प्रज्ञा गुप्ता
“रणेन्द्र युगबोध के कवि हैं। रणेन्द्र का कवि मन अपनी विविध प्रतिबद्धताओं,सरोकारों के बीच रागारुण संवेदना के साथ उपस्थित है।”
‘ग्लोबल गाँव के देवता’ ‘गायब होता देश ‘और ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ इन तीनों उपन्यासों की विषयवस्तु एवं शिल्प के कारण लगातार चर्चित, कथाकार के रूप में सुप्रसिद्ध रणेन्द्र जी की कविताएँ जीवन को जिस तरह से प्रकट करती हैं; वह हमें मनुष्य होने की ओर ले जाती हैं।
रणेन्द्र की कविताओं को पढ़ना विविध अनुभवों से गुज़रना है। आज मानवीयता का ह्रास करने वाली चेतना हमारे समाज पर हावी है ऐसे में हमें जागरूक होने की आवश्यकता है। आज की जीवनशैली में संवेदनाएँ समाप्त हो रही हैं। जीवन बचा रहे इसके लिए ज़रूरी है कि संवेदनाएँ बचीं रहें। एक दूसरे के प्रति समभाव बना रहे । आज के विकासवादी मूल्यों और व्यवस्था ने सबसे अधिक मनुष्यता पर हमला किया है और कवि इससे आहत हैं। विकास के नाम पर आज जंगल खत्म किया जा रहे हैं इसका सबसे ज्यादा ख़ामियाज़ा उनको भोगना पड़ा है जिनका जीवन जंगल पर निर्भर करता है। इसलिए ‘किशना बिरहोड़ की स्मृति’ कविता में रणेंद्र लिखते हैं-
टी.बी. था उसे
और भूख ले गई भट्ठा कमाने,
टूट ही गया
उम्र ही क्या थी बस चौबीस साल,
कौन जाने उसके बिरहोड़ टंडा में
बसंत आता था या नहीं ,
अकाल -मृत्यु आ ही जाती अक्सर
कई -कई रूप धर कर।”
यहाँ पर किशना बिरहोड़ की स्मृति पाठकों के समक्ष कई- कई सवाल खड़ी करती है ।
रणेंद्र अपने उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ एवं ‘गायब होता देश’ दोनों में ही आदिवासी जनजीवन को कथा का केंद्र बनाते हैं और आज के समय में आदिवासी संस्कृति पर हो रहे आघातों को जिस संवेदना के साथ प्रस्तुत करते हैं ,वह हमें चिंतन के लिए, कुछ करने के लिए विवश करती है। अपनी कविताओं में भी रणेंद्र आदिवासी जीवन के साथ खड़े होकर अपना प्रतिरोध दर्ज करते हैं-
“मुख्यधारा की फनफनाती लहरों पर,
सवार होकर आए
आरियाँ,बुलडोजर, डंफर, बाजार
दत्तर ,कुर्सियां ,वर्दी ,हथियार
मोटी- मोटी कानूनी किताबें
माननीय भाष्यकार सभी
महान संस्कृति के पहरुए
महान लक्ष्य से प्रेरित होकर
,,,सरई वनों तक पहुंच गई
काली चमकीली कोलतार की सड़कें
हमारे अखड़ा ,धूमकुरिया ,घोटुल
मांदर -नगड़ा ,तीर -धनुख
गीत -नाच ,सरहुल, बेटियाँ
सभी बाजारू हुए
चाट के चटखारे हुए
हमारे यौन -जीवन के
ईस्टमेन कलर विवरण”
,,, प्रकृति पूजकों की वन -संस्कृति की
इस अवसान वेला पर
छाती भर दम भर कर
हाँक देना चाहता हूँ
सहिया होऽऽ “
रणेंद्र की कविताओं के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए कुमार मुकुल कहते हैं कि “रणेन्द्र की कविताओं से गुज़रना जैसे दुखमय जीवन की स्मृतियों से गुज़रना है। दुख जो हमें सालता है बारह, चालता है हमारे भविष्यत् के स्वप्नों तक को। हतवाक् करती हैं ये कविताएँ और ह्रदय की गहन अंध अंतःकारा के टिमकते दीपकों में जैसे स्नेहद्रव की कुछ बूंदे पड़ती हैं और एक लौ उमगती है नई पत्ती काँपती।”
