निरंजन श्रोत्रिय
साहित्य में वायवीयता होती है। कल्पना रचनात्मक साहित्य की प्रकृति है लेकिन किसी भी रचना की विश्वसनीयता के लिए यह आवश्यक है कि उसमें तार्किकता भी हो। यह तार्किकता ही किसी लेखक के शब्दों पर पाठकों का भरोसा जगाती है। तार्किकता के साथ ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी इस चराचर जगत के विभिन्न मसलों से लेखक को टकराने का अवसर भी देता है।
हिन्दी कविता में वैज्ञानिक/ तकनीकी शब्दावली का यथोचित प्रयोग पहले भी हुआ है। तीसरा सप्तक के महत्वपूर्ण कवि मदन वात्स्यायन (जो पेशे से इंजीनियर थे) की कविताएँ इसका प्रमाण हैं। उनकी कविताओं के बारे में कहा जाता है कि उनमें मशीनों की ध्वनि गूँजती है।
संजीव गुप्त की कविताएँ फैन्टेसी, इमेजरी और वैज्ञानिक प्रसंगों का सर्जनात्मक समुच्चय है। यहाँ यह बात भी रेखांकित करने योग्य है कि कविता में वैज्ञानिक शब्दावली ठूूँस भर देने से वह विज्ञान-कविता नहीं हो जाती। उन शब्दों का प्रयोजन, प्रासंगिकता और बिम्ब के रूप में काव्यात्मक प्रयोग भी अनिवार्य है। संजीव ने अपनी कविताओं में यह सावधानी रखी है कि कोई भी विज्ञान-प्रसंग कविता में अलग-थलग या सायास लगने के बजाए कविता के भीतर प्रवाहित धारा का ही हिस्सा हो।
पहली कविता ‘कविता का क्या बुरा हुआ होगा’ में प्राकृतिक गतियों, स्थितियों के वैज्ञानिक तथ्यों और उनके प्रति हमारे मानवीय अनुभवों की संगत है-‘पता चलता है जब/ कि पहली बारिश में/ मिट्टी का सोंधापन/ एक ख़ास तरह के बैक्टीरिया के कारण होता है।’
ज़ाहिर है हमारे दैनंदिन अनुभवों के सौन्दर्य एवं वैज्ञानिक सच में कोई बैर नहीं है। वे एक दूसरे के अनुपूरक हैं क्योंकि दोनों ही अपनी तरह के सच हैं।
‘काल्पनिक संख्याएँ’ गणितीय संख्याओं को लेकर लिखी कविता है जिसमें एक राजनीतिक दृष्टि भी समाहित है-‘पॉलिटिक्स वाला गणित नहीं जनाब!/ वह गणित जो सिखाता है देखना/ दुनिया की ख़ूबसूरती को/ एक दूसरे तरीके से।’
‘ईश्वर से प्रार्थना जैसा कुछ’ कविता में वही शाश्वत प्रश्न है ईश्वर को लेकर। इस कविता की ख़ूबसूरती यह है कि यहाँ ईश्वर पर संदेह है, सवाल है लेकिन उसका नास्तिक नकार नहीं। यदि जगत एक विराट समीकरण है तो ईश्वर उसका अगम्य वैरिएबल! यह तमाम वैज्ञानिक तरीकों से किसी मरीज की शल्यक्रिया कर चुके एक सर्जन की ईश्वर से प्रार्थना है। मुझे यह धार्मिक भावना की जगह मानवीय भावना अधिक लगती है।
‘हवा का चेहरा’ कविता में ऐन्द्रिक बोध है। महसूस होना क्या होता है, यह कविता बताती है। ‘लोहे का स्वाद’ एक अद्भुत कविता है। धूमिल की चर्चित पंक्तियों को कविता में रखकर कवि उन पंक्तियों से प्रतिप्रश्न करता है-‘उसकी ताकत के बारे में जानना हो/ तो लोहार से ही पूछना पड़ेगा/ जिसके खून का सारा लोहा दौड़ता चला…।’
यहाँ कवि-मंशा मूल कविता की पुनर्रचना करने की नहीं उसके अर्थ को विस्तार देने की है। सख़्त होना लोहे का मूल स्वभाव है इसलिए वह हथियार भी है और हमारे शरीर में बह रहे रक्त को ऑक्सीजन पहुँचाने का एक नाज़ुक-सा ज़रिया भी।
‘फ़्रीक्वेंसी’ एक मार्मिक कविता है जो वातावरण में उपस्थित तरंगों/ तरंग दैर्ध्यों के ज़रिए हमें एक-दूसरे से जोड़े है। यह वेवलैंथ ही है जिनकी फ्रीक्वेन्सी के जरिये प्रकाश और आवाज़ हम तक पहुँच रही है। ‘पासवर्ड’ इस बदले ज़माने की एक ख़ूबसूरत कविता है। यह समूचा सायबर युग ही पासवर्ड/कोड के भरोसे चल रहा है। पासवर्ड के अर्थहीन शब्दों से ही एक पूरी वर्चुअल दुनिया खुल जाती है। कविता में एक तंज भी है। यह एक वैज्ञानिक के संवेदनशील-प्रश्नाकुल होने का पता देती कविता है।
