समकालीन जनमत
कविता

रानी कुमारी की कविताएँ मनुष्य की गरिमा के पक्ष में उठाये गए सवाल हैं

अरविंद पासवान


रानी की कविताओं से होकर गुजरना, मानो आईना में अपना ही अक्स देखना है। कवयित्री कल्पना के उड़ान पर सवार नहीं होती, बल्कि सच की ज़मीन पर पाँव रख दैनिक और सामयिक जीवन के सवालों से आँख से आँख मिलाकर बात करती हैं। उनसे टकराती हैं। मनुष्य और उनके जीवन के सवालों से आँखें नहीं चुरातीं, बल्कि डटकर उनसे मुकाबला करती हैं। उनके लिए रचना का विषय ग़ैब नहीं, जीवन की हक़ीक़त है। आम नजरिए में जो शब्द साधारण है, रचनाकार के लिए खास हो सकता है। विषय और शब्द खुद ही रचनाकार को कैसे ढूंढ लेते हैं, एक बानगी से महसूस किया जा सकता है :

बहुत तरसाता है पानी
लोगों से दुश्मनी मोल
दिलाता है पानी
घर, आंगन , जीवन
बिन पानी सब सून
रात-रात भर करें इंतजार
कि आएगा पानी
‘उनके’ लिए झील में पानी
और हमारे लिए
ऊंचाई पर पानी
कैसे आएगा भला पानी ?
……….…………………..

सुनते रहते उनकी फटकार
बमुश्किल मिलता पानी,
मन रोये , तन भीगे…
वे लें तन की नाप
आंखों का बदलता रंग
और एक कुटिल मुस्कान
हाय , कैसी विपदा है भारी
आंखों में आ जाए पानी
हाय रे पानी !!

रचना में ‘पानी’ के विविध रंग परिलक्षित हैं। पानी की दुश्वारियाँ भी अपनी जगह कायम हैं। आम आदमी के लिए एक बूंद कठिन तो वैभवशाली के लिए उतना आसान है पानी और उसका बाजारवाद। ‘पानी’ आँखों में न हो तो सब सून। आज के बाजारवाद युग में पानी का रंग बोतलों में बंद है। कहीं कहीं बड़ी मुश्किल से नसीब है आम आवाम को पानी, तो किसी के लिए आसान इतना कि उनके लिए खेल का साधन है पानी। पानी को लक्ष्य कर कवयित्री ने सूक्ष्मता से विकृत मनुष्यता के चेहरे को उजागर किया है, जो पानी देने के बहाने ‘तन’ की माप लेते हैं। इस रचना में जो व्यक्त है, उससे कहीं ज्याद अव्यक्त में सार मौजूद हैं, जो गौर के लायक है, और शायद उन्हीं कारणों से रचनाकार की आँखों में भी पानी आ जाता हैं, जो आम आदमी की आँखों से छलकता है।
महिला रचनाकार होने के नाते जहाँ औरत की पीड़ा की अभिव्यक्ति स्वाभाविक है, वहीं दूसरी तरफ रचना के स्वर समेकित भी हैं।

वैसे तो कई कुरीतियों का शिकार हमारा समाज रहा है और आज भी यह बदस्तूर जारी है। एक कुरीति है : बेटा, बेटी में फर्क। पितृसत्तात्मक समाज का बोलबाला और उसका गहरा असर आज भी समाज में मौजूद है । ऐसे वक्त में रानी की रचना ‘अजन्मी बेटियों के नाम’ और ‘छोटा भाई’ से गुजरते हुए राहुल सांकृत्यायन के नाटक ‘मेहरारूअन के दुर्दशा’ नाटक की याद आती है। यह नाटक 1942 में प्रकाशित हुआ। नाटक भोजपुरी भाषा में है। भाषा क्षेत्रीय हो या वैश्विक दुख एक समान होता है। उस नाटक में एक गीत है। गीत के माध्यम से परिवार में, समाज में महिलाओं की स्थिति को समझा जा सकता है :

एकै माई बापवा से एक ही उदरवा में
दुनो ने जन्मवा भइल रे पुरुखवा

पूत के जनमवा में नाच आ सोहर होला,
बेटि के जनम परे सोग, रे पुरुखवा।

धनवा धरतिया प बेटवा के हक़ होला,
बिटिया के किछुवो ना हक रे पुरुखवा।

मरदा के खइला कमइला के रहता बा
तिरिया के लागे ला किबाड़ रे पुरुखवा।

रानी की कविता संवेदना के स्तर पर बहुत ताकतवर है। एक तरफ परिवार और समाज जहाँ केवल बेटा के जन्मने की चाह रखता है, वहीं बेटी के लिए उपेक्षा का भाव। ‘अजन्मी बेटियों के नाम’ कविता में रचनाकार ने कैसे रेखांकित किया है कि बेटा के जन्म की चाह से लेकर उसकी इच्छा पूर्ति को पूरा करने में मां बाप कैसे जर्जर स्थिति में पहुँच जाते हैं, फिर भी परिवार और समाज की चाह में रत्ती भर भी बदलाव नहीं। वहीं दूसरी तरफ बेटियाँ स्नेह और अनुराग से अपने माँ बाप को शायद कभी नहीं भूलती, बल्कि उनके दुख में हमेशा शामिल होने को तत्पर रहती हैं।

