प्रज्ञा गुप्ता
वस्तुतः सौंदर्य एवं प्रेम की रक्षा के लिए हम संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं। जिस कवि में सौंदर्य की भावना जितनी गहरी और व्यापक होती है वह उतना ही संघर्षशील होता है। शोभा अक्षर एक ऐसी कवयित्री हैं जिसे जीवन में सुख और दुख दोनों स्वीकार हैं। जीवन के संघर्ष में शोभा अक्षर प्रेम के पक्ष में डटकर खड़ी नजर आती हैं क्योंकि वह जानती है प्रेम करना पराधीनता के बंधन तोड़ना है। और जो प्रेम करेगा उसे प्रकृति से भी प्यार होगा इसलिए कवयित्री का मानना है कि
“प्रेम में पड़ जाओ
प्रेम में पड़ना
नदियों में पानी को बनाए रखना है”
शोभा अक्षर भली-भाँति जानती हैं कि प्रेम के पक्ष में खड़ा होना मानवता के पक्ष में भी डटे रहना है। अतः उनका कहना है
“प्रेम करो
क्योंकि दुनिया के सभी तानाशाह प्रेम से डरते हैं”
शोभा की कविताएँ यह स्पष्ट करती हैं कि यहाँ प्रेम में बस पाना ही नहीं ,खोना भी है और इसलिए उनके यहाँ प्रेम करने की कोई हड़बड़ी नहीं। अपने प्रेम के लिए वह किसी का विध्वंस नहीं चाहती। प्रकृति से परे जाकर प्रेम करना उसे स्वीकार नहीं और इसीलिए वह स्पष्ट कहती हैं-
इन्तिज़ार करना, प्रेम करना है
जो पेड़ से फूल तोड़ने में
झिझकते हैं
वे प्रेम करना जानते हैं।
शोभा अक्षर जिस चेतना को लेकर कविताएँ रच रही हैं वहाँ स्त्री-पुरूष समानता का वर्तमान पक्ष ही नहीं; भूत और भविष्य दोनों शामिल हैं। वह किसी भुलावे में नहीं रहना चाहती। इसलिए वह कहती हैं –
“किसी सदी के
न उत्तरार्ध में
ना ही किसी धर्म ग्रंथ में
स्त्रियों को दर्ज होना है
नीति -ग्रंथ के पूरे काल में”
कवयित्री के मन -मस्तिष्क में स्मृतियों की एक लंबी शृंखला है। इन स्मृतियों में अच्छी-बुरी दोनों स्मृतियाँ हैं लेकिन उसे पता है कि जीवन को अनुशासित रखने के लिए स्मृतियों में कैद होना खतरनाक है। अतः वह स्पष्ट रूप से कहती हैं कि आगामी जीवन की राह में स्मृतियाँ आयेंगी लेकिन हमें निष्पक्ष होकर चलना सीखना चाहिए क्योंकि जीवन का एक अनुशासन होता है।
शोभा अक्षर की ‘नाक’ एक ऐसी कविता है जिसमें पितृसत्ता का भयावह चेहरा सामने आता है परिवार की इज्जत बचाए रखने के नाम पर, नाक ना कट जाए इस ख़याल से परिवार की स्त्रियाँ ही पित्तृसत्ता की उस भयावहता को कायम रखती है जिसका उन्हें हमेशा पुरजोर प्रतिकार करना चाहिए। प्रतिकार नहीं कर पाने का दर्द बहुत ही मार्मिकता से ‘नाक’ कविता में दर्ज है।
नाक जिसे उसकी माँ ने चुपचाप नानी के कहने पर
कई सालों से छुपा कर रखा है एक गंदे पुराने सिंकुड़े हुए चौकोर कपड़े में
गठिया कर
किनारी जिसकी उघड़ी हुई है
कपड़े के कोने पर
बना हुआ है सफेद कबूत्तरों का एक जोड़ा
शोभा की यह कविता जिस मार्मिकता से इस प्रसंग को अभिव्यक्त करती हैं वह मन को झिंझोड़ जाती है। न जाने कितनी ही लड़कियों के जीवन में इस तरह की स्थितियाँ आती होंगी जिसमें घुट-घुट कर रहना उनकी नियति बन जाती है।
