समकालीन जनमत
कविता

वासुकि प्रसाद ‘उन्मत्त’ की कविता जीवन की प्रतिक्रिया से कविता की प्रक्रिया तक ज़रूरी और नैसर्गिक यात्रा है

आलोक कुमार श्रीवास्तव


इस कठिन और चुनौतीपूर्ण समय में साहित्यिक हस्तक्षेप कैसा हो, यह बात हर लोकतंत्र-प्रेमी साहित्यिक सोचता है।

धूर्त सत्ता द्वारा जनता के सामने खड़ी की गई चुनौतियों की प्रतिक्रिया जीवन से लेकर साहित्य तक में बिल्कुल नैसर्गिक होगी। जैसे किसानों का आंदोलन है, जैसे गर्मी के बावजूद पेड़ों में निकल रही नई कोंपलें हैं।

जीवन की प्रतिक्रिया से लेकर कविता की प्रक्रिया तक में सब कुछ जरूरी और नैसर्गिक होता है। मौजूदा निरंकुश शासन के दौर के पिछले कुछ समय में वासुकी प्रसाद ‘उन्मत्त’ की कविताएँ इसी ज़रूरत की नैसर्गिक उपज हैं।

इस नैसर्गिक उपज का कमाल यह है कि ये जीवन और साहित्य को एक कर देती है। मान लीजिए कि जीवन में प्रेम का भाव है, तो वही प्रेम की लय कविता की लय बन जाती है।

कविता अनायास ही गीतात्मक हो उठती है – लिरिकल। एक नशा-सा छाई हो कविता इसका क्लासिक उदाहरण है।

ऐसे ही किसानों के आंदोलन के पक्ष में खड़े कवि के रूप में वासुकि प्रसाद उन्मत्त अब और ठंडी बर्फ़ रात जैसी ज़रूरी और नैसर्गिक कविताओं के जरिए मौजूदा राजनीतिक समय में अपना हस्तक्षेप दर्ज़ कराते हैं।

किसान आंदोलन और सत्ता के नृशंस उत्पीड़न के दौर में ही उनकी अब शीर्षक कविता इस समय को बहुत अच्छे तरीके से परिभाषित करती है – सीधा-सीधा कुछ भी करना/ सीधे पेड़ की तरह कटना है।

मैं सुबह की तरह निकल आया कविता के जरिए वासुकि प्रसाद ‘उन्मत्त’ ने अपनी जो मंशा ज़ाहिर की है, उससे कविता और राजनीति, दोनों के लिए आशा और उत्साह के भाव जगते हैं।

लीजिए पढ़िए, इस नैसर्गिक और ज़रूरी कवि की कुछ कविताएँ-

 

1. मैं धूप नहीं हो जाता

धूप के साथ चलते हुए

धूप नहीं हो जाता हूं मैं
धूप में खड़ा होता हूं तो लगता है
उन्हीं किरणों में से एक हूं

धूप छूट जाती है मिट्टी के भूरे रंग में
गेहूं की पकी फ़सल में
मैं उस तरह से कहां छूट जाता हूं

मैं धरती में जड़ें फेंकता हूं
सूर्य की जड़ों की तरह

मैं हवा की तरह अदृष्य कहां हूं
गो कि चलता तो मैं भी हूं
कभी तेज़ कभी मद्धिम

किन्हीं का लिखा, पुस्तकों में छूटा हुआ मैं
उतना ही बाहर होता हूं
फिर से लिखे जाने केलिए

मैं वनस्पतियां हूं, अनिश्चित बेतरतीब,
सूर्य की किरणें नहीं हूं
जो एक ही मात्रा में ,एक ही तरह से फैलूं
चलूं और समाप्त हो जाऊं

मैं नींद के भीतर सोता हूं
सुबह के भीतर जागता हूं
जागता हूं नहीं कटने वाली पहाड़ की रात पर

मैं चांद के साथ हो जाता हूं
उसके अकेलेपन में
मैं एक बजता धुन की तरह
पाना चाहता हूं ख़ुद को
कहां कहां छूट गया हूं मैं।

 

2. अब

अब विरोध का रास्ता काफी घुमावदार

कर दिया गया है

चाहे कविता हो या ज़मीन की खुरदुरी लड़ाई
सीधे वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता है।