अजन्मी बेटियों के नाम
…………………………
…………………………
हफ्ते दस दिन में औसरा बारी
आती हैं बेटियां
गुदड़ियां, रजाईयां और मोटे कपड़े
धो, सुखा, तह कर जातीं ,
खाट-पीढ़ी कस जातीं,
पीसणा कर जातीं ,
लकड़ियां बीन जलावन
रख जातीं चूल्हे के एकदम पास
बुहार, संवार जातीं घर आंगन को
नहला धुलाकर ,
गुनगुनी धूप में पीढे़ पर बिठला,
तेल-कंघी, चोंटी कर
चौखी-सी कर जाती मां को
घर आंगन और गली में
आती – जाती मुनिया,
बरजी और सुरजो
बुदबुदाती रहती हैं
लाख आशीषें बेटियों के नाम
उन्हें देख बरबस ही मुझको भी
वे अजन्मी बेटियां रह- रहकर
याद आती हैं
अक्सर आंखें भर आती हैं।

‘छोटा भाई’ कविता की पंक्तियाँ रचना की अभिव्यक्ति को बड़ा कर जाते हैं –

अनजाने ही मिल जाते हैं
भाई को सारे अधिकार
हर बार भाई को मिलती है
‘विशेष छूट’…
छोटा भाई,
कभी छोटा नहीं होता
चाहे कितना ही निकम्मा
और निखद हो
और बहनें कसमसा कर रह जाती हैं
हर बार..
वे कितनी ही समझदार
और पढ़ी-लिखी क्यों न हों…

हद तो तब है, पहले के वक्त में केवल भेद था, अब तो धरती पर बेटियों को हम आना देना भी नहीं चाहते। रचनाओं से गुजरते हुए स्त्री की वेदना, विवशता, कसमसाहट और उनकी छटपटाहट को महसूस किया जा सकता है।

‘नदी’ कविता को प्रेम कविता की भी संज्ञा दे सकते हैं। नदियाँ सदियों से समुद्र से मिलन को व्याकुल रहीं हैं और यह जारी है, लेकिन रानी की कविता में एक प्रतिकार है। अब नदियों ने अपना रुख मोड़ लिया है। सदियों की बनाई परम्परा के खिलाफ नदियाँ अपना रास्ता खुद ढूंढना चाह रहीं हैं। इस रचना में नदी और स्त्री का जो मानवीकरण है वह क़ाबिल-ए-गौर है। वह प्रेम के इतर प्रेम अपने शर्तों पर करना चाहती हैं। जड़ परम्परा के विरुद्ध लड़ना चाहती हैं। और यह लड़ाई केवल कवयित्री की नहीं पूरी स्त्री की है।

और अब नदी
समुद्र की चाहत छोड़
अपनी ही दिशा में मुड़ गई
आप चाहें तो
समझ सकते हैं कि
नदी ने अलग ही रास्ता चुन लिया !

यह अच्छी बात है कि एक स्त्री की रचना में स्त्री अनायास ही दिखती है। ‘किसान-खेत-घर’ कविता में गौर करने की बात है कि एक तरफ किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए सड़कों पर हैं! फिर खेत और घर का क्या होगा? लेकिन हम परंपरा से देखते हैं कोई संघर्ष या आंदोलन शायद तभी सफल हुआ है, जब स्त्रियाँ पुरुषों के कंधा से कंधा मिलाकर उनका हमसफ़र होती हैं। जैसे यहाँ एक मोर्चा पर किसान लड़ रहे, तो वहीं दूसरी तरफ दूसरे मोर्चे (खेत और घर) को महिलाएँ संभाल रही हैं।
मोर्चा संभालते हुए वह कई उम्मीदें और सपने देखती हैं-

घर-आंगन खेत-खलिहानों को
संभाल रही हैं औरतें
जब तुम लौटो
तो देखो कि
एक मोर्चा तुम जीत कर आए हो
और एक हमने जीता है
तुम्हारी ग़ैर-हाज़िरी में…

‘सपने’ कविता मौजूदा वक्त में युवाओं के दर्द की अभिव्यक्ति है। उन्माद का दौर है। घर, परिवार, समाज, देश बल्कि यूं कहें कि पूरी दुनिया फिलवक्त संक्रमण की जद में है। सामाजिक, गैर बराबरी, आर्थिक और धार्मिक उन्माद चरम पर है। और ऐसी स्थिति में युवाओं के रोजगार, उनके धंधे और उनके सपने अंधेरे के गहन गर्त में है। रचनाकार की यह चिंता जरूरी और वाजिब है। फिर भी उम्मीदें और उनकी आँखों में सपने शेष हैं –

और नाले की बदबू
इन छोटे-छोटे सीलन भरे कमरों में,
युवाओं के बड़े-बड़े सपने पलते
गिरते-पड़ते-संभलते हैं
अपने सपनों को,
मन और आंखों में संजोए हैं
पता नहीं…
ये सपने पूरे होंगे
या फिर
मंदिर और मस्जिद के बीच
गंदे नाले में बह जाएंगे !

