समकालीन जनमत
कवितासाहित्य-संस्कृति

स्त्री की व्यथा और सामर्थ्य के कवि विवेक चतुर्वेदी

जसवीर त्यागी


विवेक चतुर्वेदी समकालीन हिन्दी कविता के एक बेहतरीन कवि हैं। उनकी बड़ी खूबी यह है कि उनके स्वभाव और उनकी कविता में उतावलापन और बड़बोलापन नहीं है। वे बहुत सहज, सरल, स्वाभाविक और सामर्थ्यवान कवि हैं। पचास बरस की उम्र में उनका पहला काव्य-संग्रह ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।

विवेक चतुर्वेदी संग्रह के आरम्भ में ‘मनकही’ में लिखते हैं- ” संग्रह की कुछ कविताओं में कामकाजी स्त्री के घर लौटने की कथा है, घर से यदा-कदा ही बाहर जाने वाली स्त्री की कथा है, प्रेम में खो रही स्त्री की कथा है, अपनी उपस्थिति से ही एक मृदुल संसार रचती हुई या संघर्ष करती स्त्री की कथा है, वंचित,व्यथित, पुरुष द्वारा नितांत देह की तरह बरती गयी, और पीड़ित स्त्री की व्यथा है साथ ही साथ उस प्रेम से ही उदात्त हुए पुरुष की कथा भी है, इसमें वो पुरुष भी है जो खल है पर स्त्री मन के रहस्य में पैठ जाता है।”

इस अर्थ में कुछ पाठक विवेक चतुर्वेदी को स्त्री की सामर्थ्य और व्यथा का कवि मानते हैं।

वरिष्ठ कवि अरुण कमल ” ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ कविता को साधारण में असाधारण खोज की कविता मानते हैं, और कविता इस तरह से चौंकाती है कि हम रोज देखते हैं कि स्त्री काम से घर लौटती है,पर विवेक जैसे इस कविता में परकाया प्रवेश कर जाते हैं, और घर लौटती स्त्री के पूरे संघर्ष और सामर्थ्य में रत होते हैं।”
कविता की बानगी देखिए-

“स्त्री है.. जो प्रायः स्त्री की तरह नहीं लौटती
पत्नी,बहन,माँ या बेटी की तरह लौटती है
स्त्री है जो बस रात की
नींद में नहीं लौट सकती
उसे सुबह की चिंताओं में भी लौटना है
दरअसल एक स्त्री का घर लौटना
महज़ स्त्री का घर लौटना नहीं है
धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।”

कविता की अंतिम पंक्तियां सम्पूर्ण कविता का निचोड़ है।विवेक बखूबी जानते हैं कि स्त्री और धरती सृष्टि का आधार है।

विवेक चतुर्वेदी का संवेदना-संसार काफी विस्तृत है। उनकी काव्य-दृष्टि दूरगामी है। वे सूक्ष्म, सघन संवेदनाओं को पकड़ने में कुशल हैं। उनकी कविताओं में स्त्री-जीवन की व्यथा-कथा के अनेक रूप देखे जा सकते हैं। ‘माँ’, ‘माँ को खत’, ‘शोरूम में काम करने वाली लड़की’, ‘औरत की बात’, ‘पेंसिल की तरह बरती गयी घरेलू स्त्रियाँ’, ‘स्त्री विमर्श’, ‘पृथ्वी के साथ भी’, ‘टाइपिस्ट’ सरीखी कविताओं में घरेलू स्त्री से लेकर कामगार स्त्रियों के जीवन की व्यथा-कथा को मार्मिकता के साथ देखा गया है। इस अर्थ में विवेक चतुर्वेदी विलक्षण कवि हैं। उनकी चिंता के दायरे में माँ के साथ-साथ पिता भी आते हैं, उनकी ‘पिता’, ‘तुम आये बाबा’, ‘बाबू सुनो बाबू’, ‘पिता की याद’ शीर्षक से लिखी कविताएँ पुरुष-पीड़ा को भी संज़ीदगी से उदघाटित करती हैं।

विवेक की एक कविता है ‘दुनिया के लिए जरूरी है’। इस कविता में कवि की चिंता मनुष्यता से लेकर प्रकृति तक देखी जा सकती है, कवि जानता है कि मनुष्य को बचाने के लिए प्रकृति को बचाना अनिवार्य है, और प्रकृति तभी बच सकती है, जब मनुष्य में मनुष्यता बची रहेगी, दोनों एक दूसरे के पूरक है। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब दोनों विनाश के कगार पर होंगे।

“बहुत-सी खूबसूरत बातें
मिटती जा रही हैं दुनिया से
जैसे गौरैया, जैसे कुनकुनी धूप
जैसे बचपन, जैसे तारे
और जैसे एक आदमी
जो केवल आदमियत की जायदाद के साथ जिंदा है

और कुछ ग़ैरज़रुरी लोग न्योत लिए गये हैं
जीवन के ज्योनार में
जो बिछ गयी पंगतों को कुचलते
पत्तलों को खींचते
भूख-भूख चीखते
पूरी धरती को जीम रहे हैं।”

जीवन को ज्योनार की उपमा कोई लोक जीवन का सच्चा पारखी ही दे सकता है, और उस ज्योनार में ग़ैर ज़रूरी लोगों का शरीक होना जीवन के सम्पूर्ण स्वाद-सौंदर्य को नष्ट कर रहा है।

वरिष्ठ प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी एक कविता में पेड़ को मनुष्य का वंशज कहा है। उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए विवेक ‘पेड़ की मृत्यु पर’ कविता में कारुणिक स्वर में लिखते हैं-

“आम का एक पेड़ कट गया है
गुम गया है छोटी चिड़ियों का बसेरा
सुबह का मद्धम मधुगीत
कोलाहल में बदलता जा रहा है
धूसर होता जा रहा है
मेरी आत्मा का हरा रंग…

इस सदी की सबसे दुखद
शोकसभा में अपराधी सा
मैं खुद को खड़ा पाता हूँ
आम के एक पेड़ की मृत्यु पर।”

यह कविता सिर्फ़ आम के पेड़ की मृत्यु का शोकगान नहीं है, इसमें अन्य जीव-जंतुओं के जीवन के साथ मानव जीवन पर गहराते संकट को भी देखा गया है।

विवेक चतुर्वेदी अज्ञात पारलौकिक सत्ता के सम्मुख मानवीय श्रम-सौंदर्य को स्थापित करते हैं ‘भोर उगाता हूँ’ कविता में वे कहते हैं-

“नहीं जाता अब सुबह
मन्नतों से ऊबे, अहम में ऐंठे
पथरीले देवों के घर
उठता हूँ आँगन बुहारता हूँ
और कुछ बच्चों के लिए
एक भोर उगाता हूँ।”

वाह ! क्या बात है, सुबह उठकर आँगन बुहारना और बच्चों के लिए भोर उगाना यह विवेक का सौंदर्य बोध है।

विवेक की कविताओं में प्रकृति के अनूठे अनुपम बिम्ब बिखरे हुए हैं, जो पाठक को अनायास ही अपनी ओर खींच लेते हैं। ‘चैत की धूप’ कविता का यह दृश्य बिम्ब कितना मोहक है-

” नौजवान थानेदार चैत का
मौसम की जीप पर बैठा
फटकारता धूप का बेंत
जलती दोपहर की गली में
गश्त पर निकलता है
सहमकर खिड़की दरवाजे
बन्द हो जाते हैं।”

ऐसा ही एक अन्य आकर्षक लुभावना दृश्य बिम्ब ‘ऊन’ कविता में देखने को मिलता है-

” मौसम की दुल्हन
आख़िर बुनने लगी
गुनगुनी धूप का स्वेटर

धुन्ध में, सुबह की सलाइयों से
कुछ फंदे गिरे, टूटे फिर संभल गये
बन ही गया एक पूरा पल्ला
दोपहर की धूप का।”

विवेक चतुर्वेदी की कविताओं पर
अरुण कमल लिखते है- “विवेक चतुर्वेदी की कविताओं में सघन स्मृतियां हैं, भोगे हुए अनुभव हैं और विराट कल्पना है, इस प्रकार वे भूत, वर्तमान और भविष्य का समाहार कर पाते हैं।”

किसी भी कवि को पढ़ते हुए यह देखना चाहिए कि कवि समाज के किन लोगों के साथ खड़ा है, कवि की काव्य-दृष्टि का दायरा कितना व्यापक है? कवि अपने शब्दों से दूसरे को कितना छू पाता है? इस कसौटी पर जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि विवेक चतुर्वेदी की निगाह में स्त्रियाँ, बच्चे, बूढ़े,प्रकृति, छदम राजनीति, शोषक सत्ता और सामाजिक सरोकार तक आते हैं।

हिन्दी के प्रख्यात आलोचक डॉ नामवर सिंह जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था-“हिन्दी की वास्तविक शक्ति महानगरों में नहीं,बल्कि अंचलों में देखने को मिलती है।”

इस कथन के आलोक में जब हम विवेक की कविता को देखते हैं, तो वे अंचल और लोक के एक सफल कवि के रूप में दिखते हैं। उनकी कविता में लोक भाषा का सौंदर्य और शब्दावली कविता को एक विशिष्टता प्रदान करती है।

 

 

 

विवेक चतुर्वेदी की कविताएँ

 

1. स्त्रियां घर लौटती हैं

स्त्रियां घर लौटती हैं
पश्चिम के आकाश में
उड़ती हुई आकुल वेग से
काली चिड़ियों की पांत की तरह

स्त्रियों का घर लौटना
पुरुषों का घर लौटना नहीं है
पुरुष लौटते हैं बैठक में फिर गुसल खाने में
फिर नींद के कमरे में
स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है
वह एक साथ आंगन से
चौके तक लौट आती है

स्त्री बच्चे की भूख में
रोटी बन कर लौटती है
स्त्री लौटती है
दाल भात में.. टूटी खाट में
जतन से लगाई मसहरी में
वो आंगन की तुलसी
और कनेर में लौट आती है

स्त्री है… जो प्रायः स्त्री की तरह नहीं लौटती
पत्नी, बहन मां या बेटी की तरह लौटती है
स्त्री है…जो बस रात की नींद में नहीं लौट सकती
उसे सुबह की चिंताओं में भी लौटना होता है

स्त्री चिड़िया सी लौटती है…
और थोड़ी मिट्टी
रोज पंजों में भर लाती है
छोड़ देती है आंगन में
घर भी एक बच्चा है स्त्री के लिए
जो रोज थोड़ा और बड़ा होता है

लौटती है स्त्री.. तो घास आंगन की
हो जाती है थोड़ी और हरी
कबेलू छप्पर के
हो जाते हैं जरा और लाल
दरअसल एक स्त्री का घर लौटना
महज स्त्री का घर लौटना नहीं है
धरती का अपनी धुरी पर
लौटना है।।

 

 

2. ताले… रास्ता देखते हैं

ताले… रास्ता देखते हैं
चाबियों को याद करते हैं ताले
दरवाज़ों पर लटके हुए…
चाबियाँ घूम आती हैं
मोहल्ला, शहर या कभी-कभी पूरा देस
बीतता है दिन, हफ्ता, महीना या बरस
और ताले रास्ता देखते है।

कभी नहीं भी लौट पाती
कोई चाबी
वो जेब या बटुए के
चोर रास्तों से
निकल भागती है
रास्ते में गिर,
धूल में खो जाती है
या बस जाती है
अनजान जगहों पर।

तब कोई दूसरी चाबी
भेजी जाती है ताले के पास
उसी रूप की
पर ताले अपनी चाबी की
अस्ति को पहचानते हैं

ताले धमकाए जाते हैं,
झिंझोड़े जाते हैं,
हुमसाए जाते हैं औजारों से,
वे मंजूर करते हैं मार खाना
दरकना फिर टूट जाना
पर दूसरी चाबी से नहीं खुलते।

लटके हुए तालों को कभी
बीत जाते हैं बरसों बरस
और वे पथरा जाते हैं
जब उनकी चाबी
आती है लौटकर
पहचान जाते हैं वे
खुलने के लिए भीतर से
कसमसाते हैं
पर नहीं खुल पाते,
फिर भीगते हैं बहुत देर
स्नेह की बूंदों में
और सहसा खुलते जाते हैं
उनके भीतरी किवाड़
चाबी रेंगती है उनकी देह में
और ताले खिलखिला उठते हैं।

ताले चाबियों के साथ
रहना चाहते हैं
वो हाथों से,
दरवाजे की कुंडी पकड़
लटके नहीं रहना चाहते
वे अकेलेपन और ऊब की दुनिया के बाहर
खुलना चाहते हैं
चाबियों को याद करते हैं ताले
वे रास्ता देखते हैं।।

 

3. बंदिनी

वो चाहती है उसके हाथों से बुना गया है जो सूत का सुआ
वो उड़कर चला जाए उसके देस भरकर चिठ्ठी का भेस
जाकर बैठ जाए वो सुआ बाबू की सूखती परधनी पर
अम्मा के हाथ की परात पर
भैया की साइकिल के हैंडल पर
भाभी के कोठे की खूँटी पर
और अपनी चोंच और पैरों से छू ले वो सुआ सब
जो वो नहीं छू सकेगी अब बरसों बरस।

 

4. पिता

बार-बार दिख रहे हैं पिता आजकल
रेलवे स्टेशन पर दिखे आज
एस्केलरेटर की ओर पैर बढ़ाते और वापस खींचते
प्लेटफार्म पर पानी की जरूरत
और रेल चल पड़ने के डर के बीच खड़े…
फिर डर जीत गया
कल चौराहे पर
धुंधलाती आंखों से चीन्हते रास्ता
डिस्पेंसरी के बाहर धूप में
कांपते पैरों से लगे कतार में
एक दिन सुबह बैठे दिखे
बीड़ी फूंकते निर्जन मंदिर की सीढ़ियों पर

जब भींचे जा रहे हो घरों में
रोशनदान और दरवाजे
तब पिता और गौरेया होने की जगह
और जरूरत एक साथ खत्म होती जाती है
पढ़े जा चुके पुराने सलवटी अखबारों की तरह
बैठक से बाहर किए गए पिता की जगह
सीलन और धूल भरे बरामदे में है
उनकी खांसी सबसे अप्रिय ध्वनि की तरह सुनी गई है

पुराना पड़ चुका अपना चश्मा पोंछते पिता
एक अज्ञात मंत्र बुदबुदा रहे हैं
जिसमें हल बैल है तालाब है
खेत और उसकी मेड़ हैं
चिड़िया डराने के धोख हैं साइकिल है
भौंरा है गपनी है मेला मदार है
गौना है होली है घर लौटने पर घेरते बच्चे हैं

कंक्रीट के भयावह जंगल में
वह मंत्र खो गया है
फुटपाथ पर झरे सूखे पत्तों पर
चलते हुए पिता
कांपती आवाज में पुकार रहे हैं
और…
एक पूरी पीढ़ी अनसुना कर
बेतरह भागी जा रही है।।

 

5. भोर…होने को है

एक उनींदी रात में
नन्ही बेटी के ठंडे पैर
अपने हाथों में रखकर
ऊष्म करता हूँ
और मेरी जीवन ऊर्जा
न जाने कैसे
विराट हो जाती है

मैं अनुभव करता हूँ
कि भोर मेरे ये हाथ
फैल जाएँगे
मै सूर्य से ऊष्मा लेकर पृथ्वी तक पहुँचाउंगा
पृथ्वी हो जाएगी एक छोटा अंडा
और मेरे हाथ
शतुरमुर्ग के परों से विशाल…
मैं सेऊँगा पृथ्वी को
और गोल पृथ्वी से निकल आएंगी असंख्य छोटी पृथ्वियाँ

पृथ्वियाँ … जिनमें हैं बस
जंगल,नदी,पहाड़ और चिड़ियाएँ
है आदमी भी,पर बस
अमलतास के फूल की तरह
कहीं कहीं
दानवीय मशीनें नहीं,
न कोई शस्त्र
पूरी पृथ्वी एक सी हरी
न भय,न भूख
न दिल्ली, न लाहौर
न चन्द्रमा पर जाने की हूक

औरत भी सोनजुही के फूल सी खिली
गहाती गेहूँ
धूप के आँगन में
नेह की आँच से सेंकती रोटी
खुले स्तनों से निश्चिंत
पिलाती बच्चे को दूध

बेटी के ठंडे पैरों को
मेरे हाथ की ऊष्मा
मिलने से वो सो चुकी है
और उसके सपनों के
हरे मैदान की बागुड़ को
फाँद कर
छोटी छोटी पृथ्वियाँ
दाखिल हो रही हैं खेलने
हालांकि आकाशगंगा में
घूमते कुछ नए हत्यारे
नन्ही पृथ्वियों को
घूरते हुऐ आ खड़े हुए हैं
पर बेखबर नन्हीं पृथ्वियाँ
रंगीन फूल वाली
फ्राक पहने सितोलिया
खेल रही हैं
नन्ही बेटी इन्हें देखकर नींद में
मुस्कुरा रही है
भोर… होने को है ।।

 

6. औरत की बात

लड़की दौड़ती है तो
थोड़ी तेज हो जाती है
धरती की चाल
औरत टाँक रही है
बच्चे के अँगरखे पर
सुनहरा गोट…
और गर्म हो चली है
सूरज की आग
बुढ़िया ढार रही है
तुलसी के बिरवे पर जल
तो और हरे हो चले हैं
सारे जंगल…
पेट में बच्चा लिए
प्राग इतिहास की
गुफा में बैठी औरत
बस ..बाहर देख रही है
और खेत के खेत सुनहरे
गेहूँ के ढेर में बदलते जा रहे हैं…।।

 

7. दुनिया के लिए जरूरी है

बहुत सी खूबसूरत बातें
मिटती जा रही हैं दुनिया से
जैसे गौरैया
जैसे कुनकुनी धूप
जैसे बचपन
जैसे तारे
और जैसे एक आदमी, जो केवल आदमियत की जायदाद के साथ जिंदा है

और कुछ गैरजरूरी लोग न्योत लिए गए हैं
जीवन के ज्योनार में
जो बिछ गई पंगतों को कुचलते
पत्तलों को खींचते
भूख -भूख चीखते
पूरी धरती को जीम रहे हैंं

सुनो..दुनिया के लिए जरूरी नहीं है मिसाइल
जरूरी नहीं है अंतरिक्ष की खूँटी में अपने अहम को टांगने के लिए भेजे गए उपग्रह
जरूरी नहीं है दानवों सी चीखती मशीनें
हाँ.. क्यों जरूरी है मंगल पर पानी की खोज?

जरूरी है तो आदमी ..नंगा और आदिम
हाड़ -माँस का..
रोने -धोने का..
योग -वियोग का..
शोक -अशोक का..
एक निरा आदमी
जो धरती के नक्शे से
गायब होता जा रहा है
उसकी जगह उपज आईं हैं बहुत सी दूसरी प्रजातियाँ उसके जैसी
पर जिनमें आदमी के बीज तो बिल्कुल नहीं हैं

इस दुनिया के लिए जरूरी हैं
पानी, पहाड़ और जंगल
जरूरी है हवा और उसमें नमी
कुनकुनी धूप, बचपन और
तारे.. बहुत सारे ..।।

 

8. माँ

बहुत बरस पहले
हम बच्चे आँगन में
माँ को घेर के बैठ जाते
माँ सिंदूरी आम की
फाँके काटती
हम देखते रहते
कोई फाँक छोटी तो नहीं
पर न जाने कैसे
बिल्कुल बराबर काटती माँ
हमें बाँट देती

खुद गुही लेती
जिसमें जरा सा ही आम होता
छोटा रोता -मेरी फाँक छोटी है
माँ उसे अपनी गुही भी दे देती
छोटा खुश हो जाता
आँख बंद कर गुही चूसता

उस सिंदूरी आम की फाँक
आज की रात चाँद हो गई है

पर अब माँ नहीं है
वो चाँद में बहुत दूर
स्याह रेख सी
दिखाई पड़ती है

माँ चाँद के आँगन में बैठी है
अब वो दुनिया भर के
बच्चों के लिए
आम की फाँक काट रही है।।

 

9. पृथ्वी के साथ भी..

पुरुषों से भरा वह टेम्पो रुका
और कोने की खाली जगह में
सकुचा कर बैठ गई है एक स्त्री
सहसा… थम गऐ हैं
पुरुषों के बेलगाम बोल
सुथर गई है देहभाषा
एक अनकही सुगंध का सूत
रफू कर रहा है पाशविकता के छेद
अनुभूति दूब सी हरी हो चली है
कुछ ऐसा ही तो हुआ होगा
शुरु शुरु में
दहकती पृथ्वी के साथ भी।।

 

10. टाइपिस्ट

मैंने कहा ‘बचपन’
उसकी उंगलियां हिरन हो गईं
मैंने ‘पिता’ कहा…टाइप किया उसने पिता पर भरा नहीं मन…वो अक्षरों को बड़ा करती गई कहा ‘मां’..और उसकी स्मृति खोजने लगी
एक मुलायम लिपि
जब ‘ सहेलियां ‘ कहा
तो खेलती दिखीं उसकी चूड़ियां
‘प्रेम’ कहा ‌‌मैंने और…
उसकी उंगलियां सहसा कीबोर्ड पर ठहर गईं फिर ‘शादी’ कहा… तो होने लगीं उसके टाइप में गलतियां
मैंने ‘मां और दूध पीता बच्चा’ लिखाना चाहा
तो वो टाइप कर न सकी… भर आईं उसकी आंखें मैं रुका… फिर कहा, लिखो…’औरत का हक’ पर लफ्ज़ हैरत से गुमने लगे
फिर मैंने ‘एक छोड़ी हुई औरत’ कहा ‌‌ उसकी उंगलियां लड़खड़ाईं और धुंधला गया सब फिर वो देर तक खाली स्क्रीन को घूरती रही और कांपते हाथों से टाइप किया ‘ हिम्मत’
फिर एक बार ‘हिम्मत’.. फिर तो उड़ने लगीं
उसकी उंगलियां..
सारा पेज उसकी ‘हिम्मत’ से भर गया।।

11. मीठी नीम

एक गंध ऐसी होती है
जो अन्तर में बस जाती है
गुलाब सी नहीं…
चन्दन सी नहीं…
ये तो हैं बहुत अभिजात
मीठी नीम सी होती है
तुम ऐसी ही एक गंध हो।।

12. तुमने लगाया था

तुमने लगाया था
जो मेरे साथ
एक आम का पेड़
तुम्हारा होना उस पेड़ में
आम की मिठास बनके
बौरा गया है

चूसते समय जो उठी है
खट्टी लहर वो मेरी है
आम की गुदाज़ देह का
पीलापन तुम्हारा है
तुम्हारी ही हैं
घनी हरी पत्तियाँ

और वो जो नन्ही सी नर्म गुही है हम दोनों के बीच
वो अँकुआने को मचलता जीवन है
पेड़ का तना और कठोर छाल मैं हूँ
पर गीली मिट्टी को दूर दूर तक बाँधने वाली जड़ें तो तुम ही हो

आज आसाढ़ की पहली बारिश में भीगकर
ये आम का पेड़ लहालोट हो गया है
पत्तियों की पूरी देह को छूकर टप टप बरस रहा है पानी
छाल तरबतर हो दरक रही है
पर फिर भी हम
कुछ राहगीरों के लिए
इस तेज बारिश में
छत हुए हैं
एक राहगीर के बच्चे की
रस छोड़ती जीभ को पढ़
तुम टप से गिर पड़ी हो
खुल पड़े हैं तुम्हारे ओंठ
बच्चा तुमको दोनों हाथों में थामकर चूस रहा है
और तुम्हारी छातियाँ
किसी अजस्र रस से
उफना गई हैं

एक कोयल ने अभी अभी
कहा है अलविदा
अब वो बसेरा करेगी
जब पीले फागुन सी
बौर आएगी अगले बरस

हम अपनी जड़ों के जूते
मिट्टी में सनाए
खड़े रहेंगे बरसों बरस
मैं अपने छाल होने के खुरदरेपन से तुम्हारी थकी देह सहलाता रहूँगा
पर सो न जाना तुम

कभी रस हो जाएंगे फल
घनी उदासी से लिपट कर
रोने हो जाएगा तना
कभी बहुत बड़ी छाती

ठिठुरती ठंड में सुलगकर आँच हो जाएंगी टहनियां
छाँव हो जाएंगी हरी
पत्तियाँ

कभी सूखकर ये
पतझड़ की आंधियों में जाएंंगी
उनके साथ हम भी तो
मीलों दूर जाएंगे
गोधूलि… तक हम कितनी दूर जाएंगे
तुमने लगाया था जो मेरे साथ एक आम का पेड़।

 

(कवि विवेक चतुर्वेदी, जन्मतिथि – 03-11-1969
शिक्षा – स्नातकोत्तर (ललित कला) कविता संग्रह – ‘‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’’ (वाणी प्रकाशन)

संप्रति: प्रशिक्षण समन्वयक, लर्निंग रिसोर्स डेवलपमेंट सेंटर, कलानिकेतन पाॅलिटेक्निक महाविद्यालय, जबलपुर
पता – 1254, एच.बी. महाविद्यालय के पास, विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.) 482002
फोन – 9039087291
ईमेल – vchaturvedijbp@gmail.com

टिप्पणीकार हिन्दी अकादमी दिल्ली के नवोदित लेखक पुरस्कार से सम्मानित कवि जसवीर त्यागी  दिल्ली के गाँव बूढ़ेला, विकासपुरी, दिल्ली के रहने वाले हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज के हिंदी-विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ व लेख प्रकाशित। ‘अभी भी दुनिया में’ शीर्षक नाम से एक काव्य-संग्रह प्रकाशित। कुछ कविताएँ पंजाबी, तेलुगू, गुजराती भाषाओं में अनूदित। हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा पर, ‘सचेतक और डॉ. रामविलास शर्मा’ शीर्षक से पुस्तक का तीन खण्डों में  सह -सम्पादन

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ईमेल-drjasvirtyagi@gmail.com)

 

 

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