समकालीन जनमत
कविता

वसुंधरा यादव की कविताएँ मनुष्य-जीवन के संगीत के प्रति सघन आस्था से लबरेज़ हैं

तनुज कुमार


कविता की दुनिया में रचनात्मक कदम-ताल की इतिश्री के कई रास्ते हैं.

यहाँ अभिजात्य और कुरूप के बीच द्वंद्व भी है और साम्य भी और जब हम यहाँ इसे लगभग डेढ़ सौ सालों की आधुनिक हिन्दी कविता के विभिन्न अंतर्विरोधों के विकास के उपक्रम को केंद्र में रखकर समझने की कोशिश करते हैं तो इन विविधताओं के भीतर का आंतरिक तनाव इसकी जटिलता बढ़ती हुई नज़र आती है.

ऐसे में कोई बिल्कुल ही नया-नवेला कवि जब भाषा के भीतर ज्ञात-अज्ञात ढंग से परिवेश के प्रति आकर्षण या विक्षोभ से, उदात्त से या विलगाव से अपनी उपस्थिति की मुनादी पिटवाता हुआ आता है, तो यह लहजा बेहद आश्वस्तकारी और कॉमरेडाना लगने लगता है.

वसुंधरा की विलक्षण उपस्थिति इसी तरह की एक समझदारी भरी उपस्थिति है, जहाँ से कविता परम्परा के उद्विकास के एस्थेटिक तो मौज़ूद दिखते हैं, मगर वह एकांतिक बेचैनी भी सूत्रपात होती दिखती है जो भाषा, वाक्य-विन्यास और रुप तत्व के भीतर नवीनता का उन्नयन करती मिलती है और यह एकान्त राज्य और व्यवस्था द्वारा नियोजित कोई कलावादी, जन-निरपेक्ष फूहड़ एकान्त नहीं है, बल्कि यह मनुष्य-जीवन के संगीत के प्रति सघन आस्था और सहानुभूति से लबरेज़ दिखता है, जो वसुंधरा की भाषा को एक ख़ास तरह की साफ़गोई की तरफ भी ले चलता है.

यह आकस्मिकता ही है कि कोई नया कवि कोई जो सामयिक-दृश्यों की इतनी गम्भीर पुनर्रचना कर रहा होता हो, उसके विचार-परिवार का आभास तो कविता में सतत मिलता हो लेकिन उसका शिल्प और शैली किसी पुराने स्थापित प्रभावों से नितान्त मुक्त और मौलिक हो.

… अपनी पहली कविता में ही वसुंधरा ‘मलाला के ऊपर तालिबानियों के द्वारा गोली चलाए जाने’ से की तुलना ‘ख़ुद के साथ हो रहे अकादमिक अन्याय’ से करती है.

वसुंधरा जैसी नए स्वर की कविताओं के भीतर जब यथार्थ को अपने कलात्मक हथौड़े से ठोंक-पीटकर पेश करने की ज़िद और अक्लमंदी दिखती हों, तो यह सोचना कितना आह्लादकारी है कि उन्हें जब और अधिक समृद्ध अनुभव संसार मिलेगा, तो भविष्य में कितना फैलता और खिलता जाएगा.

अंधेरे समय की राजनीतिक-समाजिक-आर्थिक परिभाषा से परिचित कोई सुचिंतित कवि ही अपनी कविता के माध्यम से “उन्मुक्त अंधेरे की मांग” की बात कर रहा होगा..
जैसे बक़ौल बर्तोल्त ब्रेख़्त “अंधेरे समय में अंधेरे के खिलाफ़ गीत” गाए जाने की उत्तेजना यहाँ आप ही स्वतःस्फूर्त रुप से फूट पड़ी हो और इस वजह से जीवन और उन्माद की नैसर्गिक लहरें अब भी कवि-मन के विराटसागर को झंकृत कर दें…

 

वसुंधरा की कविताएँ

 

1
मेरी पहली कहानी में
मलाया नाम की चिड़िया के पंख नोचे गये
चीख जेहन में बैठ गयी
मेरी आखिरी कहानी से पहले
देश के चार विश्वविद्यालयों ने
मेरे पंख कुतर दिये
दर्द मेरे रगो में समा गया
मेरे सपनो की लगाम खींच ली गयी
मेरी मुठ्ठी से धरती फिसल गयी
मुझे खींचकर वहां बिठा दिया गया
जहां असफतायें
कलेजे में धक से उतर जाती है
और आहिस्ता आहिस्ता जहरबाद की तरह
फैलकर खा जाती है सपनों की फेहरिस्त
हमें इस तरह गढ़ा गया था कि हमने
वो कर्ज भी चुकाये जिनके जिम्मेदार हम नहीं थे ।