विरोध को पहले भी थकाया जाता रहा है
आज वह थक नहीं रहा है
विरोध को पहले भी उखाड़ा जाता रहा है
आज वह उखड़ नहीं रहा है
पहले भी होते थे हौसलेवान
आज हौसला ही रास्ता रह गया है
शेष, कीलों पर जागना

जो सबसे बड़े खलनायक रहे
आज जबरन नायक कहलवा रहे हैं ख़ुद को

सबको मौंका है ख़ुद को सिद्ध करने का
सब ख़तरे उठा रहे हैं
ख़तरे पैदा करने वाले भी
ख़तरा में जान गँवानें वालों से ज़्यादा ख़तरा उठा रहे हैं

आप अपना नाम भी सीधा सीधा नहीं बता सकते
सीधा सीधा कुछ भी करना
सीधे पेड़ की तरह कटना है

आख़िर कीलें बनाने वाले भी तो लोग ही हैं
लोग ही हैं उन्हें लगाने वाले
इनकी समस्याओं का समाधान नहीं है
इनसे कीलें लगवाने वालों के पास

अब कोंड़े मार कर कीलों पर चलाया जाएगा उन्हें
जो भूख के ख़िलाफ़ बोलेंगे
चुपचाप मर जाने वालों को कहा जायेगा
मर गया।

 

3. वे उन्हें भी खाना खिला रहे हैं

वे उन्हें भी खाना खिला रहे हैं

जो उनपर वाटरकेनन से हमला कर रहे हैं
वे उन्हें भी खाना खिला रहे हैं
अपने साथ पंगत में
जो उनपर लाठियाँ बरसा रहे हैं

वो अपने साथ नमक की पोटली रखे हैं
वो जानते हैं नमक का महत्व
वो उन्हें भी खिला रहे हैं नमक
जो नहीं जानते नमक का महत्व।

 

4. ठंडी बर्फ़ रात

ठंडी बर्फ़ रात ओढ़ रही है शरीर को

शरीर ठंडा पड़ जा रहा है
कंबल के कवच को तोड़कर
हड्डी पर पड़ रही है ठंड

मन के अलाव जगह जगह सुलग रहे हैं
सारी ऊर्जा आँखों में आकर ठहर गई है
ठंड आक्रमण कर रही है हर जगह
ज़िद ,ठंड को सर्द कर दे रही है
ठंडी मौंत की तरह दिल्ली की दिसम्बर की रातें
नहीं मार पा रही हैं अलावों को
शरीर लुढक जा रहे हैं
भगीरथ के पूर्वजों की तरह
किन्तु हार नहीं रहा है धरोहर की तरह संकल्प।

 

5. तुम में मेरा होना

मैं तुम्हारे साथ रहा

तुम्हारे साथ चलता
तुम मुझे भौंरे* की तरह तरहथी पर लेते रहे

तुम छूट गए पीछे अपनी दुनियाँ में
जहाँ स्मृतियाँ रहा करती हैं
मैं भी छूट गया अपनी बीती हुई मात्रा में
केंचुल की तरह

तुम निकल गए आगे
मैं भी चल रहा हूँ तुम्हारे साथ

तुम तब भी थे जब तुम्हें नाम से नहीं जाना जाता था
तुम तब भी थे
जब तुममें रहने वाले सिर्फ़ तुम में रहते थे
तुममें इतना रहते थे
कि घोषणा नहीं करते थे
गूँगा जैसे गुड़ का स्वाद बता नहीं पाता

तुम सब जगह हो,सब जगह बीतते हो
मैं सब जगह हूँ तुममें बीतता हूँ

जब कुछ नहीं था
तब भी तुम थे
जब कुछ नहीं रहेगा
तब भी तुम रहोगे।

(*भौंरा :बच्चे का खिलौना ,जो पतली रस्सी लपेट कर नचाया जाता है।)

 

6. मैं सुबह की तरह निकल आया

मैं सुबह की तरह निकल आया तुम्हारे साथ

हवा की स्फूर्ति की तरह
ख़ून के दौड़ने की तरह

मैं टकरा उठा तलवार से तलवार की तरह तुमसे

समय तुम थक कर आराम कर सकते हो ,मैं नहीं

मुझे तो साँस की तरह चलना है
ली हुई साँस को छोड़ देना है सदा केलिए
दूसरी साँस में जीने केलिए

