निरंजन श्रोत्रिय
स्त्री विमर्श जब ठंडा-सा हो तो वह स्त्री के पक्ष में खड़ा ज़रूर नज़र आता है लेकिन उसकी निर्णायक भूमिका संदिग्ध ही होती है। हम किस ओर हैं और हमारा मंतव्य क्या है, इसकी स्पष्टता बेहद अनिवार्य है खासकर कविता में।
युवा कवयित्री श्रुति कुुशवाहा की कविताओं में स्त्री विमर्श एक आक्रामक तेवर के साथ उपस्थित है। ये कविताएँ पता देती हैं कि कवयित्री अपनी कविताओं के साथ किस ओर मज़बूती से खड़ी है।
‘भाषा’ कविता में भाषा के चरित्र, उसके निहितार्थ और बदलते अर्थों की चिन्ता है। ज़ाहिर है यह एक ताकतवर भाषा की मांग है। ‘उम्मीद’ उस आशा को जगाती कविता है जब मनुष्य तमाम अँधेरों और नाकामियों से घिरा हो। यह कविता ‘उम्मीद’ शब्द में छुपी उजास से तआरुफ़ कराती है।
‘राई का पहाड़’ कविता में स्त्री विमर्श का वही स्वरूप है जिसका ज़िक्र टिप्पणी के आरंभ में किया-‘एक रोटी कम स्वीकार थी, कौर भर प्रेम नहीं/ उसने प्रेम को हृदय में रखा/ मान को ललाट पर।’ स्त्री और प्रेम को एकीकृत करती यह कविता मानो स्त्री को प्रेम की रोशनी में नए सिरे से परिभाषित करती है। ‘बोलना’ कविता में लोक छितराया हुआ है। लोक में प्रचलित रस्मों-रिवाज़ के बीच कवयित्री स्त्री को दी जाने वाली नसीहतों की चुटकी लेती है। कविता में पुरूष के दोमुँहेपन पर भी प्रहार है।
‘हड़ताल’ कविता यूँ तो हल्के ‘विट’ के साथ आरंभ होती है लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ती है मानो स्त्री जीवन को खोलती चली जाती है। स्त्री अपनी ही बनाई दिनचर्या में कैद है। वह इस घुटन से मुक्ति चाहती है भले ही एक दिन के लिए। इस कविता में स्त्री की अस्मिता की भी पुरजोर तलाश है- ‘और उठकर सबसे पहले/ घर के सामने लगाए अपनी नेमप्लेट।’ ‘पंचतत्व’ एक छोटी-सी प्रेम कविता है जिसमें ‘देखना’ एक क्रिया भर न होकर एक भीतरी जिजीविषा का विस्तार है।
‘कामना’ कविता को मात्र देह विमर्श या प्रेम में डूबी स्त्री की कविता मान लेना ठीक न होगा। इस कविता में उत्तेजना के बावजूद बचा हुआ स्त्री विवेक रेखांकित करने योग्य है। पुरूष को संबोधित ये वाक्य स्त्री के धैर्य, संघर्ष और उदात्तता को प्रकट करते हैं। ‘बुढ़ापा’ कविता में जीवन के उत्तरार्ध को जीने का दर्शन है। जाहिर है कि कविता में यह दर्शन किताबी न होकर जीवनानुभवों से निथरा हुआ सच है। मानो कविता सलीके से जीवन जीने का सूत्र बता रही है।
‘सुफ़ैद’ कविता में केवल एक रंग की कथा ही नहीं व्यथा भी है। इस कविता में श्रुति ने अनूठे बिम्बों का प्रयोग किया है-‘नीरव रात की आँख से टपका आँसू’,‘स्वप्न से अधिक सपनीला’,‘रंगों के घने जंगल में अदृश्य नदी की तरह’ इत्यादि। यह चाक्षुष संवेदनों की खूबसूरत कविता है। ‘उदासी’ एक मार्मिक कविता है…एक उदास कविता जिसके भीतर गुप्त ऊष्मा छिपी है। ‘उदासियाँ कभी फूट-फूट कर नहीं रोई’ जैसी अद्भुत पंक्ति मानो हमारे भीतर व्याप्त उदासी को हौले-से छू लेती है। उदासी के सौन्दर्य को कोई कवि ही देख सकता है।