शोभा अक्षर समाज में व्याप्त उस कुण्ठाग्रस्त नज़रिये का विरोध करती हैं जिसका सामना अक्सर स्त्रियों को करना पड़ता है। हमारे समाज में स्त्री को ‘मादा’ की तरह देखे जाने का नज़रिया कायम है; जहाँ स्त्री जन्म के बाद से ही असुरक्षित है। शोभा के अंदर की कवयित्री उसका विरोध करती है। यह हमारे समाज का चलन है कि यौन-अत्याचार होने पर स्त्री को चुप रहने की सलाह दी जाती है। बार-बार स्त्री को नाक कटने का भय दिखाया जाता है ताकि उसकी चुप्पी बनी रहे। शोभा उस चुप्पी को बार-बार तोड़ना चाहती है-
“और ये वही लड़की है
जिसकी वजह से
अक्सर कट जाती है नाक
नाक बहुत बड़ी है
कटते-कटते खत्म भी नहीं हो रही है ।“
शोभा अक्षर की कविताओं में प्रतिकार की जो आग है उसकी निरंतरता कायम रहे इसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह और अधिक मुखर हों। प्रेम, सृजन संघर्ष अपने शिल्प के साथ उनकी रचनाओं में बनी रहे।
शोभा अक्षर की कविताएँ
1. दुःख सबको माँजता है
दुःख एक सभ्यता है
सदियों से चली आ रही
कभी न नष्ट होने वाली
एक सभ्यता
दुनिया के सभी जीव
इसके नागरिक हैं
दूसरी सभ्यताओं की तरह
यह भी
नदी के किनारे बसी है
जिसमें गिरते हैं
अनगिनत आँसुओं के झरने
रोना, सुख भी है
बची रहे रोने की सभ्यता
इसलिए ज़रूरी है दुःख
दुःख सबको माँजता है
सुख को भी।
2. नाक
वह बारह साल की थी
जून की एक दोपहर
ममेरे भाई ने घर पर
बाथरूम के पास
दबाये थे उसके हल्के उभरे स्तन
और ज़बरन हाथ को
चमड़े के बेल्ट के नीचे
पैंट की चेन के भीतर डाल दिया था
बेल्ट के बक्कल पर बना हुआ था
अंग्रेज़ी का एम
लम्बी-लम्बी सांसें लेते हुए वो पकड़ा रहा था
बार-बार उसे अपना गुप्तांग
जिसे उसने फुर्ती से बाहर निकाल कर
रख दिया था
वैसे ही
जैसे सजाए जाते हैं पारदर्शी काँच के भीतर
सर्राफ़े की दुकान में सोने और चाँदी के जेवर
अभी मई में उसने क्लास फिफ्थ का
फ़ाइनल पेपर दिया था
और थोड़ी देर पहले तक उसे
करसिव राइटिंग में
कैपिटल एम लिखना बेहद पसन्द था
उसके जीवन में हर रोज़ की तरह
जब उस दिन भी
आसमान में ढेर सारे हवाई जहाज़
रफ़ कॉपी के पन्नों से बने हुए
उड़ रहे थे
उसी वक़्त उस ममेरे भाई की आँखों में
हवस, करंट की तरह दौड़ रही थी
खरगोश की तरह झटकते हुए
पूरी ताक़त बटोर कर
छुड़ा लिया था उसने अपना हाथ
लेकिन उसकी उँगलियों में
एक किस्म की गन्ध
अभी बची हुई थी
घिनौने लिजलिजेपन से लिपटी हुई
तेज़ी से डर कर भागी थी वह
यह सोचते हुए
कि अब तो कट जाएगी ‘नाक’
नाक जिसे उसकी माँ ने चुपचाप
नानी के कहने पर
कई सालों से छुपा कर रखा है
एक गन्दे पुराने सिकुड़े हुए चौकोर कपड़े में गठिया कर
किनारी जिसकी उधड़ी हुई है
कपड़े के कोने पर
बना हुआ है सफ़ेद कबूतरों का एक जोड़ा
अब वह थोड़ी बड़ी हो गयी है
और अट्ठाइस नम्बर के साइज की
सी-कप ब्रा पहनती है
एक बार इसी लड़की ने अपने सगे भाई को
