समकालीन जनमत
कविता

शिरीष कुमार मौर्य की कविता में पहाड़ अपनी समस्त शक्ति एवं सीमाओं के साथ उपस्थित होता है

‘मनुष्यता के ग्रीष्म में रहता कवि- शिरीष कुमार मौर्य’

वसंत आते-आते मैं
शिवालिक के ढलानों पर खिला फूल हूँ जंगली घासों का
थोड़ी ही है मेरी उम्र
रंग कम हैं
सुकून बहुत कम है

पहाड़ एक ठस और रुकी हुई चीज़ है हमारी अनुभूति में. उसमें देखे हुए की गतिशीलता नहीं है लेकिन जब आप इस `भौगोलिक मिथक’ का अतिक्रमण करते हैं, जो कि एक संवेदनशील कवि को करना ही होता है, तब जाकर खुलता है पहाड़ कई स्तरों और बहुत से गतिशील बिम्बों में. निस्संदेह ये बिम्ब पहाड़ के बाशिंदों के `पहाड़ से जीवन’ के हैं. `कम सुकून, कम रंग और छोटी उम्र’ कहते हुए शिरीष उस लघुता को एकदम से सामने ले आते हैं जो पहाड़ के सामने खड़े इंसान की, प्रकृति की भयावहता और पहाड़ों पर रह रहे इंसान के बीच सामंजस्य एवं स्पर्धा की या विदीर्ण सामाजिक सरोकारों, दृष्टिहीन नेतृत्व, खस्ता हाल विकास के सूचकों के आगे इंसान की वैयक्तिक उपस्थिति के बीच होती है. शिरीष की कविता में पहाड़ अपने समस्त सामाजिक-सांस्कृतिक रंगों, शक्ति एवं सीमाओं के साथ उपस्थित होता है.

कवि अपने भूगोल का अतिक्रमण करता है. लेकिन कहना होगा कि उससे पहले कवि अपने भूगोल में रहता है. उसमें उसका वातावरण, सांस लेता है. ये उसी तरह की बात है कि जैसे कोई कालजयी कविता अपने मूर्त रूप में सबसे पहले तो अपने समय में रहती है और उसके बाद ही कालक्रम को तोड़कर किसी अन्य समय के लिए संदर्भित हो जाती है. अपने देश-काल-वातावरण से कटकर न तो कोई कविता लिखी जा सकती है न ही उसका कोई ख़ास मानी रह जाता है. हालांकि नई सूचना और संज्ञान प्रौद्योगिकी से आकंठ डूब चुके वर्तमान में देश, काल और वातावरण के बाबत किसी ठोस निष्कर्ष तक पहुंचना व्यवहार के स्तर पर थोड़ा मुश्किल पैदा करता है.

हमारे लिए समय की अनुभूति बदल गयी है, स्थान यानी भूगोल टूटा हुआ सा है और पूरे वातावरण को लेकर हमारी समझ में एक बदलाव है जो निश्चित तौर पर पिछले समय से अलहदा है, लेकिन फिर भी इस बदले हुए वाह्य परिदृश्य में कविता की आंतरिक सोच-समझ या उसका उद्देश्य वही है जो पहले था. अपनी शुरुआती काव्य अभिव्यक्तियों से लेकर बिलकुल नई रचनाओं तक शिरीष में बार-बार उनका परिवेश, उसमें रहने वाले लोग, जानवर, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे उपस्थित होते हैं. `काव्य अभिव्यक्तियों’ से एक ख़ास अभिप्राय है ये बताने का कि यहाँ बात सिर्फ कविता की नहीं है बल्कि शिरीष के समालोचनात्मक निबंधों, संस्मरणों और रेखाचित्रों में भी पहाड़ उनकी चिंताओं के केंद्र में रहा आया है.

आए कोई भी आए हमारे साथ और देखे अपनी आँखों से
कि किस तरह हम अपने भीतर घाटियों की तरह फैल जाते हैं
बुग्यालों की घास में फूलों की तरह चमकते हैं
हमारे छोटे-छोटे सुख
हमारे दुःख
दर्द का एक मुजस्सम पहाड़ बनाते हैं

पहाड़ का जीवन एक लम्बे इंतज़ार का जीवन है. विकास के मॉडल में बना दी गयी बहुत कमज़ोर आर्थिकी वाले इस भूगोल में इंतज़ार की जितनी मियाद है उससे अधिक किसी सुख या दुःख की नहीं. कभी सरहद पर या काम धंधे पर बड़े शहरों को गए किसी अपने का इंतज़ार, कभी खेती के ठीक होने, फसल उगने का इंतज़ार, कभी बारिशों के रुकने का इंतज़ार, कभी आपदाओं के खत्म होने का इंतज़ार, कभी राहत-सहायता का इंतज़ार. कुछ नहीं तो ऊपर चढ़ने या नीचे उतरने का इंतज़ार.
परदेस गए फौजियों-भनमंजुओं से लेकर
अमरीका और कनाडा तक गए इंजीनियर और डॉक्टर पहाड़वासियों के बूढ़े घरों के
सदियों पुराने पत्थर विलापते हैं
सड़ते हुए खम्बों में लकड़ियाँ विलापती हैं जिनके आंसू पी-पीकर
ज़िंदा रहती हैं दीमकें

शिरीष मौर्य की कविता का पहाड़ सिर्फ सौन्दर्य का पहाड़ नहीं है. उसमें सड़क बनाने वाले गैंगमेट की पसीने से तर उपस्थिति है, घर-बाहर संभालती स्त्री की जिजीविषा भी है, लगातार दूषित हो रहे पर्यावरण की चिंता भी है, लोकरंग, मिथक और किस्से भी हैं और है मौसम. पिछले बरस आया उनका संग्रह `रितुरैण’ कवि का प्रतिनिधि दस्तावेज ही नहीं एक तरह से पहाड़ का वसीयतनामा है. दुखद बात ये है कि किसी वसीयतनामे की तरह पहाड़ की इन चिंताओं पर पहाड़ के समाज मृत्यु के बाद ही कोई कार्यवाही हो पाएगी. संग्रह के पूरे वितान पर शिशिर, हेमंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, और वसंत किसी मौसम की तरह नहीं बल्कि समकाल में आम आदमी के जीवन में फैले अपार दुःख की तरह आते हैं. अजीब बात ये है कि संग्रह की सबसे ज्यादा कवितायेँ वसंत पर हैं और कविताओं में सबसे अधिक ज़िक्र वसंत का है. ये एक टीस की तरह लगातार चुभता रहता है. बुरे दिनों में सबसे अच्छे दिनों की याद सबसे ज्यादा आती है. हालांकि कवि बार-बार कहता है-

मैं अपनी उम्र को सालों में नहीं नापता
ऋतुओं में मापता हूँ
हर बार वसंत से नहीं
शिशिर से शरू करता हूँ

और ये कवि बार-बार मनुष्यता के ग्रीष्म में चला जाता है! मध्य प्रदेश में जन्मे शिरीष कुमार मौर्य, वर्तमान में कुमाऊँ विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर(हिन्दी) तथा महादेवी वर्मा सृजनपीठ के निदेशक हैं और उनके अब तक दस से अधिक कविता संकलन तथा समालोचना एवं अनुवाद की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. उन्हें प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार, लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान, वागीश्वरी सम्मान एवं गिर्दा स्मृति जनगीत सम्मान से सुशोभित किया जा चुका है. कहना न होगा कि मूल निवास की सरकारी परिभाषाओं से शिरीष पहाड़ के नहीं हैं लेकिन उनकी स्थाई भौतिक उपस्थिति और मानवीय संवेदनाओं से वो उतने ही पहाड़ी हैं जितने कि ये पहाड़- ठोस, दृढ़ और उदार.

 

शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ

 

1.ये शरद की राते हैं

ये शरद की रातें हैं
मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
इन्हें होना था सुंदर, हल्का और सुखद
पर ये विलाप की रातें हैं

पढ़ने की मेज़ पर देर रात बैठा रोता है एक आदमी
एक औरत बिस्तर पर गहरी नींद के बीच
बाढ़ में डूबती जाती है
संघर्ष करती हैं उसकी साँसें
वह सपने में बड़बड़ाती है

आस-पास
दूर तक फैले गाँवों में विलापती हैं दादियाँ
माँएँ विलापती हैं
बहनें और पत्नियाँ विलापती हैं

परदेस गए फ़ौजियों से लेकर
अमरीका और कनाडा तक गए इंजीनियर और डॉक्टर पहाड़वासियों के
बूढ़े घरों के
सदियों पुराने पत्थर विलापते हैं

सड़ते हुए खंभों में लकड़ियाँ विलापती हैं
जिनके आँसू पी-पीकर
ज़िंदा रहती हैं दीमकें

एक बच्चा
जो वर्षों पुरानी शरद की किसी दुपहर में रोया था
चुप है
शायद ख़ुश है दूर किसी महानगर में
अब पिता की आँखों में उतरा है
उसके पुराने आँसुओं का खारा पानी

ये शरद की रातें हैं मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
इन्हें होना था सुंदर, हल्का और सुखद

ज़मीनों की ढही हुई मिट्टी
शिखरों से गिरे हुए पत्थर
उखड़े हुए पेड़
बादल फटने से मरे लोगों की लापता रूहें
इन्हें भारी बनाती हैं
अँधेरों में छुपाती हैं

हमारे कितने ही बाआवाज़-बेआवाज़ विलापों का
भार लिए
जब झुकी हुई घूमती है पृथिवी
तो हमारे अक्षांश के कितने हज़ारवें अंश पर गिरते हैं उसके आँसू?

नींदों से भले बाहर हों
ढहते हुए सपनों और आती हुई तकलीफ़ों से ख़ाली नहीं हैं ये शरद की रातें

घाटियों और पहाड़ों के सूने कोने विलापते हैं
धरती पर इकट्ठा होती रहती हैं
ओस की बूँदें
ओस है कि आँसू?

शरद दरअसल ओस की शुरुआत भी है मेरे पहाड़ों
और मेरी छाती पर

ये शरद की रातें हैं
जिससे लदी हुई बहती हैं पतली-दुबली नदियाँ
आपस में मिलतीं
बड़ी और महान बनती हैं अपनी ही पवित्रता से पिटती हैं
उनके साथ दूर समुद्र तक जाती हैं ये शरद की रातें मेरे पहाड़ों की

समुद्रों का शरद अलग होता होगा
कछारों-मैदानों का अलग
बरसाती जंगलों का शरद
और मरुस्थलों का
हर कहीं रहते हैं दोस्त उनका शरद अलग होता होगा

ये शरद की रातें हैं बोझिल दर्द से भरी
इधर ख़ास-ख़ास पहाड़ी शहरों में शरदोत्सव की धूमधाम
लोक से परलोक तक आती ललितमोहन फ़ौजी और सुनिधि चौहान की आवाज़
अब तो दोनों ही जहाँ ख़राब

उधर आयोजक समिति के संयोजक सचिवों का माइक से गूँजता धन्यवाद ज्ञापन
बहुत भारी है करोड़ों का ये धन्यवाद मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
शरद की इन रातों में

जबकि घरों के बाहर-भीतर
आजू-बाज़ू
विलापती ही जाती हैं बूढ़ी बिल्लियाँ
और जवान ख़ूनी मज़बूत दाँतों, नाख़ूनों और इरादों वाले बिलौटे
गुर्राते हैं लगातार!

2. चाँदनी डीलक्स

नैनीताल के शांत सजल सूर्योदय में
मशहूर महाशीर मछली का मरना सब देखते हैं
चिंतित होते हैं
करते हुए
सरकारी और गैरसरकारी पर्यावरणीय विमर्श

मगर
एक नाव का मरना कोई नहीं देखता

पर्यटक बसों के-से नाम वाली यह नाव बँधी मिलती है आजकल
तल्लीताल
अरविन्दो मार्ग के मुहाने पर
हिलती-डुलती
जैसे हत्या के बाद पानी में डूबता-उतराता है कोई शव

कुछ समय पहले तक वह तैरती थी शान से
हज़ारों-लाखों गैलन पानी पर
अपने होने की कई-कई लकीरें बनाती हुई
उस पर विराजते थे
अजनबी पर्यटक बेहिसाब
अपने दिए एक-एक पैसे का हिसाब वसूलते

दरअसल
पेड़ से कटते ही मर गई थी
वह लकड़ी
जिससे इसे बनाया एक पुराने कारीगर ने
जिलाया दुबारा
अपनी थकी हुई साँसों की हवा भरकर
तैराया पानी पर

बूढ़े और बच्चों से भरे एक परिवार को दो वक़्त की रोटी दिला
इसने भी अपना हक़ अदा किया

इसे मेरा अहमक़ होना ही मानें
पर मैं देखता हूँ इसे
किसी रचते-खटते इंसान की तरह

दूसरी कई नावें तैरती हैं
अब भी ताल पर
जगहें ख़ाली होते ही भर दी जाती है
तुरन्त

उसे याद करता है तो बस एक उसे बनाने वाला
और अपनी कोठरी के अंधेरे में
मुस्कुराता है चुपचाप

बाहर
सार्वजनिक अहाते में लगभग तैयार पड़ी है इसी नाम की एक नाव
शायद कल ही दिखाई दे जाए
ताल के पानी में
तुरन्त उगे सूरज का अक्स तलाशती !

समझता जाता हूँ
मैं भी
कि जो मर गई वह महज एक नाव थी
नाव का विचार नहीं
और मुस्कुराता हूँ
अपने हिस्से की उत्तरआधुनिक रात के अंधेरे में
ठीक वही मुस्कान

बूढ़े कारीगर वाली !

3. रानीखेत से हिमालय
(बेटे से कुछ बात)

वे जो दिखते हैं शिखर
नंदघंटा-पंचाचूली-नंदादेवी-त्रिशूल
वगैरह
उन पर धूल राख और पानी नहीं
सिर्फ बर्फ गिरती है

अपनी गरिमा में
निश्छल सोये-से
वे बहुत बड़े और शांत
दिखते हैं
हमेशा ही
बर्फ नहीं गिरती थी उन पर

एक समय था
जब वे थे ही नहीं
जबकि बहुत कठिन है उनके न होने की
कल्पना
अक्षांशों और देशांतरों से भरी
इस दुनिया में
कभी वहां समुद्र था
नमक और मछलियों और एक छँछे उत्साह से भरा

वहां समुद्र था
और बहुत दूर थी धरती
पक्षी जाते थे कुछ साहसी
इस ओर से उस ओर
अपना प्रजनन चक्र चलाने
समुद्र
उन्हें रोक नहीं पाता था

फिर एक दौर आया
जब दोनों तरफ की धरती ने
आपस में मिलने का
फैसला किया
समुद्र इस फैसले के ख़िलाफ़ था
वह उबलने लगा
उसके भीतर कुछ ज्वालामुखी फूटे
उसने पूरा प्रतिरोध किया
धरती पर दूर-दूर तक जा पहुंचा
लावा

लेकिन
यह धरती का फैसला था
इस पृथ्वी पर
दो-तिहाई होकर भी रोक नहीं सकता था
जिसे समुद्र
आख़िर वह भी तो एक छुपी हुई
धरती पर था

धरती में भी छुपी हुई कई परतें थीं
प्रेम करते हुए हृदय की तरह
वे हिलने लगीं
दूसरी तरफ़ की धरती की परतों से
भीतर-भीतर मिलने लगीं
उनके हृदय मिलकर बहुत ऊंचे उठे
इस तरह हमारे ये विशाल और अनूठे
पहाड़ बने

यह सिर्फ भूगोल या भूगर्भ-विज्ञान है
या कुछ और?
जब धरती अलग होने का फैसला करती है
तो खाईयां बनती हैं
और जब मिलने का तब बनते हैं पहाड़
बिना किसी से मिले
यों ही
इतना ऊंचा नहीं उठ सकता
कोई

जब ये बने
इन पर भी राख गिरी ज्वालामुखियों की
छाये रहे धूल के बादल
सैकड़ों बरस
फिर गिरा पानी
एक लगातार अनथक
बरसात
एक प्रागैतिहासिक धीरज के साथ
ये ठंडे हुए

आज जो चमकते दीखते हैं
उन्होंने भी भोगे हैं प्रतिशोध
भीतर-भीतर खौले हैं
बर्फ-सा जमा हुआ उन पर
युगों का अवसाद है
पक्षी अब भी जाते हैं यहां से वहाँ
फर्क सिर्फ इतना है
पहले अछोर समुद्र था बीच में
अब
रोककर सहारा देते
पहाड़ हैं!

4. एक क़स्बे के नए नोट्स

क़स्बे के आसमान में बेमतलब-सा पूरा चाँद है
तारों की टिमक को कुछ हल्का करता हुआ
पेड़ हवा के अलावा
जड़ों के नीचे-से रोज़ थोड़ी-थोड़ी मिट्टी दरक जाने के कारण भी हिलते हैं
ज़्यादातर चीड़ हैं वे वैसे भी कुछ कच्चे् होते हैं
अपनी ही धरती का सारा पानी सोख लेना उनकी फ़ितरत है
और आँधी-पानी में असमय गिर पड़ना उनकी नियति

रात आठ बजे इस पहाड़ी क़स्बे में रात के सन्नाटे ने दस्तक दी है
कुछेक लड़खड़ाते गुज़रते शराबियों के अलावा कोई नहीं है
उनमें झगड़ा हो जाने पर दूर से आती कुछ माँ-बहन हैं…
घर के नीचे मैदान में

एक किशोर को तीन किशोर मिलकर मारते हैं
सिर फोड़ देते हैं
मेरे पहुँचने तक देर हो जाती है
उसे अस्पताल में अठारह टाँके आते हैं

पता चलता है प्रसंग प्रेम का है
मैं इस शब्द प्रेम को ख़ूब समझा हुआ समझता था
अब इस सबके बीच कुछ भी न समझता हुआ खड़ा रहता हूँ

कोई शर्मिंदा नहीं है
जबकि अस्पताल पहुँचे सम्मानित थानाध्यक्ष इन मामलों में ग़लतियाँ और गालियाँ निकालने
और नैतिक शिक्षा देने में विशेषज्ञ हैं
उधर इस सबसे बेख़बर
सड़क किनारे एक पागल
जो दिन भर धूप सेंकता और गुज़रती पर्यटक कारों से फेंका हुआ
भोज्याभोज्य खाता है
रात में हस्तमैथुन करता हुआ सिसकारियाँ भरने लगता है

वह हाथ पर लगे वीर्य को सूँघता है देर तक
और उसकी निरर्थकता पर उदास होता है
जबकि
एक सफल सुखद स्खलन के बाद उसे ख़ुश होना चाहिए
लोग कहते हैं यहाँ भी बीते हुए प्रेम का ही कोई पेच है
और शुक्र भी मनाते हैं
कि यह कार्रवाई वह दिन में नहीं करता
वरना उनकी स्त्रियों को लज्जित होना पड़ता

मैं उन लोगों को ठीक से नहीं जानता
न ही उनकी स्त्रियों की लज्जा को
एक लड़खड़ाते गिरते आदमी को देख
मैं पूछने लगता हूँ यहाँ इतने शराबी क्यों हैं…

साथ चलते क़स्बे में नए आए एक समझदार बुज़ुर्ग बताते हैं
यहाँ बेरोज़गारी, प्रेम के क़िस्से और पागल ज़्यादा हैं
इस तरह बेरोज़गारी और प्रेम में असफलताएँ सरकार के आबकारी राजस्व को बढ़ाने में

सहायक होती हैं

युवाओं का लगातार बेरोज़गार होना, प्रेम में पड़ना, शराब पीते रहना और फिर पागल हो जाना
यह एक सीधा समीकरण है इस क़स्बे के जीवन का
शायद सभी क़स्बों के जीवन का जिसे कठिन भाषा में कहना अपराध होगा
और सरलता इसकी गंभीरता को प्रकट नहीं कर सकती कभी

चाँद बेमतलब चमकता रहता है
चीड़ हिलते रहते हैं
और मैं पाता हूँ
कि मेरा कवि अंतत: मनुष्यता के दुर्दिनों का कवि है
जो अपनी पीड़ा, प्रेम और क्रोध के सहारे जीता है
शराब पीनी छोड़ दी है जिसने कभी की
अब बस अपने भीतर का अब्र-ओ-आब पीता है।

5. रितुरैण -13

इसी ऋतु की बात थी
तुम थे
किसी ऋतु की बात होगी
तुम रहोगे

ऋतुओं को लौटना होता है
तुम जहाँ हो ऋतु लौटेगी तुम तक
लौटोगे तुम

ऋतुओं के गीत
सब नहीं
सिर्फ़ वे
जो अब तक न लौटे
एक दिन लौट आने वालों की
प्रतीक्षा की कहानी सुनाते हैं
रितुरैण कहाते हैं

6. रितुरैण 20

शिशिर के बीच
उम्र
अचानक बहुत-सी बीत जाती है
मेरी

कुछ शीत में
कुछ प्रतीक्षा में
मैं ढलता हूँ
पश्चिम में समय से पहले ही
लुढ़क जाता है
सूरज का गोला
और ऋतुओं से ज़्यादा
इस ऋतु में
वह लाल होता है

लिखने के बहुत देर बाद तक
गीली रहती है रोशनाई

वार्षिक चक्र में
ऐसी ऋतु एक बार आती है
जीवन चक्र में
वह आ सकती है
अनगिन बार

मैं जवान रहते-रहते
अब थकने लगा हूँ
इस शिशिर में
मेरी देह
प्रार्थना करती है

– मेरी आत्मा तक पहुँचे ऋतु
शीत की
मुझे कुछ बुढ़ापा दे
कनपटियों पर केश हों कुछ और श्वेत
चेहरे पर दाग़ हों
भीतर से दहने के

इस तरह
जो गरिमा
शिशिर
अभी मुझे देगा
उसे ही तो
गाएगी
मेरी आत्मा
चैत में

7. रितुरैण 21

मंगसीर को बेदख़ल कर जीवन में
पूस आया है
गुनगुनी धूप को बेदख़ल कर कोहरा

हेमन्त से शिशिर तक आने में
राजनीति कुछ और गिरी है
देश कुछ और घिरा है
नागपाश जिसे कहते हैं शिशिर की ही बात है
विकट कोहरे से भरी रात है

दिल
जो धड़कता है देर शाम
कौड़ा तापते
मैं टूटी पसलियों के पिंजर में
महसूस कर उसे
कुछ और लकड़ियाँ
आग में
डाल देता हूँ

अपनी आँच बढ़ाते हुए
मैं शिशिर के शीत को गए बरस की याद से
बेधता हूँ

चैत से आया आदमी
चैत में जा रहा होता है तो जाने के लिए
शिशिर में
जल रही आग ही एक राह होती है

कुछ लोग
उस आग से आए थे
दुनिया से गुज़र जाने के बाद
कविता में
आज भी उनकी विकल आहटें
आती हैं

बर्बरता के शिशिर से
मनुष्यता के चैत में जाती हैं!

8. रितुरैण -28

वसंत तू आना
मुझसे हाथ भर मिला कर गुज़र जाना

वसंत तू आना
पर क्या करूं
मुझे जितना जल्दी हो सके
है ग्रीष्म में जाना

तू आना
तो घरवालों से बतियाना
मैं कुछ दूर
अपने प्रिय ग्रीष्म में रहूँगा

पंचमी मनाना
मनाना मेरे कवि-पुरखे का जनमबार

तू कभी भी आ सकता है
जैसे शिशिर के बीच पड़ोस के जंगल से
माथे पर मद का वसंत लिए घूम रहे
जंगली हाथी के चिंघाड़ने की आवाज़ आती है

कुछ दोस्त कहते हैं
वसंत अब दो हज़ार उन्नीस में आएगा
जैसा वसंत वे चाहते हैं
उसे एक कवि ने कभी भडुआ वसंत कहा था
मैं उनका ऐतबार नहीं करता

