समकालीन जनमत
कविता

अपराजिता अनामिका की कविताएँ पुरुष प्रधान समाज से प्रतिवाद करती स्त्री अस्मिता की पक्षधर हैं

गुंजन विधान


किसी कवि के शुरुआती दौर में जो आवेग और मौजूदा सामाजिक ढांचे के साथ ऐतिहासिक समझ होनी चाहिए वह अपराजिता अनामिका में मौजूद है। वे मुख्यत सामाजिक और राजनैतिक चेतना की कवि हैं। संवेदना के बिना कविता की यात्रा अधूरी है। अच्छी कविताएँ लिखना महज शिल्प और संरचना से ही संभव नहीं, जनवादी विचारों का अभाव एक अच्छी कलात्मक कविता को भी व्यर्थ बना सकता है। एक अच्छी कथाकर होने की वजह से वे अपनी कविताओं में मुहावरों और मेटाफ़र का प्रयोग करने में माहिर हैं। उनकी कविताओं को पढ़कर समझा जा सकता है कि वे आज के सामाजिक व्यवस्था और पितृसत्तात्मक सभ्यता से सिर्फ असहमत ही नहीं बल्कि उन्हें बदलने का स्वप्न भी देखती हैं। जैसा कि हमारे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल ने भी कहा है
“एक कवि और कर ही क्या सकता है/सही बने रहने की कोशिश के सिवा”

संवेदना, अनुभूति और सूक्ष्मता कवियों के शृंगार हैं जिसका प्रभाव कवि की रचनाशीलता पर देखा जा सकता है। आधुनिक प्रगतिशील कवियों ने अपने समय को दर्ज करने के लिए मूल विषयों में बदलाव न करते हुए विरोध दर्ज करने के तरीकों में बदलाव किया है। अपराजिता भी इस बदलाव की स्थिति से परिचित हैं और इस बदलाव में वे भली भाति अपनी जिम्मेदारी समझती हैं। अपनी एक कविता में वे कहती हैं।

साथ निभाने का माद्दा रखने वालों ने
शायद ही सुनी होंगी अंधे और लंगड़े के प्रगाढ़ता की किंवदंतियां
या किसी भी हितोपदेशक नीतिशास्त्रों को
लेकिन उन्होने आखिरी सांस तक जिया
आत्मियता और स्नेह
शामिल रखा अपनी प्रार्थनाओं में क्षमाभाव को
न सिर्फ आदमजात बल्कि सृष्टि के हर कण के लिए

वातानुकूलित कमरों में रचे गए नारे या एकांत मे लिखी संवेदनशील भावुकता से नहीं
बल्कि कर गुजरने या साथ निभाने के जुनून ने बदली है
समाज की दिशाएं

ये कविताएँ अपने वक़्त के गीत और समय के महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। खासकर ज़ब उसे स्वयं भोगा हुआ हृदय लिखें तो उसका यथार्थ एक तीखे आक्रोश में तब्दील हो उसकी धमनियों में जज्ब हो जाता है। इस शृंगार में कुछ ऐसी कविताएँ हैं जो पुरुष प्रधान समाज से प्रतिवाद करती स्त्री अस्मिता की पक्षधर हैं। अतः इस से रूपवादी और सामाजिक अनुकरणीयता की उम्मीद रखना बेमानी है।अपराजिता अनामिका की ये कविताएँ स्त्री विमर्श के उन आयामों का पड़ताल करती हैं जो साहित्य के हर विधा में पूर्वापेक्षित है। इन कविताओं में कवि की मानवता और प्रेम के विविध रूप हैं। इन कविताओं का स्वर ही कवि का मूल स्वर है।

जिंदगी के तमाम गर्म थपेड़ों से जूझती
तल्ख स्याह और सुबह के बीच
इन औरतों ने बचाए रखा है एक मुट्ठी उजास
सादगी और समर्पण
अटकलों बनावट और खोखलेपन से हांफती
सरांध मारती इस दुनिया में !