‘दुख’ कविता का विषय यूँ तो नया नहीं लेकिन सुख-दुख का ब्यौरा कविता में झरने जैसा बहाव उत्पन्न करता है। सुख की क्षणभंगुरता और दुःख की शाश्वतता जीवन के सच हैं जिसे कवयित्री ने कविता के सच में तब्दील किया है। ‘रो लो पुरूष’ कविता का विषय लगभग अछूता है हिन्दी कविता में। ‘आदमी रोया नहीं करते/ ये कितना बड़ा षड़यंत्र है’ जैसी प्रभावी पंक्ति पुरूष संवेदना की पड़ताल करती जान पड़ती है। स्त्री विमर्श रचते हुए कवयित्री का पुरूष संवेदनों से एकाकार होना स्वयमेव अनूठी घटना है। ‘घूरना’ एक तल्ख कविता है। यह एक नाराज़ और विक्षुब्ध स्त्री की कविता है। समाज में आए दिन होने वाली ‘ईव टीज़िंग’ से उत्पन्न यह जायज़ गुस्सा मानो कविता में फट पड़ा है। विमर्श की कविताओं में ऐसा क्रोध कभी-कभी ज़रूरी होता है। यह कविता एक आवश्यक लताड़ भी है।
युवा कवयित्री श्रुति कुशवाहा की ये कविताएँ प्रेम और स्त्री विमर्श की ज़रूरी कविताएँ हैं। ये कविताएँ जहाँ स्त्री के पक्ष में डटकर खड़ी हैं वहीं पुरूष संवेदनों के प्रति भी उतनी ही सजग हैं। यह कविता का ‘मध्य मार्ग’ नहीं आवश्यक मार्ग है।
श्रुति कुशवाहा की कविताएँ
1. भाषा
इन दिनों रास्ता भटक रही है भाषा
अब विरोध कहने पर विद्रोह सुनाई देता है
असहमति कहने पर अराजक
लोकतंत्र कहते ही होने लगती है जोड़तोड़
धर्म कहो सुनाई देता है भय
अब तो सफ़ेद भी सफ़ेद नहीं रहा
और लाल भी हो गया है नीला
यहाँ तक कि अँधेरे समय को बताया जा रहा है सुनहरा
ऐसे भ्रमित समय में
मैं शब्दों को उनके सही अर्थों में पिरोकर देखना चाहती हूँ
सोचती हूँ शहद हर्फ़ उठाकर उँडेल दूँ शहद की बोतल में
तुम्हारे नमकीन चेहरे पर मल दूँ नमक का नाम
आँसू को चखा दूँ खारा समंदर
रोशनी को रख दूँ मोमबत्ती की लौ पर
मैं इंसाफ बाँट आना चाहती हूँ गली के आखिरी छोर तक
और बचपन लिखने के बजाय
बिखेर देना चाहती हूँ अखबार बेचते बच्चों के बीच
सपने टूटने से पहले
सजा देना चाहती हूँ आँखों में
और प्यार को इश्तिहारों से उठा
मन में महफूज़ रखना चाहती हूँ
मैं भटकी हुई भाषा को उसके घर पहुँचाना चाहती हूँ।
2. उम्मीद
मैंने थोड़ा अनाज बचा रखा था
कड़े दिनों के लिए
थोड़े पैसे छिपाए किताब में
बुरे वक़्त के लिए
थोड़े-से रिश्ते सहेजे थे
भविष्य का सोच
थोड़ा नाम कमाया
पहचाने जाने को
मैंने उदासियों के मौसम में
उम्मीद के कुछ बीज बोए थे
ज़रूरत पड़ी तो पाया
आधा अनाज चूहे खा गए
पैसों के साथ किताब भी सिल गई
रिश्ते सब छूट गए
नाम गुम गया
मैं थोड़ी और उदास हो गई
तभी देखा
उम्मीद की फसल लहलहा रही थी
इस उम्मीद ने मुझे हर बार
भूख प्यास या सदमे में मरने से बचाया है।
3. राई का पहाड़
पहाड़ से जीवन के लिये काफी था राई बराबर प्रेम
राई बराबर प्रेम में रत्ती भर कमी रह ही जाती
रत्ती भर कमी भी मंज़ूर नहीं थी मान वाली स्त्री को
एक रोटी कम स्वीकार थी, कौर भर कम प्रेम नहीं