कोशिकाओं की तरह अनवरत प्रक्रिया में हूँ मैं

तरंगों की तरह उठते रहना है मुझे
जुलूस की शक्ल में गरजते हुए बढ़ते हुए

निकलना है पत्तों की तरह
उल्लास के बादल की तरह छाना है आकाश में

कौन किससे लड़ना चाहता है?
लेकिन एक अनवरत लड़ाई जारी है
जो विरासत में मिली है मुझे

न कुछ होते हुए भी बच्चा से बड़ा हुआ
अब बुढ़ा रहा हूँ
मौंत की तो याद ही नहीं रहती है
इस जीने की हड़बड़ी में।

 

7. पत्ते

पत्ते सिर के बल टंगे हैं

आधे से अधिक दंडवत की मुद्रा में झुके हैं
पैर के बल झूल रहे हैं

शायद ही कोई पत्ता खड़ा हो सीधा तन कर

पंखे हैं पत्ते, हवा जिसे झल रही है
पत्ते छाते हैं दीये के आकार के
दिलों के आकार के
जो पक्षियों की तरह छाये हैं
पेड़ की प्रार्थना गा रहे हैं पत्ते

पत्ते कांपते हैं, बुखार में कांपता है जैसे शरीर
जब तक हरे हैं पत्ते
पेड़ इन्हें जीने देता है
और पीता रहता है इनकी हरियाली
पेड़ हरे भी हैं, इसकी गबाही तने नहीं देते
डालियां नहीं देतीं
जड़ें तो बिल्कुल नहीं
इसकी गबाही तो पत्ते ही देते हैं
पत्ते न हों तो पेड़ को हरा कौन कहेगा?

कुरूप तना,तना है।
अजगर जड़ें, अजगर डाल फैले हैं।

जो पेड़ फूल नहीं देते
पत्ते ही उनके फूल हैं
पके बादामी हल्के लाल पत्ते

पत्ते चू रहे हैं पेड़ के हर तरफ
जैसे बिजली का करेंट इन्हें चूस कर छोड़ दे रहा हो
जबतक जीवित रहे पत्ते
बिछे रहे कयी तरह से
मरने के बाद भी बिछे ही हैं ये!

 

8. सही

सैंकड़ों लोग ग़लत के पक्ष में खड़े हो रहे हैं

कर रहे हैं धड़ाधड़ बैठकें

हज़ारों को तैयार किया जा रहा है ग़लत के पक्ष में
बच्चे जैसे पहाड़ा दुहराते हैं
वैसे हज़ारों दुहरा रहे हैं ग़लत को सही

पहले तो दुबका रहा ग़लत
जब वो घटित हो चुका था

ग़लत का विरोध जब ताक़तवर हुआ
तो ग़लत, सही के ख़िलाफ़ करने लगा
सही से भी बड़ी गोलबंदी
ग़लत, देखते देखते हमलावर हो गया सही पर

सही पर बरसने लगीं लाठियाँ
सही को राजनीति प्रेरित कहा गया
सही को कहा गया दंगा फैलाने की साज़िश
सही चारों तरफ़ से असुरक्षित महसूस करने लगा
सही के मन में ख़ौफ़ पैदा किया जाने लगा

सही से घबराने लगा है ग़लत
सही की आवाज़ दबाने की कोशिश जारी है
सही के पक्ष में पूरी दुनियाँ में आवाज़ उठ रही है।

 

9. फुफकारता है नाग

फुफकारता है नाग
जबकि उसका एक बड़ा हिस्सा बैठा रहता है

उसके माथे पर किसी के पैर के निशान होते हैं
और वो फुफकारता है उस स्मृति के ख़िलाफ़

बंजर ज़मीन पर पसर जातीं हैं चिपकी हुई घास

कोई दौड़ता हुआ चला गया है
और दिशाएं चली गई हैं खुलती उसके साथ अनंत तक

सांसें आती हैं, जाती हैं, जिसका आभास तक नहीं होता
और हम ज़िंदा हैं

एक रात से दूसरी रात में
एक नींद से दूसरी नींद में जा रहे हैं हम
सारी संभावनाएं सोई पड़ीं हैं
हमारा जागना भी जागने जैसा कहां होता है

पेड़ खड़े हैं हमारे साथ
लेकिन आदमी नहीं
चिड़िया आवाज़ देती है
लेकिन आदमी नहीं
धूप उतनी दूर से आकार मिल लेती है
लेकिन आदमी नहीं

