समकालीन जनमत
कविता

सौम्य मालवीय की कविताएँ प्रतिरोधी चेतना से संपन्न हैं।

ललन चतुर्वेदी


सौम्य की कविताओं को पढ़ते हुए पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि उनकी कविताओं की प्रतिरोधी चेतना में एक न‌ई धार आयी है। तेजी से बदल रहे वैश्विक हालातों पर उनकी पैनी नज़र है और इस भयावह परिदृश्य की जड़ों तक पहुँचने में वे सफल नज़र आते हैं। वे उन हालातों की सूक्ष्मता से पड़ताल करते हैं जिनमें बेवजह युद्ध थोपे जा रहें हैं। यह विकसित देशों की व्यावसायिक लालसाओं की पूर्ति के लिए किया गया कुत्सित कर्म है जो हर वक्त तवा गरम रखना चाहते हैं ताकि वे अपने स्वार्थ की रोटियाँ सुविधानुसार सेंक सकें।

यह सनकी हुक्मरानों का फरमान भी है कि भय का वातावरण बनाए रखा जाए ताकि उनकी सत्ता क़ायम रहे। सामान्य जनता तो शांति की पक्षधर है और उसे दो जून की रोटी और सोने के लिए सर पर एक छत की छोटी सी आकांक्षा मात्र है। क्या हमने कभी गौर किया कि मूर्ख कभी युद्ध नहीं करते। ये सारी रणनीतियाँ कैसे बनतीं हैं और सत्ता तथा पूंजी के नुमाइंदे इसमें कैसे आकंठ डुबे हुए हैं – इसे जानने समझने के लिए सौम्य की कविता ” सालाना जलसा” पढ़ी जानी चाहिए। इसी प्रकार की लेकिन इससे थोड़ी भिन्न “आना मार्च”कविता है जिसकी आरंभिक पंक्तियों ने ही मुझे रोक लिया :

“अच्छा भाई मार्च फिर मिलेंगे
तुम फिर आना फागुन और चैत के बीच
पसरे आंगन की तरह….”

इस कविता में एक साथ करुणा और क्रान्ति की धारा नदी के दो अलग-अलग कूलों की तरह हैं। कहने को तो यह वसंत का मौसम है लेकिन यहाँ तो रंगत ही कुछ और है।

इन कविताओं को पढ़ते हुए कवि की दृष्टिसंपन्नता का बोध होता है।जीवन में कविता की जो भूमिका होती है, उसे सजग कवि ही समझ सकता है। सवाल यह भी उठता है कि यदि कविता अपने समकालीन प्रश्नों से मुख मोड़कर दूर खड़ी है तो वह अपने कर्तव्य – पथ से विचलित हो चुकी है और ऐसी कविताएँ खुद सवालों के घेरे में आ जाती है। यह संतोष की बात है कि सौम्य की कविताएँ समय के जरूरी सवालों को लेकर पाठकों के समक्ष  उपस्थित होती हैं। हालात ऐसे बने हैं कि कुछ भी असंभव नहीं दिखता और यही  इस समय का दुखद आश्चर्य है। ‘फूल हो सकते हैं बेहया के’ कविता की पंक्ति दर पंक्ति समय की विद्रूपताओं को बेनकाब करतीं हैं।

इस दुनिया में शांति कौन नहीं चाहता? चंद लोगों ने अपनी कुत्सित कामनाओं की आग में पूरे संसार को दहकने के लिए छोड़ दिया है। युद्ध शुरू करने वाला भी समझता है कि हर युद्ध का अंत होता है और अन्त में विजित तथा विजेता  में कोई खास फर्क नहीं रह जाता परंतु सबसे अधिक पिसते  हैं बच्चे और स्त्रियां। ‘फिलीस्तीन के बच्चे’ की मार्मिकता अलग से रेखांकित करने योग्य है।सच में ,दुनिया के सभी बच्चे तो बच्चे ही हैं, उन्हें बेशुमार प्यार और दुलार की जरुरत है।

इस बीच कवि की एक प्यारी कविता ‘इन कुछ गुज़रते हुए मिनटों में’ पढ़ते हुए थोड़ी राहत सी महसूस होती है।पर क्या यह शांति अथक भाग – दौड़ का नतीजा है। कविता अंत में  तो कुछ ऐसे ही मोड़ पर समाप्त हो जाती है जहां चित्त निर्मल आकाश हो जाता है परंतु हल्की सी उदासी पसर जाती है।