उसने प्रेम को हृदय में रखा
मान को ललाट पर
स्त्री का हृदय हमेशा घायल रहा
और जीवन भर दुखता रहा माथा
मानिनी स्त्री को राई भर प्रेम मिला
उसने राई का पहाड़ बना दिया
पहाड़ों को काटकर निकाली नहर
बंजर में उगाया धान
पत्थरों में फूल खिलाए
प्रेम सबसे सुंदर फूल था
नेह के बिना पहाड़ तो जी जाते हैं
फूल नहीं
मान वाली स्त्री का मन भी बड़ा होता है
बड़े मन और बड़े मान वाली स्त्री को
भला कब सहेज पायी है दुनिया
इसलिये अब स्त्री ने ख़ुद से प्रेम करना सीख लिया है
4. बोलना
शादी की रस्मों के बीच
माता पूजन के बाद खिलाया था मीठा पान
पान का बीड़ा मुँह में रखते
ताई जी ने दिया उलाहना
लाड़ी का मुंडा म रिवाज को पान खवाड़ी न
सदा क लेण ढक्कण लगाओ
मैके जाने की इच्छा जताते ही
उसने कहा मम्मी से पूछ लो एक बार
अपने ही घर जाने के लिए
अब लेनी होगी इजाजत
बोल ही उठी थी कि
होठों पर होंठ रख बंद कर दिया मुँह
आवाज़ भीतर ही घुट गई
आठ मार्च को न्यूज़रूम मीटिंग में
दिखाई थी एसिड विक्टिम की स्टोरी
डपटते हुए बोले बॉस
आज के दिन फील गुड कराना है
हर बात पर ओवर टाक क्यों करती हो
ससुराल से पिटकर आई सहेली को
पुलिस के पास ले जाने गई
उसकी माँ ने पकड़ लिया हाथ
तुम्हारी कविताओं से जीवन नहीं चलता
घर चलाने के लिए मुँह बंद भी रखना पड़ता है
मुँह बंद रखने की नसीहत कदम कदम पर मिली
मेरी कलम को मुँह बंद करना आया ही नहीं।
5. हड़ताल
मैं चाहती हूँ
दुनिया की तमाम स्त्रियाँ
एक दिन की हड़ताल पर चली जाएँ
माएँ छुट्टी लें महानता के पद से
एक दिन रोते बच्चे को पुरूष के जिम्मे छोड़
अपनी पसंद का उपन्यास पढ़ने बैठ जाएँ
चार बार उठे बिना चैन से हो खाना
खाने के बीच साफ न करनी पड़े बच्चे की पॉटी
आधी रात बच्चे के रोने से न टूटे नींद
अलसुबह न उठना हो दूध पिलाने
उस एक रात बचपन की सहेली को बुला
ड्राइंग रूम में सोफे पर फैल
देर रात तक मारे गप्पे
सारी माएँ इस दिन बच्ची बन जाएँ
प्रेमिकाएँ सारे चुम्बन स्थगित कर
अपने बाएँ पैर की छिंगली से
प्रेमी के अहंकार को परे झटक
निकल पड़े लॉंग ड्राइव पर
लौटकर बताए कि कितना उबाऊ है प्रेमी का लहजा
और प्यार का तरीका बोझिल
बताए कि वो आज भी है प्रेमी से बेहतर
और शहर में अब भी हैं कई खूबसूरत नौजवान
आज भी है बारिश कितनी रोमंाचक
आज भी है संगीत कितना मोहक
प्रेम करने के लिए और भी अच्छी चीजेें हैं दुनिया में
पत्नियों को तो हड़ताल के लिए
इतवार ही चुनना होगा
उस दिन वो सोई रहे देर तक
और उठकर सबसे पहले
घर के सामने लगाए अपनी नेमप्लेट
ये उन्हीं का चुना हुआ नाम हो
जिसे पुकारा जाना सबसे मीठा लगे
फिर अपने घर में इत्मीनान से पसर चाय पिये
इस वाले इतवार पत्नियाँ पहनें
अपनी पसंद का रंग
खाएँ अपने स्वाद का खाना
टीवी का रिमोट हो उन्हीं के हाथ
अपनी मर्जी से देखे वो दुनिया
हड़ताल वाले दिन
सारी कामकाली औरतें
दफ़्तर की लॉबी में बैठ ताश खेलें
जोर जोर से करें बातें
उनके कहकहों से गूँज उठे दफ़्तर