जरा सी डिफरेंट टोन की कविता है यह। जिन्होंने दलित साहित्य का अवगाहन किया होगा शायद उनके लिए यह रचना नई नहीं होगी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह रचना सृजित है। ‘जाति’ है कि सदियों से इसे उखाड़ फेंकने या भगाने की कोशिश है, लेकिन ‘जाति’ है कि जबसे आई है, जाती ही नहीं। यह ईसा के सीने में ठुके हुए कील की तरह है। ईसा तो मरकर फिर भी ज़िंदा हो गए, यह (जाति) कभी मरी ही नहीं। कविता के इस अंश को गौर किया जा सकता है :

अब देखिए न
बच्चे के एडमिशन में
दफ़्तरों की बातचीत में
सहकर्मियों के साथ खाने में
जात भाई से बातचीत में
आरक्षण को दिन-रात गरियाते
बाबा साहब का मखौल उड़ाते
दुनिया जहान का
ज़हर उगलते
फिर चुपके से कहते ,
आराम से बोल…
कभी सुन न लें..!
सरकार ने भी पता नहीं
कैसे-कैसे रूल बना दिए हैं
इनके लिए …..!

दलित साहित्य के पुरोधा कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘जाति’ से ऐसे समय में मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। कविता के अंश-

लुटेरे लूटकर जा चुके हैं
कुछ लूटने की तैयारी में हैं
मैं पूछता हूँ
क्या उनकी जाति तुमसे ऊँची है?

ऐसी ज़िन्दगी किस काम की
जो सिर्फ़ घृणा पर टिकी हो
कायरपन की हद तक
पत्थर बरसाये
कमज़ोर पड़ोसी की छत पर!

‘अमरबेल’ कविता के जरिए स्त्री की अनकही पीड़ा अभिव्यक्त है। एक स्त्री को बार बार पुरुष द्वारा प्रेम, स्नेह की अति दुहाई देकर उसे भावनात्मक शोषण का शिकार बनाना, उसकी वास्तविक जरूरतों का ख़याल न रख, उसे अपने हाल पर छोड़ देना आदि इस रचना में स्वयं अनुस्यूत है। अंततः कवयित्री ने उस छलावा को इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त की है-

तुम मुझे जतलाते हो हर पल
कि मैं क्या हूं तुम्हारे लिए…
तुम्हारे जीवन को प्यार से सींचते,
रीत गई हूं मैं, बीत गई हूं मैं
तुम बदल गए हो…
तो बदल गई हूं मैं भी
अब मैं हरी-भरी नहीं…
ठूंठ हो गई हूं…
सोचती हूं !
अमरबेल मैं थी या तुम ?

‘बुद्ध और शांति’ मध्य वर्ग के पीड़ा को पढ़ा जा सकता है। एक द्वंद्व है जो स्त्री और पुरुष के अंतर्मन में समान रूप से चल रहा होता है। नारी को भय है कि यशोधरा की तरह मैं भी न कहीं त्याग दी जाऊँ तो उधर पुरुष जीवन के झंझटों से ऊबकर शांति को प्राप्त करना चाहता है, बुद्ध होना चाहता है-

दोनो ही जूझ रहे हैं
अपने-अपने
भय और आशंकाओं से !

चुप्पी कविता शांत जल में एक वजनदार पत्थर फेंकने के समान है। ठीक ऐसे वक्त में उदय प्रकाश की एक कविता याद आती है-

आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं सोचता.

आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता.

कुछ नहीं सोचने
और कुछ नहीं बोलने पर
आदमी
मर जाता है.

आज जो जाति, धर्म, नस्ल, क्षेत्र, भाषा या अन्य ऐसी समस्याओं से समाज पीड़ित है, उसे कवयित्री ने साफ़-साफ़ शब्दों में व्यक्त किया है। इस आग की लपट में बच्चे, बूढ़े, जवान और स्त्रियाँ सब झुलस रहे हैं और जनता है कि चुपचाप तमाशबीन बनी है।

लोग देख रहे होंगे
मूकदर्शक बनकर
अब भी अगर
चुप रहेंगे हत्याओं पर

‘अविवाहित लड़की’

इस महत्वपूर्ण विषय को कविता के केंद्र में लाना रचनाकार के जिम्मेदारी बोध का अहसास कराता है। इस उपेक्षित किरदार को रचनाकार ने मुख्य भूमिका में लाकर हमारे बीच एक सवाल पैदा किया है। कोई अविवाहित है, तो क्या उनके अरमान, उनके सपने उनका जीवन सहज मनुष्य की तरह नहीं है! उन्हें भी आम आदमी की तरह जीने का हक़ नहीं है?