‘ऑप्टिकल फ़ाइबर’ दृश्य अनुभवों की कविता है। हम बचपन में कैलिडोस्कोप का आनंद लिया करते थे। अब ऑप्टिकल फाइबर (प्रकाशीय तंतु) है जो कभी फूल बना देता, कभी कोई मनोहारी आकृति! पाठकों को बता दूँ कि ऑप्टिकल फ़ाइबर पतले काँच/प्लास्टिक से बने तार हैं जिसमें लेज़र और प्रकाश का उपयोग किया जाता है। ‘फोटॉन’ भी इसी मिज़ाज की कविता है-एक विराटता को सूक्ष्मता में रिड्यूस करते हुए।
‘सदी के कुहासे में’ कविता की ताकत को अभिव्यक्त करती है। शब्दों की विराटता उनके अर्थ में अन्तर्निहित होती है। ‘जो जोड़ता है’ एक छोटी मगर महीन-सघन संवेदनों की कविता है। यहाँ उस अदृश्य तत्व की खोज है जो इन्हें जोड़े है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ इसे एक सुन्दर प्रेम कविता में तब्दील कर देती है। ‘एक दिन अंततः’ एक ज़बर्दस्त कविता है जिसमें प्रकृति के ग़ुस्से/दुःख को अभिव्यक्ति दी गई है। ग्लोबल वार्मिंग और प्राकृतिक आपदाओं के इस दौर में इस कविता का महत्व और भी बढ़ जाता है। ‘उस तरह से मत देखो’ बहुत नाज़ुक अहसास की कविता है। बातों ही बातों में दृष्टि और दृष्टिकोण की तमीज़ सिखाती-सी।
संजीव गुप्त एक प्रज्ञावान युवा कवि हैं जो वैज्ञानिक तथ्यों को मानवीय संवेदनों के जरिये देखते ही नहीं परखते भी हैं। यही काव्य-विवेक उन्हें एक दिन बहुत आगे ले जाएगा।
संजीव गुप्त की कविताएँ
1. कविताओं का क्या बुरा हुआ होगा
कविताओं का क्या बुरा हुआ होगा इससे
जब गैलिलियो ने कहा-
सूरज कभी नहीं डूबता
सूूरज कभी नहीं उगता
और परिक्रमा करती है पृथ्वी
सूरज के चारों ओर
भले ही हिल गया हो चर्च
हड़कम्प मच गया हो यूरोप में
इससे कविताओं का क्या बुरा होता होगा
पता चलता है जब
कि पहली बारिश में
मिट्टी का सोंधापन
एक ख़ास तरह के बैक्टीरिया के कारण है
और सीप में मोती
किसी स्वाति बूँद से नहीं
बल्कि रेतकण जैसी चीज़ के
पड़ जाने से बनती है
अंदाज़ा है मुझे
अक्सर कविता
कैसे होती है मुकम्मल
पता चलता है जब
फूलों में ख़ुशबू कहाँ से आती है
कहाँ से उभरता है
तितलियों के परों पर रंग
कैसे बनते हैं बादल
चाँद क्यों चमकता है
2. काल्पनिक संख्याएँ
काल्पनिक संख्याओं के बिना
आसान नहीं है दुनिया को समझ पाना ठीक ठीक
जान पाना उसके क्रियाकलापों को
वही काल्पनिक संख्याएँ
जिनकी शुरुआत
‘ऋण एक’ के वर्गमूल से होती है
और जिनसे बनती है जटिल संख्याएँ
जो सरल बनाती है दुनिया को समझना
यह गणित की बात है
गणनाओं की नही
पॉलिटिक्स वाला गणित नहीं जनाब!
वह गणित जो सिखाता है देखना
दुनिया की ख़ूबसूरती को एक दूसरे तरीक़े से
आपने आइन्स्टाइन की
आँखों के बारे में सोचा है कभी ?
वहाँ यही संख्याएँ बसीं थीं
और करती रहीं अपना काम
दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने का
अपने तरीके से
3. ईश्वर से प्रार्थना जैसा कुछ
इतिहास पढ़ते हुए
कर सकूँ
तुम पर संदेह
और क्वांटम फिजिक्स की
गुत्थियों में उलझते हुए
ताक सकूँ
तुम्हारी ओर भी
इतना हौसला देना
मुझे मेरे ईश्वर
फिर चाहे तुम
सिर्फ एक विचार हो
एक आस्था हो
या फिर एक कल्पना
या फिर
एक अगम्य वैरिएबल
दुनिया के
विराट समीकरण का!