कवि नारीवादी आंदोलन के प्रथम चरण और आज के परिप्रेक्ष्य के अंतर से खूब परिचित हैं। वे अपनी कविताओं में समकालीन नारीवादी मुद्दों जैसे परिवार में स्त्री पर पुरुष के अधिकार, न सिर्फ कार्यस्थल पर बल्कि घर की चारदीवारी के अंदर मौजूद लैंगिक शोषण और यौन स्वायत्तता के अधिकार पर भी बेबाक हैं। अपनी एक कविता ‘सोनागाछी की औरतें ‘में वे लिखती हैं

यकीनन तुमने खुद नहीं चुना होगा
इस गलीज जगह में खुद का होना
लेकिन तुमने खुद गढ़ा है अपना अभय और अपनी निजता
कि महज आत्मा ही नहीं तुम्हारे
जिस्म पर भी सिर्फ औ सिर्फ तुम्हारा ह़क है …

कविताओं में शोषक वर्ग के प्रति विद्रोह अथवा कवि धर्म को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अपराजिता अनामिका कि कविताओं के केंद्र बिंदुओं में सामाजिक भेदभाव और शोषण के साथ उनके जीवन के व्यक्तिगत बिम्ब हैं जो कवि अपनी अनुभूतियों से अर्जित करता है। वे सजगता से सम सामयिक घटनाओं पर नज़र रखती हुई परिदृश्य की सच्ची तस्वीर रखती हैं। अपनी कविता मुखालफत में वे कहती हैं

वे शहर गांव और अपना घर छोड़
जीतने निकले है अदद एक कुर्सी

यह जानने के वावजूद की बैठते ही जिस पर
खो सकते है वे अपना स्वाभिमान
और आज़ाद अभिव्यक्ति!

इनकी प्रेमपरक कविताओं में स्त्री जीवन दृष्टि और उसकी बुनावट के अनुभव हैं। इस सूची में शामिल कविताएँ ‘चलो न बाबा’ विवाहित स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक कैनवास में दर्ज़ करती हैं। इनमें स्त्री के अनुभव और जीवन यात्रा के विभिन्न पड़ावों को महसूस किया जा सकता है। कविता समूचे स्त्री जगत की वेदना का दस्तावेज है जिसमें उसके अपने पैतृक घर से लगाव और उससे दूर होने की प्रथा से उपजी पीड़ा का वर्णन मिलता है। एक स्त्री पिता के घर से निकलते ही आजीवन बेघर महसूस करती है और इस मार्मिक सच्चाई को ही इंगित करते हुए वे कहती हैं

देखो न बाबा
भोर से संध्या हो गई है
लेस दिया है लालटेन और
लटका आई हूँ बूढ़े बरगद की डालियों पर
ताकि अंधेरे में वो खूसट
अपनी जटाओं से डराए नहीं राहगीरों को

चलो न बाबा
निपटा आई हूं सारे काम
अब ले चलो न अपने घर
गोधूलि से पहले ही
क्योंकि ब्याहताएं अंधेरे में विदा नहीं होतीं …

अपराजिता अनामिका केवल विवाहिता के दर्द और उनके जीवन के संदिग्धाव्यस्था का पड़ताल ही नहीं करती बल्कि उनके जीवनकाल में हुए सामाजिक-सांस्कृतिक ‘पैराडाइम शिफ्ट’ को भी पहचानती हैं। अपनी एक कविता में वे कहती हैं-

ललाट से आधे सिर तक बीचों बीच मांग में भरा गाढ़ा सिंदूर
सिमट कर रह जाता है
एक दाग भर

कोल्हू के बैल सी जुती
कोने कोने में रची बसी
धड़कन सी औरत

जाने कब तटस्थ होने लगती हैं
अपने अधिकारों से विरक्त
कर्त्तव्यों की लपट में
सुलगती धुंआती
गीली लकड़ी सी

इन कविताओं के पास प्रकृति, प्रेम, सामाजिक और जीवन-दर्शन की चिंतन भूमि के यथार्थ का वृत्तांत है।

अतः अपराजिता अनामिका अपनी अलहदा अंदाज, अनुभूतियों, वैचारिकी के साथ अपने शब्दों के चयन के प्रति सजगता से हमें आश्वत करती हैं की इनके अंदर कविता की अच्छी संभावना है और मुझे विश्वास है की भविष्य में वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब होंगी।

 

अपराजिता अनामिका की कविताएँ

 

1. बाज़ीगरी

वातानुकूलित कमरे में बैठे लोग
लिख रहे थे मुफलिसी और
पसीने की कहानी
ठूंस रहे थें अपने शब्दों को
उनके हलक में
जिन्हें अक्सर दो निवाला भी
माकूल वक्त पर नहीं मिला