अविवाहित लड़की चाहती है
कि सब कामों और
जिम्मेदारियों को निभाते हुए
उसे भी समझा जाए
औरों की तरह इंसान…
कि वह भी खर्च पाए
अपना वक्त अपने लिए
महज़ दिन या उम्र नहीं
उसे भी चाहिए बेहतर ज़िन्दगी

‘इंतज़ार’ संवेदना की परीक्षा का इंतजार है। घर, परिवार, रिश्ते, नातेदार, दोस्त, पति और पत्नी सबकी एक ही स्थल पर एक प्रकार से परीक्षा है। परीक्षा है स्नेह की, समर्पण की, दया की और उससे बढ़कर धैर्य की। स्थान बस एक रंगमंच है-अस्पताल।

जिस तरह
गंदले पानी को
छोड़ दिया जाता है
कुछ समय के लिए
साफ़ पानी पाने के लिए
उसी तरह रिश्ते भी
सब्र , धैर्य और साहस
मांगते हैं…

जिंदगी का सफर किसी के लिए आसान तो किसी के लिए कठिन है। किसी को कठिन परिश्रम के बावजूद मंजिल नहीं मिलती, तो किसी के अल्प मेहनत पर लक्ष्य उसके चरण चूमते है। इससे राही को हतोत्साह नहीं होना चाहिए, बल्कि यह मानते हुए कि महत्वपूर्ण मंजिल है, लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण सफर है। सफर कविता से-

कोई खड़ा रह जाता है वहीं
बहुत देर तक
बस के लिए बे बस
किसी को आते ही
तुरंत मिल जाती है बस ,
उबड़-खाबड़
सारे रास्ते पार कराती
मुसाफ़िर को

जीवन भी
कुछ ऐसा ही है
किसी को आते ही
मिल जाती है मंजिल तुरंत
कोई करता रहता है
बरसों इंतजार बस बे बस

समग्र रूप से कहा जाए तो रानी की कविता में मनुष्य और उसकी गरिमा के पक्ष में सवाल है, जिसे साफ़गोई से पाठकों के बीच लाने की एक निश्छल कोशिश है। कविता के विषय भिन्न हैं जो रचनाकार के दृष्टिकोण को दर्शाता है। भाव पक्ष गहरे हैं। रचना की संरचना, शिल्प, कथा वस्तु, बनावट प्रभावकारी है। शब्द संयोजन, वाक्य विन्यास भी रचना में असर छोड़ते हैं। दलित साहित्य और विमर्शवादी कविताओं पर यह आरोप लगाए जाते हैं कि अभिव्यक्ति सपाटबयानी होती है लेकिन उन्हें जानना चाहिए कि यह सरल अभिव्यक्ति विमर्श की रचना की एक और ख़ासियत ही है।

 

 

रानी कुमारी की कविताएँ

1. पानी 

बहुत तरसाता है पानी
लोगों से दुश्मनी मोल
दिलाता है पानी
घर, आंगन , जीवन
बिन पानी सब सून
रात-रात भर करें इंतजार
कि आएगा पानी
‘उनके’ लिए झील में पानी
और हमारे लिए
ऊंचाई पर पानी
कैसे आएगा भला पानी ?
रात की थकान और
सुबह-सुबह
पानी के लिए जद्दोजेहद
जब लगे कि अब आएगा पानी
तब-तब बिजली गुल
‘उनके’ धुलते आंगन चौबारे
और गाड़ियां
वो भी मीठे पानी से !
हर बार मन देता,
जी भर कर गाली…
पर ‘वो’ न दें ,
एक बाल्टी भी पानी
उल्टा हमें डपट लगाएं…
” की आ जावें हैं तड़की-तड़की
इन खाली बासणां नै ले कै
शोन-शामन तड़की-तड़क
ले सब प्रभु को नाम
और ये हांडे हैं,
ढोबरां ने ठाए-ठाए ”
पर कुछ न कहते…
सुनते रहते उनकी फटकार
बमुश्किल मिलता पानी,
मन रोये , तन भीगे…
वे लें तन की नाप
आंखों का बदलता रंग
और एक कुटिल मुस्कान
हाय , कैसी विपदा है भारी
आंखों में आ जाए पानी
हाय रे पानी !!

