकर तमाम रचनाकारों का संगठन है जो नयी बात है । उन्होंने यह भी कहा था कि संपूर्ण सांस्कृतिक संदर्भ को ध्यान में रखकर ही संगठन का घोषणापत्र तैयार किया गया है ।’ इससे पहले प्रलेस और जलेस केवल लेखकों के संगठन थे। इसके चलते ही जब राँची में बाजारवाद के विरुद्ध केंद्रित सम्मेलन में वे अध्यक्ष बने तो उन्होंने मीडिया, लोकभाषाओं और आदिवासी संस्कृति पर विभिन्न कार्यशालाओं की योजना प्रस्तुत की।अंततः गुरुशरण सिंह, कुबेर दत्त और राम दयाल मुंडा की याद में आयोजित एक सभा में जसम ने इन कामों को पूरा करने का संकल्प घोषित किया। जन संस्कृति और लोकभाषाओं के प्रति उनके अनुराग को हम भिखारी ठाकुर से जुड़े उनके काम तथा कबीर को मूलतः भोजपुरी कवि मानने के आग्रह में देख सकते हैं। जन संस्कृति की इसी भावना के वशीभूत वे लगभग हरेक साल कुशीनगर जिले के जोगिया जनूबी पट्टी गाँव में आयोजित ‘लोकरंग’ नामक कार्यक्रम में मौजूद रहते।
सोवियत संघ के पतन से उपजे माहौल में उन्होंने अनुवाद और संग्रह करके एक पुस्तक प्रकाशित करवायी जिसका शीर्षक ही था ‘संकट के बावजूद’। इससे पहले ही उन्होंने सृजनात्मक तरीके से इस माहौल में हस्तक्षेप करते हुए क्रांतिकारी कविताओं के एक संकलन ‘मुक्ति की पुकार’ का संपादन किया था जिसकी भूमिका का शीर्षक ही है ‘अँधेरी रात में जलती मशाल’ । इन कामों में समाजवाद के पहले प्रयोग को लगे धक्के के वस्तुगत मूल्यांकन के साथ ही आशा के नए केंद्रों की तलाश की गयी है । खासकर ‘संकट के बावजूद’ की लंबी भूमिका में उन्होंने समाजवाद के धक्के के बाद उपजी वैचारिकी उत्तर आधुनिकता का जोरदार प्रत्याख्यान किया । हाल में ही उत्तर आधुनिक दौर में मध्ययुगीनता की वापसी को उजागर करते हुए उन्होंने कई लेख लिखे हैं। उन्होंने सामाजिक विज्ञान की एक पत्रिका हिंदी में निकालने की तैयारी भी की ताकि हिंदी भाषी जनता में विद्वानों तक ही चलने वाली बहसों को न सिर्फ़ सुलभ कराया जा सके वरन इन सामाजिक विज्ञानों की दुनिया में हिदी भाषी जनता के ठोस अनुभवों का प्रवेश भी कराया जा सके। इस योजना पर भी काम होना चाहिए क्योंकि जनता और बौद्धिकों के बीच के इस बड़े अंतराल को पाटना अज्ञानता के वर्तमान महिमामंडन में बेहद जरूरी हो गया है । सामाजिक विज्ञानों की दुनिया में वे रणधीर सिंह और एजाज अहमद से नजदीकी का अनुभव करते हैं क्योंकि ये विद्वान उन्हीं की तरह पश्चिमी जगत से आने वाले विचारों की आँधी में उड़ते नहीं बल्कि तीसरी दुनिया के मुल्कों में जारी जन संघर्षों की आँच से प्रेरणा ग्रहण करके उन विचारों से सार्थक बहस करते हैं । मार्क्सवादी चिंतन परंपरा के भीतर उनकी गहरी जड़ें हैं और मार्क्स के अलावा वे ग्राम्शी से खासकर सांस्कृतिक प्रश्नों पर ढेर सारा साझा करना पसंद करते थे।
