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कविता

विमल भाई की कविताएँ क्वीयर कविता के संघर्ष और सौंदर्यबोध की बानगी हैं

अखिल कत्याल


विमल भाई, अलविदा!

कुछ एक साल पहले की बात है। अपनी मित्र अदिति अंगिरस के साथ मैं एक ‘क्वीयर कविताओं’ के संग्रह का सम्पादन कर रहा था। साउथ एशिया के कई कोनों से, भिन्न भिन्न भाषाओं में कविताएँ आना शुरू हो गयी थीं। इसी बीच में विमल भाई की भी ईमेल आयी, पाँच हिंदी कविताओं के संग, तो हम दोनों बेहद ख़ुश हुए।

विमल भाई से कई बार दिल्ली प्राइड परेड के आयोजन के वक़्त मिला करता था। काफी हँसी-मज़ाक़ उनके साथ होता था। कभी-कभी हम भीड़ के किनारे साथ खड़े होकर गपियाते और औरों को निहारा करते। कभी विमल भाई मुझ पर गुस्सियाते की मोटे हो रहे हो, कुछ करो। और फिर बखान करते अपनी चाहतों में तल्लीन किसी परफेक्ट मर्द के शरीर का। हम कभी ठहाके लगा कर हँसते और कभी एक दूसरे की पीठ थपथपा ये कहते, ये दाल नहीं गलने वाली, विमल भाई। ऐसे मर्द सिर्फ सपनों में रहते हैं।

विमल भाई की कविताएँ पढ़ीं तो मज़ा भी आया और धक्का भी लगा। उसमें वो सारी चाहतें थीं जिनका वो कभी हँसते हँसते तो कभी पूरे जोश-ओ-ख़रोश से ब्योरा देते थे, पर इन कविताओं में कुछ और भी था। उनमें डर था। पास-पड़ोस वालों से बेज़्ज़ती का डर, अपने ही गली वाले अगर जान गए तो क्या होगा, गली-मोहल्ला छोड़ना होगा, इन सबका डर था, पता नहीं कितने घिनौने नामों और गालियों का डर लिए कविता लिखी थी। कविताओं में असामनता के ख़िलाफ़ चरम रोष था, सामाजिक गरिमा और आदर के लिए एक तड़प थी। किसी एक कविता में इतनी लालसा, इतना वात्सल्य, और दूसरी उतनी ही भयभीत और आक्रोशित।

इन सब को साथ में पढ़ कर उनके व्यक्तित्व के बारे में और पता चला, जो केवल हँसी-मज़ाक से नहीं पता चलता। लगा प्राइड परेड के दौरान वो सभी डर कहीं छोड़ आया करते थे लेकिन शायद घर वापस जाते-जाते, उसमें से कुछ वापस भी उठा लिया करते थे। तकिये के नीचे रखते थे। ज़हन में बसा लेते थे। कितनों की तरह, हमारी-आपकी तरह, एक जगह व्याकुलता तो एक जगह आज़ादी का एहसास करते थे।

अदिति और मैंने एक कविता चुनी, ‘विश्रांति’, अनुवाद के लिए। मैंने ही अनुवाद किया। बहुत मज़ा आया। कविता रस ले कर लिखी गयी थी। कोशिश की कि अनुवाद में भी थोड़ा सा रस टपक जाए। विमल भाई की सहमति के लिए उनको अनुवाद भेजा। विमल भाई का फ़ोन आया, “अखिल, अंग्रेजी में कविता कुछ ज़यादा ही सैक्सी हो गयी है।” हँस भी रहे थे, चिंता भी साझा कर रहे थे। “पर विमल भाई, आपने कविता ही इतनी सैक्सी लिखी है।” मान गए जैसे मानने के ही इंतज़ार में थे.. कोई मनवा ले और वो मान जाएँ। मानों अच्छा लग रहा था की किसी ने सैक्सीनेस की रग भी पकड़ ली।

