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अमरेंद्र की अवधी कविताएँ: लोकभाषा में संभव राजनीतिक और समसामयिक अभिव्यक्तियाँ

( कवि-कथन : अवधी में कविता क्यों ? मुझसे मुखातिब शायद यही, किसी का भी, पहला सवाल हो। जवाब में कई बातें हैं लेकिन पहला कारण यही है कि जैसी सहजता मैं अपनी मातृभाषा अवधी में पाता हूँ वैसी कहीं दूसरी जगह नहीं। यह सहजता ‘प्रथम भाषा’ होने की सहजता है। यह सहजता वैसे ही है जैसे घर-गाँव में किसी रहवासू की होती है। नागर व औपचारिक जीवन के बरअक्स।

सभ्यता के बहुत से भाषायी आवरण भी होते हैं जिनकी लपेट में भाषा अक्सर बँध जाती है। भाषायी मानकीकरण भी वैसा ही एक आवरण है। यह मानकीकरण ‘रूप’(form) तक ही सीमित नहीं है, भावों और विचारों तक यह असर डालता है। लोकभाषा होने के नाते अवधी, जिसमें किसी भी किस्म के मानकीरण के विरुद्ध एक खुली छूट सहज सिद्ध है, मेरे लिए कविता खातिर अधिक उन्मुक्त क्षेत्र प्रदान करती है। कविता यों भी उन्मुक्तता माँगती है। भाषा कोई भी हो। हिन्दी आदि किसी मानक भाषा की बात करें तो भी कविता ही, अन्य विधाओं की तुलना में, ऐसी विधा होगी जो भाषा में सबसे अधिक व्यवस्था-भंग करती होगी। अपने आजादी-पसंद स्वभाव के चलते।

दूसरी वजह है, अपनी पहली भाषा में एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा का होना। यह गर्व का विषय है कि अवधी में समाज के हर तबके(धर्म और जाति की दृष्टि से) ने इस परंपरा को बनाने का काम किया है। इस परंपरा में रामभक्ति शाखा के शिखर तुलसी हैं तो सूफी धारा के हिमालय जायसी भी। यहाँ भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम में अवध-केंद्र की सक्रियता भी है। बीसवीं सदी के पढ़ीस, वंशीधर शुक्ल और रमई काका जैसे अवधी-स्तम्भ भी हैं। इसी सदी में अवधी कवि सम्मेलनों की जिम्मेदार हलचल भी है। टी.एस.इलियट ने रचयिता के लिए जिस ‘परंपरा’ का जिक्र किया है, वह यहाँ प्रेरणा और चुनौती का युगपत् निर्वाह कर रही है। मुझ-सा ख़ाकसार इससे आकर्षित है।

तमाम बातों के साथ यह भी सच है कि पिछले लगभग सौ वर्षों से अवधी में रचनात्मकता को वही प्रोत्साहन नहीं है जो पहले था। इस दृष्टि से अवधी के साथ हिन्दी क्षेत्र की दूसरी भाषाएँ भी हैं। उन्नीसवीं-बीसवीं सदी का हिन्दी आंदोलन जो एक तरफ़ उर्दू और दूसरी तरफ़ ब्रजभाषा से लड़ते हुए खड़ा हुआ, उसने इस क्षेत्र की बहुतेरी भाषाओं के सहज विकास को रोका। यह वही समय है जिसे वरिष्ठ आलोचक शिवदान सिंह चौहान ‘हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष’ के रूप में पहचानते हैं। परिणामतः इन भाषा-क्षेत्रों की रचनात्मक व्यक्ति भाषा के रूप में अपनी पहली भाषा के विकल्प को, सचेत या अचेत होकर, आसानी से नकार देता है। वह भीतर से भ्रमित रहता है कि अवधी, भोजपुरी, ब्रज… आदि में से कोई उसकी मातृभाषा भी नहीं है। ऐसी दशा में कोई अपनी इन मातृभाषाओं में रचना करे तो वह उचित होते हुए भी प्रचलन के विरुद्ध जाना होता है। लेकिन जो उन्नीसवीं सदी में पनपे और तब से चले आते इस भाषाई यथार्थ को समझ पाता है वह प्रचलित राह के विरुद्ध जाने के यथार्थ को भी समझ पाता है।

