समकालीन जनमत
कविता

सपना चमड़िया की कविताएँ : कविता में सहज प्रतिरोध की अभिव्यक्ति

रामायन राम


अस्मिता विमर्श और उसके साहित्य के विषय में यह आम धारणा है कि यह एक स्व – केंद्रित विमर्श है यानि अस्मिताएँ अपने दायरे से बाहर निकल कर नहीं सोचतीं।अस्मिताओं का विश्व दृष्टिकोण उनके अपने हित और पहचान की सुरक्षा से निर्धारित होता है। इस उत्तर आधुनिकतावादी सिद्धांत को हिंदी में अनेक रचनाकारों ने चुनौती दी है, और यह देखा गया है कि दलित, स्त्री, आदिवासी या अल्पसंख्यक अस्मिता के लेखक, रचनाकार और आलोचकों ने अपने विषय के चुनाव और भावाभिव्यक्ति के मामले में एक व्यापक लोकतांत्रिक दायरे को समेटने का प्रयास किया है। अनेक रचनाकारों ने जाति, जेंडर, आदिवासी नृजातियता के प्रश्नों के साथ – साथ बाजारवाद, पूँजीवादी कोरपोरेट आर्थिक लूट , साम्प्रदायिकता, भाषायी और नस्लीय भेद भाव जैसे तमाम सवालों को अस्मिता विमर्श की जमीन पर खड़े होकर सम्बोधित किया है। सपना चमड़िया को हम उन्हीं रचनाकारों की श्रेणी में रख सकते हैं, आज की स्त्रीवादी कविता के क्षेत्र में सपना चमड़िया एक सुपरिचित नाम है। उनकी अपनी जमीन स्त्री मुक्ति और नारीवाद है, लेकिन इस नारीवादी संवेदना के दायरे में हमारे दौर के लगभग वे सभी सवाल हैं जो हमारी लोकतांत्रिक चेतना और मानवीयता के समक्ष खड़े हैं।
उनकी संवेदना के दायरे में उनके पिता के मुसलमान दोस्त अनवर चाचा हैं, जिनके दिए हुए चाकलेटों से उनकी बेटी बिहु अपनी किताबों का मुँह भर देना चाहती है, क्योंकि उन किताबों में अब लिखा जाने लगा है ‘कि हिंदू-मुस्लिम दो अलग-अलग जातियाँ हैं।’ उनकी सहानुभूति ‘कश्मीर के लड़के’, ‘गुजरात और इराक़ की माओं’ और रिक्शा चालक ‘रहमत खान’ के प्रति भी है।
धुर काले रंग के मोची के प्रति भी उनकी सहानुभूति है, जिसके भविष्य को लेकर कवि चिंतित है कि – ” भूमंडलीकरण की रामनामी चादर ओढ़े / कुछ लोग आएँगे / और विष्णु की तरह / तीन पगों में सारी दुनिया नाथ लेंगे।” कवि को चिंता है कि दस रुपए में कैसा भी जूता चमका देने वाला मोची तब बेरोज़गार हो जाएगा जब किसी बड़ी कम्पनी का सुसज्जित मुलाजिम उनके घर आकर जूते ले जाएगा और पालिश कर वापस दे जाएगा ; कवि को लगता है कि यहाँ आकर रैदास का आत्मविश्वास चुक जाएगा, और – ” वो बहुत गहरे झांकेंगे / चमड़ा भिगोने वाले अपने बर्तन में/ वहाँ न उनको अपना विश्वास मिलेगा/ और न ही मिलेगी कोई कविता।”
यहाँ कवि ने दो बाइनरी रचने की कोशिश की है, पहला तीन डग में धरती नापने वाले विष्णु और रैदास के बीच और दूसरा कम्पनी के लक दक मुलाजिम और साधारण मोची के बीच, पर कविता में गढ़ा गया यह द्वैत ग़ैर ज़रूरी नहीं तो असंगत ज़रूर है। कहने की ज़रूरत नहीं कि होम डिलीवरी करने वाले तमाम कंपनियों के मुलाजिमों की हालत एक मजदूर से बेहतर नहीं, वे किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लकदक प्रतिनिधि नहीं बल्कि उनके चौतरफ़ा शोषण के शिकार बंधुआ हैं। दूसरी तरफ रैदास का आत्म विश्वास नहीं चुकता बल्कि एक दलित मजदूर और मोची का आत्मविश्वास जब चुक जाता होगा तो वह रैदास की तस्वीर से ताकत ग्रहण करता होगा, शायद तभी सड़क के किनारे बैठा मोची अपने सामने रैदास की तस्वीर ज़रूर रखता है। रैदास का बेगमपुरा आज के रामराज का विकल्प यूँ ही नहीं है।
‘ रोज़ मरने के दृश्य’ कविता में सपना जी ने अपने एक प्रियजन के सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु के शोक के बीच आधुनिक  विकास के बाज़ारवादी मॉडल को कठघरे में खड़ा किया है, इसमें उन्होंने विज्ञापन में सड़क का कभी साथ न छोड़ने वाले टायर, सड़कों के दोनों ओर लगे विज्ञापन के लुभावने होर्डिंगों, विकसित सभ्यता की प्रतीक बड़ी गाड़ियों और राजमार्गों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया है। एक आम आदमी ज़िंदगी में यही वे चीजें हैं जो विकास के नाम से जानी जाती हैं, लेकिन कवि सवाल उठाती है कि अमेरिकी विकास का यह मॉडल मनुष्य के किस काम का है? इस विकास की विद्रूपता पर सवाल उठाते हुए वे लिखती हैं – कि “अभी कैसे / मर सकते हो तुम / जबकि स्कूटर के लोन की / अंतिम किश्त जानी बाक़ी है।”
सपना चमड़िया अपनी कविताओं में रोज़मर्रा के सामान्य घटनाओं, अपने आस-पास की दुनिया और साधारण जीवन-प्रसंगों के बीच गहन वैचारिकता और स्त्री मुक्ति के व्यापक सरोकारों को अभिव्यक्ति करती हैं। वे अपनी भावनाओं और संवेदनाओं का अमूर्तन करने और अपनी व्यंजना को चमत्कारिक बनाने के बजाय सीधी सरल, इतिवृत्तात्मक शैली में बात करती हैं। यही वजह है कि उनकी कविताएँ आमतौर पर लंबी होती हैं, लेकिन साथ ही उनमें एक सुगठित तराश भी होती है। छोटे वाक्यों और सरल-सहज भाषा विन्यास के ज़रिए कविता में कही गई उनकी बातें पाठक के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं। इस संदर्भ में एक उदाहरण देना काफ़ी होगा –
” पर खुश हूं मैं / आश्वस्त हूं मैं / और हाथ उठा कर दुआ मांगती हूं/ कि मेरा देश असंख्य/ दशरथ मांझियों का देश हो / जिससे मैं भी चुन सकूं/ अपने लिए/ अपनी बेटियों के लिए/ उसकी दोस्तों के लिए / एक दशरथ मांझी/ कि एक स्त्री अपने पूरे जीवन में/ एक दशरथ मांझी के अलावा और चाहती भी क्या है।” ( ओ मेरे मांझी)
सपना जी की स्त्री विषयक कविताओं की नायिकाएँ वे स्त्रियाँ हैं जो धूप में सांवले हो जाने की परवाह किए बिना सड़कों पर नारे लगाती हैं, पेट्रोल पंप पर काम करती है, मजदूरी करती है और ठेकेदार की गलियाँ सहती हैं। यहाँ कवि इन संघर्षशील औरतों को उम्मीद भरी निगाहों से देखती है और बदलाव की आँच को महसूस करती है – “इंकलाबो इंकलाब / वाले नारे को /और उन नारों पर उभरती / गले की हर एक रग को सलाम / गले से दुपट्टा /फेंकने वाले / हाथों को सलाम /और बदऩजर की तरफ/उठी हुई हर तर्जनी को सलाम / सभा में बोले हर झूठ के/ पर्दाफाश को सलाम / और सवाल पूछती हुई/ हर खुली चिट्ठी को सलाम /आधी रात को गंगा ढाबे पर/चाय पीती मेरी बेटी/की आजादी को सलाम/और लड़की को सिर्फ लड़की/की तरह देखने की /सनातनी आदत से छुटकारे को सलाम/ गुलमोहर को सलाम/ और भविष्य को ताक पर रख देने वाले/हौसलों को सलाम,!”
काम काजी और घरेलू स्त्रियों के जीवन की साधारणता के बीच कवि ने स्त्रियों के साथ होते चले आ रहे अन्याय और अपवंचना के परतों को उभारा है। इस उत्खनन के लिए वे एक सामान्य स्त्री के नजरिए से पुरुषसत्तात्मक समाज के बनाए नियमों को खारिज करती हैं। यह कविता में एक प्रतिरोध की तरह आता है, जो इसी दुनिया में रहकर, इस दुनिया के अन्यायपूर्ण ढांचे को बदलने की छटपटाहट है – ” कि मैं लानत भेजती हूँ / उनपर / जिन्होंने मुझे शुद्धता के / पिंजरे में कैद रखा / मैं नदी थी/ मेरी चंचलता को / जिसने चरित्र से जोड़ा / उसे लानत भेजती हूँ./ जिसने मुझमें लिखा / नारी नरक का द्वार / और बनाई तमाम / माँ बहन की गालियां / उसे भी भरपूर लानत भेजती हूँ / लानत भेजती हूँ उसे भी / जो अनैतिकता के कीचड़ में धसाँ / मुझमें नैतिकता में श्लोक रच /रहा था।/ और उसे भी/ जिसने मुझे बहुत सजा-संवार कर/ मेरा बार-बार प्रदर्शन किया / मेरा इस्तेमाल किया / उसे तो और भी ज्यादा लानत भेजती हूँ / जिसने मुझसे चापलूसी करवाई / और सौ बार ‘हुज़ूर’ कहलवाया / जिसने मुझसे स्वार्थ साधा /  लानत उसे भी/ और उसे हजार लानत / जिसने मेरी रीढ़ की हड्डी तोड़ कर झुका दी.”
‘ फुरसत मेरी जान ’ कविता में एक घरेलू स्त्री अपने जिम्मेदारियों और रोजाना के घरेलू काम काज के बीच एक सुकून भरे फुरसत की हसरत लिए रह जाती है, जो उसे कभी नहीं मिलती। औरत और फुरसत मिलते जुलते शब्द हैं पर वे हमेशा एक दूसरे से दूर ही रहते हैं। यह कविता पढ़ते हुए मशहूर अमेरिकी कवि माया एंजेलो की कविता काम करती स्त्री की याद आती है जिसमें एक स्त्री अपने रोजाना के काम करती हुई हवा, बारिश, असमान, चांदनी और तारों की चमक को अपने पास रहने की इल्तिज़ा करती है और कहती है कि तुम्हीं हो जिन्हें मैं अपना कह सकती हूँ।
सपना चमड़िया की कविताओं में प्रतिरोध, प्रेम और हमारे दौर के  सामाजिक-राजनैतिक संकट के ख़िलाफ़ सहज किंतु मुखर अभिव्यक्ति भी मिलती है। युवा क्रांतिकारी शहीद चंद्रशेखर की माँ पर लिखी ‘कौशल्या जी’ में न सिर्फ चंद्रशेखर के व्यक्तित्व की झलकियाँ हैं बल्कि आने वाले वक्तों में और भी नौजवानों के बदलाव के संघर्ष में उतरने और जन संघर्षों को आवाज देने की उम्मीद बंधाती है। यह कविता दुनिया के विकल्पहीन होने के दावे को ख़ारिज करती है। ‘राजा का क्या करें’ बिल्कुल आज के राजनीतिक प्रसंग में एक लोकप्रिय प्रतिरोध रचने का प्रयास करती है।