हम किस क़बीलाई युग में पहुंचा दिए गए
जहां कुछ लोग किसी को मार रहे होते हैं
और बाक़ी उसका मना रहे हैं उल्लास
हम कहां हैं?समय के किस कालखंड में?
जहां विरोध घिर गया है क्रूरताओं से

स्त्रियां उठा ली जा रहीं हैं सरे बाज़ार
और की जा रहीं हैं नंगी
उसके वर्जित प्रदेश में घुस रही है
किसी की सनक

एक व्यक्ति सबसे ऊपर है समानांतर सत्ता बनाये
सत्ता के शीश को भी क़दमों में झुकाता
सब अप्रासंगिक हैं
न्यायाधीश, न्याय की पोथी

नागरिक नागरिक नहीं रह गया
वो प्रजा में बदलता जा रहा है
राजा आदेश देता है संतरियों पर फूल बरसाओ
तालियां बजाओ उनके स्वागत में
आदत डालो ,आदत डालो इसकी
और प्रजा करने लगती है ऐसा ,नज़र अंदाज कर उनकी गालियां
भालों के चुभती नोंकों को,ज़ुल्म को

प्रजा के कर पर छपा होता है राजा का फोटू
एक एक चीज़ पर राजा की तस्वीर देती है पहरा
लोगों के दिलोदिमाग़ में लगता जा रहा है जाला
गुफा के दरवाज़े वाला
और भीतर सुरक्षित रहता है राजा

किस दुनिया से आ रही है यह आवाज़
राजा के ख़िलाफ़ में
कौन चल रहा है उन विशाल जुलूसों में
राजतंत्र में तो इसकी गुंजाइश है नहीं

काल कोठरी में क़ैद है बादल का वज्राघात
अनुगूंज की स्मृति होकर
निराशा, हतोत्साह के अंधेरे में
अपनी विचारधारा की रोशनी से जगमग
पढ़ रहा है मुक्ति का आख्यान
जीवन के आख़िरी पायदान पर
समय का महानायक

आकाश के गाल पर किसी ने जड़ दिये हैं थप्पड़
लाल हो गया है वो
सूजन की तरह उभर आया है सूरज
इस तरह शून्य के सन्नाटे को तोड़ती है सुबह
आंखों के भीतर पसरे सफ़ेद पर
काली पुतलियां चमक रही हैं
विरोध देख रहा है सबकुछ को।

 

10. एक नशे सा छाई हो

एक नशे सा छाई हो
जीवन के बीहड़ वन मे तुम
फूलों सा मुस्काई हो

एक साथ मैं कयी रास्तों पर
यात्राएँ करता हूं
कयी आसमानों मे शशि हो
होकर सूर्य निकलता हूं
लगता है वह और नहीं कुछ,
तुम, सबकी परछाईं हो

एक साथ तुम कयी किश्तों में
मुझ पर हँसकर खुलती हो
एक साथ मैं कयी किश्तों में
तुम पर, हँस कर खुलता हूं
कयी बार तुम कयी तरह से
कयी मोड़ पर मिलती हो
कयी बार मैं कयी तरह से
कयी मोड़ पर मिलता हूं
तुम्हें सहेजने मैं पूरब का
नीलाकाश हो जाता हूं
छलक छलक जाती हो तुम,
हो सुबह वाली अरुणाई हो

 

11. पेड़ का पसीना

पत्ते पेड़ का पसीना हैं
हाथ पैर कठोर कठोर हो गए हैं
धूप ,बरसात, सीत खुले में झेलते पेड़ के

पेड़ को हर कोई देखता है छाया में
फूल में फल में
देखता है फर्नीचरों में
उसके सौंदर्य में हम अटक जाते हैं
लेकिन बकरी के बच्चे के सौंदर्य से ज़्यादा
अहमियत नहीं रखता है
पेड़ का सौंदर्य

धूप की गंगा को जटाओं में ही सोख जाता है पेड़
अंगुली से रिसते जल सा
बूंदों की तरह नज़र आती है
नीचे पड़ी झिलमिलाती धूप
अनगिनत खिड़कियों से अनगिनत धूप के नांचते चेहरे

पेड़ की फुनगी पर खिलता है चांद
सूर्य निकल आता है सुबह सुबह
जैसे उसका अदना फूल हो

उसके अपने फूल बुझ जाते हैं रात में
अंधेरा उसके मस्तक में मिलकर
और घना हो जाता है

पेड़ केलिए कोई जगह नहीं है इस दुनिया में
हर जगह समूह में अकेले में खड़े हैं ये

बारिश भी सूखने लगी है
या तो बादल फाड़ हो रही है
सो पेड़ का संकट गहराने लगा है पहले से अधिक

पेड़ नहीं सोता है
छाया सोती है
पेड़ नहीं बैठता है छाया ठिगनी होकर
उकडूं बैठती है
एक काली चितकबरी बकरी अदृश्य डोर से बंधी है पेड से
जो बैठी रहती है और छाया की लम्बाई. होकर दूर तक जाती है

जड़ें ,धरती में छिपे नेवले हैं नेवले
सो खोह बना कर फैली हुईं हैं ज़रूरत के मुताबिक़
धरती ,गद्दा और रजाई है जड़ों की
जहां सिर्फ़ रात है और उसमें पेड़ के बाहर के सपने हैं।

 

12. उजाड़ के ग़रीबों को

उजाड़ के ग़रीबों को कहो कहां बसाओगे?
इन्हें ज़मीन क्यों नहीं?न घर है क्यों?बताओगे?
ज़रा न तुममें है दया,नृशंस हो कठोर हो
दिखा रहे हो लाठियों का गोलियों का ज़ोर हो?

ग़रीबों को क्या जीने का नहीं है हक़ बता ज़रा
न नौकरी न चाकरी, करें ये किसका आसरा?
इन्हीं के दम पे जीतते हो फिर इन्हें ही मारते
तुम्हारी नीतियों के हो शिकार हैं ये हारते

ज़मीन क्या तुम्हारी है?तुम्हारा आसमान है?
हवा तुम्हारी है क्या?इनपे सबका हक़ समान है
कोई क्यों रेलपांत के किनारे घर बसाता है?
क्यों गंदगी के सिंधु में जा झुग्गियां बनाता है?

सभी के हिस्से की ज़मीन वो निंगल रहा है क्यों?
अशंक सूर्य की तरह गगन में चल रहा है क्यों?
विदग्ध यह समाज है न उससे कुछ है फ़ायदा
कि बरछियों से धूप की रहा है बेध वो सदा

रहे वनों को काट हो,रहे ढहा पहाड़ हो,
कि गांव गांव को रहे क्यों इस तरह उजाड़ हो?
ये पूंजीपतियों पे इन्हें निसार क्यों हो कर रहे?
मजूर मर रहे, किसान हर कहीं हैं मर रहे।

उजाड़ो तुम हमें, इसीलिए तुम्हें जिताया क्या?
विधायकों के सांसदों के सीटों पे बिठाया क्या?
तूं पूँजीपतियों के सगे हो क्यों?उन्हें जिला रहे!
बहा हमारे ख़ून रोज़ क्यों उन्हें पिला रहे?

ये बकता क्या है तूं?न तुमसे मांगे नौकरी कोई?
तूं क्यों है फिर?बता ज़रा,सवाल ऐसे हैं कयी
तूं ख़ून चूसने,बढ़ाने टैक्स केलिए है क्या?
दिमाग़ तो ख़राब है नहीं तुम्हारा हो गया?

हमारे बोलने पे तुम लगा रहे क्यों रोक हो?
हरेक बात, मामलों में क्यों रहे यूं टोक हो?
हमारी आबरू से खेल क्यों रहे बताओगे?
दबंगई से पेश आ किसी को क्यों सताओगे?

समाज के हो शत्रु,सभ्यता पे तुम कलंक हो
बलात्कारियों के पक्ष में खड़े अशंक हो
तूं कडुवा कांंड कर रहे ,जला रहे घरों को हो
बना रहे हो जानलेवा सारे अवसरों को हो

मजूरों को न नौंकरी,किसानों को न बीज है,
पुजारियों को माहवार रुपये?वो अजीज हैं?
रहे हो बांट क्यों समाज को यूं धर्म जाति में?
रहे हो शक्तिहीन कर क्यों देश बात बात में?

न बोलने का ढ़ंग है, फ़साद बस रचा रहे,
जो दंगों के हैं बादशाह तुम उन्हें बचा रहे
विरोधी हैं जो दंगों के उन्हें हो तुम नंचा रहे
अरेस्ट कर अंधेर हो उन्हीं पे तुम मंचा रहे

सुहाया कब तुम्हें समाज में समानता रहे?
हज़ारों साल से मनुष्यता को तुम सता रहे।
लड़ाते आये धर्म जाति में फंसा समाज को
मनुष्य के लहू से धोते आये अपने ताज को

समाज के हो कोढ़ तुम,नृशंस अंधकार हो
मनुष्य की मनुष्यता के वक्ष पे सवार हो
तुम्ही हो राजतंत्र के मिसाल, तानाशाह हो
रही तुम्हीं से आज तक वसुंधरा तबाह हो

मंचा के लूटपाट, छीन औरों के महत्व को
बचाते आये धाक,झूठी शान,अपने सत्व को
विदेशियों के पैरों में सरों को टेकटे रहे
बुला उन्हें वतन को नर्क में ढकेलते रहे

न बोले कोई भी ख़िलाफ़ तेरे, सब डरे रहें,
समाज में तुम्हारे चापलूस मसखरे रहें
डरा रहे समाज को हरेक मोर्चे पे तुम
नहीं किसी का स्वाभिमान तुमसे हो रहा हजम

विषाक्त तुमने कर दिया हराभरा समाज को
अतीत, वर्तमान को,लहू में डाल आज को
घृणा, दरिंदगी को,फूट,द्वेष को बढ़ा रहे
सभी पे तानाशाही की शकट को हो चढ़ा रहे

छिपे हो नाग से,समाज में अनेकों वेष में
मंचा रहे बबाल हो समस्त शांत देश में
लगाऊ आग मुद्दों को सदा उछालते रहे
ज़रूरी हर सवाल पे हो धूल डालते रहे

हो जंग लोहे में लगा,हो घुन,तूं अन्नकीट हो,
अहं हो,तानाशाहों के सिरों के तुम किरीट हो
कभी नहीं तुम्हारा खातमां सका हो पूर्णतः
दबे रहे, उठे प्रचंड हो ढिलाई पा स्वतः

तुम्हारी नींव को हिलाया, वो स्पाटाकश हैं हम
अंधेरे में, विनाश में उजाले की बहस हैं हम
हमारी हत्या कर रहे तेरे लठैत हर जगह
हमें न पा रहे हो तुम ज़रा भी एक पल भी सह

“कहां विपक्ष है?”घमंड में ये क्या तूं बक रहा
तुम्हारी धाक को सिखा विपक्ष है सबक रहा
लहूलुहान है विपक्ष जूझता हुआ यहां
तुम्हारी गोलियों से लाठियों से रंग रहा वहां

तेरी अनीतियों से हम समाज को बचायेंगे
कि अंधकार को प्रकाश हो के हम भगायेंगे
तूं अंधकार ,रूढ़ि हो विनाश के बहाव हो
तुम्हें चुनौती देंगे हम समाज का बचाव हो।

 

 

 

(कवि वासुकि प्रसाद ‘उन्मत्त’
जन्म तिथि, 20 सितंबर1953
जन्म स्थान ,ग्राम धधौर, थाना सिकन्दरा, ज़िला जमुई, बिहार।
शिक्षा, ग्यारहवीं धधौर हाई स्कूल से ही।
के के के एम कालेज जमुई में
प्राक कला में पढ़ाई की।
सम्प्रति, रेलवे से फिटर के पद से
विद्युत लोको शेड भिलाई से 2013 में सेवा मुक्त।
भाकपा माले लिबरेशन से सम्बद्ध।
महा प्रबंध गौतम बुद्ध पर,’अपराजेय’, खंड काव्य ‘रामान्त’ इसके अतिरिक्त कई मुक्तक सभी अप्रकाशित। छंद मुक्त और छंद में समान लेखन।
निवास स्थान: बीएमवाय ,इन्दिरा नगर, चरोदा
ज़िला, दुर्ग, भिलाई, छत्तीसगढ़।

 

टिप्पणीकार आलोक कुमार श्रीवास्तव, कवि, अनुवादक और संस्कृतिकर्मी हैं। जन्म: 1980 दलईपुर, इलाहाबाद में। ग्रेजुएशन से लेकर पीएचडी तक कि पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। ‘प्रयोगवादी कविता में समाज-वैज्ञानिक चेतना’ विषय पर पीएचडी।

‘सपने में दलईपुर’ कविता संग्रह 2016 में कथा प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित

फ़िल्वक्त भारतीय रिज़र्व बैंक, क्षेत्रीय कार्यालय कानपुर के राजभाषा विभाग के अध्यक्ष
संपर्क: trans.alok@gmail.com)

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