अवधी में राजनीतिक कविताओं को लिखने की बड़ी सशक्त परंपरा रही है जिनमें राजनीतिक घटनाएँ और नामवाचक संज्ञाएँ(proper nouns) आमतौर पर दिखायी दे जाती हैं। रफीक शादानी की कविताएँ इस दृष्टि से देखी जानी चाहिए। यद्यपि हिन्दी कविता में इन तत्त्वों के आगमन को अखबारीपन कहा जाता है और इसके चलते लोकचेतना संपन्न नागार्जुन जैसे कवि की कविता पर अखबारी होने का आरोप भी आलोचकों द्वारा लगाया गया। हिन्दी के आलोचकों को जो खटकता है वह लोककविता में सहज है। हिन्दी में कविताओं के ग्रहण का जो रवैया है वह कई बार अवधी आदि भाषाओं की कविताओं के ग्रहण में समस्या भी पैदा कर सकता है।

मैंने ज्यादातर राजनीतिक कविताएँ लिखी हैं। कुछ कविताएँ दूसरे मिजाज की भी हैं। यहाँ कुछ कविताएँ पेश की जा रही हैं जो सहृदय चित्त का परितोष कर सकें तो रचनाकार के लिए बड़ी बात। इति )- अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी 

कविताएँ :

(1) बप्पा कै नन्हकी बिटियवा…

बिस्कुट क कहै ‘कुट्कुट्’
बप्पा क कहै ‘भप्पा’
बप्पा जौ कहूँ डोलयँ
हेरय ऊ चप्पा-चप्पा

बप्पा जौ बजारी से
बिन ‘जलेली’ आवयँ
ऊ माखि-माखि रूठै
उइ दौरिके मनावयँ

काँधे उठाये बिटिया
उइ गाँव घूमि डारयँ
मनहँग भये पै लौटैं
घर पहुँचिके उतारयँ

यक दिन उदास बप्पा
खोपड़ी टिकाये हाथे
उल्चिस गिलसिया पानी
बप्पौ फिन् हँसै लागे…

( 2.)   खेचुही

बरसातौ मा जइसे ईद कय चाँद
गाँव वाले गदेलन कय अचंभा
खबर के नाईं तैरत आवय
पानी मा बूड़त-उतिरात
कबौ-कभार
खेचुही

वहिकय रंग
इंतिजार अस उज्जर
रहस्य अस करिया

कमठ : कवच
उल्टे तावा कय धारी
समझौ सेंगहा चढ़ाये के पहिले छपरा कय ठाट

गोड़, हाँथ औ लुबलुबात मुँह
जइसे हितकारी नियमन के सिकंजा मा छटपटात
जिंदगी : डेरात बहिरियात

आखिरी दाँय देखे रहेन
जब ऊ उखमजी लौंडा
गोला अस घुमाय के ताले मा फैंकि दिहे रहा खेचुही
छप्प्प!
तब कय हेरान
अब्बौ न उतिरान.

(3)  बजट – 2018

रामदुलारे खड़े दुवारे, बोले, लटपट – लटपट
‘हे भाई, कुछ बूझि न पाएन, काव आय ई बज्जट’
ऐनक धरे किनारे, ननकू बोले, “कका दुलारे,
पूछत हौ तौ बतलाइत हय, जेतनी समझ हमारे –

“ई बजट याक जादुक् सोंटा, जेका जेटली चलाइन हयँ
‘हम अही किसानेक् बड़ हितुआ’ ई झूठमूठ फैलाइन हयँ
यम.यस.पी. डेढ़ गुना मिलिहै, सुन कुछ लोगन क थई भयी
मुल ढोलेक् भीतर पोल देखि, उम्मीद टूटि गय रही – सही

पिछले सालन से रोजगार जे छीनि-छीनि निज पेट भरिन
वै पूंजीपतियन के गुलाम आखिरी साल चिग्घाड़ दिहिन
सिच्छा, सुवास्थ, रेलवे, जहाँ देखौ तहँ गड़बड़-झाला हय
सार्वजनिक इलाका चौपट हय, करपोरेटिया जंजाला हय

ई बजट आंकड़ाबाजी हय, जालिम फरेब – बत्तीसी हय
वादन की आंखमिचौली हय, सरकारी चार-सौ-बीसी हय
भूसी के ऊपर लीपब हय, चलनी से दूध पियाउब हय
जैसे यक मरत-जियत मुसरी क थूक चाटि जियवाउब हय

कुछ बड़े पढ़ैया भकुरत हयँ, ‘तू का जानत हौ, थोर पढ़ा
बिन इकोनमिस बांचे-बूंके सबकुछ मिथ्या हय, तोर पढ़ा’
हम उनसे एतनय बक्कित हय, ‘तू गाँव देस न पढ़ि पायौ
फैसनी बिलैती कूकुर अस, देसी बिबेक न गढ़ि पायौ ’’

ननकू बस बोलत चले जायँ, मुल कका दुआरेप् चित होइगे
जब गौर किहिन ननकू उनपै, उइ बुदबुदात एतनय कहिगे —
‘काले जादू तक काटि उठैं, मुल यहि जादू कय कवन काटि
ओन्नइस मा सम्हरेव नहीं अगर, तब जीबो सबही धूरि चाटि.’