2. अजन्मी बेटियों के नाम 

बेटे की चाह में अजन्मी ही
रह गईं कई बेटियां
सालों तक उनकी याद न आई,
जब तक गोद-घर-आंगन में
खिलारी करता, मन बहलाता रहा बेटा
उसकी ज़रूरतें , चाहतें और
लालसाएं पूरी करता खप गया बाप,
और जर्जर हो गई मैं भी
आज उसके शौक
बाहर हैं मेरे बूते से
तो वो भी मुझको नहीं पूछता…

आज जब पड़ोस की मुनिया,
बरजी, सुरजो को देखती हूं
तो वे अजन्मी बेटियां
याद आ रही हैं
बिन बेटों की मुनिया रह आती है
दोनों बेटियों के पास…
चार-छह महीना…
तीन बेटों के बावजू़द
अकेले डठोरे से रहती है बरजी,
बेटियों के दम पर…
हफ्ते दस दिन में औसरा बारी
आती हैं बेटियां
गुदड़ियां, रजाईयां और मोटे कपड़े
धो, सुखा, तह कर जातीं ,
खाट-पीढ़ी कस जातीं,
पीसणा कर जातीं ,
लकड़ियां बीन जलावन
रख जातीं चूल्हे के एकदम पास
बुहार, संवार जातीं घर आंगन को
नहला धुलाकर ,
गुनगुनी धूप में पीढे़ पर बिठला,
तेल-कंघी, चोंटी कर
चौखी-सी कर जाती मां को
घर आंगन और गली में
आती – जाती मुनिया,
बरजी और सुरजो
बुदबुदाती रहती हैं
लाख आशीषें बेटियों के नाम
उन्हें देख बरबस ही मुझको भी
वे अजन्मी बेटियां रह- रहकर
याद आती हैं
अक्सर आंखें भर आती हैं।

3. नदी

नदी अपने आप में,
संपूर्ण थी…
वो बहती थी,
अपनी ही रौं में
हवा संग खेलती थी,
बादलों के साथ
चुहलबाजी करती थी,
वो ख़ुश थी
धाराप्रवाह बही जा रही थी
शीतल, शांत, नील रंग
मीठा पानी जैसे
शरबत का एहसास
दिलाती राहगीरों को…
पर एक दिन जैसे
सब बदल गया…
नदी ने राहगीरों की बात सुनी
नदी को तो
समुद्र में ही मिलना है
तो ही पूर्ण होगी…
नदी सोच में पड़ गई..
उनकी और भी बातें सुनकर

नदी अब
बैचेन थी सागर से
मिलने के लिए
नदी का वेग
बढ़ता ही जा रहा था..
धीरे-धीरे
मिलन की व्याकुलता इतनी
कि अब नदी
क्रोधित होने लगी थी
इतना उफ़ान…
कभी नहीं दिखा था
इस नदी में,
वह पूरी शक्ति के साथ
उफ़ान पर थी…
शायद सागर से
न मिल पाने के कारण

और अब नदी
समुद्र की चाहत छोड़
अपनी ही दिशा में मुड़ गई
आप चाहें तो
समझ सकते हैं कि
नदी ने अलग ही रास्ता चुन लिया !

4. किसान-खेत-घर

 सोंधी-सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू
दूर तक बिखरा हरा रंग
लहराते झूमते खेत
रोटी की महक
सब किसान के बलबूते
गाँव, खेत-खलिहान, घर
आज सूने पड़े हैं…
क्योंकि
किसान दिल्ली की सरहद पर खड़े हैं

सरकार भी
अपनी ज़िद पर अड़ी है
भूखे-प्यासे बच्चे-बूढ़े
मीलों चलकर
सर्द मौसम में सड़क पर डटे हैं

घर बुला रहा है
चीख-चीख कर
गाय-भैंसें भी रंभा रही हैं
दूर-दूर तक लखा रही हैं उनकी नजरें
जो हाथ फेरे प्यार से उनके ऊपर

घर की औरतें बाट जोह रही हैं
कि जल्द लौटे घरों की रौनक
दिन-रात औरतें दुआएं कर रही हैं
अर्जियां लगा रही हैं….
कि लौटें उनके चिराग
घर को सही सलामत

बढ़ती शहादतों का आँकड़ा
अंदर ही अंदर सुखा रहा है
डर है कि
बढ़ता ही जा रहा है
आँगन की चहल-पहल
अब दिल्ली में है…

घर-आंगन खेत-खलिहानों को
संभाल रही हैं औरतें
जब तुम लौटो
तो देखो कि
एक मोर्चा तुम जीत कर आए हो
और एक हमने जीता है
तुम्हारी ग़ैर-हाज़िरी में…

5. सपने

मंदिर और मस्ज़िद के बीच
दूरियां घटती क्यों नहीं हैं ?
क्रिश्चियन कॉलोनी में
मंदिर , मस्ज़िद के बीच में
बहता गंदा नाला
दड़बेनुमा इन छोटे-छोटे कमरों की,
खिड़कियों से नज़र आते
मंदिर, मस्जिद और नाला
साथ ही अनचाहे आती हैं
शंख-घंटियों, अज़ान की आवाज़
और नाले की बदबू
इन छोटे-छोटे सीलन भरे कमरों में,
युवाओं के बड़े-बड़े सपने पलते
गिरते-पड़ते-संभलते हैं
अपने सपनों को,
मन और आंखों में संजोए हैं
पता नहीं…
ये सपने पूरे होंगे
या फिर
मंदिर और मस्जिद के बीच
गंदे नाले में बह जाएंगे !