 

2
जब हम बारिश में ढूंढ रहे होते हैं सर छिपाने की जगह
नाई की दुकान के नीचे
पान वाले के चबूतरे पर
और घाट पर भीग रहे होते हैं अनगिनत मेहमान
विदेशी पर्यटक , बच्चे ,बूढ़े जवान
मॉ की गोद में सोते बच्चे चिहुंक कर जाग चुके होते हैं
और हम उस बेवक्त की बारिश में भीग रहे होते हैं
पड़ोसी की आधी छतरी के नीचे भीगते हम
और हमारे मकान
इस दुनिया में कितना सहज है
हमारा और हमारे मकानों का साथ साथ भीगना ।

 

3
यह हमारी भूखी पीढ़ी का अंतिम पूर्वज है
जो खाट पर लेटकर गीत गाता है सूखे के ।
सूखे के दिनों में उसने गीत गाकर जिंदा रखा खुद को
और बबूल की छाल खाकर बचा ली अपनी भूख
अपने भाई की पीठ पर जन्मी छोटी बहन की लाश
उसने कांधे पर नहीं हाथों में उठाई
और उस दिन मर गयी भूख
जब अनाज अपने आखिरी विदागीत गाता है
मेरा यह अंतिम पूर्वज भूख गाता है
भूख जिंदा है तो कहीं अनाज जिंदा है ।
मेरे अंतिम पूर्वज की आंखों में
जब भी भूख ठहरती है आंखे बाढ़ हो जाती है
और तब हमारा यह अंतिम पूर्वज
ताख पर अनाज रखकर सबकी भूख बचाता है ।

 

4
यकीनन वो चाॅंद के शफ़्फ़ाक सीने थे
जिनके करीब लोरियॉं सुननी थी मुझे
और मेरे मित्र सुनी भी मैनें
कितनी बार चॉंद के सीने लगकर
मैंने अपनी नयी पेंसिल के उत्साह को भुला दिया
कितनी बार मांगी मनौतियॉं कुशलता की
पर चॉंद के उस सफ्फाक सीने को
जिस्म की नुमाईश करते देखना मेरे मित्र
दुखद है बहुत दुखद
और उस बीच जब कि तुम
किसी नॉवेल के अधफटे पन्नौ से
चुरा लाये हो उक्तियॉं
वेरा उन सपनों की कथा कहो ।

 

5
मेरे रहते
चीजे कितना बदल गयी
माँ कमाने लगी पैसा
करने लगी मजदूरी
पिता ने झोंक दिया खुद को पैसे की भट्ठी में
दादी पकाने लगी गैस पर खाना
मेरे रहते
मवेशियो मे से चार मवेशी
सिधार गये परलोक
बिना किसी भेदभाव के
मेरे रहते
शहर मे हो गया दंगा
जला दिये गये लाखो आशियाने
लुट गयी लडकियों की इज्जत
मुझे खबर तब लगी
जब छोटी बहन बदसूरत शक्ल लिये देख रही थी आइना
तेजाब के बेरंग चेहरे पर
पानी की प्यास बहुत अखरती है
उसने ऐसा कहा था ।

 

6
मेरा एक जुडवां भाई था
जिसने मेरी मां से नहीं मुझसे की बेईमानी
और ले गया मेरा आधा शरीर
मेरे आधे शरीर का कर्ज है
उस मिट्टी पर
जिसे खोदकर मैंने
खुद को पूरा करना चाहा
दफनाया भी उसे उस वक्त गया
जब ना तो मेरी दादी ने थाली पीटी
ना रो सकी दहाड़े मारकर
कुछ उदास लोगों ने
उस बंद आंख वाले बेहद उदास बच्चे पर
तब आखिरी मिट्टी डाली
जब मैं अपनी मां के बगल में लेटकर
आधा दर्द बांट रही थी
मेरी मां ने कराहते हुए
उसके हिस्से का भी दूध पिलाया मुझे
जब भी मां दुखी होती है
मैं अपने उस आधे भाई की कर्जदार हो जाती हूं ।

 

7
आधे भाई के नाम

मिट्टी बहुत सख्त हो गई है मेरे भाई- तुम्हारी हथेलियों पर
बहुत भारी हो गई है इन दिनों तुम्हारी छाती पर उगी घास
तुम्हारी अधखुली आंखों पर घूमती है कई रंगीन तितलियां
तुम्हारे माथे पर अधूरे उगते मां के चुम्बन की ख्वाहिश ।
मेरे भाई पूरा प्रेम आधा अहसान बन गया है इन दिनों ।
जब भी हिस्से से ज्यादा कुछ भी मिलता है
मेरी हथेलियों पर बढ़ जाता है तुम्हारी हथेलियों का वजन ।