कविता  यदि ईमानदारी से इंच भर भी डिगती है तो वह पूरी तरह डिरेल हो जाती है। कविता विसंगतियों को उजागर करती है और कथनी तथा करनी के फांक का पर्दाफाश भी करती है। सौम्य की इस ईमानदार स्वीकारोक्ति को देखिए जो किसी शब्दसाधक को सोचने के लिए बाध्य कर सकती है, यदि उसमें आत्मावलोकन का साहस है और स्वयं का सामना करने के लिए तत्परता से प्रस्तुत है:
” मुझे भय है
कितना क्रूर हो सकता हूं मैं
ऊपर से कवि ,प्रेमी और विचारक दिखता हुआ
सबसे बढ़कर मुझे आप से भय है
कि आप मेरी इन भूमिकाओं से कितने संतुष्ट हैं
मेरी चिर – युवता पर बुरी तरह से फ़िदा
मुझे आपकी और अपनी
इस मिलीभगत से भय है।”

सौम्य मालवीय की कविताएँ आश्वस्ति प्रदान करती हैं कि वे लंबे सफर पर पूरी तैयारी के साथ निकल चुके हैं।

 

सौम्य मालवीय की कविताएँ

1. सालाना जलसा

एक संस्थान के सालाना जलसे पर
रक्षा मामलों के सरकारी नुमाइंदे ने
युद्ध के नवीनीकृत होते रूप के साथ
तकनीकी ज्ञान की हमक़दमी की वकालत की
साइबर और एआई जैसे लफ़्ज़ों से सजी उसकी तक़रीर में
जंग के पुर-कशिश सपने झिलमिला रहे थे

विज्ञान के नुमाइंदे ने
कटिंग-एज और फ़ोरफ्रंट के चीनी-जड़े सरकंडे
वैज्ञानिकों की हलक में डालते हुए कहा
शोध ऐसा हो जो युद्ध के मोर्चे पर बढ़त दिलाए
बल्कि नये मोर्चे भी खोले
ज़्यादा नज़दीक-इंटिमेट

पूँजी के नुमाइंदे ने
दोनों को धन्यवाद दिया
पर जल्दी करने की हिदायत भी दी
याद दिलाया कि ठीक इसी वक़्त
जब हम बात कर रहे हैं
कई युद्ध लड़े जा रहे हैं
कइयों का बिगुल बजने को है
मुनाफ़ा किसी राष्ट्र की सत्ता का मोहताज नहीं
न ही किसी देश के विज्ञान का
वैसे तो हम पूरी तरह से देशभक्त उद्योगपति हैं
पर इंतज़ार में थोड़े कच्चे हैं!

धन्यवाद-ज्ञापन
एक नवांकुर ने दिया
रक्षा-विज्ञान-पूँजी के स्वर्णिम त्रिभुज को
दिल में बसा लेने की बात कहता स्खलित होता सा लगा
कर्तल ध्वनियों के बीच हो भी गया शायद!

समारोहपरांत एक चलता-पुर्जा
यह सोचता हुआ सभागार से उठा
अक्सर चीज़ें इतनी ही साफ़ होती हैं
गठजोड़ इतने ही स्पष्ट
मिलीभगत इतनी ही मुतमईन

कि अपनी ओर से कुछ भी जोड़ना
कोई विश्लेषण या कोई कविता ही
हक़ीक़त को धुंधला ही करती है
उसे गटकने योग्य
हाजमे की गोली बना देती है!!

 

2. आना मार्च

अच्छा भाई मार्च फिर मिलेंगे
तुम फिर आना फागुन और चैत के बीच
पसरे आँगन की तरह
जहाँ हम धूप के साथ कंचे खेलेंगे
पत्तों की चरर-मरर के साथ आना
आना हवा की दिलजोइयों के साथ
संजीदा पानी पर
पलाशों के रक्तिम कलश तिराना
आना मार्च…

सड़कों गलियों में टहनियों से सुलेख लिखना
साँझ ढले तुम सबद सुनाना
अब तो होली के रंग कान की लवों से भी जा चुके हैं
और नीली चिंगारियां तितलियों में बदल गई हैं
तुम आना, फिर रंग लिए आना मार्च
हम फिर दीवाने हो लेंगे

आना हम नीम की ओट से चाँद को देखेंगे
अलसाये ताल में कंकर फेकेंगे
तुम्हें पानी में डूबी सीढ़ियों की कसम आना मार्च
हमें फिर रोना होगा
तुम्हें कुछ नए राज़ बतलाकर
परवर्ती दुखों में जुड़ेंगे कुछ नए अफ़साने भी
हमसे सब ले जाना मार्च

मन होता है कम से कम साल में एक बार तो
मर्तबानों की तरह धूप में औंधे पड़े सूखने का !

आना मार्च, हमें पता है
केवल ध्वनि समानता होने भर से
तुम मारीच का छल नहीं मार्च हो
ढेर सा यक़ीन लिए आना
आना २७ फ़रवरी के बाद
हमारे जज़्बों को पक्का करना
हम दकनी की याद में फ़ातिहा पढ़ेंगे

आना मार्च, याद दिलाना हमें कि
असेम्बलियां बम फेकनें के लिए होती हैं
और ज़िन्दगी आख़िरी दम तक तराने गाने के लिए
हमें मुँह भर धिक्कारना की बच्चे आज भी इम्तहान देते हैं
हमें ज़ोरदार ऐड़ लगाना मार्च
ऐसे आना जैसे मंदी आती है व्यवस्था का भ्रम तोड़ती हुई

बूढ़ी उँगलियों में संतरे की फाँक लिए आना
दादी की याद बन आना मार्च

यूँ आना जैसे सुनाई दे रहा झरना दिखाई दे जाए

हम जानते हैं कि
मौसमों के बीच का संधिपत्र होने का अकेलापन क्या होता है
पर आना भाई
हम तुम्हें प्रेम की पाती की तरह पढ़ेंगे।।

 

3. फूल हो सकते हैं बेहया के

फूल हो सकते हैं बेहया के
तो ख़ामख़ा के भी हो सकते हैं
अलबत्ता के भी यक-ब-यक के भी
ज़िद, झक, उदासी, अकेलेपन
शिकायत और उम्मीद के

एहसासात और फूल
बदल सकते हैं जगह
हरसिंगार सी बिछ सकती हैं संवेदनाएं
गुलाब से फ़ब सकते हैं दुःख
असुरक्षा डहेलिया की तरह गदरा सकती है
मालों में बिंधे गेंदों की
तरह सूख सकते हैं विचार
रातरानी सी मुरझा सकती हैं दोस्तीयाँ
वैसे ही जैसे ला-ता’आल्लुक़ की लतर भी हो सकती है
सूनेपन की जंगल-जलेबी
थेथर की झाड़ियाँ हो सकती हैं
तो जरतुही की भी

नफ़रत और मक्कारी की काई
अरे-उफ़ के काँटे
हमेशा के शैवाल भी
और कभी-कभी की कलियाँ
फिज़ूल की!
नामलूम की!
तक़रीबन के पत्तों पर
लगभग की ओस ढल सकती है

भर सकती है यूँ ही में
यदा-कदा की,
बेवजह में
जाने कहाँ की ख़ुश्बू!

उजलत की घास में
में छुप सकता है
हसरत का ग़ुंचा
आलसी और धूप का मा’शूक़!

 

4. फ़लस्तीन के बच्चे

फ़लस्तीन तुम्हारे बच्चे
आसमान में उड़ रहे हैं साये-साये बनकर
इस तनी हुई नीली चादर में
अंगुश्त भर भी जगह नहीं
जो उनकी सिहरन छुपा सके
उनकी डोलती आकृतियाँ
टर्टल बे, न्यूयॉर्क के ऊपर
बिना पंजों पर उदास भीमकाय डैनों वाले
परिंदों की तरह छा जाती हैं
कभी वे जिनेवा की साफ़ अन्तःकरण वाली हवा में
किसी फ़रेब से घुल जाते हैं
दिखते हैं पेरिस की गलियों में एक-दूसरे के पीछे भागते
नई दिल्ली की धुंध भरी सड़कों पर
हाथ से छूटे ग़ुब्बारों की मानिंद उड़ जाते हैं
वे बेरूत का मलबा हैं
बग़दाद की धूल हैं
काबुल की कूक वे, समरक़न्द की सदाएं हैं
वे टोरा के अक्षर हैं
हजरत मूसा की उचटी हुई नींद हैं
यहूदी प्रार्थनाघरों पर रोई हुई शबनम हैं वे
वे हिजरत की रेत, सलीब का सपना हैं
मस्जिदों की जालियाँ
मंदिरों की जोत हैं
फ़लस्तीन तुम्हारे बच्चे,
काहिरा के बादल
कलकत्ते की उमस, टोक्यो के फूल
बीजिंग की रौशनियाँ
इस्तांबुल की कश्तियाँ
भूमध्यसागर का नमक हैं,
ग़ज़ा के खोखले मकान-बहिश्त तक खुली हुई छतें
बिना पल्लों की खिड़कियाँ-जले हुए पर्दे-कोरे दस्तरख़्वान
जैतून की डालियाँ-ख़ून में डूबी खुबानियाँ हैं
फ़लस्तीन तुम्हारे बच्चे,
उनके कस कर बाँधे हुए जिस्म-उनपर झुकी उनकी माँएँ
जिनके सामने पिएटा भी
मोम के ख़्वाब की तरह पिघल जाए
ठिठुर रहे हैं खुले हुए ताबूतों में
ये दुनिया बहुत बड़ी, मुलायम और सुखमय है फ़लस्तीन
और तुम्हारे बच्चे हैं कि उन्हें
कंटीली घास के बीच अपने खेलने की जगह की ख़ब्त है
उतनी जगह तो अब ख़ुदा के पास भी नहीं बची
फ़लस्तीन, ईश्वर भी कहीं तुम्हारा ही जना
कोई बच्चा तो नहीं?

 

5. इन कुछ गुज़रते हुए मिनटों में

बस यही एक वक़्त है
यही कुछ क्षण जब लग रहा है मुझे
मैं ज़िंदगी को बजाई हुई वीणा की तरह रख सकता हूँ

एक लम्बी दूरी तक पैदल चलने के बाद
संगमील पर बैठ कर भूरे पहाड़ पर
बिखरी हुई धवल बकरियाँ देख सकता हूँ

बे-सबील रास्तों पर भटकते हुए
सुन सकता हूँ क़ुदरत की तमाम सुबुक आहटें

इस लम्हे में तो घर में टहल रहा एक
अजनबी कीड़ा भी मेरा मेहमान है

एकाएक हर चीज़ नज़र आ रही है साफ़
अपने विधान में सटीक

एक जीव विज्ञानी की तरह
सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अंतर भी मेरे लिए
अभी एक अलग जीवन है

और तो और
मैं आसमान और आसमान में फ़र्क़ कर सकता हूँ इस समय
धरती और धरती की तो ख़ैर बात ही छोड़िये

इन कुछ गुज़रते हुए मिनटों में
आप मिलिये मुझसे
मुझे इस वक़्त भलमनसाहत, दोस्ती
उदारता और मनुष्यता में पूरा यक़ीन है

मैं जिस घेरे में हूँ
उसकी परिधि में आ सकता है सारा संसार
और मैं ख़ुद उस परिधि से बाहर जा सकता हूँ

मैं डूब रहा सूरज हूँ इस वक़्त
सारी कायनात जैसे मुझी पर ठिठकी है

आइये पकड़ लीजिये मुझे मेरे सूर्यास्त में

मैं बस समुद्र से लब-बस्ता ये हुआ
के वो हुआ ।

 

6. नफ़रत

धूप में उड़ गया इत्र
जंग खा गया बरसात में लोहा
गर्मी के प्रकोप से सड़ गया दूध
कड़क ठंड में जकड़ गई पानी की पाइपें
नमी से फूल गई लकड़ी
फफूँद लग गई रखे हुए मुरब्बे में
यूं ही नालियों में पड़ी लाशों के पीछे भी
कोई कुदरती खेल होता तो क्या ख़ूब होता!
खेतों में अनाज की बालियों पर ख़ून की कतरनें
वैसी ही होतीं जैसे रात भर बरसी हुई ओस
तेज़ बारिश में छाता खोल लेने जैसा व्यवहारवादी आचरण लगता
एक ग़ैर-मज़हबी देह पर नाज़िल होता नौजवानों का जोश
बलात्कारों में वन्य-पशुओं के शिकार-उपक्रमों जैसा
सहज प्रजातीय-गुण होता
नफ़रत से यूं तो तेज़ाब बन जाता है इत्र
त्रिशूल बन जाता है लोहा
और ईश्वर का स्मरण रक्त-पिपासु उद्घोष
पर ख़ुद नफ़रत अगर
साथ रहने पर होने वाली रासायनिक-अभिक्रिया जैसी होती
तो क्या बात होती
कितनी प्राकृतिक-नहीं ऑर्गैनिक होती नफ़रत तब
पर कहाँ ये उम्मीद और कहाँ तो
दबे पाँव कबूतर पर झपट्टा मारने को तैयार बिल्ली के पंजे के नाखूनों तक में
नफ़रत के ‘न’ की भी गुंजाइश नहीं मिलती
प्रकृति के क्रूर से क्रूर दृश्यों में भी
उस बदनीयती के दर्शन नहीं होते
जो धैर्य और शिष्टाचार जैसे कथित मानवीय गुणों में भी
झिलमिल हो उठती है
ऐसा होता तो मस्जिदें फूंकना भी शायद
दिसंबर की सुबह फूलों को पाला मार जाने से ज़्यादा ना होता
व्हाट्सएप पर झूठ-पर-झूठ फेंटना
सुबो-शाम जैसा उसूली और मुवाफ़िक़
और हाकिम-ए-शहर की चुप्पी
अपना शिकार लकड़बग्घों के हवाले कर देने के बाद
शेर की तृप्त निष्क्रियता जैसी मानूस
पर ऐसा नहीं है
ये नफ़रत की बू गिद्ध की उल्टी नहीं
हमारे घरों का धुआँ है
ये राजा की ख़ामोशी
गहरे समन्दर में तैर रही शार्क की चुप्पा-घात से
कहीं अधिक मारक और भयावह
ये डर-ये संशय हमारा सरमाया है
छायादार वृक्ष को खा गई कोई जंगली बेल नहीं!

 

7. बर्फ़

मैंने हवाई यात्रा
करते हुए देखी बर्फ़…
लगा कोई पाप कर रहा हूँ

अलंघ्य घाटियों के ऊपर उड़ते
महसूस की शर्मिंदगी सी
सफ़ेद विस्तार को नापते हुए लगा
दे रहा हूँ धरती को दग़ा

गला सूखने लगा
तो सर के ऊपर टँका बटन दबाया
कुछ ऐसी कैफ़ियत हुई कि मानो
विमान-परिचालिका ने तश्तरी में
पिघला हुआ पहाड़ रख दिया हो!

मैं उन दर्रों से होकर गुज़र गया
जिन्हें सदियों ने दरयाफ़्त किया था
रास्ते
जो जाने कितने राहगीरों का सरमाया थे

फ़लक़ शिगाफ़ ऊँचाइयों पर
धुंधले साये डालता डोल गया मेरा विमान
रूह से ख़ाली जिस्म की मानिंद

कथाएँ किंवदंतियाँ
पीठों पर लदे बोझ
हाँफते हुए खच्चर
अदृश्य गाँव
हिममानव की गुफ़ा

सब पीछे छोड़ता
पहुँचा वहाँ जहाँ बर्फ़ नहीं थी
मैं जहाँ से आया था वहाँ भी नहीं थी बर्फ़…

यूँ तो मैं साइंस का पाबंद हूँ
पर मन में था यही ख़्याल
कि बर्फ़ अब नहीं गिरती क्यूँकि
बर्फ़ से ऊपर उड़ रहा हूँ मैं

जाने क्यूँ लगेज में आए मेरे लेदर बैग पर भी
पिघलती हुई बर्फ़ का बोसा था

एक ठंडी-पर गर्म
उसाँसती छुअन
धीमे-धीमे विलीन होती
ख़ुद को समेटती हुई ।

 

8. एक परित्यक्त पुल का सपना

इलाहाबाद-फ़ैज़ाबाद रेलवे लाइन पर
एक ममी सा रखा है परित्यक्त पुल
अपने पंद्रह खंभों पर लेटा हुआ
रोज़ देखता है सूर्यास्त भीष्म की तरह
नीचे बह रही अपनी माँ से पानी माँगता है

कभी रेल के थर्राने से किसी तार सा काँपता था
जलतरंग सी बज उठती थी नदी की देह
देर तक थामे रहता था लय को
जैसे गुंबदों में घुंघरुओं के स्वर
सुबह-सुबह राग-बिलावल छेड़ते निकलती गंगा-गोमती
शुद्ध-स्वरों की स्वरमालिका के मोती
नदी के वक्ष पर बिखर जाते दूर-दूर
दूसरी तरफ़ ब्रॉडगेज़ रेलवे लाइन के ऊपर
व्यस्त सड़क पर गुज़रता रहता
अवध का घना कारवाँ पीठों पर समय की उमस उठाए

मटियाले जल पर पड़ती परछाइयाँ मानो दुआएं देती
ये पुल अमर होगा-इस पुल को नदी का असीस है

अपने झरोख़ेदार नयनों से देखता नदी के किनारों को
बढ़ते हुए शहर को देख कैसा पुलक उठता था उसका मन
ये शहर इलाहाबाद वह उसका दूसरा सबसे पुराना पुल
अपने मज़बूत गर्डरों पर आसमान उठाए
यातायात के दो-रूपों का हुनर पहने
शाबाश इलाहाबाद! कहता
वह ख़ुश-बाश पुल!

उसने कहाँ सोचा था
कभी उन्मादियों का एक हुजूम पार होगा उससे
वह जोड़ने का नहीं-बाँटने का ज़रिया बनेगा
ताँबई उर्मियाँ जो उसके खंभों से लगकर
छुपम-छुपाई खेलती आयी हैं
धीमे-धीमे एक बोझल बहाव में फँसकर
बूढ़ी और बीमार हो जाएँगी
जवान होता शहर
नदी को जबड़ों में कस लेगा
गंगा-गोमती को मिल जायेगा
एक दूसरा ट्रैक
और कारवाँ चुन लेंगे एक नई सड़क
विपत्ति और विलंब का एक नया गलियारा

स्थिर हो जाएगी उसकी छाया नदी पर
नदी भी स्थावर हो जाएगी धीमे-धीमे
ज़िला फ़ैज़ाबाद समा जाएगा अयोध्या में
और इलाहाबाद बन जाएगा प्रयागराज

वह ख़ुद हो जायेगा परित्यक्त,
त्याज्य, निषिद्ध, अनुपयोगी
हवा में लटके बुर्ज की तरह
अपने किले के स्थगित वर्तमान से झूलता हुआ

सुबो-शाम की टहल की जगह
एक कोरा परिप्रेक्ष्य नदी पर
सरकार-बहादुर जिसे एक स्काईवॉक
या गंगा पर बने हवाई-संग्रहालय में बदल देना चाहती है
ये उसको ना ढहाए जाने की कीमत है
की पुल का पुलिन से सम्बन्ध ख़त्म कर दिया जाए!

वही पुल
रोज़ रात रसूलाबाद घाट पर
जलती चितायें देखता देर तक जागता रहता है
सोचता है काश उसके नसीब में भी ऐसा ही दाह होता
वह भी दिन-पर-दिन दुर्बल होती अपनी माँ का हश्र
देखने से बच जाता
कभी ममता से भरकर अपने नीचे लगी
किसी भटकी हुई नाव पर
या छोटे-छोटे टापुओं पर किल्लोल कर रही
नहा रही या सद्यस्नात श्यामल भैंसों पर
छायावसन फेंकता है
बतियाता है आज ही कल में बुज़ुर्ग हुए नालों से
दिन-चढ़े स्मैक के नशे में धुत्त नौजवानों को
लाठियों की मार से छुपाता है

कभी जब नींद आ जाती है उसे
वह देखता है बस एक ही सपना
कि दुनिया के सभी पुल अपनी भूमिका में बने हुए हैं
पुल को नहीं चाहिये पुल से बड़ी कोई पहचान
सूखी हुई नदी पर भी अकेले खड़े पुल की
इतनी ही कामना होती है कि
हरी-भरी रहे नदी-भरी-भरी रहे डगर
किनारों में बना रहे बहनापा

पुल देखता है यही सपना कि वह
साधन से इतर कुछ भी और नहीं होना चाहता

भाषा के, सम्बन्धों के, समाजों के,
समुदायों के बीच के पुल दीर्घायु हों
और यही नहीं
सतत व्यवहार में रहें

पुल देखता है बस यही एक सपना
जब कभी आँख लग जाती है उसकी।

 

9. इलाहाबाद!

एलियट ने
शेक्सपियर को
शेक्सफियर लिखा
तो उसे वर्तनी दोष मान
दुरुस्त कर दिया एक संपादक ने

वैसे ही जैसे मुझ अदना कवि के
‘दोख’ लिखने पर ‘दोष’ मढ़ दिया

कहने को कविता ही थी
पर मेराज-ए-सुख़न ख़ून हुई

शहर-ए-महब्बत भी एक कविता है
ऊबड़-खाबड़-बंजर-वीरान
मसाफ़-ओ-जीस्त से पुर
और ये भी एक संपादक हैं,
जो मेरे शहर को इलाहाबाद से बदलकर
प्रयागराज लिख रहे हैं

नशा है उन्हें इतिहास के सम्पादन का
जिन्हें पूरा जिस्म नहीं
बस उसका तसव्वुरी भ्रूण चाहिए

पर जो प्रयागराज जंक्शन पर
मेरा शहर ख़ून हुआ
मेरी कविता पटरियों पर आई
मेरे बचपन के अलसाए कुहरे
फ़ना हुए उनका क्या?

वह ट्रेन जिसे अलसुब्बह
इलाहाबाद पहुँचाना था
अजनबी अँधेरों में भटक गई
और यूँ नाज़िल हुई मुझपर
‘अनिश्चितकालीन’ की सर्द-सीलती हुई रात

इलाहाबाद! ओ वतने-यारां इलाहाबाद!
हम अब सदा के लिए
आउटर पर खड़े हैं ।

 

10. भय है!

कविता, प्रेम और विचार में
बसी हिंसा से भय है

भय है उन ठीहों से भी
जिनसे ये संभव होते हैं

मेरा पुरुष शरीर बनाने, मूँछों पर ताव देने
खड़े होकर पेशाब करने में नहीं

उस जगह छुप खड़ा है
जहाँ से कवि-विचारक-प्रेमी होने की राहें खुलती हैं

उस जगह से भय है

प्रेम के बारे में कह सकता हूँ
शायद कभी उतना नहीं किया
जितना पाया है
विचारों के संदर्भ में सही होगा कहना
यूँ भी हुआ है कि उन्हें इधर-उधर से उठाया है
कविता लिखी है कविता के रास्ते बंद करने के लिए
कई बार

मुझे भय है
कितना क्रूर हो सकता हूँ मैं
ऊपर से कवि, प्रेमी और विचारक दिखता हुआ

सबसे बढ़कर मुझे आप से भय है
कि आप मेरी इन भूमिकाओं से कितने संतुष्ट हैं

मेरी चिर-युवता पर बुरी तरह से फ़िदा

मुझे आपकी और अपनी
इस मिलीभगत से भय है

 

11. मैं क्या दस्सूं उस व्हीलचेयर दे नाल
(प्रो जीएन साईबाबा की रिहाई पर)

मैं क्या दस्सूं उस व्हीलचेयर दे नाल
जिससे निकले हैं सब्ज़ गोशे
जिससे फूटकर आज़ाद सोते करते हैं कलकल
जिसपर धूप के घोसले हैं
जहां रात के पहरुए हवा में मख़मली अंगड़ाइयां लेते हैं

जिसकी चरर-मरर में है संगीत
जंगलों का
जिसके बड़े पहिए सुनते हैं समय
वे हाथी के कान हैं
कहते हैं ज़िंदगी
नीहारिकाओं की ज़बान हैं

उस पर गिरती है बर्फ़
तपती है रेत
बगूले उठते हैं-मेघ बरसते हैं
महुआ चूता है जिसपर
भुने हुए गोश्त की ख़ुश्बू गाती है
खिंचती है शराब मस्तियों वाली
धरती के ढोलों की
सदा आती है

ये व्हीलचेयर नहीं
स्टीफ़न हॉकिंग की, पर अपने ढब की है

उस पर बैठा है एक देव जिससे तितलियों को प्यार है
उसके पास समय का संक्षिप इतिहास नहीं
इतिहास का संक्षिप्त समय है
जिसमें है बचने की उम्मीद
बचाने का साहस

मैं क्या दस्सूं
वो कितनी मामूली है
जैसे कोई चश्मा हो या सिपर
या नोटबुक या कलम हो
तेलुगु की याद में
अंग्रेज़ी में लिखी कविता

ज़िद हो छोटी-छोटी चीज़ों की
बड़े-बड़े लोगों के ख़िलाफ़

वस्तुओं की ख़ामोश
सौजन्यता
इरादों की सहज पदार्थता हो

वो फ़ाइलों पे चलती
वर्षों पे ढनंगती
वो चूं-चूं चक-चक करती
सलाख़ों से बाहर आई है

उस पर है एक शरीर
जो शारीरिकता का निकष है विचार जो वैचारिकता की कसौटी

मैं क्या दस्सूं उस व्हीलचेयर दे नाल

उसे आज का चरखा कहूँ, तो भी कम है
कल का टाइपराइटर, तो भी थोड़ा
उसे मैं भविष्य का गुलाब कह सकता हूँ
गर चाहूँ तो…

पर उसे व्हीलचेयर ही कहना बेहतर है

बड़े-बड़े आसनों के पेश्तर
वो हमारा ख़्वाब है, अज़ीमतर!

 

12. साहेबान! यही वक़्त है!

साहेबान!
यही वक़्त है!
ऐय्यार को देखने का
जबकि उसे डर है कि उसके डाले भरम धुँधला रहे हैं
यही घड़ियाँ हैं जब झड़ रहा है उसका तिलिस्म
खिरते हुए चूने की तरह
वो घबराया हुआ नोच रहा है अपना ही चेहरा
ना चाहते हुए भी उघाड़ रहा है अपने फ़रेब
अपनी ही चालों में उलझ रहा है!

बिना दिमाग की रज़ामंदी के
कभी ये-जा कभी वो-जा जा रही है ज़बान
खोल रहा है अपने ही राज़
लूट की तिजोरी ख़ुद ही दिखा रहा है
दे रहा है चोर-रास्तों का पता!

साहेबान!
ये तमाशे में ख़ुदा का दख़ल है
कि तय कर लें क्या शैतान ही हमारा नसीब है
गर हाँ
तो इसी अमल की बहालत में सो रहें
एक और उचक्की नींद…

साहेबान!
अभी वो डरा हुआ है कि
उसके गायब किए लोग
मेज़ के नीचे से निकल आएंगे
साबुत और ख़ूँ-दीदा
कि उसके टोपी उठाकर छड़ी घुमाने पर
ख़रगोश की जगह निकलेगा
उसका ही चेहरा
और हाथ का ख़ंजर
बदल जाएगा उस फूल में
जो उसी की कलगी में लगा है!

ख़वातीन-ओ-हज़रात!
यही वो लम्हें हैं कि आप
अपने आप को उसे देखता हुआ भी देखें
कि कैसे आपकी ग़ैरत के एवज़ में
उसने अपने ख़्वाब आपकी आँखों में बसा दिए
भाई से लड़वा दिया-बहन पर शक करवा दिया
कैमरे की फटी हुई निगाह में
ला खड़ा किया ज़िन्दगी को
ईश्वर को बनाया हुकूमत का किरायेदार
वतन को एक हाउसिंग सोसाइटी!

साहेबान!
देखिए जादूगर का
डिगा है अपने आप पर एतबार
यूँ तो आप भी उसकी कमाई भीड़ हैं
पर इस मख़्सूस जगह पर
छल नमूदार है उसका
जैसे दुर्योधन की जाँघ!
शैतान की आँत!
इस समय
जो दिन भी है और रात भी
दीवार भी और खिड़की भी
धूप भी और बरखा भी!

ऐसा भी होता है कि
मदहोश-ज़ेहन लोग भी कहें
कि बहुत हुआ तमाशानिग़ार का ख़ेल
बजने लगे वशीकरण मंत्रों के बीच
तालियों-थालियों
के टीन का टप्पर!
आग की धू-धू में
कराहने लगें लकड़ियाँ
दवा में घुलने लगे ज़हर

देखिए तो कितने लोग हैं घेरे के बाहर
चलिये साथ, यूँ भी होता है
कि मायाजाल में आती है ख़राबी
किसी दोस्त का बुलावा सुनाई देता है एकदम से!

बुलबुल की आवाज़
काट देती है सय्याद के फैलाये कुहासे!
ये वही वक़्त है
काम पर लौटने का वक़्त,
बहुत हुआ!

मैं नहीं कर रहा आपसे कोई राजनैतिक बात
ना छेड़ रहा हूँ हक़ीक़ी मसाइल
जो लगे तो इसे इत्तेफ़ाक़न!
लगभग इरादतन!
जैसे यक़ीनन समझिएगा!

13. मनोहरपुर, अयोध्या, पच्चीसवीं बरसी, और कुछ दीगर बातें

लो आ पहुँची बरसी, वो भी पच्चीसवीं
ग्राहम और उसके नाबालिग पुत्रों फिलिप और टिमोथी की मौत की
इस बीच बुलंद हुआ न्याय का वक़ार
परवान चढ़े दावे विश्वगुरुता और वसुधैव कुटुंबकम के
अपनी त्वचा में ख़ूब सुरक्षित हुआ धर्म
साम्प्रदायिकता, हिंसा-उससे जुड़ी बेशर्मी हुई दीगर बातें
समाज की भावना या कहें संख्या-संस्तुत आस्था हुई बुनियादी
ईंट से ईंट बजी शेष सभी बुनियादों की
मनोहरपुर की उस भूमि पर जहाँ जलाई गई वो स्टेशन-वैगन
क्या उस जगह भी बना कोई मंदिर?
ढाँचा हो ही गई थी जलने के बाद वह भी
और गिरने-जलने के बाद हर ढाँचा विवादित ही तो होता है
शायद हाँ…हाँ वहीं बना मंदिर
ये क्या? ये कैसे-कैसे खेल खेल रहा है दिमाग भी
कि गड्ड-मड्ड हो रही हैं तिथियाँ-व्यक्ति-घटनाएँ-जगहें
छः दिसंबर या तेईस जनवरी फादर स्टेंस या फादर बुल्के मनोहरपुर या अयोध्या…
बस-बस !
ऊपर दी गुड़-गुड़ दी एनेक्सी दी बेध्याना दी मूंग दी दाल ऑफ़ दी पाकिस्तान एंड हिन्दुस्तान ऑफ़ दी दुर्र फिट्टे मूंह
ये देख कि जब रेशे-रेशे उधड़ गए कुछ तो साबुत बचा
ताश का महल-तुरुप के इक्के की प्रतिष्ठा!
फिर भी जाने क्यूँ जलती हुई जीप का मंज़र ही याद है तुझे
उस बात को तो अब बत्तीस साल हो गए
अरे मेरा मतलब है पच्चीस साल-याने बाईस साल
मतलब पिचहत्तर साल।


सौम्य मालवीय का जन्म 25 मई 1987 को इलाहाबाद में हुआ। सौम्य लम्बे समय से कविताएँ लिख रहे हैं और अनुवाद में भी गहरी रुचि रखते हैं । दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स के समाजशास्त्र विभाग से उन्होंने गणितीय ज्ञान के समाजशास्त्र पर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की है और इसी विषय पर अंग्रेज़ी में सतत लेखन करते रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के कई महाविद्यालयों में अध्यापन के बाद, वे क़रीब दो वर्ष अहमदाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रहे और वर्तमान में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी हि. प्र. के मानविकी एवं समाज विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। गणित पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से जारी शोध एवं लेखन के अलावा, सौम्य नृतत्वशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से गजानन माधव मुक्तिबोध के जीवन और कृतित्व पर एक मोनोग्राफ़ लिखने में संलग्न हैं । ‘घर एक नामुमकिन जगह है’ शीर्षक से प्रकाशित उनके कविता संग्रह को 2022 के भारतभूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । ‘एक परित्यक्त पुल का सपना’ उनका सद्य प्रकाशित कविता संग्रह है, जो इसी वर्ष (2024) प्रकाशित हुआ है । 
 
संपर्क:
स्थाई पता – ए – 111, मेंहदौरी कॉलोनी, तेलियरगंज, इलाहाबाद – 211004, उत्तर प्रदेश
वर्तमान पता – C9/F2, दक्षिणी परिसर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी, कमांद, मंडी – 175005, हिमाचल प्रदेश 
 
ईमेल : saumya.najim@gmail.com 
मो: 9873994556 

 

टिप्पणीकार ललन चतुर्वेदी (मूल नाम ललन कुमार चौबे), जन्म तिथि : 10 मई, 1966। मुजफ्फरपुर (बिहार) के पश्चिमी इलाके में। नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में। शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.,यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण 

प्रकाशित कृतियाँ : प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य) एवं ईश्वर की डायरी (कविता) पुस्तकें  

तथा साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं एवं प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएँ एवं व्यंग्य निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में सहायक निदेशक (राजभाषा) पद पर कार्यरत। लंबे समय तक राँची में रहने के बाद पिछले पाँच  वर्षों से बेंगलूर में निवास ।

संपर्क: lalancsb@gmail.com

मोबाइल: 9431582801

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