मैं तो तेरा भी ऐतबार नहीं करता

मैं ऐतबार करता हूँ
उस ऋतु का
जब गरमी से पपड़ाए खेतों में
पानी की क्यारियाँ बना
धान की पौध डालते हैं मेरे जन

जब एक गहरे अवसाद के बावजूद
डालों पर फल पकते हैं
हमें मिठास से भरते हैं

सुग्गे मारते हैं चोंच
तो मौसम
और दहकता है
मेरी देह से
टपकता रक्त भी
सोंधा महकता है

उस ऋतु का रितुरैण कोई नहीं रचता है
उसी को रचते
एक दिन मेरी देह
अगले किसी शिशिर में
राख बनेगी

अगले किसी शिशिर की कोहरे से भरी हवाओं
उसे तुम गाना
इस तरह
कि कोई सुन न पाए

न जान पाए आख़िरी चोंच मार गए
सुग्गे का उड़ जाना

9. रितुरैण 56

तत्सम के वसंत में
कोसी आपको कौशिकी लगती है
और रिस्पना ऋषिपर्णा

नदियों के अपभ्रंश वे
दरअसल
जीवन के हर चैत्र मास में
मेरे जनों के जीवन और भाषा का
बचा-खुचा जल हैं

देखता हूँ
शिवालिक के उड्यारों से निकला
एक सरल समाज
अब गंगा किनारे के
मठों की
गद्दियो पर जा बैठा है

हुआ है महंत
प्राचीन प्यारा वसंत जिसे बुराँस से जाना था मैंने
उसे आज
निसास भर देखता हूँ

निःश्वास कैसे कहूं
मैं तो उद्वेग को भी उदेग कहता हूँ

अभी मुश्किलों के शिशिर से
निकला हूँ
मनुष्यता के ग्रीष्म में रहता हूँ

ऋषिपर्णा के किनारे
मंत्रपाठ के साथ
उठता है पवित्र यज्ञों का धुआं

रिस्पना के किनारे
टूटते छप्पर के तले
सजती है
रमेश कश्यप की रसोई

अब ये रमेश कश्यप कौन है
महान उस तत्सम परम्परा से पूछिए
या पूछिए
सरकार के किसी पटवारी से
जिसकी खतौनी में
कहीं यह नाम नहीं है

रघुवीर सहाय से पूछिए भी कह सकता था
नहीं कहा!

 

10. रितुरैण 71

वर्षा
पाठकों की ऋतु है
शिशिर
प्रकाशकों की
वसंत में आलोचक खोजते हैं कविता
कवि ग्रीष्म में खोजते हैं
आलोचक

इस ऋतुचक्र में
शरद और हेमंत प्रूफरीडर को उठती
विकट खांसी की ऋतुएँ हैं
वर्तनी का कोई सुधार
अगर वक्त के धब्बे से ढका दिखे
तो मैं चौंकता नहीं हूँ

वे धब्बे ही
कविता की किताब का ऋतुरैण हैं
उनकी टीस
चैत की नहीं
अश्विन की टीस है!

 

 

(कवि शिरीष कुमार मौर्य, जन्म:13 दिसम्बर 1973;कुमाऊँ विश्वविद्यालय के ठाकुर देव सिंह बिष्ट परिसर, नैनीताल में हिंदी के प्रोफ़ेसर तथा महादेवी वर्मा सृजनपीठ, कुमाऊँ विश्विद्यालय, रामगढ़ के निदेशक।

प्रकाशित पुस्तकें: पहला क़दम, शब्दों के झुरमुट, पृथ्वी पर एक जगह, जैसे कोई सुनता हो मुझे, दंतकथा और अन्य कविताएँ, खाँटी कठिन कठोर अति, ऐसी ही किसी जगह लाता है प्रेम,साँसों के प्राचीन ग्रामोफ़ोन सरीखे इस बाजे पर, मुश्किल दिन की बात, सबसे मुश्किल वक्तों के निशां और अन्य

टिप्पणीकार अमित श्रीवास्तव साहित्यकार हैं और उत्तराखंड पुलिस में अधिकारी हैं)

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