 

8
(उस वक्त जब स्कूल से आने पर पता चलता कि माँ आज फिर से मामा के घर चली गयी तो हमारी शामें कुछ ज्यादा ही सर्द हो जाया करती)

माँ तू कहाँ गयी है
अब जब कि मैं भूखी हूँ
रात और दिन की सारी सर्द हवायें मेरा पीछा कर रही हैं
तू कहाँ है
इब जब कि मैं दूर विचरने के ख्वाब पाल रही हूं
तू मेरे दरवाजे पर दस्तक दे
मेरे अनछुये पहलुओं को उजागर कर
ओ माँ
बैठ यहीं कहीं मत जा
बहुत सर्द है ये बादल
इनके पीछे तुम मत छुपना
तुम वक्त के हाथों मे पिघलो मत माँ
वक्त से प्रेम करो वक्त को जीओ
धरती की सतह पर उगने दो अपनी जिजीविषा के फूल
और उन्हें बचाकर रखो
ओ माँ यदि मै तुमसे मिलना चाहूँ तो
इस कदर मिलना जैसे
तुम पेडो़ की साखो पर बैठकर वक्त को
बहुत पीछे छोड़ आयी हो!

 

9
हर कविता अपने में पूर्ण होती है
चाहे वह संबंधों की कविता हो या आँसुओं की
दरारों की कविताएं प्रायः अपना सही रूप प्रकट नही कर पाती
सूरज की बातें करती कविताएं और
चाँद पर टिप्पणी करती कविताएं वक्त के हाथों पिट चुकी हैं।
अपने सफल होने की कोशिश में कुछ कविताएं
बहुत कडवी सच्चाईयाँ उगलती हैं
उन्हें मानवतावादी कविता की उपाधि दी जाती है
चौके बर्तन के बीच की कविताएं उन्हें जितना सिमटना था
वे सिमट चुकी है
अब भाई बहन के बीच की कविताएं कहाँ तक अपना
अस्तित्व बनाये रहने की कोशिश करती
तदापि वह पूर्णता प्राप्त करते हुए
एक अपूर्ण और अधूरी कविता बन कर रह गयी |

 

10

भूख इतनी बढ़ गयी है फर्क मुश्किल है
भूख और‌ प्यास के बीच
मरुभूमि सी धधकती आग में
पानी शांति के अग्रद्रूत जैसा खडा‌ है
जहां जहां भूख जन्मी आदमी प्यास से मारा गया
दादी अंतिम बार अपने पोते से मांगती है पानी
पोता जानता है दादी प्यास से नहीं भूख से मरी है
भूख से तिलमिलाते लोग अक्सर पानी को देखते मारे जाते हैं ।

 

11
घरौंदो के इतिहास में
नर्म हाथों के साथ गीली मिट्टी के
वे‌ निंदियाए चेहरे हैं
जिनकी कला से बनते हैं तुम्हारे घर
उनके हाथों से फिसलते घरौंदो के
बीच आ गये है तुम्हारे ईंट पत्थरों के घर
बच्चों के इतिहास में
घरौंदो का जिक्र
तुम्हारी पसंदीदा किताब के अच्छरों
में मार दिया गया
और बिगड़ैल बच्चों की आंखों से टपकते हैं
आंसू तुम्हारे घरों की छत से ।

 

12
बहुत दिन हो गये है
उन्मुक्त अंधेरे को देखे हुये
जब चाहा कर लिया अंधेरा
और सो गये आराम से
तो क्या अंधेरा उजाले की थकन है
या उजाला अंधेरे की
कल जाना है छत पर अंधेरा देखने
रात में उगने वाले तारों को देखने
कितने दिन हो गये है तुम्हें देखे हुए
क्या तुमने कभी नहीं किया हमारा इंतजार
या फिर मेरे हिस्से के नखत
मेरी अम्मा रात भर गिनती रहती है
अनिंद्रा भरी आँखों से
शायद तभी नहीं किया गया इंतजार ।


कवयित्री वसुंधरा यादव, जन्म तिथि: 20 जुलाई 2000
जन्म स्थान: सीतापुर (उत्तर प्रदेश), शैक्षिक योग्यता: बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक एवं स्नातकोत्तर

वर्तमान : हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधार्थी
मोबाइल नंबर: 7755844574
ईमेल: vasundhara.stp@gmail.com

 

टिप्पणीकार तनुज वर्तमान में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के मराठी विभाग में शोधरत हैं।

वे भी कविता लिखते हैं और इसके साथ विश्व कविता और अनुवाद में उनकी गहरी रुचि हैं।

सम्पर्क: 96938 67441

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