कौशल किशोर
शुक्ला चौधुरी ऐसी कवयित्री हैं जिन्हें आकाश की ऊँचाई का पता है। वे जानती हैं कि हाथ से आकाश को नहीं छू सकती पर कोशिश तो की जा सकती है। बकौल मुक्तिबोध ‘कोशिश है/ कोशिश है/ जीने की/ जमीन में गड़ कर भी’। वहीं, उन्हें अपने पास ज़मीन के होने का अहसास है। तभी तो वे कहती हैं कि ‘मैं जमीन को छूती हूँ ’। उनके हाथों में मिट्टी की जो महक है, इसमें श्रम की सुगंध है। इस तरह उनकी दुनिया धरती और आकाश के बीच है। इसमें कल्पना की उड़ान है तो जीवन की कठोर-कठिन वास्तविकता भी है।
शुक्ला चौधुरी संभावनाओं से भरी रचनाकार रही हैं। उन्होंने कहानियाँ लिखीं। ‘इश्क’ नाम से उनका उपन्यास भी आया। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हुईं। आकाशवाणी से प्रसारित हुईं। उन्होंने साहित्य सृजन ही नहीं किया बल्कि अपने बेटे और बेटी को अपने रंग में रंगा, रचा, बनाया। अपने जीवन साथी कथाकार शतीन्द्रनाथ चौधुरी के साथ मिलकर उन्होंने सुन्दर सा बाग लगाया। उसे प्रेम से सींचा। उनका यह 55 साल का साथ था जो अचानक छूट गया। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान वे संक्रमित हुईं। यह उनकी जंग थी। लंबी चली, करीब डेढ़ महीने। लगा कि वे कोरोना को पटखनी दे देंगी और जीत कर बाहर आएंगी। पर सोचा नहीं हो पाया। पिछले साल 23 मई को चली गईं, चली नहीं गईं बल्कि शहीद हो गईं। जंग में कोई खेत होता है तो उसे शहीद का दर्जा दिया जाता है। उन्हें भी यही सम्मान दिया जाना चाहिए।
शुक्ला चौधुरी की कविताओं का पहला संग्रह है ‘अनछुआ रह गया आकाश’। यह उनके जीवन काल में नहीं बल्कि जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तब आया है। उन्होंने गद्य भी लिखा, पर संवेदनशील मन को व्यक्त करने का उनके लिए सबसे उपयुक्त माध्यम कविता थी। इसी से उनकी पहचान बनी। सोचता हूँ आज होतीं और अपने कविता संग्रह को देखती तो उनकी कैसी प्रतिक्रिया होती। किसी के जीवन में उसकी कविताओं की पहली किताब का आना किसी नवागंतुक से कम नहीं होता है। संग्रह की शुरुआत ‘घर’ शीर्षक से तीन कविताओं से होता है। इसमें ‘घर’ की कई छवियाँ हैं। पहली कविता में कहती हैं:
‘नाम के भरम में/मत पड़ जाना/यहां संगमरमर वाली बात/नहीं है कहीं/दरवाजे पर टांगकर /रखा हुआ है प्रेम/जिसका एक सिरा पकड़ कर/अंदर आ जाना’
उनकी कविताओं का आरंभ यहीं से होता है। उनकी कविता की दुनिया में यह प्रेम छलछलाता हुआ मिलता है। वह बताती हैं कि घर ईंट, गारा, मिट्टी, संगमरमर से नहीं बनता बल्कि प्रेम से बनता है। यह प्रेम ही है जो लोगों को आपस में जोड़ता है, एक-दूसरे पर भरोसा पैदा करता है। ‘घर’ शीर्षक से दूसरी कविता में आम आदमी के जीवन की सच्चाई है। यहां प्रश्न है कि ‘क्यों सपने में ही बनता है/एक घर सुन्दर सा/तारों भरा आंगन’। आम आदमी की मेहनत-मशक्कत के बाद भी उसकी जिन्दगी में यह दूर रह जाता है, तो क्यों? इस ‘घर’ तक पहुंचते-पहुंचते जिन्दगी घिसट जाती है। सांझ की बेला में घर का क्या कोई मायने रह जाता है? आम आदमी के जीवन के कटु यथार्थ को कविता बड़े मार्मिक तरीके से पेश करती है – ‘किस वक्त पर बना यह घर/जब तुम्हारे/सारे दांत टूटे/दो-चार मेंरे/गायब हो गए/सर के सारे बाल…/ये किस वक्त/हुई एक छत/जहाँ न तुम/चढ़ सकते हो/न मैं’। कविता जीवन की विडम्बना को सामने लाती है।