6. छोटा भाई 

छोटा भाई,
कभी छोटा नहीं होता
वो जन्म से ही,
बड़ा होता है बहनों से
बड़े जतन से पाला जाता है उसको
क्योंकि वह वंश बेल है घर की…

अनजाने ही मिल जाते हैं
भाई को सारे अधिकार
हर बार भाई को मिलती है
‘विशेष छूट’…
छोटा भाई,
कभी छोटा नहीं होता
चाहे कितना ही निकम्मा
और निखद हो
और बहनें कसमसा कर रह जाती हैं
हर बार..
वे कितनी ही समझदार
और पढ़ी-लिखी क्यों न हों

भाई सारा दिन बाहर रहे..
या रात भर बाहर रहे..
कोई पूछताछ नहीं होती
घर कुनबे को ख़बर है अपने लाल की
क्या-क्या गुल खिला रहा है भाई
लेकिन
बहनें घर में भी
डर के साए में रहती हैं
कभी बेवज़ह न पिट जाएं
क्योंकि
शक के दायरे में आते ही
ये भाई…
बाप बन जाते है।

7. जाति

कहाँ है जाति ?
मुझे तो अब दिखाई नहीं देती !
क्या कहूं… ?
इनका रोना-धोना
बस लगा ही रहता है
यह हो गया, वह हो गया

होता जाता कुछ है नहीं
इसलिए तो कहता हूं
कहाँ है जाति ?
बस ढकोसले हैं सालों के… !

जाति है साहब !
सीना ठोंक कर
आप ही बता रहे हैं
कि जाति तो है !

अगर जाति न होती
तो क्यों
राग अलाप रहे होते
जाति के न होने का…?

अब देखिए न
बच्चे के एडमिशन में
दफ़्तरों की बातचीत में
सहकर्मियों के साथ खाने में
जात भाई से बातचीत में
आरक्षण को दिन-रात गरियाते
बाबा साहब का मखौल उड़ाते
दुनिया जहान का
ज़हर उगलते
फिर चुपके से कहते ,
आराम से बोल…
कभी सुन न लें..!
सरकार ने भी पता नहीं
कैसे-कैसे रूल बना दिए हैं
इनके लिए …..!

उठा-पटक में दिन रात
लगे ही रहते हैं…
नज़रों ही नज़रों में
धराशायी कर देने का भाव
और आप कहते हैं
जाति नहीं है साहब!

यहाँ हर जगह
जाति दिखाई देगी आपको

जो दिखता नहीं
वही सबसे ज्यादा
फैला हुआ है
आपके मन में !
दिमाग़ और रोम-रोम में !
जाति थी
जाति है और
शायद सदा रहेगी..
क्योंकि इसका एहसास
आप जैसे हमेशा कराते रहेंगे…

8. अमरबेल

तुम कहते हो मुझसे
कि तुम बहुत प्यारी हो,
सयानी हो और ज़िद्दी भी
तुमने मेरे बंजर जीवन को
फिर से हरा-भरा किया…
और मशीनी गतिविधियों को
जीवन का स्पर्श दिया
पास आते ही, गलबहियां डाल कहते
‘तुम ही मेरी अमरबेल हो’ !

इस रूखे जीवन में,
जब पतझड़ ही छाया था
और मौसम ने भी मुंह मोड़ लिया था…
उस वक्त तुम मेरे जीवन में,
बसंत बनकर आई
मैं फिर हरा-भरा, खुशहाल हो गया
तुमने मुझे प्यार दिया
और आज मैं लहलहा रहा हूं

तुम मुझे जतलाते हो हर पल
कि मैं क्या हूं तुम्हारे लिए…
तुम्हारे जीवन को प्यार से सींचते,
रीत गई हूं मैं, बीत गई हूं मैं
तुम बदल गए हो…
तो बदल गई हूं मैं भी
अब मैं हरी-भरी नहीं…
ठूंठ हो गई हूं…
सोचती हूं !
अमरबेल मैं थी या तुम ?

9. बुद्ध और शांति 

घर को
सजाने संवारने के लिए
औरतें करती हैं
लाखों लाख जतन…

एक-एक वस्तु , सामान को
घर के ड्राइंग रूम से लेकर
छत , बालकनी और कमरे
घर के हर एक कोने
पर रखती हैं नज़र।
कहां पर , कौन-सी वस्तु
अद्भुत और सुंदर लगेगी ?