उनकी मौजूदगी से भर जाए हर कोना
उस दिन इन्हीं का कब्ज़ा हो
रिसेप्शन, कॉरिडोर, गेस्ट रूम और लिफ्ट पर
सारे आदमी सीढ़ियों से चढ़े-उतरें
रोज उन्हें घूरने वाली नज़रें
जो बचकर निकलने की कोशिश में हो
तभी कोई कोकिला गुनगुना उठे
‘हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती हैं हर निगाह खरीदार की तरह’
यूँ शर्म से पानी-पानी आदमी के जूते भीग जाएँ
दुनिया की तमाम बेटियाँ, सहेलियाँ, सहकर्मी, दोस्त
दादी नानी चाची मामी बुआ भाभी
लेस्बियन स्ट्रेट सिंगल कमिटेड
यह वह ऐसी वैसी अच्छी बुरी
संज्ञा सर्वनाम क्रिया विशेषण
जिस दिन ये सब हड़ताल पर चली जाएँगी
यकीन मानिए
उस दिन सारे पुरूष
स्त्री होना सीख जाएँगे
उसी दिन वो पुरूष से मनुष्य में तब्दील होंगे।
6. पंचतत्व
मैंने तुम्हें देखा
आकाश-सी विस्तृत हो गई कल्पनाएँ
पृथ्वी-सा उर्वर हो गया मन
सारा जल उतर आया आँखों में
अग्नि दहक उठी कामना की
विचारों को मिल गए वायु के पंख
देखो न
कितना अच्छा है देखना तुमको
7. कामना
कामना में डूबी स्त्री की आँखें लाल
और होंठ नीले होते हैं
जब तुम इन नीले होठों को चूमते हो
तो नाभि के पास खिंच जाती है दो लकीरें
एक होती है लज्जा
और एक अधैर्य की
तुम्हारे स्पर्श से उपजी कंपकंपाहट
और श्वास की सीत्कार से
स्त्री एक स्वप्न को जन्म देती है
उस स्वप्न में वो तुम्हारा हाथ पकड़
पानी पर चल रही है नंगे पाँव
सुनो पुरूष
नदी पार करने के बाद
स्त्री के पैरों को भी चूम लेना
ये पैर तुम्हारे पास
सदियों की दूरी नापकर आए हैं।
9. बुढ़ापा
हमने ठीक से बूढ़ा होना नहीं सीखा
जवानी के ब्याह को प्रेम समझा
उम्रदराज़ प्रेम को अपराध
जबकि ब्याह और प्रेम को
ठीक-ठीक साधना
इसी उम्र में संभव था
जमा करना था बैंक और घर में
जितनी एफडी उतना समय
किसी की बीस साला शिकायतें दूर करनी थी
किसी की हालिया तल्ख़ी
बच्चों को बताना था
माता-पिता भी उतने ही इंसान होते हैं
गलतियाँ उनसे भी हो जाया करती है
यही खेलने खाने की असल उम्र है
लेकिन कुछ परहेज के साथ
ये उम्र दिलों से खेलने के लिए नहीं
ज़्यादातर दिल कमज़ोर हो चुके होते हैं
ये आँखें फेरने की नहीं
आँखें मिलाने की उम्र है
जो करना है अब करना है
इस उम्र में कल नहीं आता
इस उम्र का कल आशंकाओं से घिरा है
इस उम्र तक समझ जाना चाहिए
बहुत शुचितावादी नहीं होता जीवन
कुछ गोपन इच्छाएँ होती हैं
कुछ जाहिर चूक
इस उम्र तक आते-आते
मैल छंट जाना चाहिए
अपराधबोध धुल जाना चाहिए
ग्लानि घुल जाना चाहिए
बहुत से बंधनों के बीच
खुद को मुक्त करते रहना ज़रूरी
बहुत ज़रूरी है प्रेम को
प्रेम से स्वीकारना
स्वीकार सबसे बड़ा मोक्ष है
बुढ़ापे का पहाड़ा शुरू करते ही
बाकी सारा गणित भूल जाना चाहिए
हम जो न जी पाए ढंग का बचपन
कायदे की जवानी
कम से कम बुढ़ापे तक तो तरतीब से पहुँचे
सीखने को अब भी क्या देर हुई है
आइये एक खुशहाल बुढ़ापा जीना सीखते हैं।
10. सुफ़ैद
सुफ़ैद नीरव रात की आँख से टपका आँसू है