मैनेजर पांडेय ने समस्त धर्मनिरपेक्षता पर चली बहस में दारा शिकोह के काम को उजागर करके नया कोण पैदा किया। मुगल बादशाहों की हिंदी कविता को सामने लाना उनकी इसी चिंता का अभिन्न अंग है। ऐसे ही अतीत चर्चा के शोर में बौद्ध चिंतक अश्वघोष की वज्रसूची पर बातचीत के जरिए उन्होंने इस बहस में नया आयाम जोड़ा । भारत के पुनः उपनिवेशीकरण के वैचारिक माहौल में देउस्कर की किताब की लंबी भूमिका के साथ उसका संपादन और प्रकाशन एक अलग तरह का हस्तक्षेप था। दलित और स्त्री विमर्श के प्रति उनका रुख संवाद का रहा है । महादेवी वर्मा की किताब ‘शृंखला की कड़ियाँ’ पर उनका लेख स्त्री विमर्श संबंधी बहस में ठोस योगदान था। समकालीन के साथ संवाद करते हुए अपने समय के संदर्भ में अतीत का नया पाठ उन्हें क्लासिक चिंतकों की कतार में खड़ा करता है ।
उनका मानना था कि किसी भी सांस्कृतिक संगठन को साहित्यकार और पाठक के बीच पुल का काम करना चाहिए । यह काम यांत्रिक तरीके से नहीं बल्कि सृजनात्मक ढंग से किया जाना चाहिए । इसके लिए एक ओर तो संगठन को साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए कवि सम्मेलन, नाटक और कार्यशालाओं का आयोजन करना होगा दूसरी तरफ़ निर्देश की शैली में नहीं वरन बहस मुबाहसे के जरिये साहित्य के सामने उपस्थित प्रश्नों पर वैचारिक साफ सफाई करनी होगी । इसके लिए उन्होंने कविता, कहानी और आलोचना की हालत पर कार्यशालाओं का प्रस्ताव रखा । उन्होंने यह भी प्रस्तावित किया कि संगठनों को साहित्यकारों की मदद करनी चाहिए और उन्हीं की पहल पर जसम ने कई साहित्यकारों, कलाकारों की आर्थिक सहायता की ।
मैनेजर जी पंजाब में आतंकवाद के दिनों में तथा काश्मीर और पूर्वोत्तर में लगातार चल रहे राज्य दमन के धुर विरोधी तो हैं ही, आंध्र और देश के अन्य हिस्सों में नक्सलवाद को दबाने के नाम पर जारी दमन की मुखालफ़त के प्रयासों में वे शरीक रहे। सभाओं और गोष्ठियों में उनकी उपस्थिति हमेशा एक ताजगी भरा माहौल पैदा करती है । इन उपस्थितियों ने उन्हें एक सम्मानित सार्वजनिक बौद्धिक बना दिया।
विगत कुछ वर्षो से जसम के प्रत्यक्ष पदाधिकारी न रहते हुए भी वे लगातार सक्रिय रहकर संस्कृति के क्षेत्र में जन पक्षधरता को पोषित करने वाले कामों को प्रोत्साहित करते रहे हैं । जनकवि नागार्जुन से उनका घनिष्ठ संवाद लेखन के स्तर पर तो रहा ही, उनके नाम पर एक पुरस्कार की स्थापना के जरिये वे लगातार जन पक्षधर लेखन के महत्व को उजागर कर रहे हैं। व्यावहारिक और वैचारिक सक्रियता के इस दीर्घ जीवन में उनका सांगठनिक जुड़ाव किसी गुणा गणित से प्रभावित नहीं रहा बल्कि यह उनकी वैचारिक मान्यताओं का प्रतिफलन रहा है। इसके जरिये उन्होंने इस मान्यता का प्रबल प्रतिवाद किया है कि साहित्यकार के किसी संगठन से संबद्ध होने से उसकी सक्रियता में बाधा आती है। जसम के साथ उनका जुड़ाव उनकी व्यापक प्रतिबद्धता का अंग है। सबूत यह कि जसम में रहते हुए भी वे तमाम ऐसी पहलकदमियों के साथ खड़े रहे जिनके सहारे संस्कृति की दुनिया में कामगार मनुष्य की मौजूदगी दर्ज हो सके ।