4. हवा का चेहरा
पानी का स्वाद क्या है?
कुछ भी नहीं!
स्वाद की अनुपस्थिति है पानी
लेकिन चरम है तृप्ति का
पूछो उससे जिसे प्यास लग आई हो
स्वाद का ज़िक्र कहीं नहीं होगा
क्या है अंतरिक्ष का तापमान?
अनुपस्थिति है वह तापमान की
जबकि उससे होकर गुजरता है
यह सारा प्रकाश
यह सारी धूप और ऊष्मा
कैसा होता है हवा का चेहरा?
5. लोहे का स्वाद
‘लोहे का स्वाद
लोहार से नहीं
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है’
कहा था एक कवि ने
…इतना सहज नहीं है लोहे का स्वाद
और उसकी ताक़त के बारे में जानना हो
तो लोहार से ही पूछना पड़ेगा
जिसके ख़ून का सारा लोहा
दौड़ता चला आता है
उसकी भुजाओं की ओर
उसके चेहरे की ओर
यही भरा हुआ है पृथ्वी के गर्भ में
जो घूमता जाता है उसके साथ-साथ
और घुमा देता है अपने अदृश्य हाथों से
कुतुबनुमा की सुई को भी
दिशाओं का संकेत देने के लिए
एक तिहाई से ज़्यादा हिस्सा
लोहे से बना हुआ है इस पृथ्वी का
और आप कह सकते हैं यह बात
तभी तो इतना सब कुछ लादे लादे
घूमती ही जा रही है यह पृथ्वी
बिना थके बिना रूके
यही है ख़ून को लाल करता हुआ
अपने सिर पर उठाए ऑक्सीजन को
शरीर की हर कोशिश तक पहुँचाता
उसके जीने का आधार
और यही है यौवन का उजास
लोहे को काटता है लोहा ही
सुना होगा आपने भी
और इतनी आसानी से
हावी नहीं हो पाती उस पर हवा की नमी
लड़ता है जूझता है लोहा
तभी तो कहते हैं हम ऐसे में भी
कि जंग लग गया लोहे में
मोर्चा खा गया लोहा
भुरभुरा कर गिरती पपड़ी
उसकी असमर्थता नहीं है
अपने शरीर से काटता है लोहा
अपने गले अंग को
और फिर तैयार होता है
अगली लड़ाई के लिए
6. फ़्रीक्वेन्सी
कोसों दूर बैठी माँ
जब फ़ोन पर बातें करती हैं
तो पूछतीं है हर बार
खाना खाया या नहीं ?
बातें करते हुए
हर बार कहती हैं
घर जल्दी लौटने के लिए
दुनिया भर का प्यार
अपने में समेटे उनकी आवाज़
दौड़ती है मेरी ओर
टेलीफ़ोन के तारों से
बहुत मुश्किल होता है तब मेरे लिए
उस आवाज़ की गहराई
और उसके विस्तार को समझ पाना
तब कोई कैसे कह सकता है यह बात
कि फ़ोन से जो आवाज़ें आती हैं
उनकी फ़्रीक्वेन्सी
बस इतनी-सी होती है!
7. पासवर्ड
अब चाभियों से नहीं खोले जाएँगे
वे ख़ास ताले
बल्कि इसके लिए इस्तेमाल होंगे शब्द
वे शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं होता
उनकी इस दुनिया में
यह अर्थहीन शब्द ही
अब सबसे ज्यादा शक्तिशाली होंगे
सबसे बड़ी चिन्ता होगी
ख़ुद को सुरक्षित रखने से ज़्यादा
अपने पासवर्ड को सुरक्षित रखना
कोई क्रेक न कर ले
इस उधेड़बुन में
वे बदलते रहेंगे लगातार पासवर्ड अपने
एक बारगी पासवर्ड के खो जाने पर
खो जाएगी उनकी दुनिया बल्कि उनका जिस्म ही
टटोल कर देखेंगे
कि पैर कहाँ हैं, कहाँ हैं हाथ
और और आँखें कहाँ हैं
वे इस दुनिया में हैं भी या नहीं
इसके बारे में बता सकेगा केवल
इंटरनेट में उनका फेसबुक पेज, ई-मेल एड्रेस या ब्लॉग
फिर भी किसे होगी परवाह
अनगनित होंगे यह सब
लेकिन उनको उनकी दुनिया से
जोडने वाली चीज
पासवर्ड ही होगी
वे कहीं नहीं होंगे पासवर्ड के बिना
8. ऑप्टिकल फाइबर
रोशनी का एक लाल
ख़ूब खिला हुआ फूल
उभर आया है
ऑप्टिकल फाइबर की कोर पर
फोटॉनों का एक गुच्छा
खिला हो एक लाल कमल
लम्बी-सी नाल पर जैसे
प्रकाश