थप्पड़ मार दिया था
घर के पास एक पुलिस स्टेशन में सबके सामने
उसी दिन से उसका कोई सगा भाई नहीं है
और ये वही लड़की है जिसकी वजह से
अक्सर कट जाती है नाक
नाक बहुत बड़ी है
कटते-कटते ख़त्म भी नहीं हो रही है
3. स्मृतियाँ
दो लोगों की
एक साथ बिताए समय की स्मृति भी
एक जैसी नहीं होती
स्मृतियों का संसार बड़ा विचित्र है
पहाड़ के किस दरार से
झरना फूट पड़े,
खड़ा हुआ दरख़्त
सूख कर, कब गिर जाए
यह बताना मुश्किल है
वैसे ही,
धुँधलके को चीर कर
कौन-सी स्मृति, कब उभर आए
यह कोई नहीं जानता
बार-बार स्मृतियों के भीतर जाना
स्वाभाविक है
स्मृतियों में क़ैद होना ख़तरनाक
इसीलिए विकसित हो
स्मृतियों पर निर्भर न रहने की कला
एक ज़रूरी कला
4. इन्तिज़ार करना, प्रेम करना है
‘इन्तिज़ार’ सिखाता है
ठहरकर, पेड़ से गिरे पीले-पत्तों को
देखने का सही सलीक़ा
तभी मन बुनता है
वसन्त के धागों से
एक ग्रह, प्रेम का
यह ग्रह गोल नहीं है
यहाँ अनगिनत कोने हैं
बैठकर इन्तिज़ार करने के लिए
हर कोने पर यहाँ
रखी हुई है सतरंगी बेंच
इन्तिज़ार करना, प्रेम करना है
जो पेड़ से फूल तोड़ने में
झिझकते हैं
वे प्रेम करना जानते हैं
वे इन्तिज़ार करते हैं
फूल के झरने का
5. आग्रह
प्रेम, हड़तालों का पोस्टर है
आज़ादी के पक्ष में
एक आन्दोलन है
प्रेम करो
क्योंकि दुनिया के सभी तानाशाह
प्रेम से डरते हैं
प्रेम करो
जैसे प्रकृति, पृथ्वी से करती है
जैसे ट्रेन में सफ़र करते हुए
दो अनजान किशोर आकर्षण को जीते हैं
प्रेम में पड़ जाओ
प्रेम में पड़ना
नदियों में पानी को बनाए रखना है
6. एग्जिट का दरवाज़ा
खिड़कियों से प्रेम करो
दरवाज़ों से नहीं
बन्द रखने की अनिवार्यता
दरवाज़े के साथ है
खिड़कियों के साथ नहीं
खुली खिड़कियाँ
तर्कों का बयार लाती हैं
दरवाज़े से किसी को मत पुकारो
खिड़कियों से बात करो
खिड़कियों की रोशनी में
ज़िन्दगी के पन्ने पलटो
खिड़कियाँ दरवाज़ों से
नफ़रत करना नहीं सिखातीं
बस कभी-कभी फड़फड़ाती हैं
ताकि टूट के बिखरने से पहले
हम ढूँढ़ सकें
एक एग्जिट का दरवाज़ा
7. कटे-फटे अँधेरे
अँधेरा आने को है
थोड़ी देर में
आसमान में तारे
टिमटिमाने लगेंगे
कटे-फटे अँधेरों के बीच से
धुआँ बढ़ेगा
धरती की ओर
ज़मीन में धँस जायेगा
धँसा है दुःख किसी का
जैसे मेरे भीतर
उसके आसमान में
कोई तारा नहीं है
हम ‘दो’ हैं
मौन चल रहे हैं
रोशनी की ओर बढ़ते हुए
और अँधेरा साथ है
8. स्त्री और नीतिग्रन्थ
किसी सदी के
न उत्तरार्द्ध में
ना ही किसी धर्मग्रन्थ में
स्त्रियों को दर्ज़ होना है
नीतिग्रन्थ के पूरे काल में
वह ताउम्र भागती हैं रंगों के पीछे
बचाना चाहती हैं
आने वाली पीढ़ी के लिए
आकांक्षाओं के रंग
अतिक्रमण से
परम्परागत परिसीमाओं से
विसंगतियों से
विषमताओं से
दुष्परिणामों से
सिलसिलेवार वस्तुपरक उल्लेखों से
विडंबनाओं से
पितृसत्ता की खोखली व्यवस्था से
स्त्रियों का मनुष्य होना
विकल्प में?
नीतिग्रन्थ में दर्ज़ होने की ज़िद
यहीं से आती है
कवयित्री शोभा अक्षर, कवि, लेखक, पत्रकार, सम्पादक
साहित्य, सिनेमा एवं कला अध्येता। जन्म स्थान : अयोध्या, उत्तर प्रदेश। शिक्षा : जनसंचार एवं पत्रकारिता से परास्नातक (गोल्ड मेडेलिस्ट)।
पूर्व में ‘पाखी पब्लिशिंग हाउस’ की मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्यरत रहीं। साथ ही प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ में सहायक संपादक और डिजिटल एडिटर के पद पर रह कर भी कार्य किया। इससे पूर्व ‘वाणी प्रकाशन ग्रुप’ की एसोसिएट एडिटर के रूप में कार्य कर चुकी हैं।
शोभा अक्षर ने ‘दि संडे पोस्ट’, ‘ईटीवी भारत’, ‘एक्सप्रेस टीवी’, आदि में भी विशिष्ठ पदों पर रहते हुए पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया ।
इनकी कविता ‘नाक’ जो कि चाइल्ड एब्यूज पर आधारित है, अब तक भारत की आठ भाषाओं और बोलियों में अनुवादित हो चुकी है।
आपको प्रख्यात ‘अयोध्या रत्न पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका है। हाल ही में उन्हें साहित्यिक पत्रकारिता में विशेष योगदान के लिए कोलकाता और दिल्ली में आयोजित समारोह में दो महत्त्वपूर्ण सम्मान प्राप्त हुए। नारी सरोकार सम्मान – 2024 एवं वूमन एक्सीलेंस अवार्ड – 2024
इन्हें विभिन्न साहित्यिक परिचर्चाओं और फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स में बतौर विषय विशेष वक्ता आमंत्रित किया जाता रहा है। निर्मल पांडेय अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल में आप लगातार दो वर्षों तक ज्यूरी सदस्य रहीं।
किताब : ‘सफ़ीरों के नाम’ एवं ‘अभी दिल्ली दूर है’ का सम्पादन।
किताब : ‘मौसम बदलने की आहट’ कविता संग्रह में कुछ कविताएँ प्रकाशित।
‘हिन्दवी’ एवं स्त्री विमर्श पर केन्द्रित चर्चित वेबसाइट ‘स्त्री दर्पण’ पर कविताएँ प्रकाशित। इनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में एवं डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर प्रकाशित हैं। साहित्यिक यूट्यूब चैनल ‘अमलतास कैफ़े’ की भी संस्थापक हैं।
वर्तमान में शोभा अक्षर, प्रेमचन्द द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित हिन्दी पत्रिका ‘हंस’ में सहायक सम्पादक के पद पर कार्यरत हैं ।
ईमेल : shobhaakshar15@gmail.com
टिप्पणीकार प्रज्ञा गुप्ता का जन्म सिमडेगा जिले के सुदूर गांव ‘केरसई’ में 4 फरवरी 1984 को हुआ। प्रज्ञा गुप्ता की आरंभिक शिक्षा – दीक्षा गांव से ही हुई। उच्च शिक्षा रांची में प्राप्त की । 2000 ई.में इंटर। रांची विमेंस कॉलेज ,रांची से 2003 ई. में हिंदी ‘ प्रतिष्ठा’ में स्नातक। 2005 ई. में रांची विश्वविद्यालय रांची से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री। गोल्ड मेडलिस्ट। 2013 ई. में रांची विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 2008 में रांची विमेंस कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति ।
संप्रति “ समय ,समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में झारखंड का हिंदी कथा- साहित्य” विषय पर लेखन-कार्य।
विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
संप्रति स्नातकोत्तर हिंदी विभाग रांची विमेंस कॉलेज रांची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
पता- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,रांची विमेंस कॉलेज ,रांची 834001 झारखंड।
मोबाइल नं-8809405914,ईमेल-prajnagupta2019@gmail.com