विमल भाई गांधीवादी थे। हाल ही में एक दोस्त ने टिप्पणी की उस जनरेशन के गांधीवादियों की ‘डिज़ायर’ के बारे में कोई बात नहीं करता। कोई बात नहीं करता तो विमल भाई ने अपनी कविताओं से यह बात करवा ली।

विमल भाई कितने ही सामाजिक और इकोलॉजिकल जन-आंदलनों का हिस्सा रहे। बिग डैम्स के खतरों के ख़िलाफ़ और उनके कारण विस्थापित लोगों के संग डटे रहे। टिहरी डैम विरोध में और नर्मदा बचाओ आंदोलन का हिस्सा बने। अपने काम के चलते गाँव-शहर दोनों के हुए। ‘पब्लिक पर्सोना’ बड़ी अजीब चीज़ होती है। लोग आपको कैसे देखेंगे इसकी चिंता बहुतों को सताती है। खासकर यह बात की अगर सैक्स-डिज़ायर इत्यादि के बारे में खुले-मन से सार्वजनिक तौर पर बात की तो मानो किसी कारणवश आपको बाकी आंदोलनों में ‘सीरियसली’ नहीं लिया जायेगा। यह भी दौर किसी हद तक बदला। बदलाव लाने वालों में विमल भाई का नाम शुमार हुआ। वह कितने ही जन-आंदोलनों के बीच पुल बने। एक आंदोलन के विमर्श को दूसरे तक पहुँचाया, वहाँ से भी नया कुछ वापस लाया। यह बड़ी बात है। आसानी से नहीं होती।

अब यह हिमालय की संतान, नदियों का शुभचिंतक, जन-जन का समर्थक, आज़ादी के दिन 15 अगस्त 2022 को हमें छोड़ दूर चला गया है। अपने जीवन भर के प्रेरणादायक काम की विरासत और कुछ कविताएँ हमारे पास छोड़कर। जिन्हें समकालीन जनमत के प्लेटफॉर्म के माध्यम से आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ विमल भाई के प्रति यही मेरी श्रद्धाजंलि है।  विमल भाई, अलविदा!

विमल भाई की कविताएँ

1. तीसरा सत्य

सुनो लड़के,
क्या तुम हर स्त्री / लड़की से
संबध चाहते हो?
नहीं!

सुनो लड़की,
क्या तुम हर आदमी-लड़के से
संबध चाहती हो?
नहीं!

मैं समलैंगिक,
यदि पुरूष शरीर में हूँ
तो क्या मैं हर पुरूष के पीछे हूँ ?
नहीं! नहीं!! नहीं!
मेरी भी पसंद है।
इच्छा है।
चाहना है।
तुम्हारे प्यार का आदर है उच्चता है।
तो सुनो मेरी भी गरिमा है
सम्मान है।

 

 

 

 

 

 

 

 

2. विश्रांति

कोमल से होठों पर फूटती मसें
और वक्ष के कटाव
झलकते,
जो तुम्हारे कपड़ों से
या बलिष्ठ जांघो में मदमाती
देह
सब ओर से तुम सुंदर हो।
मेरे करीब आओ मैं चाहता हूँ
तुम्हें अपनी भावनाओं के
उच्छ्वासों के घेरे में
कैदकर लूँ।
तुम्हारी ग्रीवा को अपने
बेचैन होठों पर रख
अपने अशांत इतिहास को
विश्रांति दे दूँ
सुनो मीत कैसे मिलेंगे हम?

 

3. समानता

हाँ! समाज ने कहीं धिक्कारा।
मेरे अपनो ने,
उठाये प्रश्न
नैतिकता के उठाये वज्र
मानो मैं कातिल हूँ
मानो मैंने किया हो बलात्कार
या मैंने किये हों घोटाले
पर ये सब भी कहीं निश्चित है

मैं ही परेशान हूँ
भयग्रस्त हूँ
मैं पहचाना गया तो ?
उंगली उठेगी मेरे मेहमानों पर
मकान ही नहीं
गली, मुहल्ला छोड़ना होगा
वो मुझे घिनौने नामों से
पुकारेंगे

मेरी इच्छायें अनैतिक, असभ्य
जंगली, अप्राकृतिक घोषित हुईं
मेरा कुसूर है
मैं स्वीकारना चाहता हूँ
मेरे अंदर एक व्यत्तित्व है
जो स्त्री-पुरूष को
उनसे ज़्यादा समानता देता है

 

 

 

 

 

 

4. कविता

मैं चाहता हूँ देना आवाज़,
कविता तुम्हारे साथ
जुड़ा है बड़ा प्रश्न
समाज चिंतित है कि…….
कलियुग आ गया है,
व्यक्तिवाद बढ़ रहा है,
मूल्यों की स्थापित नींवे
गिर रही हैं।
क्या होगा?

कविता चिंतित! मैं भी हूँं।
क्या ये स्त्री-पुरूषों का समाज,
मेरी आवाज़ को फ़िर देगा दबा?
कैसे? कैसे? डरौने है इनके
इनका ही समाज,
आर्दश, इनके ही।
मल्य, इनके ही।
फ़िर कानून?
इनका ही।
तो?
इस भँवर से,
निकालनी है
आवाज़ मुझे।

कविता, मेरे शब्दों की-
स्थापना,
भावनाओं की,
गुँथी माला,
साथ दोगी न मेरा?

5. स्वीकार

मन कहता है
जोर से चीख मारूँ
चौराहे के सिपाही को हटाकर
रोक दूँ सारा ट्रैफिक
समानता का नारा देने वालों का
थाम लूँ गिरेबाँ
कह दूँ बदल लो अपनी
परिभाषाएँ
इस धरती पर मैं भी हूँ।
मुझे भी करो स्वीकार
बंदिशों में घुटता है मेरा
व्यक्त्वि।
तुम नैतिकता के मुल्लमें में
चिपकाये हो
झूठा दम्भ
हाँ मैं समलैंगिक हूँ
मुझे मेरा अधिकार चाहिये
मानवाधिकार चाहिये
सबसे महत्वपूर्ण
मुझे आपका स्वीकार चाहिये।

 

 

हाँ मैं कहना चाहता हूँ

मेरा मन ललकता है
किसी सुडौल मर्द को देखकर
चौड़े वक्ष पर सीना रखने की
तमन्ना होती है
देह के कसाव किसी
कमसिन छोकरे के साथ
नरम पड़ते हैं

क्या फ़र्क़ हैं मेरे में
तुमसे ज़्यादा
मैं समान धर्मी हूँ
किसने दिया तुम्हें
ये अधिकार
मैं पापी और तुम भले
रचते हो मेरे लिए
न्याय की अदालतें
बनाकर रखी कानून की पोथियाँ।
किन्तु मैं हूँ सत्य।

 

 

 

 

विमल भाई (1962-2022) पर्यावरण और शांति के मुद्दों से जुड़े आंदोलनों में जीवन भर कार्यरत रहे। बड़े डैम्स से विस्थापित लोगों के हकों के लिए लड़ते रहे, चाहे टिहरी डैम हो या नर्मदा बचाओ आंदोलन। अपने ट्विटर बायो में अपने आप को “आंदोलनजीवी” बताते थे। “भक्त” नहीं, अपने आप को “देशभक्त” मानते थे। हिमालय और नदियों के प्रेमी, मानवता में विश्वास करने वाले, विमल भाई कवि भी थे।

टिप्पणीकार अखिल कत्याल कवि और अनुवादक हैं। वह दिल्ली में रहते हैं। ‘हाउ मैनी कंट्रीज़ डज़ द इंडस क्रॉस’ और ‘लाइक ब्लड ऑन द बिटेन टंग: डेल्ही पोयम्स” उनके कविता संग्रहों में से हैं।

सम्पर्क: akhilkatyal@gmail.com

 

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