अक्सर देखा है मैंने
लोगों को इस्तेमाल करते हुए
बुद्ध की पेंटिंग, मूर्ति,
एंटीक के रूप में
कहीं-कहीं बुद्ध गमला भी हैं
मुस्कुराते चेहरे के ऊपर
सिर पर उगा है सघन वन

बुद्ध को देखकर
औरतें चाहती हैं
सिर्फ ‘मन की शांति’
भय लगा रहता है उनको भी
कहीं अंदर खाने…
छोड़ न जाए ‘यह’ भी
यशोधरा की तरह !

मर्द सोचते हैं कि
शायद हम भी तंग आकर
निकल पड़ें घर से।
सिद्धार्थ की तरह
कहीं दूर सघन वन में
शांति की तलाश में !
बुद्ध बनने के लिए।

दोनों ही जूझ रहे हैं
अपने-अपने
भय और आशंकाओं से !

10. चुप्पी

हर तरफ
आग है, धुआं है
रिश्तों, जात-पात
और धर्म की आग में
जल रहे हैं अब बच्चे भी
और मर रहे हैं जवान भी

लोग फिर भी मुस्कुरा रहे हैं
कर रहे हैं जलसे,
घर हुए तबाह,
कितनी कोख उजड़ गईं,
संवेदनाएं राख हुईं
जीने की चाह भी मर गई…

कुछ दिन बाद सब बदल जाएगा
फिर होगी नई घटना
फिर मशाले जलेंगी
फिर अफ़सोस जताया जाएगा
किसी का बेटा, बाप और पति
मारा जाएगा…
लूटी जाएंगी अस्मतें

लोग देख रहे होंगे
मूकदर्शक बनकर
अब भी अगर
चुप रहेंगे हत्याओं पर

11. अविवाहित लड़की 

घर- बाहर- कार्यस्थल पर
यह मान लिया जाता है
अविवाहित लड़की के पास
कोई काम नहीं होता…
उसके इर्द-गिर्द
घर-बाहर-कार्यस्थल के लोग
उसे काम दिए जाते हैं…

“बच्चे का होमवर्क !
डॉक्टर के जाना है मुझे !
परिवार के साथ कहीं जाना है!
आज कोई रिश्तेदार आएगा!
आज पत्नी या पति की
तबीयत ठीक नहीं है !
आज घर पर मेहमान आ रहे हैं !
परिवार में कोई शादी है
खरीदारी करवाने
चांदनी चौक जाना है
किस्म -किस्म के बहाने

फिर चोरी से
झिझकते हुए बताते
अपना काम…
तुम कर दोगी न !
कभी मनुहार करते और
कभी दरेरा देते
आराम से मान जाए बात
अविवाहित लड़की तो ठीक
नहीं तो बाहर का
रास्ता भी दिखा सकते है !
समय से पहुंच जाओगी न
देखो काम जरूरी है
बॉस को पता न चले
तुम चुपके से करके काम
मुझे बता देना
काम हुआ है या नहीं !
वह क्या है न
मुझे आगे रिपोर्ट
भी भेजनी है…

यह मानकर कि
अविवाहित लड़की
न बीमार होती है
न डॉक्टर के पास जाती है
न उसका परिवार होता है
न उसके मेहमान आते हैं
न उसे किसी का इलाज
करवाना होता है
न उसकी पसंद इतनी धांसू है
कि कोई उसे ले चले
कपड़ा लत्ता जूता
पसंद करवाने…
लाजपत नगर या
शॉपिंग मॉल
अविवाहित लड़की के
नहीं होते रिश्तेदार
जहां उसे जाना पड़ता है
या कोई आ सकता है
उसके घर..
यह मानकर उसे
काम पर काम
मिलते जाते हैं
घर-बाहर-कार्यस्थल पर

परंतु
सम्मान नहीं मिलता
काम के बदले
कि तुम्हारे पास तो
फ़ालतू वक्त है
और करना ही क्या है ?

अविवाहित लड़की चाहती है
कि सब कामों और
जिम्मेदारियों को निभाते हुए
उसे भी समझा जाए
औरों की तरह इंसान…
कि वह भी खर्च पाए
अपना वक्त अपने लिए
महज़ दिन या उम्र नहीं
उसे भी चाहिए बेहतर ज़िन्दगी

12. इंतजार

पिछले कई सालों से
दिल्ली के
अस्पतालों में चक्कर काटते,
बिलखते भटकते हम
दिन तो दूर
रात का भी पता नहीं

बेमौसम की आफत
अलग से जी का जंजाल।
तड़पते हुए अपने मरीज को देखना
और खुद भी तड़पना
उसकी बढ़ती कराहट ,
तीमारदारों के लिए
पल-पल का भारी होना।

डाक्टर को दिखाने से लेकर
टैस्ट और दवाई की
लम्बी कतारें
परेशान तीमारदार
हर वक्त आशंका और डर
क्या ही हो जाए ,
कुछ नहीं पता…

रोते बिलखते लोग
कुछ ढांढस बंधाते
कुछ अनहोनी की कल्पना से
विचलित होते ।

अक्सर इन अस्पतालों में
पुरुषों के साथ महिलाओं को
जूझते , खीजते और संघर्ष
करते हुए देखती हूं।
अपने धैर्य और धीरज का
परिचय देती हुईं ये महिलाएं
जो अक्सर
अपने पति से सुनती हैं
‘ तुम दिनभर करती ही क्या हो ?’