 

आज की हिंदी कविता जब अंतर्मुखी और होती जा रही है, जब कविता में खुल कर बोलना और वक्तव्य देना एक जोखिम भरा काम हो, तब प्रायः कवि आत्मकेंद्रित होकर ‘अपने निजी सच’ की प्रामाणिकता पर जोर दे रहे हैं।ऐसे में  सपना चमड़िया की कविताएँअपने सहज रचनात्मक प्रतिरोध के साथ साफ़-साफ़ बात करती हैं।

सपना चमड़िया की कविताएँ

1. अनवर चाचा

जब भी
दिल्ली आतें हैं
बिहु को दो बड़ी चॉकलेट  और सौ रूपए
दे कर जाते हैं
मां से कहते हैं
प्रणाम, आप कैसी हैं और बाबा से
का हो कइसन बा ड़ा  कहकर हाथ मिलाते हैं  अनवर चाचा
बिहु को
बाबा जैसे ही
लगते, भाते हैं
उन्हीं की तरह
लुंगी पहनकर
काली चाय
सुड़कते जाते हैं
अखबार किताबें
बिखेर कर
मां का काम
बढ़ाते जाते हैं
खुद चिल्लाते हैं,
जोर जोर से
बातें करते हैं
और मैं बोलूं तो
डॉट पिलाते हैं।
अनवर चाचा
और बाबा
घंटों बतियाते हैं
देर रात तक
साथ निभाए जाते हैं।  अनवर चाचा
अक्सर दिल्ली आते हैं।  जो सौ रूपए वो
बिहु को देकर जाते हैं  उनसे कभी गुड़िया
कभी किताबें लेकर
बिहु खूब धनवान
हुई जा रही थी
कि
उसकी एस. एस .टी. की  किताब ने उसे
पाठ पढाया
कि हिन्दू -मुस्लिम
दो अलग अलग जातियां हैं।  और मैम ने बताया
हम दिवाली और वो
ईद मनाते हैं
हमारे नाम होते हैं
फलां- फलां
और उनके अला- बला ।
अनवर चाचा
जब इस बार आए
बिहु कुछ उदास थी
हालांकि चॉकलेट
उतनी ही मीठी
और सौ का नोट
बहुत कड़क
तब बिहु ने चॉकलेट और नोट  एस.एस. टी.
की किताब में दबा दिए
और कहा
अनवर चाचा से
आप दिल्ली जल्दी जल्दी
क्यूं नहीं आते हैं
मैं अपनी किताब
का मुंह