रंगों के घने जंगल में
अदृश्य नदी की तरह
भाषा के कोलाहल में
अतल मौन-सा
स्वप्न से अधिक सपनीला
पारदर्शी से ज्यादा पवित्र
सुफ़ैद चाँद है जिसे सोन मछरी निगल गई है
समंदर स्तब्ध है
आकाश अवाक
पृथ्वी घूमते-घूमते थम गई है
सोन मछरी ने मूँद ली हैं आँखें
उसके गर्भ में मोतियों की लड़ें हैं
अजन्मे चाँद को पिरोती हुई
सुफ़ैद बेवजह फिंका हुआ नमक है
अब इसे उठाना होगा
आँख की पुतलियों से
नानी ने टोका था कभी
नमक ज़ाया नहीं करते
नमक का नाम भले स्वाद हो
नमक की कीमत सज़ा है
सुफै़द वो कफन है मैं जिसमें लिपटी हुई हूँ
ये कभी प्रेम-सा रंगीन था
हर रंग एक दिन सुफ़ैद हो जाना है
ये सबसे सुंदर शृंगार है
सबसे मोहक आरज़ू
इसकी गोद में ठंडक है
मैं आजीवन जलती रही हूँ
खुद को खोकर सब पा जाना है सुफ़ैद
तुम इसे अब तक महज़ रंग समझते थे…।
11. उदासी
उदासियों ने सबसे रंगीन बारात सजाई थी
उदासियों ने लिखे थे सबसे खूबसूरत नग़में
दिन खाली खाली बर्तन है
और रात है जैसे अंधा कुआँ
कुएँ की मुंडेर पर बैठी उदासियाँ
पानी के अक्स पर बनाती रही रंगोली
उदासियों ने वरा था अकेलापन
दोनों ने एक दूसरे से खूब निभाई
उदास आँखों में सबसे ज्यादा नशा था
उदास हथेलियों में सबसे अधिक ऊष्मा
छिपन-छिपाई खेलती उदासी
अक्सर मन के भीतर छिप जाती
वहाँ उसे ढूँढना मुश्किल था
छिपी उदासी कोई नहीं देख पाया
उदासियाँ कभी फूट-फूटकर नहीं रोई
वो बड़ी शातिराना मुस्कुराती थी
होठों पे गुलाब आँखों में काजल सजाए
वीरान उदासी बेइंतिहा खूबसूरत दिखी
खूबसूरती की आड़ में उदासी
खुद को बचाने का हुनर जानती है
ताल्लुक निभाना कोई उदासी से सीखे
दुनिया ने जब दिल तोड़ा
उदासी पास आ बैठी
उसने थामा हाथ
उसने दी थपकी
उसी ने सिखाया बेआवाज़ रोना
उदासी मेरे घर का पता है…।
12. दुख
दुख के ताप से सूरज को मिलती है जलने की ऊर्जा
इस संसार में जितनी आग है
जितना लावा
जितने भी धधकते हुए सीने हैं
सब दुख की दमक से भरे हैं
दुख को धुरी पर घूमती है पृथ्वी
सुख एक चमत्कार है
जो कभी कभी घटता है
अक्सर भ्रम अधिक सत्य कम
दुख धरती की दिनचर्या है
पेड़ों के फल भले सुख हो
जड़ें दुख से गुँथी हुई हैं
सुख को पालना कठिन हैै
उसे हर वक्त प्रशस्ति की कामना रहती
वहीं थोड़े में गुजारा कर लेता है दुख
दो आँख और मुट्ठी भर हृदय में
जीवन भर के लिये बस जाता
दुख को आदत है साथ निभाने की
दुख और सुख सहोदर हैं
और एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न
दोनों की आपस में बिल्कुल नहीं बनती
दोनों एक साथ कभी नहीं ठहरते
सुख घुमक्कड़ आवारा है
दुख स्थायी ठिकाना
सुख एक बेईमान प्रेमी है
जिसके पीछे पीछे चला आता है हमसफ़र दुख।
13. रो लो पुरूष
जितना जरूरी धरती के लिए
जितना जरूरी जीवन के लिए
उतना ही जरूरी है पानी
आँखों के लिए भी
आँख में पानी रहे तो साफ़ दिखती है दुनिया
पानीदार आँखें सहेजती है जीवन की नमी
लेकिन तुम पर तो सदियों से बेपानी रहने का श्राप है
आदमी रोया नहीं करते