(4) जायसी से मुलाकात, एक झपकी भर

कुरसी पै टेक लयिके बैठा रहेन है भइया
झपकी करेर आयी, बेपिये कप कै चहिया
देखेन सपन मा हमरे, आये मलिक मोहम्मद
‘जयराम जायसी जी’ कहि चित्त होइगा गदगद
जुरतय गएन नगीचे, उनका उदास पाएन
दाढ़ी पै हाथ फेरत बोलत हतास पाएन —
‘ई काव अही देखत, काहे बरे तमासा
ई फूँक-ताप काहे औ रकत कै पिपासा ?
पदमावत मा सिखयन — निस्सार है सियासत
अफसोस, कुछ न बदला, वैसेन रही जहालत
मनइन की खोपड़ी मा केतना फितूर बाटै
बिकिगा सियासी हाथे, नस्सा मा चूर बाटै ?’
एतनेम गएन जगावा, ‘बतियात अहौ केहसे
कुल जूड़ होइगै चहिया, एकदम्मै पानी जइसे’
यक लम्मी साँस खींचेन, टीबिप् निगाह मारेन —
‘करनी सेना कै गुण्डै, बस तूर-फूर डारेन..’
( पदमावत फिलिम के समय केरी किचाहिन के दौरान लिखी गय कविता)

( 5 ) अंजामे-पकौड़ा का हुइहै…

आगाजे-पकौड़ा बमबम है, अंजामे-पकौड़ा का हुइहै ?
साहब जी, तुहैं कुछ खबर हवै, ईनामे-पकौड़ा का हुइहै ?
मुँह भार जईस है खुला तोर, बातन कय कौनौ नहीं छोर ,
वादन कय गर्दा-काट सोर, ऐलाने-पकौड़ा का हुइहै ?
बेगारी हय, लाचारी हय, सकतहुँ फैली बीमारी हय,
जब यहै राग सरकारी हय, चिल्लाने पकौड़ा का हुइहै ?
सूरत मा तोरे अमरीका हय, सीरत मा हिटलर-साही हय
करमन मा हरमपन चाँपा हय, ईमाने-पकौड़ा का हुइ है ?
का सबका समझत लल्लू हौ, जू तुम कहिहौ सब वहै कही
ओटन से तुमहुँक पता चली, पैगामे-पकौड़ा का हुइहै ?
लेकिन तू जम्हूरी-घतिया हौ, ई.बी.यम. के हरकतिया हौ
सो तुहुँका कयिसे पता चली, नुकसाने-पकौड़ा का हुइहै ?

(6) ए गोइयाँ, बुक्का फारि के हँसौ

हँसौ, हँसौ, हँसौ
ए गोइयाँ, बुक्का फारि के हँसौ

लाख-लाख वाले कोट पै हँसौ
चुरनहे गुलाबी नोट पै हँसौ
ए गोइयाँ…

कारपोरेटिया सुवान पै हँसौ
पुँजियाहे चमचा महान पै हँसौ
ए गोइयाँ…

डिगरी के फरजी जुगाड़ पै हँसौ
हुकूमत चलावत कबाड़ पै हँसौ
ए गोइयाँ…

पाखाना उगिलत बंबा पै हँसौ
मतलब कि चौथे खंबा पै हँसौ
ए गोइयाँ…

खूनखोर, हिन्दू-मुसुलमान पै हँसौ
बौध-सिख-जहूदी-क्रिस्तान पै हँसौ
ए गोइयाँ…

मर्दवादी मजहबी विधान पै हँसौ
रंग बदलत गिरगिटान पै हँसौ
ए गोइयाँ…

आँखिन मा झोंकी धूर पै हँसौ
खोखल-खोखल जम्हूर पै हँसौ
ए गोइयाँ…

गढ़ात अँधियारी रतिया पै हँसौ
बिकसवा केरी बरतिया पै हँसौ
ए गोइयाँ…

हँसे से फाटत कपार पै हँसौ
हँसी रोकै वाले विचार पै हँसौ
ए गोइयाँ…

नवो हँसै वाली हर बात पै हँसौ
हँसे से सत्ता झुँझलात, पै हँसौ
ए गोइयाँ…

*अपने प्रधान-सेवक यक मेहरारू के हँसे पै मजाक उड़ाये रहे, वही समयवा.