बाहर आया है ऑप्टिकल फाइबर से
तो बन गया है फूल
वरना यों ही चलता रहता
सैकड़ों मील
बिना रूके
बिना बदले
9. फोटॉन
प्रकाश
एक छोटे-से बिन्दु में
सिमट आया है
उसकी विराटता
उसकी सूक्ष्मता में
प्रतिबिम्बित हो रही है
सूक्ष्म और विराट
गुंथे हैं
दोनों यहाँ
10. इस सदी के कुहासे में
जब काफ़ी कुछ काफ़ी सारा
धुँधलाता जा रहा है लगातार
इस सदी के कुहासे में
कविता दिखाती है विस्तार
जब सम्बन्धों की पुर्नव्याख्या
कर रहा है बाज़ार
कविता देती है शब्द
उनकी बिसराती गरिमा को
जब शब्द
बदलते जा रहे हैं लगातार
पासवर्ड में
कविता व्यक्त करती है
उनके अर्थों का वैराट्य
11. जो जोड़ता है
जो जोड़ता है
इलेक्ट्रॉन को
उनकी परिक्रमा से
शब्द को उसके अर्थ से
स्वप्न को भविष्य से
और जोड़ता है जो
संभावना को नियति से
वही
वही जोड़े
मुझे तुमसे
12. एक दिन अन्ततः
हो सकता है एक दिन ऐसा हो
कि वृक्ष कहें बहुत हुआ ग्लूकोज़ बनाना
इस तरह सबके लिए
वे ऑक्सीजन बनाना भी बंद कर दें
और बैठ जाएँ अपनी छाँव समेट कर
किसी कोने में
नदियाँ दुबकी रहें
अपने ही ग्लेशियर में
कहें कि नहीं बहना अब मैदानों में
जब बहने का अर्थ
शहरों की गंदगी ढोना हो
हो सकता है एक दिन ऐसा हो
कि साढ़े तेईस डिग्री पर झुकी पृथ्वी
तन कर खड़ी हो जाए सीधे
और पसीने को पोंछते हुए बोले
कि बस बहुत हुआ
इतने सारे लोगों को लादे हुए
इस तरह ब्रह्माण्ड में घूमते फिरना
आख़िर किस तरह ज़ाहिर करेगी
प्रकृति अपना दुःख
एक दिन अंततः
13. उस तरह से मत देखो
चिड़िया को उस तरह से मत देखो
कि वह अपना चहकना
भूल जाए
और भूल जाए एक बारगी
फुदकना भी
उसे उस तरह से मत देखो
कि वह भटक जाए अपनी उड़ानों से
चिड़िया को देखो
उस तरह
जैसे पेड़ देखते हैं उसे
जैसे फूल देखते हैं उसे
देखती हैं नदियाँ
जिस तरह से
अपने भीतर
महसूस करो एक चिड़िया
और फिर देखो उसे
कवि संजीव गुप्त, जन्म 10 नवंबर 1971 को कानपुर में. हरर्कोट बटलर टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी से इलेक्टॉनिक्स इंजीनियरिन्ग में बी. टेक. एवं आई. आई. टी. कानपुर से एम. टेक.
कविताएँ, लेख और यात्रा-संस्मरण कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.
कविता और संस्मरणों की दो पुस्तकों का सम्पादन. रेख़्ता फ़ाउंडेशन के हिन्दी साहित्य के वेब-उपक्रम ’हिन्दवी’ में कविताएँ संकलित.
1995 में ’वागर्थ’ में प्रकशित शृंखला ’आज के कवि’ के पहले कवि. 2001 मे ’कथादेश’ नवलेखन अंक में शामिल. 2007 में युवा लेखन के लिए दैनिक जागरण से पुरस्कृत.
टेलीकॉम एवं मीडिया टेक्नोलॉजी के साथ-साथ भारतीय इतिहास, संस्कृति, सिनेमा और पर्यटन में विशेष रुचि. स्विटज़रलैंड, अमेरिका, सिंगापुर, हांगकांग और जापान की यात्राएँ।
सम्प्रति टेलीकॉम टेक्नोलॉजी से संबंधित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत. विगत बीस वर्षों से टेलीकॉम और मीडिया टेक्नोलॉजी से संबंधित विभिन्न परियोजनाओं का प्रबंधन और निर्देशन.
सम्पर्क : A-303, एपेक्स गोल्फ एवेन्यू, ग्रेटर नोएडा वेस्ट, गौतम बुद्द नगर, उत्तर प्रदेश – 201306
फोन : 8826052626
ई-मेल : sanjivgupt@gmail.com
टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।
संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com