नतीजा झंडा उठाए लोगों ने खाई लाठियां और
वातानुकूलित बुद्धिजीवियों के हाथ आया
अपने कथित संवेदनाओं की
भट्टी में बिलबिलाते शब्दों पर धार चढ़ाने का एक और मौका

कमोवेश जिंदगी को सार्थकता देने वालों ने
शायद ही पढ़ा हो मार्क्स या कन्फ्यूशियस को
साथ निभाने का माद्दा रखने वालों ने भी
शायद ही सुनी होंगी अंधे और लंगड़े के प्रगाढ़ता की किंवदंतियां
या किसी भी हितोपदेश नीतिशास्त्रों को
लेकिन उन्होने आखिरी सांस तक जिया
आत्मियता और स्नेह;
शामिल रखा अपनी प्रार्थनाओं में क्षमाभाव को
न सिर्फ आदमजात बल्कि सृष्टि के हर कण के लिए

वातानुकूलित कमरों में रचे गए नारे या एकांत मे लिखी संवेदनशील भावुकता से नहीं
बल्कि कर गुजरने या साथ निभाने के जुनून ने बदली है
समाज की दिशाएं
ऐसा भी नहीं की ज्वलंत शब्दों
वैचारिक दस्तावेजों या हितोपदेश मायने नहीं रखतें लेकिन
मुझे अब साफ दिखता है इन शब्दों के खिलाड़ियों की अकर्मण्यता
और अपनी जान माल की हानि से खुद को बचाता
एक कमजोर डरपोक इंसान
जिनके लिए मुख्य धारा में होना महज शब्दों का अलाव है
चाहे इससे दावानल फैले या फिर धुंआता रहे पूरा ब्रह्मांड

 

2. सोनागाछी की औरतें

यकीनन तुमने खुद नहीं चुना होगा
इस गलीज जगह में खुद का होना
लेकिन तुमने खुद गढ़ा है अपना अभय और अपनी निजता
कि महज आत्मा ही नहीं तुम्हारे
जिस्म पर भी सिर्फ औ सिर्फ तुम्हारा ह़क है …

यकीन मानों इस दूर के सुहावने ढ़ोल जैसे समाज मे
जिस्मफरोशी तुम नहीं करतीं
बल्कि इस्तेमाल होतीं हैं वे औरतें जिन्हें
कथित सम्मानित सभ्यताओं की सरांध मारती गलियों में
महज़ वंशावली की नामपट्टिका में दर्ज होने या
आसरा के एवज में अपनी आत्मा का गला घोंटकर भी
बिछना पड़ता है हर रात चादर की तरह

देवदासियाँ
अब ब्याहताएं बन चुकी हैं !

 

3. मुखालफत

उन्हें नहीं पता कि उनका गुनाह
धरती के नक्शे में मौजूद
इस भूमि पर जन्म लेने का है
या इस मुल्क के एक ईमानदार नागरिक होने का !

चूंकि वे इस देश के नागरिक हैं
उन्हें कंठस्थ है इस देश का राष्ट्रगान
इस अँधेरे समय में भी उतनी ही शिद्दत से
भले ही उनके तमाम नागरिकता प्रमाणपत्रों के बावजूद तंत्र की नजर में वे हैं संदिग्ध

अब जबकि
चुना है उन्होंने दलाली की जगह मेहनत करना
कागजी शिलान्यास सा कुछ नहीं चाहते वे
न आश्वासन न कोई खोखली संवेदना

वे शहर गांव और घर छोड़
जीतने निकले है अदद एक कुर्सी

यह जानने के वावजूद की बैठते ही जिस पर
खो सकते है वो अपना स्वाभिमान
और आज़ाद अभिव्यक्ति!

 

4. सुनो न बाबा

रतजगा करती आँखों को फिर
कभी भोर का तारा दिखा ही नहीं
जो उस रोज़ दिखाया था आपने सिंदूरदान के बखत

अर्ध्य दे दिया है सूरज को
जबकि जानती हूँ
अंजुरी भर जल
नही मिटा सकता उसकी तपिश

सींंच दिया है तुलसी का बिरवा
जो उपेक्षित अकेली खड़ी है आंगन में
इस शापित ईश्वर को जाने क्यूँ
जगह नहीं मिली अब तक दहलीज के अंदर