ये कितना बड़ा षड़यंत्र है
कितनी कठोर सजा
कितना भारी बोझ
तुम्हें हमेशा बताया गया
नदी स्त्रीलिंग है
और इस बहाने बना दिया रेगिस्तान
बंजर आँखों के कारण बाँझ रहा मन
बाँझ मन ने तुम्हें पुरूष के सिवा कुछ न होने दिया
क्या ही अच्छा होता कि रो लेते एक बार
देखते कि नदी होना पुरूष होने के विरूद्ध नहीं
रोने से पौरूष नहीं खोता
रोना निर्बल होना नहीं होता
रो लेने से सब खाली हो जाता है
भीतर भरे हो तभी तो
बाहर अधिक जगह घेरते हो
तभी तुमने स्त्री को कम जगह दी
रो लेते तो भीतर तुम्हारे लिये थोड़ी जगह हो जाती
बाहर स्त्री के लिये
ओ पुरूष
मैं तुमसे बेहद प्रेम करती हूँ
इसलिये चाहती हैं एक बार रो लो
रो लो ताकि ज़िंदा होने का यकीन बना रहे
रो लो कि रोने पर सिर्फ स्त्रियों का अधिकार नहीं।
14. घूरना
न्यूज़ रूम में सबसे पहले टोका था
टाइम ऑफिस के अटेंडेंट को
चेहरा नीचे नहीं यहाँ है
इधर देख कर बात करो
उससे भी पहले दिल्ली में ही
रात आठ बजे भरी सड़क पर
दो बाइक सवार बगल से निकले
पीछे वाले ने मसल दिया था स्तन
बहुत तेज़ दर्द हुआ था अपमान का
उसके बाद से आवाज़ में तुर्शी आ गई
लहजे़े में कठोरता
आँखों में देख बात करने की हिम्मत ही नहीं पुरूष में
चेहरे पर भी टिकती नहीं नज़रें
एकटक घूरता वक्षों को
पुरूष बिल्कुल लपलपाता लिजलिजा कीड़ा लगता है
मेरे मन में हिंसक ख़याल आते हैं
कीड़े को मसल देने के
लेकिन मैं कड़वी ज़ुबान और तीखी नज़रों से काम चलाती हूँ
ट्रेन में मैंने ज़ोर से बोला था
क्या देख रहा है बे
शर्मिन्दा पुरूष
मुझे छोड़ किसी और को घूरने लगता है…।
कवयित्री श्रुति कुशवाहा, जन्म : 13/02/1978 भोपाल, मध्यप्रदेश
शिक्षा : पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि. भोपाल, वर्ष 2001)
प्रकाशन: कविता संग्रह ‘कशमकश’ वर्ष 2016, साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग, भोपाल के सहयोग से प्रकाशित
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ-कहानियाँ प्रकाशित
पुरस्कार: कविता संग्रह ‘कशमकश’ को वर्ष- 2016 ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्राप्त, वर्ष 2007 कादंबिनी युवा कहानी प्रतियोगिता में कहानी पुरस्कृत, पत्रकारिता हेतु वर्ष 2022 में ‘अचला सम्मान’ से सम्मानित
अगला कविता संग्रह राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य
संप्रति : ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज़ दिल्ली, लाइव इंडिया मुंबई, सहारा न्यूज़/बंसल न्यूज़ भोपाल, टाइम टुडे आदि न्यूज़ चैनलों में कार्यरत रहने के बाद अब गृहनगर भोपाल में पत्रकारिता एवं लेखन
संपर्क : बी- 101, महानंदा ब्लॉक, विराशा हाइट्स, दानिश कुंज, कोलार रोड, भोपाल, पिन- 462042 (म.प्र.)
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टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।
संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com