अक्सर तीमारदारों की
बातचीत में शामिल होकर
सुनती उनके अनुभव
अपना हक मांगने पर
जो बहनें सुनती हैं ताने
और खाती हैं मार फटकार
अपने भाई-बहनों और
रिश्तेदारों से,
वे दौड़ती हैं…
अपने माता-पिता और
भाई को बचाने के लिए।

2.

इन अस्पतालों में
देखती हूं।
एक दूसरे का
सहारा बने लोगों को
जो जिंदगी भर
लड़ते -झगड़ते रहे होंगे

उम्र के आख़िरी दौर में
बुज़ुर्ग दंपति
सहारा देते एक दूसरे को
सम्हालते, समझाते और
दिलासा देते हुए
पुरानी यादों के पिटारे
से कुछ निकालते
खूब ठहाका लगाते
कितना ख़ूबसूरत लगता है
यह साथ।

जिस तरह
गंदले पानी को
छोड़ दिया जाता है
कुछ समय के लिए
साफ़ पानी पाने के लिए
उसी तरह रिश्ते भी
सब्र , धैर्य और साहस
मांगते हैं…

13. सफ़र

रोज़मर्रा का सफ़र करते हुए
कितने ही अनुभवों से
गुज़रता है
हर कोई , हर क्षण
अपनी – अपनी मंजिल
पहुंचने के लिए ,
इंतज़ार करते मुसाफ़िर
बस , ऑटो और टैक्सी की
बाट जोहते लोग

बस स्टैंड पर इंतज़ार करते
घंटे भर खड़े रहने पर
कितने ही लोगों को
आते जाते देखते हैं
हंसी , परेशानी और
खीझ भरे चेहरे…
कितने ही भावों से गुजरते हुए

कोई खड़ा रह जाता है वहीं
बहुत देर तक
बस के लिए बे बस
किसी को आते ही
तुरंत मिल जाती है बस ,
उबड़-खाबड़
सारे रास्ते पार कराती
मुसाफ़िर को

जीवन भी
कुछ ऐसा ही है
किसी को आते ही
मिल जाती है मंजिल तुरंत
कोई करता रहता है
बरसों इंतजार बस बे बस

 


 

कवयित्री रानी कुमारी, जन्म : दिल्ली के गांव कापसहेड़ा में। शिक्षा : बी.ए.,एम.ए ( हिंदी ) दिल्ली विश्वविद्यालय , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से नेट, जे.आर. एफ.
पीएच.डी ( हिंदी कथा – साहित्य ) हिंदी – विभाग , दिल्ली विश्वविद्यालय , 2013 – 2019.

अध्यापन : 2016 से दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित महाविद्यालय मिरांडा हाउस , स्वामी श्रद्धानंद काॅलेज, जानकी देवी मेमोरियल महाविद्यालय , देशबंधु कॉलेज , भीमराव अम्बेडकर काॅलेज और जीसस एंड मैरी काॅलेज , आर्यभट्ट काॅलेज (NCWEB), स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग , इग्नू आदि में शिक्षण का अनुभव

लेखन : हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में शोध-आलेख , पुस्तक-समीक्षा, साक्षात्कार, कविता, लघु-कहानी प्रकाशित

सम्पर्क : मकान नंबर 514 , कापसहेड़ा, नई दिल्ली 110037

ईमेल आईडी : rani.kumari1210@gmail.com

 

 

टिप्पणीकार अरविन्द पासवान, जन्म : 18 फरवरी 1973,    हाजीपुर, वैशाली। शिक्षा : बी. ए. ऑनर्स (एम.     यू . गया)। पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, अस्मिता की आवाज़’ व ‘दूसरा शनिवार’ के ब्लॉग तथा कविता कोश पर कविताएँ प्रकाशित एवं प्रसारित। भारतीय भाषा केन्द्र, दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया द्वारा 2017 में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी (विषय :अस्मितामूलक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र) में सहभागिता।• गोष्ठियों में सक्रिय रूप से भागीदारी। डी डी बिहार से, ‘समकालीन हिन्दी साहित्य और बिहार का दलित लेखन’ विषय पर 2017 में चर्चा परिचर्चा में सहभागिता। रंगकर्म, गीत, गज़ल एवं संगीत में गहरी रुचि। वर्ष 2018 में प्रकाशित ‘बिहार झारखण्ड की चुनिन्दा दलित कविताएँ’ सामूहिक संग्रह के एक कवि। “मैं रोज़ लड़ता हूँ’ काव्य-संग्रह प्रकाशित।

संपर्क: 7352520586

ईमेल : paswanarvind73@gmail.com

 

 

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion