समकालीन जनमत
कविता

सोनम यादव की कविताएँ सघन संवेदनाओं से संतृप्त हैं

शिरोमणि महतो


सोनम यादव एक संभावनाशील व अतीव संवदेनशील युवाकवि हैं। संवेदनशीलता स्त्रियों का नैसर्गिक गुण है। किन्तु सोनम की संवदेना ज़्यादा सघन और सांद्र है। संवदेनाओं का यह सांद्रण उनकी कविताओं में तीव्रता से व्यक्त होता है, जिसमें उनका निजत्वन व व्यक्तित्व प्रस्फुटित होता है, यथा –
मेरे हाथ में रखे । वो फूल के दाने
जो बहुत कडुवे हैं। मैंने उन्हें दिखाना चाहा तुम्हें /और तुमने देखने से पहले ही / मुँह फेर लिया।

सोनम का कविमन और स्त्रीमन जब दोनों एकमैक्य होते हैं तो “जैसे पतझड़ के मौसम में/नंगे पेड़ों से गिरती पत्तियाँ सतह का चूम लेती हैं।” तब भावातिरेक में उनके निजत्व का प्रस्फुटन होता है – “उस स्थिति में तुम्हारा होना एक फूल की तरह था / जो हमेशा से मुझे सबसे प्यारा लगा / उसकी कोमल पंखुडियों की कोमलता ने / सदा मुझे अपनी ओर खींचा”

सोनम की हरेक कविता अपने पाठ में सहज व शांत होते हुए भी उनके भीतर तुमुल कोलाहल – सा कुछ छिपा हुआ है , जो हमारे मन – मस्तिष्क को उद्वेलित व उदगिन करता है और हमें अंतिम पाठ तक आबद्ध किये रखता है –
जब तुम प्रेम मे होना तब ढूँढ़ना/
एक स्त्री के मन को जहाँ पढ़ सकते हो/
उसके अंदर का बिखराव / जिसे तुम समेट सकते हो

सोनम अपने मन के आवेगों को संयमित और संतुलित करते हुए कविता का रचाव करती हुई स्त्रीमन के आवेग – उत्कंठा, इच्छा – आकांक्षा, हताशा-निराशा के साथ स्त्री होने की घनीभूत पीड़ा तथा एक आदिम वर्चस्व से मुक्ति की कामना को अभिव्यजित करती हैं। जहाँ उनका निजत्व परत्व में समाहित हो जाता है और-
आहिस्ते से खोलती है अपने घर का दखाजा /जिसमें तलशाती है अपने खोये हुए
मन की चंचलता को जो कहीं दब – सी गई है
जहाँ शब्दों को खुद से रचती है-
अपने भीतर के धुंध से / बाहर निकलना चाहती है। ”

युगों के आदिम वर्चस्व से मुक्ति हेतु – व्यष्टि से समष्टि तक का यह सफर ही इन कविताओं की सार्थकता है । शिल्प और भाव का खिच्चापन भी एक खिंचाव उत्पन्न करता है, जो मन को ‘ कसकुट ‘ करते हुए पाठ का आस्वाद बढ़ा देता है..!

 

सोनम यादव की कविताएँ

1. तुम्हारी स्मृति

जैसे पतझड़ के मौसम में
नंगे पेड़ों से गिरती पत्तियां सतह को चूम लेती हैं —
वैसे ही यह दुःख भी गाहे बगाहे हमेशा
मेरे पास चला आया।
उस स्थिति में
तुम्हारा होना एक फूल की तरह था
जो हमेशा से मुझे सबसे प्यारा लगा
उसकी कोमल पंखुड़ियों की
कोमलता ने सदा मुझे अपनी ओर खींचा
उसी तरह
जिस तरह तुम्हारी उस हल्की मुस्कान ने –
जिसके साथ मैंने बाट लिया थोड़ा सा अपने हिस्से का दुःख।
जिसके साथ बैठकर मैंने चाहा
उसकी पसंदीदा कविता पढ़ना
जहाँ हम भूल जाते उदासी का भी कोई रंग होता है।
जहाँ मुझे तुम्हारा मिलना
अब एक हादसा सा लगता है कि
मैं अगर नही मिलती तो क्या मुझे हक था!
किसी से इतना नाराज होने का –
किसी के जाने के बाद भी उतना
हम उसे याद करना चाहते हैं
जितना एक फूल को करती हूं मैं याद।
जहाँ मेरी स्मृति डूब जाती है उस पल में
जब कहने को बहुत कुछ था हम दोनों के पास
लेकिन कहा किसी ने नहीं
बस सुना।
इन दिनों इन यादों का
मन में टूटना ही तुम्हारा जाना है।

 

2. कोठरी

रात की अंधेरी कोठरी में
आती है सुगबुगाहट भरी
झींगुरों की आवाज।
खुली खिड़कियों से
आहिस्ता आहिस्ता हवा देती है
हंसते मुस्कुराते हुए कमरे में दस्तक।
तभी बारिश की छींटे
भींगा देती है बिस्तर।
उस बौछार की आवाजें दौड़ पड़ती हैं
उस रात की अंधी कोठरी में
जहां एक खामोश सा चेहरा
बैठा घूर रहा होता है इन दृश्यों को।
जहाँ उस अंधेरी कोठरी में
जलता हुआ दीपक
बुझ चुका है हवा के झोके से।

 

3. कदम

कितनी कहानियाँ याद आती हैं
तुम्हें खुद को मजबूत बनाने के लिए।
कितने किस्से सुने होते हैं तुमने,
अकेले चलने के लिए।
ओह!
एक आवाज आती है, एक नहीं!
फिर क्या इतना आसान होता है
आगे बढ़ जाना!
एक बोझ को साथ लिए
जहाँ थकना मना है
रुकना मना है,
उसकी कोई सीमा नहीं है
निरंतर बस चलते जाना है।
एक हल्की सी मुस्कान के साथ।
जहाँ तुम इस अमानवीय संसार में
मानवता की उम्मीदें लिए जी सकते हो
यहाँ अब भी प्रेम बचा हुआ है,जहाँ तुम
अपने प्रिय कवि की कविता अपने हाथ में लिए पढ़ सकते हो।
सुंदर महसूस कर सकते हो।
तुम्हारे साहस की कोई सीमा नहीं है
तुम देख सकते हो वहाँ जहाँ तुम अकेले नहीं चल रहे बल्कि
तुम्हारे साथ न जाने कितने कदम चल रहे हैं।
क्या तुम देख सकते हो?
अगर हाँ तो तुम यहाँ अकेले नहीं हो।

 

4. फूल

मेरे हाथों में रखे
वो फूल के दाने
जो बहुत कड़वे हैं।
मैं उन्हें दिखानी चाही तुम्हें
और तुमने देखने से पहले ही
मुँह फेर लिया।
अब वो हाथों से गले तक
उतरने तक अपनी असीम
क्रियाओं द्वारा कितना
फ़लीभूत होगा।

 

5. निराशा

मैदान में बिखरे फूल को देखते दिन भर की तमाम निराशा
थकान को पीछे छोड़
तुमसे यह सुनना, चांद को देखना!
उस पुर्णिमा जब वह अपनी
असीम चमक में डूबा हुआ
उन तारों के बीच
चमकता हुआ दिखाई देगा।
तुम देखना खुद को
तुम वो रात मत देखना
जो काली घनघोर परछाई से घिरी होगी
जो ढक देगी तुम्हारा सुर्ख चेहरा ,
जहाँ इंतजार की सीमा,
बहुत लम्बी हो चुकी होगी।
जहाँ तुम्हारे सुर्ख गालों को
पहचान नही सकता अब कोई
और रात में आँसुओं से
भीगे हुए बिस्तर का स्थान
सुबह ओंस की
बूंदो ने ले ली
होगी तब तक।

 

6. प्रेम

मैंने चाहा हमेशा
तुमसे प्रेम ,बदले में
मिली यातनाएं।
मैं उन यातनाओं में भी
ढूंढना चाही प्रेम का एक
हिस्सा जो कहीं छिपा हो
जो कभी दिखाई नहीं दिया।
मैंने हमेशा किया तुम्हे याद
तुमने मुझे कभी नही किया
फिर भी मैंने चाहा तुमसे प्रेम।
मैंने तोड़े हमेशा
तुम्हारी यादों में फूल
और रख दिया अपनी
किताबों में मुरझाने के लिए
तुमने कभी नही तोड़े
मेरे लिए फूल फिर भी मैंने
चाहा तुमसे प्रेम।

 

7. छलावा

तुम्हे अपनी कल्पनाओं में याद करना
अब उतना सुख नही देता।
जितना तुमसे मिलना और तुम्हें देखना था।
भावनाओं के इस छलावे से
बहुत दूर – दूर तक भागना था,
जहाँ तुम्हारी स्मृतियां भी नहीं
पहुँच पाती,
न वह चीखती आवाज जिसे सुन
आगे बढ़ते हुए पाँव हर
बार की तरह पीछे मुड़ जाते थे।
और खुद से किये गए हजार
वादों की धज्जियां उड़ाते वह
तुम तक वापस लौट,
तुम्हारे कंधे पे सिर रख मुस्कुराते थे।
शायद उन्हें नही पता था
आगे बढ़ते कदम केवल
कुछ दिनों के मेहमान है।
मैंने सुना था तुमसे कभी बार -बार
प्रेम में अडिग होना।
जहाँ तुम
छलावा नहीं कर सकते
एक स्त्री के प्रेम के साथ लेकिन
वह भरसक एक भ्रम था,
जहाँ तुमने उसे अपने पैरों तले
कुचला और आगे बढ़ गए …
तुम्हारे इस छलावे के बाद भी
मैंने जाना तुम बांध नहीं सकते प्रेम को
वह तो मुक्त और,आजाद होता है

 

8. परछाई

जब तुम होना प्रेम में
तब देना गुलाब।
नहीं नहीं! तुम देना उसके साथ उसकी
कोमलता के साथ सदैव
खिले रहने का प्यार।

जब तुम प्रेम में होना देना किताब
जहाँ वह ला सके एक क्रांति जो तोड़ सके
गुलामी के अंतिम हदों को
जहाँ न शोक हो न दुःख।

जब तुम प्रेम में होना तब ढूंढना
एक स्त्री के मन को जहाँ पढ़ सकते हो
उसके अंदर का बिखराव
जिसे तुम समेट सकते हो ।

जब तुम प्रेम में होना करना इंतजार
जहाँ किसी का जाना तुम्हे पहले से पता हो
जिसकी परछाई उसके जाने के बाद भी
जीवन भर तुम्हारे साथ चलती रहे।

 

9. स्त्री

एक स्त्री जो चाहती है अपना एकांत ,
अपनी आजादी ।
जहाँ वह अपना जीवन जी सके ।
जो चूल्हे चौकों से ,
तह करते कपड़ो से और न
जाने कितनी थोपी हुई जिम्मेदारियों से
जाना चाहती है दूर ।
जहाँ जिया जा सकता है एक जीवन ।
वह जब अपना निजी एकांत पाती है तो
आहिस्ता से खोलती है अपने घर का दरवाजा
जिसमें तलाशती है अपने खोये हुए
मन की चंचलता को जो कही दब सी गयी है ।
जहाँ वह शब्दों को खुद से रचती है ।
अपने अंदर के धुंध से
बाहर निकलना चाहती है।
और बैठ जाना चाहती है
किसी के दुलारती गोद में जहाँ वह
पूरी रात खिड़की से गिर रही बारिश के
बूंदों को पूरी रात सुनती रहे।

 

10. मेरी आत्मा

मेरा शरीर उस दिन शिथिल पड़ गया
जब चुप्पियां जरूरी नही थी-
मेरे कंपकपाते होंठ ठंडे पड़ गए थे
और मेरी आवाज छाती में जम गयी थी।
लेकिन फिर भी मुस्कुराहट की एक झूठी
हँसी लिए मैं किसी कोने में
एक दृश्य लिए खड़ी थी।
जब बौछार किया जा रहा था उसके
ऊपर उस अभद्र शब्दों का
जहाँ उसके गरीब होने पे उसे
सांत्वना या सहारा ,मदद नही दिया जा रहा था बल्कि
उसे कोसा जा रहा था
उस दिन उन सबसे ज्यादा मैं गुनेहगार थी
जहाँ बोलना जरूरी था ।


कवयित्री सोनम यादव, जन्मवर्ष – 21- 4-2001, जन्मस्थान – औरैया ,पोस्ट मैढी, सैयदराजा, काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अध्यनरत, जन्मस्थान – औरैया ,पोस्ट मैढी, सैयदराज
सम्पर्क: ईमेल-sonamyadav21.bhu@gmail.com

 

टिप्पणीकार शिरोमणि महतो, जन्मः 29 जुलाई 1973 को नावाडीह (झारखण्ड) में। शिक्षाः एम. ए. हिन्दी (प्रथम वर्ष) सृजनः देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। एक उपन्यास‘उपेक्षिता’ एवं दो काव्य-संग्रह ‘कभी अकेले नहीं’ और ‘भात का भूगोल’ प्रकाशित। पत्रिका ‘महुआ’ का सम्पादन। पुरस्कारः डॉ. रामबली परवाना स्मृति सम्मान, अबुआ कथा-कविता पुरस्कार, नागार्जुन स्मृति पुरस्कार.

संप्रतिः अध्यापन। सम्पर्कः नावाडीह, बोकारो (झारखण्ड) 829 144। मोबाइलः 09931552982

ई-मेलः shiromani_mahto@rediffmail.com

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