शुक्ला चौधुरी शब्दों को खर्च करने में मितव्ययी हैं। कम शब्दों में गहरे भाव को व्यक्त करना इनकी काव्य कला है। उदाहरण के रूप में एक कविता ‘अंतरिक्ष से’ देखें। वे कहती हैं ‘मैं/अंतरिक्ष से/पृथ्वी को/देखना चाहती हूँ/जहाँ से देश, देश नहीं दिखता/जाति, जाति नहीं दिखती/जहाँ से/केवल मनुष्य दिखता है’। यह उस सिस्टम पर तंज है जो विभाजन और भेदभाव पैदा करता है। शुक्ला चौधुरी मनुष्य को ‘मनुष्य’ के रूप में देखना चाहती हैं। उसे जाति, धर्म के आधार पर बंटा हुआ देखना पसंद नहीं है। ‘जाहिदा हिना के बीमार’ होने से वे परेशान होती हैं। उसके प्रिय हैं गुलाम अली। यह उनके विचारों की प्रगतिशीलता है। वे समाज को बदलते हुए देखना चाहती हैं और बदलाव के पक्ष में कविताएं लिखती हैं। वे स्त्री होने के दर्द तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा बनाये गए स्त्री जीवन की सीमा को पहचानती हैं। वे इस चौहद्दी से स्त्रियों को बाहर आते हुए देखना चाहती हैं। ‘स्त्रियां’ शीर्षक कविता में वे कहती हैं:
स्त्रियाँ अब/ जमाने से आँख बचाकर/ नहीं चलती/ न नज़र झुकाकर चलती हैं/ न बदन चुराये/ सकुचाई सी/…….स्त्रियाँ उड़ाकर/ हवा में आँचल/ खुलकर हँसने लगी हैं/ स्त्रियाँ …./ बिंदास होने लगी हैं/ आओ, तुम भी बदलो’।
शुक्ला चौधुरी की कविता में विषय की विविधता है। इनके जीवन में कल्पना है, तो कल्पना में जीवन है। उनकी कविता में चाँद की अनेक छवियाँ हैं। उन्होंने चाँद को लेकर ढेर सारी कविताएँ लिखी हैं। रात, चाँद और तारों भरे आकाश से उनका मोहब्बत जुनून के स्तर पर था – ‘रात भर/ मोहब्बत की रोटी/ पकती है/ तारों भरे आकाश में’। यह चाँद उनकी मात्र कल्पना नहीं है बल्कि उनके जीवन के क्रियाकलाप में शामिल है। चाँद से वे बतियाती हैं, अपना सुख-दुख सभी। ‘कार्तिक पूर्णिमा’ के चाँद से वे कहती हैंः
आ चाँद मैं/ तुझे सजा दूँ/ फावड़ा तगाड़ी/बालू सिमेंट/ मन करता है/ सब तुझे सौंप दूं–/ आ चाँद/ मैं तुझे सजा दूँ/ मेरी चिंता तू ले/ एक दिन तू–/ मुझसा जी ले/ बच्चों को दे दे/ अपना विछौना/ चल गुदरी में/ तू सो ले—-
शुक्ला चौधुरी की कविता में चंपा मछुआरिन, हेमादास, फातिमा, तुलाराम बांसुरी वाला जैसे अनेक लोग और उनका जीवन संघर्ष है। उनका ‘अन्तिम खत’ मात्र खत नहीं है, वरन यह जंगल को बचाने की मार्मिक अपील है। उन्हें पानी की एक-एक बून्द के लिए लड़ते लोगों की पीड़ा का अहसास है। वर्तमान में जीवन का किस तरह अवमूल्यन हुआ है कि मनुष्य को छोटी-छोटी जरूरतों के लिए युद्ध जैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। ऐसी हर एक चीज पर उनकी नजर है। ‘पानी के लिए युद्ध’ कविता को हम देखें-
‘ना मिसाइलें दाग/न अस्त्र दिखा/तू देखता जा/युद्ध आरंभ हो चुका है/एक बूंद पानी के लिए’
——
‘रात सरपट दौड़ रही है/पानी के लिए बर्तन खाली/कर रही हैं औरतें’
——-
‘रात के दो बजे हैं/सार्वजनिक नल से/पानी की पतली धार/दिन-भर कई युद्ध फतेह/करने के बाद एक और युद्ध की/तैयारी कर रही है औरतें’
इस तरह शुक्ला चैधरी की कविता के अनेक रंग हैं। इनमें सबसे गाढ़ा और चटक रंग प्रेम का है। इनकी कविताओं से गुजरना प्रेम के संसार से गुजरना है। वे कहती हैं –
‘आकाश तुम कागज बनो/मैं लिखूँ गीत/फूलों की/फसलों की/नीर भरे बादलों की/आकाश तुम कागज बनो/मैं लिखूँ कविता/पेड़ों की/चिड़ियों की/नींद की ख़ौफ़ नहीं –/प्रेम की/ आकाश तुम कागज बनो।’
शुक्ला चौधुरी की कविताएँ
1. घर: तीन कविताएँ
एक
नाम के भरम में
मत पड़ जाना
यहाँ संगमरमर वाली बात
नहीं है कहीं
दरवाजे पर टांग कर
रखा हुआ है प्रेम
जिसका एक सिरा पकड़ कर
अंदर आ जाना
दो
पता नहीं क्यों सपने में ही
बनता हैएक घर सुन्दर-सा घर
तारों भरा आंगन
एक लतर किसी फूल की
मेरे हाथों के बेहद नजदीक,
घर-
जैसे कोई भूलभुलैया
न जाने कितने कमरे,
मैं खोज रही हूं
अपने प्रिय को
पता नहीं किस कमरे में
छितराये किताबों के बीच
ले रहे हैं खर्राटे वो,
सपने में एक घर
घर में मैं और तुम….
तीन
यह किस वक्त पर
बना यह घर
जब तुम्हारे
सारे दांत टूटे
दो-चार मेरे
गायब हो गए
सर के सारे बाल तुम्हारे
और अशोभनीय सी
मेरी मांग चैड़ी
ये किस वक्त
हुई एक छत
जहां न तुम
चढ़ सकते हो
न मैं’
चांद के गोल थाल
पर कविता
न तुम लिख सकते हो
ना मैं
यह किस वक्त पर
बना यह घर।
2. छूना
मेरे हाथ
आकाश तक
नहीं पहुंचते
इसीलिए अनछुआ
रह गया आकाश
मैं जमी को छूती हूं
मेरे हाथों से
मिट्टी की
महक आती है।
3. अंतरिक्ष
मैं
अंतरिक्ष से
पृथ्वी को
देखना चाहती हूं
जहां से देश,देश नहीं दिखता
जाति,जाति नहीं दिखती
जहां से
केवल मनुष्य
दिखता है
4. घर खर्च
मेरी हंसी थी मीठी
तुम्हारी हंसी थी
नमकीन
खर्च होता रहा
घर चलता रहा।
5. फूल
तुम फूल पर
झुके हुए हो
मेरा चेहरा
फूल सा
हुआ जाता है
6. कार्तिक पूर्णिमा
आ चांद मैं
तुझे सजा दूं
मेरा झुमका
मेरी बिंदिया
आ मैं —
तुझे पहना दूं
गिलट की करधन
भारी बहुत है
जो तू पहने
बड़ा मुझे सुख है
फावड़ा तगाड़ी
बालू सिमेंट
मन करता है
सब तुझे सौंप दूं–
आ चांद
मैं तुझे सजा दूं
मेरी चिंता तू ले
एक दिन तू–
मुझसा जी ले
बच्चों को दे दे
अपना विछौना
चल गुदरी में
तू सो ले—-
सोचू्ं कि कभी
इस धरती पर
कान पकड़ मैं–
तुझे उतार दूं
आ चांद मै तुझे
सजा दूं
7. बांसुरी और रंग
अगर बांसुरी होती मैं
तो ये सातो रंग मेरे गुलाम होते
सातों रंगो का जैसे
एक आसमा एक ही दिल
और एक मैं होती
मेरे हुक्म से काला रंग
डाल देता तानाशाह के
चेहरे पर जब वो
अनर्गल बोलता है.
इन दिनों तुलाराम
बाँसुरी वाला मेरे शहर के
गलियों से गुजरता है
मेरे से अपनी तस्वीर
खिंचवाता है
एक दिन तुलाराम से
मैंने पूछा–क्या तुम –
बाँसुरी से अपनी बात मनवा सकते हो…
तुलाराम नहीं समझता मेरी भाषा
8. मछुआरिन और समुद्र
सुंदरवन के
बंगाल की खाड़ी के पास
जहां गंगा गिरकर
सागर से —
मिल जाती है
वहां उतरती है
मछुआरिन चंपा
ज्वार में—
जब पानी फूल कर
चढ़ाई पर होता है
चंपा गले तक
जाल खींचकर
छपाक से फेंकती है
सागर में —तब
छिन्न-भिन्न हो जाता है चांद
चौंक उठता है सागर
फंसती है बड़ी मछलियां
सागर पर जीत की
चोट करती, खिलखिलाती है
चंपा मछुआरिन
बाजार में बात करती
चंपा की दो आंखों की
मछलियां
बाजार में मछली
यों ही तो नहीं आ जाती
कहती है चंपा
9. तुम्हारा होना और हमारा होना
तुम
जो कहते हो
समाप्त हो जाए
उसका देश
चूर-चूर हो जाए
सब बिखर जाए
पर क्या तुम जान सकते हो
इसके बाद का हाल
जो न रहेंगे
मेरे प्रिय कवि महमूद हुसैनी,
सुरैया खातून
गुलाम अली का क्या होगा
और भी हैं कई-नाम
गिनाने बैठूं तो
चांद निकल आये
कितना जरूरी है
तुम्हारा होना,
हमारा होना….
10. पाकिस्तान डायरी
जाहिदा हिना
बीमार हैं अभी
पड़ोसी फातिमा ने
ठीक उस वक्त
यह बात कही
जब मैं उससे शक्कर
लेने जा रही थी
मेरे हाथ में एक कटोरी थी
फातिमा एक कप
लेकर निकल रही थी
उसे दूध चाहिए था
वह उदास थी
हम बूढ़े हो रहे हैं
तेजी से—–उसने कहा
हां, पर हमें प्रेम करना नहीं आया
अब तक —-
चाय में मीठा
जरा तेज रखना
फातिमा ने जोर से कहा।
11. हिमा दास
हमे बताना कभी
फुरसत में कि
कितनी मिट्टी
मली हो अपने बदन पर
चली हो कितनी दूर तक तुम
नंगे पैर–
बताना हमें
कितने दिनों तक
थी तुम भूखी और
कब-कब खाई थी
थाली भर भात
बताना जरा
कब की थी बात
किसी कत्थई चिड़िया से या
कि कब-कब सीखी थी उससे
उसकी उड़ान की भंगिमा
हिमा दास
बताना जरा
चट्टानी बिस्तर पर
कब आई थी तुम्हें
भरपूर नींद और नींद में
तुमने देखा था
कौन सा सपना
हिमा दास, यह तुम्हारा
विजय पावस पर्व
चल रहा है।
12 अन्तिम खत
धरती के लिफाफे में
मैं अपना अन्तिम खत
डाल रहा हूं कि मैं
जल रहा हूं
कट रहा हूं
अविरल
मैं पल-पल
मर रहा हूं
मैं जंगल
हो सके तो मुझे
बचा लो।
13 . छपाक
रात की नदी में
जब डूबा चाँद
मेरी नींद में
आवाज आई
छपाक।
14. चाँद
रात भर
मुहब्बत की
रोटी पकती है
तारों भरे आकाश में।
15 . स्त्रियाँ
स्त्रियाँ अब
जमाने से आँख बचाकर
नहीं चलती
न नजर झुका कर चलती हैं
न बदन चुराए
सकुचाई सी
स्त्रियाँ
न अपने साये से
खौफ खाती हैं
न अपनी ही पहनी
चूड़ियों की आवाज से
झेंप जाती हैं
स्त्रियाँ उड़ाकर
हवा में आंचल
खुलकर हँसने लगी हैं
स्त्रियाँ…….
बिंदास होने लगी हैं
आओ, तुम भी बदलो।
शुक्ला चौधुरी (जन्म – 6 जनवरी 1951, निधन – 23 मई 2021)। आरम्भिक पढ़ाई बांग्ला में हुई। घर में पढ़ने का माहौल था। इसका असर हुआ कि किशोरावस्था में ही रवीन्द्र नाथ, शरतचंद, बंकिम आदि को पढ़ने का मौका मिला। बचपन में ही कविता-कहानी लिखने की आदत पड़ गई। जब आठवीं में थीं, उनका लिखा नाटक स्कूल में खेला गया। बाद में हिन्दी में लिखने-पढ़ने लगीं। कम उम्र में शादी की वजह पढ़ाई रूक गई। स्वाध्याय से आगे की शिक्षा प्राप्त की। उनकी रुचि संगीत में थी। इसमें विशारद की उपाधि प्राप्त की। हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। ‘छत्तीसगढ़ के कवि’ काव्य संकलन में कविताएं तथा ‘कथा मध्यप्रदेश’ में कहानी शामिल। बच्चों के लिए लिखी काव्य नाटिका ‘हमारी धरती’ तथा एक उपन्यास ‘इश्क’ डायमंड पाॅकिट बुक्स से प्रकाशित।
टिप्पणीकार कौशल किशोर, कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार
जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख.
लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक।
प्रकाशित कृतियां: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना त्रासदी पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दर्द के काफिले’ का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश – अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कविता के अनेक साझा संकलन में शामिल। 16 मई 2014 के बाद की कविताआों का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ और प्रेम, प्रकृति और स्त्री जीवन पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दुनिया की सबसे सुन्दर कविता’ प्रकाशनाधीन। समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपी प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
मो – 8400208031)