(7 ) कवन सपेरा बीन बजावै

कवन सपेरा बीन बजावै
न्याय, प्रसासन, बिधि-बिधायिका : सबका नाच नचावै
जाति-धरम चिनगी परचावै, धूँ-धूँ लपट उठावै
बेकारन क भाँगि क गोला, टूका दयि बहलावै
बिल-बैठे फेटार कुलि निकसैं, लावा-दूध चढ़ावै
राग-जम्हूरी, पबलिक झूमै, ओट पै ओट गिरावै.

(8)  चिन्गारी अंगारा होइहैं

सबरन समाज ! “तू का समझेव
हम मौन रहब, सब सुनत रहब ?
तू तीन – पाँच कीन्हे जाबो
हम सब भोगब, सब सहत रहब ?
सदियन से रहेन गुलाम मुला
अब हमहूँ कुनमुनाय लागेन
इंद्रासन तुम्हरा डोलि उठा
जब हम अपनी नींदिस् जागेन

यहिते तुम माथा पीटि लिहेव
बल भै सैतानी चाल चलेव
रास्टवादी औ’ मजहबी मूँग
हमरी छाती पै खूब दलेव

बिल्लिक भागे सिकहर टूटा
सत्ता पायौ, बउराय उठेव
कुछ हमरै नेता फोरि लिहेव
भरमाय दिहेव, भरमाय उठेव

भरमत नस्सा मा भूलि गयेव
ताकत नेता नहिं, जनता हय
ऊ जब सड़कन पै आइ जाय
तब रोकि न पावत सत्ता हय

लच्छन आपन तुम बदलि लेव
नाहिंत् वारा-न्यारा होइहै
बरिहै धूं-धूं अन्याय – महल
चिनगारी अंगारा होइहै.”

 (चिनगारी अंगारा होइहै – पंक्ति इंकलाबी अवधी कवि जुमई खां आज़ाद केरी कविता से लीनि गय हय। सादर ! )

(9)  जय भीड़तन्त्रं जय भेड़तन्त्रम्…

खुले आम चौराहा पै नंगनाचम्
खुले आम छुट्टा घुमैं पंगबाजम्
गुंडा-पुलिस कै दिखै संगसाथम्
जय भीड़तन्त्रं जय भेड़तन्त्रम्

अकेलं परानं घिरे चालबाजम्
महामूक केसे कहै हालचालम्
यहर साँपनाथं वहर नागनाथम्
जय भीड़तन्त्रं जय भेड़तन्त्रम्

विफल गौरमिंटं खतम लोकतंत्रम्
निरासा प्रधानं विकट शोकतंत्रम्
ठुंके ठीक लोगै सफल ठोंकतंत्रम्
जय भीड़तन्त्रं जय भेड़तन्त्रम्

(10 ) हैप्पी टीचर्स डे, गुरू जी

हैप्पी टीचर्स डे, गुरू जी
जइसे ऊधव वइसे माधव, तुम बोझा हम गधे, गुरू जी
नाथा-जाबा मुँह हमार हय, हम दँवरी मा नधे, गुरू जी
सत्ता के संग सांठ-गांठ अउ प्रतिरोधौ मा डटे, गुरू जी

बाहर से हउ कटे-कटे मुल भीतर-भीतर सटे, गुरू जी
माल देखिके पाल्हा बदलत, तुम इत्ते ललचहे, गुरू जी
पीढ़ी मुरदा-संख होइ गयी, तुम ढपोर-संखहे, गुरू जी.

 

(कवि और टिप्पणीकार अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी वर्तमान समय में अपनी अवधी कविताओं के लिए पहचाने जाते हैं. नोटबंदी पर सम्पादित अपने अवधी कविता संग्रह ‘समकालीन अवधी साहित्य में प्रतिरोध’ के लिए यह काफ़ी चर्चित रहे हैं. इन्होंने कुंवर नारायण के दूसरे कहानी संग्रह ‘बेचैन पत्तों का कोरस’ का संपादन किया, अवधी की ऑनलाइन पत्रिका ‘अवधी कै अरघान’ के संपादक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक भी हैं.)

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