चॉकलेट से भर देना चाहती हूं।

2.  कश्मीर का लड़का

आज उसका सारा सामान

घर से चला गया

जैसे एक दिन वो छोड़कर

चला गया था हम सब को
पर उसके जाने के बाद भी
उसकी चीजें चीखती थी कभी
हंसती थी कभी
और कभी सारी चीजें गले लिपट कर
मेरे फूट-फूट कर जार-जार रोती थी।
पलंग में लगा शीशा मेरे चेहरे के साथ
नुमायां करता था एक और चेहरा हमेशा।
लकड़ी की कुर्सी लकड़ी के ढांचे से ज्यादा
उसके आराम से पसरे होने की मुद्रा  में अघलेटी रहती थी
कभी यहां, कभी वहां
कभी सर्दियों की धूप में टैरेस पर  कभी गप्पें मारते मुझसे
किचन के दरवाजे पर ।
टी वी के रिमोट पर
उसकी उंगलियों का स्पर्श
अभी भी चपलता से धूमता रहता है ।
उसके बिना उसके कमरे का कूलर  कभी -कभी असहाय गुस्से में
गरम हवा फेंकने लगता है ।
दही और मूली की चटनी से
अभी भी मेरी कटोरियां गमकती हैं।
जैसे जाती नहीं है गंध कपड़ों से सिगरेट की
उसी तरह उसकी कश्मीरी गंध
गरम पशमीने  सी मेरी जिंदगी से लिपटी रहती है ।
जीने खाने के लिए
उसने अपने देवदार और चिनार
सेब और जाफरान छोड़े
यह झूठ है
वो तो मासूम था
उसे तो पता ही नहीं चला कि
कब सुर्ख सेब हरे हो गए
और जाफरान भगवा।
कब देवदार-चिनार अपनी
उंचाई से कट छंट कर
संसद की कुर्सियों के पाए
और
बड़े नामों की नेमप्लेट बन गए।
कब सुफैद बर्फ खाकी और मिलिट्ररी
के फील पांव से टूटती दरकती रही।
आतकंवाद का काला कौआ
सबसे पहले कहां बोला
संसद में या सीमा पार
उसने तो सुना ही नहीं ।
इस सबसे बेखबर
वो चश्में के ठंडे पानी में
बियर की बोतलें ठंड़ी करता रहा
रफीक चाचा के यहां गोश्त उड़ाता रहा
पड़ोस की लड़की को ताकता ,मुस्कुराता रहा।
वो तो मासूम था
कि “कश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत एक हैं”
यह पाठ वो भूला ही नहीं ।
वो तो मासूम था कि
अठारह साल में वोट देने
पर खुश हुआ
नाखून काले करवा कर
निश्चिंत हुआ
और सीने पर हाथ बांधे
रातों को बेखौफ सोता रहा ।
नाज था उसे उनलोगों पर
जिसको उसने चुनकर भेजा था,
कि उन्हीं लोगों ने
उसे विस्थापन की दीवार
में चुन दिया ,उसे दिल्ली बुलाया और मार दिया ।
उस दिन से वह न हिला, न डुला ,
न हंसा, न रोया
कभी सड़कों ,कभी कैम्पों
टीन टप्परों में भटकता रहा
इस देश में रहने के लिए ।
कभी ठेला लगाया, कभी अखबार बेचें
जीते रहने के लिए
जीने के लिए नहीं ।
जब तक जिया
शर्मसार रहा
यही सोचता रहा
कि जो अपना हिमालय छोड़ेगा
वह इसी तरह

सफाचट मैंदान में मारा जायेगा।

3. गुजरात और इराक की माएँ

अभी दस दिन

सिर्फ दस दिन हुए हैं
मेरे बच्चे को घर से गये
कपड़े उसके मैंने ही रखे थे
एयर बैग में
फिर ना जाने कौन सी
गठरी में बांध ले गया
घर की सारी उमंग ,चाव और शोर शराबा ।
सब्जी का रंग एकदम फीका है
और दो प्याली चाय में ही
कट जाता है सारा दिन ।
इंटरनेट और मोबाईल भी
बिल्कु ल चुप है,
यहां तक कि टी वी भी
एक ही राग अलाप रहा है
वो हाथ नहीं न, जो बार बार
चैनल बदल देते हैं
हालांकि मेरे जेहन में
अभी भी विदाई देते उसके
पुष्ट हाथ कांप रहे हैं।
कोई लड़ाई नहीं
कोई फरमाइश नहीं
कि बाजार की भागमभाग भी
थमकर खड़ी है
कि बयासी -सतासी नं. का
स्कूटर भी नीचे पड़ा पड़ा
ऊंघ रहा है।
और वो नहीं है
तो वो दिलरूबा सी लड़की भी
कम ही आती जाती है।
हम दोनों भी चुप है
कि हमारी आधी रात का
आश्वासन भी डरा सहमा है ।
घर के दूसरे छोटे बच्चे
भी उदास है
कि घर में लॉलीपॉप नहीं
महक रहा
कि आइसक्रीम नहीं पिघल रही।
पर बस आज की रात
कल ही दिन मंगलवार
सुबह छह बजे आ जाना है उसे
आने की तारीख पता हो
तो बरसों कट जाते हैं।
पर एक लकीर सी
पड़ी हुई है दिल में
कि गुजरात और इराक
कि मांओं का कोई एक दिन
मंगलवार होता
और सुबह छह बजे
उनके घर तक कोई

रेलगाड़ी आती।

4. पैट्रोल पंप पर लड़की

नमस्ते शिल्पा
कैसी हो तुम ?

मन बहुत था पूछूँ तुमसे
आ कर तुम तक
ठीक नजर से देखूं तुमको
पर पहला परिचय है
और वह भी सिर्फ मेरी ओर से
तुमने कहॉ बताया था अपना नाम
मेरी उत्सुक नज़रों ने ही पढ़ लिया था
तुम्हारी जेब पर लगे आई कार्ड पर
और मेरा नाम कहीं नहीं था
मेरे बदन पर
कि पढ़ पाती तुम भी
दोस्ती की पहली शर्त की तरह
लेकिन तुमने जरूर पढ़ा होगा
मेरी गाड़ी का नाम
अलगाव के इतिहास की तरह
फिर तुम व्यस्त भी थी
पैट्रोल का पाइप हाथ में लिए
पैट्रोस डालती पैसे गिनती
तुम्हारे कानों में पतली सी लड़ थी
पर बाधा नहीं थी तुम्हारे काम में
तुम्हारी तेज रफ्तार में
एक पतला सा कड़ा लोहे का
जैसे था तुम्हारे सभी सहकर्मियों के हाथों में /कलाइयों में
मन हो आया पूंछू तुमसे
बदली क्या आबो हवा
कुछ फिज़ा तुम्हारे आने से
कि तुम्हारे सहकर्मी
अभी भी उतने ही पुरूष हैं
जितने थे तुम्हारे आने से पहले।
मन बहुत था कहूं तुमसे
कभी आना घर मेरे
यही पास ही में है
यूं ही गुजरते हुए
काम पर जाते हुए
या आते हुए
आओगी तुम
तो सिढ़ियां मेरे घर की
सितार के द्रुत लय की तरह
झनझना उठेंगी
आओगी तुम
तो दरवाजे पारदर्शी हो जायेंगे
हवा की तरह मेरे घर के
आओगी तुम तो
सामान से भरे इस घर में
थोड़ी जगह हो जायेगी।
नहीं जरूरत नहीं कि
बदल कर आओ कपड़े
कि मोर नाचते वक्त
अपने रेशमी पंख उतारकर
नहीं रख देता पेड़ की छांव में
कि गाते वक्त कोयल
टांग नहीं देती अपना कंठ
पेड़ की डाल पर
आना कभी
पर शर्म आती हो अगर
बुरा लगता हो अगर
अकर्मण्य के घर आने में
तो बुला भेजना मुझे
कि पांव -प्यादा
चल कर आऊंगी
पूछने

कहो शिल्पा कैसी हो तुम ।

5. नया पाठ

अभी बहुत कुछ
सीखना है मुझे
सबसे पहले कि
विदा देते हाथों में
कैसे रखा जाता है दिल ।

कैसे उचक कर
देखा जाता है जाने वाले को
जाने वाले की पीठ।
और आंखों को
कैसे जोड़ा जाता है
एक तार से दूर तक ।
इस बार जब जाउंगा गांव
ध्यान से सुनना होगा
विदा करते समय क्या
कहती है मां होंठों में
“हे ईश्वर जैसे ले जा रहे हो
लौटाना वैसे ही वापस मुझे “
इस बार दिल लगाकर
सिखना होगा दुवाओं का सबक
कि मां से कितना कम सीखा है मैनें
अभी तो तलाशनी है वो जगह
घर में  जहां रखे जाते हैं
बाथ रूम में छूटे,  गीले कपड़े
चाय का कप ,भूल गई है जो
वो  जल्दी में टेबल पर
उठाते वक्त उसकी हड़बड़ाहट की मुद्रा पर
प्यार आना ही चाहिए मुझे
सफर बहुत लंबा है मेरा
कि सदियों से जाहिल हूं मैं
इतना भी नहीं किया
कि तेज आंधी पानी में
फोन करके पुछूं उसे
कि कहां हो तुम ?
अभी तो यह बताना
शेष रह गया कि
वो सड़क क्रास करते समय घबराएं नहीं
डरे नहीं गर देर हो आने में
आराम से तय करे रास्ते ।
और बाकी है अभी तो सीखना
कि नींद में डूबे हुए व्यक्ति का
सिर कैसे धीरे से सीधा किया जाता है
और लेटा जाता है कैसे बगल में  नि:शब्द, बेआवाज
अभी बहुत कुछ सीखना हैं मित्रों
कि सर्दी, गर्मी, बरसात
ठीक आठ बजे

मेरी पत्नी घर छोड़ देती है।

6. रहमत खान

तुमने मुझे डरा ही दिया
मन हुआ
थोड़ा किनारे ले जाकर
दरयाफ्त करूं

किसकी नेक सलाह से ऐसा किया?  और थोड़ा डॉटू भी
मुझे जीने नहीं दोगे?
इतने भोले हो अभी भी
जानते नहीं हवा में
रक्त की गंध
सदियों तक रहती है
गले में कमाल
ऑखों में सुरमा
यहॉ तक तो फिर
भी ठीक था
पर कमअक्ल
क्या जरूरत थी
लिखवाने की
बड़े बड़े अक्षरों में
“रहमत खान का रिक्शा”
ये ऐलान ,
ये हिमाकत
मारे जाओगे गुलफाम
और मारने से पहले
कोई नहीं देखेगा
कि
तुम्हारे रिक्शे पर
स्कूल के छोटे छोटे
बच्चे बैठे हैं।
कि रिक्शे पर बूढ़ी अम्मा  को बिना नाम पूछे
कितनी बार सहारे
से चढ़ाया है।
अब मत कहना
नाम में क्या रखा है
दुनिया बड़ी कमजर्फ
कि मियां
हिमाकत होगी कहना
पर खूब ही गाई गई है
अपने देश में नाम की महिमा।
दोष तुम्हारा भी क्या है
परंपरा से जो मिला है
उसी को सहेजा है
अब जब ऐलाने जंग
कर ही दिया है
तो दौड़ाते रहो
हैदरपुर से मानव चौक  तक अपना रिक्शा
घुलने दो अपना नाम
हवाओं में फिज़ाओं में ।
जब वो आयेंगे
पड़ोसियों से ,शाखों से  गली के कुत्तों से
कुरेदेंगे तुम्हारा नाम
तो डर मत जाना
पलट मत जाना
बदल मत देना
अम्मा बाबा का
दिया हुआ नाम
रहमत खान ।
7. एक अपील
यह वक्त एक दूसरे
के ऑसू पोंछने का है ।
हथेलियॉ थामकर चलने का है।
और जब फट गई हो आस्तीने
गुरबत में
 तो वक्त हाथ लहराते हुए
इन्कलाब बोलने का है।
यह वक्त किसी के मुंह जोहने का नहीं
खुद आगे बढ़कर कमान संभालने का है ।
कटती नहीं जब दुख: की लंबी रातें
तो वक्त ढोल, नगाड़े बजाकर सबकी नींद उड़ाने का है।
जब चुप रहना भी जोखिम भरा हो
और बात गले तक आ ही गई हो
तो वक्त भरे गले से चिल्लाने का है।
जब रोटी पानी बिक रहे हों बाजार में
तो वक्त अलाव से पूरे देश में आग लगाने का है ।
सीधी सी बात है दोस्तों
जो काटने पर तुले हैं जड़े हमारी
वक्त आज उनकी हस्ती मिटाने का है।
और लिखी जाने वाली सारी कविताओं
का लब्बों लुआब है कि
अगर मरना पड़े अपने जल जंगल
जमीन के लिए
तो सीने पर हाथ रखकर
लड़ कट कर मर जाने का वक्त है ।
8. ओ हमारे मांझी
जब आधा गांव
तुम्हें सनकी रह रहा था
और आधा
अपनी परंपरा में
स्त्रैण कहकर अपने श्रेष्ठ
होने की घोषणा में अभिभूत था।
तु्म्हें सिर्फ अपनी पत्नी के लहुलुहान  पैर दिख रहे थे
कि तुम्हारी सहज बुद्धि
आलता और रक्त का फर्क
जानती थी।
वह सुबह इतिहास में दर्ज है
जिस रोज आदम प्रजाति
का अदम्य साहस
हाथों में सिर्फ एक छैनी हथौडा लिए
पहाड़ की कुव्वत नजरों में तौल रहा था।
और जब पहली चोट पड़ी थी
तुम्हारी हथौड़ी की
पर्वत के पग तल में
तो तीनों लोक अपनी जगह से
थोड़ा हिल गए थे
और अब बताते है लोग
कि जैसा कभी न देखा न सुना
वैसा एक अनोखा फूल खिला था  उस दिन
पहाड़ की तलहटी में ।
और यह भी बताती है
गांव की स्त्रियॉ
कि उस दिन तुम्हारी पत्नी
घर के काम करते वक्त
जैसे हो गई थी घने बादल
का कोई टुकड़ा
जैसे झरने की रवानी
जैसे पहली बार बोले
गए शब्दों की धार
जैसे पहली बार किसी पूरे वाक्य  का सार ।
तुम नहीं जान पाओगे कभी
कि तुमने हमारे लिए क्या कर दिया है ।
सुदूर पूर्व के एक पहाड़ से ही
रास्ता नहीं निकला है
सदियों के सनातनी पहाड़ों में
हलचल है
सारी रणनीतियां , सारे षड़यंत्र  बेचैन हैं।
सारी व्यवस्था के दिलो दिमाग में  आग लगी हुई है।
बेचैन है सारे कलावन्त
अपने अपने साजों पर
तुम्हारी छेनी हथौड़ी
कि ध्वनि बजाने को
उसकी ठुक ठुक को
किसी ताल में निबद्ध करने को  पर
पुराने संगीत विशारद में  कोई राग ही नहीं मिल रहा
जो इस धुन का सामना करें।
परेशान है सभी कवि
शब्दों की किस तरह करें आवृति
कि पहाड़ का टूटना
फूल का खिलना
हथौड़ी की खट खुट
और रक्त का रंग
सब एक कविता में
व्यक्त हो जाए।
पर खुश हूं मैं
आश्वस्त हूं मैं
और हाथ उठाकर
दुआ मांगती हूं
कि मेरा देश असंख्य
दशरथ मॅाझियों का देश हो
जिससे मैं भी चुन सकूं
अपने लिए
अपनी बेटियों के लिए
उसकी दोस्तों के लिए
एक दशरथ मॉझी
कि एक स्त्री अपने पूरे जीवन में
एक दशरथ मॉंझी के अलावा और चाहती भी क्या है।
9. तीन पगों का विष्णु
बाहर भीतर सब एकै जानो  की तरह
उन तीनों का
रंग एक था
उसके पॉलिश की पेटी
उसके हाथ और चेहरा
धुर काला
पुरानी दिल्ली स्टेशन
पर
और खोजी निगाहें
जमीं थी
सिर्फ पैरों पर
थोड़ा रूका
दस रूपये में
कैसे भी जूते चमका दूंगा  पहले थोड़ा डरी मैं भी
मेरे वु़डलैंड के महान मंहगे जूते ।
कैसे सौंप दूं
अनगढ़ हाथों में
फिर लगा
पुराने हो गए जूतों पर
प्रयोग का शगल रहेगा।
मेरे हॉ कहने से
पहले ही
उसने झट से
ताड़ लिया मेरा चेहरा
झट से
अपना एक बालिश्त
का पीढा बिछाया
पॉलिश की पेटी बगल में टिकाया
दो जरूरत मन्द हाथ
मेरे जूते का फीता खोलने लगे
क्या पता
झुककर फीता खोलने
के आलस में
ग्राहक बिदक जाए
और इधर जूते खुले
दूसरी ओर
उसके पैरों की चप्पल
मेरे पैरों के नीचे थी।
जिस पॉलिश का डिब्बा खुला
उसका विज्ञापन आपको
कहीं नहीं दिखेगा ।
साथ ही शुरू हुई
उसकी मुफ्त की सलाह
अहा जूते तो बहुत खराब
हो गए हैं
कब से पॉलिश नहीं करवाया ?
अरे कम्पनी जो पॉलिश साथ में  देती है
उनसे जूतों का कुछ भला नहीं होता ।
गहरे भूरे रंग की पॉलिश
में उसकी तर्जनी कोई पीला
सा द्रव्य तन्मयता से घोल रही थी
वही तर्जनी जो सीधी उठे
तो ऑखें फोड़ दे
वही तर्जनी जिससे
किसी को बाहर
का रास्ता दिखाया जाता है ।
वही तर्जनी जिसे दिखाकर
बात करना सभ्य समाज में
बुरा माना जाता है।
उसके हाथ में रेशे रेशे
में पॉलिश भरी हुई थी।
रात में रोटी का गासिया
तोड़ते वक्त भी शायद
उसकी गन्ध जाती नहीं होगी।
उसकी रोटी दिनभर
हमारे पैरों में पड़ी रहती है
बड़े बड़े सूटकेसों के
आल जाल में
इतनी छोटे पीढ़े पर
कोई कैसे टिक सकता है ?
हैरानी से ज्यादा अब डर
लगता है
कि
भूमंडलीकरण की रामनामी चादर ओढ़े
कुछ लोग आयेंगे
और विष्णु की तरह
तीन पगों में सारी दुनिया नाथ लेंगे।
डर लगता है
अगली बार उसे
नहीं मिल पाउंगी
पुरानी दिल्ली के स्टेशन पर
कि उससे पहले
लकदक करती
जूते की शक्ल की
एक गाड़ी रूकेगी
मेरे घर के आगे
एक साफ सुथरा ,
प्रशस्त ललाट , उन्नत नासिका और यूनिफार्म और दस्ताने से सुज्जित
 कंपनी का मुलाजिम  आयेगा ,
अपनी गौर वर्णी , भाषा से मुझे आतंकित करता हुआ
गुड मार्निंग बोलेगा ।
जूतों का बंडल थामेगा
और पॉलिश कर के दे जायेगा।
और उसी दिन चुक जायेगा
रैदास का आत्म विश्वास
वो बहुत गहरे झांकेगे
चमड़ा भिगोने वाले अपने
बर्तन में
वहॉ न उनको अपना विश्वास मिलेगा
और ना ही मिलेगी कोई कविता ।
10. रोज मरने के दृश्य
वहाँ क्या से क्या
हो गया मीतू।
खबर मिली तो
देर हो चुकी थी।
देह तुम्हारी
पंच तत्व में बिला चुकी थी।
जरूरी संस्कार में सिमटकर
मुट्ठी भर बचे थे तुम
और जबरन कहा गया मुझसे
कि एक
बुलन्द आदमी को मैं
छोटे से घड़े में कैद मानूं
जबकि इतने ऊंचे थे तुम
कि माथा चूमने को तुम्हारा
पंजों के बल आसमान
छूना पड़ता था
और जब अलग हुए थे हम
उस घड़ी तुम्हारा जिंदा चेहरा
मेरे कंधे पर धड़क रहा था।
सुना था
कि बहुत देक तक हाथ थामे रहने पर
लकीरें एक ही हो जाती है
फिर कैसे मानूं मीतू कि
मैं जब यहॉ घुटनों पर सिर टिकाए
सोच रही थी तुम्हारी ऑखें
तुम्हारा स्पंदन , तुम्हारी घड़कन
तो दिसंबर की कड़कती ठंड में
तुम ठंडी काली सड़क पर
बिना बिछावन सोये थे ।
तुम्हारे सिरहाने था सुर्ख ,लाल तरल तकिया
जो बह कर जम चुका था
और तुम्हारे आस पास
भिनभिना रही थी
कुछ खाकी रंग की मक्खियॉ
बाकी गुजरते लोगों का
खून पानी हो गया था
मैं होती वहॉ तो
ऐसे ही नहीं जाने देती सबको
कि एक पंचायत बुलाती
और पूछती सबसे पहले
विकास के उस तेज रफ्तार
युग पुरूष से
जिसने अमेरीकी मॉडल
पर रचा था सारा संसार
मैं चुप नहीं रहती
पूछती उस बड़ी कंपनी
के मालिक से जिसका
विज्ञापन टी वी पर चीखता था
हर मिनट पर
कि उसका टफ टायर
सड़क का साथ कभी नहीं छोड़ता
जाने नहीं देती  यूं ही
उस हैलमेट निर्माता को
दिखाती उसे तुम्हारा झाडियों
में फंसा हैलमेट
और पूछती
इस दृश्य का मतलब क्या है ?
ढूंढती सभ्यता की विकसित
उस बड़ी गाड़ी को
जो अंग अंग छितरा कर
राजमार्ग पर तुम्हारा
अनंत में फरार थी।
कुछ नहीं कर पाती तो
इतना जरूर करती कि
तुम्हारा ध्यान भटकाने वाले
सड़क के दोनों किनारों के
सेल वाले लुभावने विज्ञापन
काले रंग से पुतवा देती।
अगर मैं तुम्हारे गांव की
ओछा गुनी होती तो
जवाब नहीं मिलने पर
सबकी आत्माओं को
कील देती
लाल पीली हरी
टैफ्रीक लाइट पर ।
या तुमको ही
ताकीद करती कि
जब भी बाहर जाओं
जान घर पर रख कर जाओं ।
पर कर पाती कुछ भी
इससे पहले
देर हो चुकी थी
देह तुम्हारी पंच तत्व में बिला चुकी थी।
कितना कहा था तुमसे
कि जमाना जान हथेली पर
रखकर घूमने का नहीं है ।
पर देर हो चुकी बहुत
पंच तत्व में बिला चुके तुम
मैं पूछती हूं तुमसे
पूछती हूं दसों दिशाओं से
पूछती हूं क्षिति , जल, पावक,
गगन, समीरा से
कि अभी कैसे
मर सकते हो तुम
जबकि स्कूटर के लोन की
अंतिम किस्त जानी बाकी है।
11. कौशल्या जी
ऐसा ही हरफन मौला
अफलातून था वो
कि उसने
गांधी शांति प्रतिष्ठान में
नेपाली नौजवानों का कोई
दस्ता बुला लिया था
और दो देशों में दोस्ती का
कोई पुल बना रहा था
जिसपर होकर विचार और संघर्ष
का रसद आसानी से दो देशों
की भूख मिटा सके
उस तीन दिवसीय कार्यशाला
में पता नहीं क्या क्या तो
बोझ उठाए
अपने दिन और रात एक किए हुए था।
हम तो बस बाहर बैठे
उसकी गति , उसकी रफ्तार
को भर भर ऑख देख रहे थे।
कि हम दो अपढ़ स्त्रियों के लिए
वहीं तो क्रांति का मुखर चेहरा था
जिसने न जाने कितनी बार
मार्क्स की पूंजी और रक्त
की अवधारणा को
ठेठ भोजपुरी में कौशल्या जी को समझा दिया था ।
बीच बीच में न जाने कितनी बार
मॉ की भूख प्यास
उसे बीच  बहस से खीचें ला रही थी।
कौन कहता है कि
बदलाव का रास्ता आत्मीय  होकर नहीं गुजरता ।
उसकी ऑखें, उसकी लंबाई  और उसकी दाढ़ी में कुछ
इतना ठेठ और ठोस था कि  जिस बेंच पर हम दोनों
बैठे थे
वह भी कुछ तरल और
बहुत उष्मित हो आई थी।
कौशल्या जी जैसे उसे
एक एक अक्षर जीती थीं
या अभी भी जीती हैं।
वह अपनी मॉ की दुनिया था  और मॉ ने
बड़ी ईमानदारी और साफगोई  से उसे दुनिया को लौटा दिया था।
इसलिए उसने तय किया था
 लौट जाना , अलख जगाना  वंचितों की उसी घरती से
जिसे सिवान कहा जाता है।
वैसे अकादमियों की एक समृद्ध  दुनिया
उसे कौल भरने को तैयार बैठी थी
 उसके कई संगी साथी
अपने बूढ़ पूरनियॉ
की चाल चले थे
कि स्थानीय बदकारियों से
हाथ मिला
अन्तर-राष्ट्रीय बहसों में
हिस्सा ले रहे थे
और समझौते से
 भारी हो आई
राजधानी की ऐसी ही
एक शाम उसने
सच बोलने के लिए
लौटना चुना था ।
और वहॉ चौराहे पर
खड़े होकर उसने सिर्फ
सच बोला था
सच एक मात्र ऐसा शब्द है
जो विेशेषण लगाने से
मैला हो जाता है
झूठा पड़ जाता है ।
कठिनाईयों में भींगा
बहादुर लड़का था
इतना नरम कि अक्सर
रास्तों में
रूक कर, उकडूं बैठकर
परेशानियों को हथेलियों
पर उठा लिया करता था ।
उस दिन अपनी जीवनभर की
कमाई आग
चौराहे पर उगल रहा था
और शहर बदल रहा था ।
उस दिन कौशल्यौ जी का बेटा
 जो कुछ लोगों के लिए
खतरे का वायस बन गया था
 गोलियों से छितरा दिया गया
एक गोली उसके माथे के लिए
 जो षडयंत्रों के संजाल समझने लगा था
 एक गोली उसके दिल के लिए
 जिसमें करोड़ों भारतवासियों का दिल  घड़कता था।
गोलियॉ उसके हाथ और बॉहों
के लिए
जो उस दिन
लहरा लहरा कर मानों
आसमान में छेद किए दे रहे थे।
पैरों के लिए गोलियॉ
जिनका रूकना कुछ
के चलने के लिए जरूरी समझा गया।
उस दिन कौशल्या जी की ऑख का तारा
जिगर का टुकड़ा
कटे पेड़ सा गिरा
सिवान के चौराहें पर ।
जिसे वो अक्षर अक्षर
जीतीं थी
फिर भी मरा नहीं
आज भी मुझे मिल जाते
हैं वो नवजवान
जिनकी रातें मारे जाने
की आशंकाओं से आलोकित है ।
मानी हुई है ये बात
कि जो मारे जाते है इस तरह
होते हैं बड़े सख्त जान
कि सालों साल जिन्दा रहते हैं
हमारी ऑखों का नूर बनकर
और अपने पीछे छोड़ जाते हैं कई काम ।
कि अब हमें भी उसी चौराहें पर
अपने बच्चों को भेजना है
कि अभी इस देश में
एक और सन् सतावन
की संभावना बाकी है ।
 (कौशल्या जी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संध के अध्यक्ष चन्द्रशेखर की मां थी ।  एकलौते पुत्र चन्द्रशेखर की बिहार के सिवान में हत्या कर दी गई।)

12. राजा का क्या करें ?

राजा ने कपड़े बनवाए
राजा था
अनगिनत कपड़े थे
फिर भी मन की
मौज ।

असंख्य भूमि पर
उसके लिए कपास उगा
और जितने दिन उगा कपास
उतने दिन रोक दी गई
फसल
गेहूं, चना, बाजरा और जवार
और जो कपास उगा
एक अचरज सबने देखा,
बिल्कुल सुफैद नहीं था फूल कपास,
फूल के भीतर पड़ी थी
कुछ नीली खडी धारियाँ उदास।

मैं नहीं रच रहीं कोई
मिथक, प्रतीक
उपमा या उत्प्रेक्षा अलंकार
यह नहीं था कोई प्रयोग
या कोई अनुसंधान
मत रहना किसी सुख-सपने
में मुब्लिता दोस्त
मेरे यार
यह सिर्फ था मेरे –तुम्हारे
लिए एक सीधा पैगाम ।

भले ही बनारस के बुनकरों
में मच गया हाहाकार
पर तय हो गया कि
अब से जो कपास उगेगा
उस पर चस्पां होगा
राजा का नाम ।
और क्योंकि कुछ
स्वाभिमानी प्रजाति
बची हई थी
इस महाद्दीप में
जो किसी का नाम
नहीं ओढ़ती
उसे इस कपास
के विरोध में
उतारनी पड़ी अपनी
झीनी चदरिया ।

किसान मर रहे थे
स्त्रियाँ जूझ रही थी
इतिहासकार दफनाए जा रहे
सत्यों को
दीवानगी में अपने
पंजों और नाखूनों
से ही खोदने लगा था।

पर सब बेआवाज, बेअसर
सिर्फ राजा था, उसका फरमना था
उसकी खेती, उसका कपास
उसका कपड़ा, उसकी घरती
उसका ही आकाश था।

जो काटा जा रहा था
जो बुना जा रहा था
जो उकेरा जा रहा था
सब उसका था
उसके लिए था ।

राजा का कपड़ा सिला
कुल नीला-काला
पर यह रंग
यह काला खूबसूरत
आदिवासी का नहीं था
सुंदर काली स्त्री का
नहीं था
कोयला खदान से
निकले मजदूर का नहीं था
किसान का नहीं था
लोहार का नहीं था
रैदास का नहीं था
रोमानी रात का
नहीं था
बालों का नहीं था
काली आरतीय ऑखों का
तो बिल्कुल नहीं था।

यह काला था
जमे हुए खून का
अकड़ी हुई लाश का
फैक्ट्री से निकलते कचरे का
नदियों में घुलते जहर का
इस देश से बिदा होती
सुंदर चीजों की आह का ।

फिर भी राजा ने कपड़े बनवाए
इतना ही नहीं
उस पर
तलवार, भाला और त्रिशूल
जैसे
खड़ी धारियों वाले मोटिफ*
टंकवायें।

हम खौफजदा थे
फिर भी हम सबने
मिलकर वहीं पुराने
गीत दोहराए
जो परम्परा में हमें
मिला था
कि कोई तो आए
मजदूर, किसान
स्त्रियाँ, नौजवान
उलगूलान, तेलंगाना, नक्सलधाम
चौरी-चौरा, सन सतावन
कश्मीर,पंजाब
पहलगाम
खुदी राम बोस
या अश्फाक उल्ला खान
और भी जुड़े इसमें
कई कई नाम ।

और सब एक साथ
उठायें आलाप
मिल कर लें
तान
और कहें
राजा गन्दा है
राजा नंगा है
राजा गन्दा है
राजा नंगा है।

*मोटिफ: डिजाईन

13. सलाम, सलाम, सलाम

बिना धूप की परवाह किए
और सांवली होती हुई
विरोध में निकलने वाली
लड़कियों को सलाम ।
सुदर्शन नहीं दिखने वाले
ज़िम नहीं जाने वाले
लड़कों को सलाम।
भूख से सिकुड़ती

आँतों को सलाम
गिरते स्वास्थ्य
चमकती आँखों
को सलाम ।
इंकलाबो इंकलाब
वाले नारे को सलाम
और उन नारों पर उभरती
गले की हर एक रग को सलाम
गले से दुपट्टा फेंकने वाले
हाथों को सलाम
और बदऩजर की तरफ
उठी हुई हर तर्जनी को सलाम ।
सभा में बोले हर झूठ के
पर्दाफाश को सलाम
और सवाल पूछती हुई
हर खुली चिट्ठी को सलाम।
आधी रात को गंगा ढाबे पर
चाय पीती मेरी बेटी
की आजादी को सलाम
और लड़की को सिर्फ लड़की
की तरह देखने की
सनातनी आदत से छुटकारे
को सलाम
गुलमोहर को सलाम
और भविष्य को ताक पर
रख देने वाले
हौसलों को सलाम ।
बस्तर को बचाने की
फ्रिक को सलाम
और ना झुकने वाली
इस जवां अकड़ को सलाम ।
हिन्दू-मुस्लिम कार्ड पर
पड़ने वाले हर तमाचे
को सलाम
और सबके लिए रोटी
मांगने वाली जिद
को सलाम।
हक की बात करने
वाली हिम्मत को सलाम
इन हवाओं को सलाम
इन फिज़ाओं को सलाम
और आजादी चौक के
इन बेखौफ रातों दिन को सलाम ।
भूख की हर ऐंठन
और आँसू के हर कतरे
का हिसाब मांगने वाली
इस पढ़ाई को सलाम ।
ये सलाम सलामत रहे
ऐसी दुआ मांगने वाली हर जबां
हर इंसान को सलाम ।
पहली पंक्ति में दिखने वालों
से अंतिम पंक्ति तक की
बुलंद आवाजों को सलाम ।

14. जन-गण मन

मुझे मत मारो साहेब
कभी स्कूल गई नहीं
सच है साहेब
कि कोई नहीं गया
हमारे घर से पढ़ने-लिखने
फिर कहां सीखती
जन-गण मन
थोड़ी मोहलत दो साहेब
अगली बार आओगे
तो सीख रखूगीं
ठेकेदार से पूछूगीं
जिसने काम पर रखा,
बताया नहीं था बदमाश ने
बस इतना पूछा था
भारी तगाड़ी उठा कर
कितने माले चढ़ जाएगी
छुट्टी तो नहीं करेगी ?
सौ रूपए मिलेंगे रोज़
सौ रूपए रोज़ के साथ
कोई पर्ची नहीं पकड़ाई
जन-गण मन वाली
गांव में ?
नहीं साहेब वहां भी
रात के अँधेरे में
दखिन टोला आने वालों
में से किसी ने भी
नहीं गवाया हमसे
जन-गण-मन
सच कहते हैं साहेब
सौ रूपया रोज़
आटा, दाल, चावल,चप्पल,
तेल, लकड़ी, नमक,
हारी-बीमारी
एक बीड़ी में चार लोग
यही थोड़ी सी दुनियादारी
जाहिल हैं साहेब
माफ़ कीजिये
हम तो इसी को
जन गण मन
समझ लिए
ठेकेदार, पुलिस, मकान-मालिक
हरामज़ादी, कुतिया, साली
हमको लगा
यही हमारा देश है
यही हमारा राग
यही पेट की आग
मेरे बेटे को मत कुचलिये
बेटी को उठा मत ले जाइये
मेरे पेट से तलवार
हटाइये
मत मारिये साहेब
हम तो तब पैदा हुए थे
जब जंगल में नदियां
गाती थीं
झरने गाते थे
काले, हरे पहाड़
नाचते थे
मांदल की थाप पर
बादल के राग पर
फिर जब आप
ये सब लेने आये थे
दुःख के बादल छाये थे
तब भी हम लड़े थे
तीर से, कमान से
अपनी सुगठित
काली भुजाओं से
सौगंध खा कर
कहते हैं साहेब
तब भी हम ये नहीं गाये थे
आप आये अपना गीत गाये
पर हम तो इससे पहले से दुनिया में हैं।
मत मरिए साहेब
लाशें नहीं गाती हैं।
जी साहेब
मोबाइल है
उसमें गाना भर दीजिये
जी साहेब
आप जब भी
मिस कॉल देंगे
हम सब काम छोड़ के
जी साहेब तगाड़ी पटक देंगे
दूध पिलाते बच्चे को
झटक देंगे
रात के अँधेरे में
ठेकेदार को हटाकर
जी साहेब उसी हालत में
जी साहेब जैसे भी हो
जी सही उच्चारण से
नहीं साहब कपड़े
बाद में पहनेंगे
जी सीधे खड़े होकर
थरथराते हुए, रोते हुए, भूखे पेट
निर्वस्त्र हम
आपका गीत पहले गाएंगे।

15. औरत और फुरसत

फुरसत मेरी जान
कभी आना मेरे पास
बरसों से हम
तुम्हारी राह
देखा किए
कितनी इल्तजाएं भिजवाईं
बाबा, भईया
धर्म और सत्ता
सतयुग, द्वापर और त्रेता
हर युग में,
हर भाषा में।
कभी तो चुराया
भी तुम्हें पानी लाते
अनाज पीसते
पर हसरत
ही रही
कि
हम दोनों गलबहियां डालें,
डोले
नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे
लांघे समुद्र के पाट
नाप आए पर्वत की ऊंचाई
और उतरे कभी
गहरी नदी के घाट
पर तुम
बेमुरव्वत
फुरसत मेरी जान
मरदाने में ही
अपना बिस्तरा लगाएं रहीं
पर काफिया और रदीफ
तो मिलता था
मेरा और तुम्हारा
औरत और फुरसत
और मैं ही रही

और मैं ही रही
तुम्हारी जन्मदायिनी भी
कि मैंने खाना पकाया
कपड़ा सुखाया
घर चमकाया
ठंड में आग सुलगाई
और
गरमी में पंखा डुलाया
कंधों पर ढोया
रिश्ते, मर्यादा
और साधे रही
खाने में नमक
ना कम, ना ज्यादा
फिर घर और
नौकरी के बीच
चक्कर घिन्नी
बनी रही
तब भी तुम रूठी रही
मैंने तुम्हारा पीछा किया
तुम निकल गईं
किसी बड़ी गाड़ी में
या
कैफे कॉफी डे में
मुझे देख मुंह फेर लिया
दूर और महंगी होती
तुम मेरे सपनों में
आती रहीं।
मैं तुम्हें फिर-फिर
रही पुकारती
फुरसत मेरी जान
आओ मेरे पास
मुझे गले से लगा लो
मेरा मुंह चूम लो
मेरी पेशानी के बल
समतल करो
मेरा जूड़ा ज़रा ढीला करो
मेरे सिर के नीचे
रखो हाथ
बेमतलब की कुछ
करो बात,
मुझे नींद आ जाए
सदियों की चाह भर जाए
सपना सच हो जाए
कि तुम यहीं रह जाओ
मेरे पास, मेरे साथ
फुरसत मेरी जान,
फुरसत मेरी जान।

16. भाषा

मैं भाषा की पहली इकाई हूँ.

कि मैंने

एक नन्हीं सी जान को

ध्वानियां पहुँचाई है.

ठंडे और गरम की

तासीर समझाई है

रिश्तों की उष्मा से

पहचान कराई है.

सुबह की ‘उठो मेरा जान’

से रात के

चन्दा मामा,आरे आवा, पारे आवा,

तक के समय की राह बनाई है।

मैंने ही जुदा-जुदा आटे के कण जोड़कर

रोटियाँ पकाई है।

सब्जी में बघार लगाई है.

वक्त पड़े पर

दरांत भी चलाई है.

सदियों पहले यह सवाल भी उठाया

कि भईया को दियो बाबुल

महला-दुमहला

और हमको दियो परदेस

कि मैंने अपनी भाषा में सांस ली है

कि मैंने उसी में प्यार किया है

उसी में रोई हूँ.

और उसी में चहकी भी हूं.

कि माँ के पेट से उसे समझा

सीखा और बरतना शुरू किया है.

मैंने उससे बहुत लिया

और बहुत कम दिया है।

लेकिन जो कुछ किया.

जैसा भी जिया

सब अपनी भाषा में किया

कि उसे मैंने ज़मीन पर रोपा

आकाश में उड़ाया

पलकों पे उतारा

दिल लगाया

माथे पर चढ़ाया

रूमाल पे काढ़ा

कि हथियार बनाया

सब अपनी भाषा में किया.

हम दोनों सहोदरा हैं।

सुख में, दुख में,

मान में, अपमान में,

एक दूसरे का हाथ थामे हुए

इसी हक से

और ज़रूरत से

और बड़े ही दुख से

उसका एक संदेशा

पढ़कर सुनाती हूँ

जो उसने भेजा है

आपके लिए

कि मैं लानत भेजती हूँ

उनपर

जिन्होंने मुझे शुद्धता के

पिंजरे में कैद रखा.

मैं नदी थी

मेरी चंचलता को

जिसने चरित्र से जोड़ा

उसे लानत भेजती हूँ.

जिसने मुझमें लिखा

नारी नरक का द्वार

और बनाई तमाम

माँ बहन की गालियां

उसे भी भरपूर लानत भेजती हूँ।

लानत भेजती हूँ उसे भी

जो अनैतिकता के कीचड़ में धसाँ

मुझमें नैतिकता में श्लोक रच

रहा था।

और उसे भी

जिसने मुझे बहुत सजा-संवार कर

मेरा बार-बार प्रदर्शन किया.

मेरा इस्तेमाल किया.

उसे तो और भी ज्यादा लानत भेजती हूँ।

जिसने मुझसे चापलूसी करवाई

और सौ बार ‘हुज़ूर’ कहलवाया

जिसने मुझसे स्वार्थ साधा

लानत उसे भी

और उसे हजार लानत

जिसने मेरी रीढ़ री हड्डी तोड़ कर झुका दी.

लेकिन मैं मरी नहीं

मैंने खुद को बदल दिया

खूब घूमी मैं

नदी-नाले झरने-पर्वत-

हाट-बाजार

घर-बाहर

स्वप्न लिए

इच्छा किए

ज़रूरत बनी

सभा की, कविता की

प्यार की, आक्रोश की

ज्ञान की, विज्ञान की

और सबसे ज्यादा तो

पली-बढ़ी सड़कों पर

हवा में मुट्ठी ताने

भरे गले से बोलती

मेरे साथ चलो

मुझे प्यार करो

मुझे रचो

मुझमें बसो

कि मैं सबूत हूँ

तुम्हारे जिन्दा होने का

और जिन्दा हो

तो मुझ में

नज़र आओ।


कवयित्री सपना चमड़िया, बिहार के सासाराम में जन्मी सपना चमडिया दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज के हिन्दी  विभाग में प्रवक्ता है। बनस्थली विद्यापीठ में अध्य्यन के दौरान ही उन्होने कविताएँ लिखनी शुरू की।  उन्होंने विद्यापीठ से-हिन्दी आलोचना में ‘दूसरी परंपरा का प्रश्न’ -विषय पर अपना शोध प्रबंध किया  है। उन्होने कमलेश्वर के संपादन में प्रकाशित भारतीय भाषा शिखर कोश में सहायक संपादक के रूप में काम किया। कई भारतीय भाषाओं के कहानी संग्रह का संपादन किया  और उसकी भूमिकाएँ लिखी। इनकी अब तक कई कविताएँ विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और कहानियाँ भी लिखती हैं।
टिप्पणीकार डॉ. रामायन राम, हिंदी के प्राध्यापक और हिंदी आलोचना का चर्चित नाम हैं। 
सम्पर्क: 09415794856

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