देहरी लीप कर मांड आई हूँ मांडना
ताकि बनी रहे संसबरक्कत घर में
चुन पछोर कर अनाज भर दिया है कोठी मे
कि मेरी अनुपस्थिति में भी
कुछ रोज़ ज्योनार बन सके आसानी से

सानी-पानी कर दी है गायों की
जो कभी जुगाली करती बैठी रहतीं हैं
तो कभी बेचैनी से अपनी ही खूँटी के
चारों तरफ प्रदक्षिणा करतीं जाने कौन सी ग्रहबाधा
के निवारण को व्याकुल हैं

चुग्गा डाल दिया है आवारा कबूतरों को
और पिंजरे में बंद तोते को भी
जिसने दाना चुगने से पहले
आस भरी नजरों से देखा पिंजरे का दरवाज़ा
मगर बंद दरवाजे को देख
मिचमिचाई अपनी आंखें
गर्दन टेढ़ी कर कर्कश आवाज में
और भी जोर से चीखा
सीता राम बोलो सीता राम

देखो न बाबा
भोर से संध्या हो गई है
लेस दिया है लालटेन और
लटका आई हूँ बूढ़े बरगद की डालियों पर
ताकि अंधेरे में वो खूसट
अपनी जटाओं से डराए नहीं राहगीरों को

चलो न बाबा
निपटा आई हूं सारे काम
अब ले चलो न अपने घर
गोधूलि से पहले ही
क्योंकि ब्याहताएं अंधेरे में विदा नहीं होतीं …

 

5. कस्बाई लड़की

चाकचौबंद हँसी और
​नुमाइशी खुशी की आड़ में​छिपाई
तकलीफों के चीथड़े
​जब कोई भाँपने लगता है या
​सूँघने लगता है संघर्ष के ज़ख्मों से रिसते मवाद को

बेसाख्ता खिलखिला देती है वो
​ताकि हर नज़र
उलझ जाए उसकी हँसी मे
​और वो
झटपट बंद कर लेती है अपने अंतर्मन के
​ सारे दरवाजे खिड़कियाँ
​रौशनदान तक …

घोंघे की तरह
अपनी खोल मे
खुद को सुरक्षित बनाने की
जुगत करती
छोटे शहर कस्बों से महानगरों में
रोजी रोटी तलाशने आई लड़की …

 

6. बोंसाई

नैसर्गिक इच्छाओं की
वो सीधी जड़ें
जो जाकर घंस सकती थीं
किसी के अहंकार की मिट्टी में
काट डाली गयीं

साथ हीं पनपते
ख्वाहिशों के कोमल रोम कूप
छील कर हटा दिये गयें

खोदकर निकाल लाये हैं उसकी प्रकृति के विरुद्ध
और अब बो दिया है
उथले विचारों
छिछले सोंच से अटी
चीनीमिट्टी की प्यालियों मे

इस बेढंगे परवरिश से
दमित रह गयीं इच्छाओं और सपनों के बोझ तले
वे भले ही दे रहें वृक्ष होने का भ्रम

मगर शुष्क छायाहीन बेढंगी डालियों पर लगे गंधहीन फूल
मानो चस्पा हैं उस पर
आत्मा के छालो की तरह

अधिकांशत: औरतें भी होती हैं
घरों में उगाए
बोंसाई जैसी !!

 

7. एक रोज

पांचों महासागर के अथाह जल में
ज़ब डूब कर बुझ जाएगा सूरज और मुट्ठी भर रह जाएंगे सातों महाद्वीप सिकुड़ कर

खत्म हो चुके होंगें ज़ब
रौशनी के सारे साधन
मुंह मोड़ लेंगे तारें भी अपनी आकाशगंगा से
और जुगनुओं का मोहभंग हो जाएगा
इस धरती से

जब घटाटोप अंधेरे का
कोई विलोम शेष नहीं होगा
उस वक्त भी
मेरी आँखें पढ़ सकने में सक्षम होंगी
मानवता की लिपि
जो पंचतत्वों में लिखी गई थी
पाषाण युग से भी कहीं पहले

सर्द पड़ चुके मेरे वजूद को
जिंदा रखेंगी सृष्टि का स्नेह स्पर्श

सदी के किसी भी दौर में अंधेरों से लड़ने के लिए
विशेष संसाधनों की जरूरत नहीं होगी मुझे

क्योंकि मेरा हासिल है प्रेम
उस चकमक पत्थर की तरह
जो सृष्टि के वजूद का हिस्सा रहा है
हर सदी हर दौर में !!!

 

8. बोरोलीन

अब भी पाई जाती है अल्प मात्रा में
अपने ही किस्म की वे अलहदा सी औरतें
जो रात को अपनी फटी एड़ियों और
खुरदरे हाथों पर मलती हैं बोरोलीन
कि शायद ज़िन्दगी की तल्ख हकीकतें
न झांक सके इन दरारों से
और अल सुबह वही बोरोलीन
चस्पा हो जाती हैं खुश्क होंठों पर
पसर जाती है अपनी तीखी गंध और
चिपचिपापन लिए सादे से चेहरे पर

ऐसा नहीं की वे अनभिज्ञ हैं श्रृंगारित बहुरुपिएपन से या
बदहाली तंगहाली ने खींचे रखा है हाथ

असल मे जिंदगी के तमाम गर्म थपेड़ों से जूझती
तल्ख स्याह और सुबह के बीच
इन औरतों ने बचाए रखा है एक मुट्ठी उजास सादगी और समर्पण
अटकलों बनावट और खोखलेपन से हांफती
सरांध मारती इस दुनिया में

 

9. तख्तापलट

और एक रोज़ इन्कार कर देंगी वे पुरुषों को जनने से
बिना किसी वाद प्रतिवाद लैंगिक असंतुलन अथवा परवरिश परिवेश की लंबी उबाऊ तर्कहीन बहसों के
संरक्षित कर लेंगी अपनी कोख और ममत्व को

सदियों से प्रताड़ित बेटियां
प्रेम में चली गई प्रेमिकाएं या फिर शोषित पत्नियां
नकार देंगी एक सिरे से मर्दों को माँ के किरदार में आते ही

विडंबना ये कि बीज की अकर्मण्यता से आक्रांत
प्रकृति बाध्य है
खुद ही उर्वरक से बंजर में तब्दील होने के लिए

 

10. पारायण

महावर से सजे पांव
तब्दिल हो जाते हैं
बेतरतीब नेलपॉलिश
और बिवाइयों वाले पैर में

भर भर हाथ लाल चूड़े से सजी
कलाईयों में
मायूसियों सी अटक जाती है
मात्र दो चूड़ियां

ललाट से लेकर आधे सीर तक
बीचों-बीच मांग में भरा गाढ़ा सिंदूर
सिमट कर रह जाता है
एक दाग भर

कोल्हू के बैल सी जुती
कोने कोने में रची बसी
धड़कन सी औरत
जाने कब तटस्थ होने लगती हैं

अपने अधिकारों से विरक्त
कर्त्तव्यों की लपट में
सुलगती धुंआती
गीली लकड़ी सी

एक रोज
उसके लिए कोई अंतर
शेष नहीं रहता
दिन की रौशनी में
दीवार पर लगे
मकड़ी के जालों को उतारने

और रात के अंधेरे में
पति पारायणता के नाम पर
उतनी ही निर्लिप्तता से
अपने कपड़े उतारने में


 

कवयित्री अपराजिता अनामिका, जन्म 4 मई, जन्म स्थान मुजफ्फरपुर, बिहार। शिक्षा -स्नातक, रसायन शास्त्र
सृजन – मूलतः कथाकार लेकिन कविताओं में भी दखल ।
दो कहानी संग्रह ‘आयाम’और ‘नमकीन चेहरे वाली औरत’ प्रकाशित । जिनमें प्रथम संग्रह ‘आयाम’ को सर्वभाषा ट्रस्ट द्वारा निराला पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है । कहानी संग्रह ‘नमकीन चेहरे वाली औरत’ पर काजी नजरूल विश्वविद्यालय, आसनसोल पश्चिम बंगाल में शोध प्रबंध कार्य भी हो रहा ।

संपर्क- अपराजिता अनामिका
अष्टविनायक कॉलनी रानीपुर रोड
कमानीगेट बैतूल
मध्य प्रदेश
email- aparaanamika@gmail.com

 

टिप्पणीकार गुंजन ‘विधान’
जन्मतिथि-24 मार्च 1995 बेगूसराय (बिहार)
स्नातक- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, एम. ए. राजनीति विज्ञान। कुछ साझा संग्रह, ‘कंटीले तार की तरह ‘ (वाम प्रकाशन ), कई ब्लॉग और पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित

सम्पर्क- फ़ोन- 8130730527
मेल- Vidhan2403@gmail.com

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