आज के विषम समय में पूंजीवादी ताकतें अपने चरम पर हैं। जीवन की मौलिकता ख़तरे में है। हमारी संवेदना आज के समय से सबसे ज़्यादा प्रभावित है। अच्छा- बुरा ना समझते हुए हमारा मानस एक भ्रम की स्थिति में है । मैनेजर पांडेय लिखते हैं -“जब राष्ट्र- राज्य और एकाधिकारी पूंजीवाद की एकता के स्वागत में जन संचार के माध्यमों के नगाड़े बजने लगते हैं तब विरोध का कोई भी विसंवादी स्वर सुनाई नहीं देता।” ऐसे समय को अभिव्यक्त करते हुए कवि रणेंद्र लिखते हैं-
” राजनेता सवारी को रास्ता दिखा रहे थे
कदमों की मटकन और अनहद नाद के
तुलनात्मक अध्ययन में व्यस्त थे
बुद्धिजीवी
हर मुस्कुराहट पर
समाचार न्योछावर कर रहा था
संचार- तंत्र
बजट की संचिका में
जगह तलाश रहा था बूधन बिरिजिया
कंधे उचका रहा था शहर।”
चकाचौंध भरी दुनिया में कवि की दृष्टि साफ़ है। उसकी रागत्मक सहानुभूति आम जन के प्रति है। उनके दुःखमय जीवन को कवि अपनी वाणी दे रहे हैं और यही वजह है कि कवि ऐश्वर्या राय के नौलखा परिधान पर बूधन बिरजिया की फटी हुई गमछी को तरजीह देते हैं।
अपनी कविता में कवि रणेंद्र युद्धरत हैं। कवि की लड़ाई मानवीय संवेदना को बचाने के लिए है यही वजह है कि कोयला खोदने व ढोने वाले एक मज़दूर को वे एक वीर योद्धा की तरह देखते हैं –
“कभी नहीं मानेगा वह हार
हमारा वीर बहादुर
जनरल -मार्शल
बूधन जवान
जानता है
किसी दिन/
खदान -धसान से
देगा वह बलिदान
ना बिगुल/
ना तिरंगा
ना कोई चक्र
ना सम्मान !
पर पूरे आन- बान से
मुरैठा- बांध
बेझिझक घुसता है
बंद खनन -खोह में।”
रणेंद्र की कविताएँ सहज जीवन बोध की कविताएँ हैं जहाँ श्रम के महत्व पर कवि-दृष्टि स्पष्ट है। कवि की संवेदना माटी से जुड़ी हुई है एवं बहुरंगी है इसलिए वह धूल -धूसरित ,काली कलूटी, जमुनिया रेजा के संघर्षरत जिजीविषा को उजागर करते हैं और श्रमशील सौंदर्य को महत्व देते हैं-
“श्रम ने कसा था
जिनका अंग -अंग
धूप ने भरा था/
जामुनी रंग
रूप पर पसीने की लड़ियाँ
पारदर्शी मोतियों की
गहने की कड़ियाँ
पर सच है
सब पर भारी था
हाय! वह जामुनी रंग”
रणेंद्र की कविताएँ प्रगतिशील चेतना को व्यक्त करती हैं। अपनी इसी प्रगतिशील चेतना को उन्होंने पूंजीवाद, भूमंडलीकरण सामाजिक- आर्थिक विषमता के विरोध के रूप में अभिव्यक्ति दी है। यह कवि की समाजवादी चेतना का ही निखार है कि ‘पन्नाधाय’ कविता में घर-घर दाई का काम करने वाली स्त्री जिसे लोग अक्सर हेय दृष्टि से देखते हैं उसकी तुलना कवि पन्नाधाय से करते हैं। आर्थिक-सामाजिक विषमता को लेकर कवि के मन में जो आक्रोश है वह पिघले हुए लोहे की तरह मस्तिष्क में पहुँचता और खदबदाता रहता है। कवि किसी को भी प्रश्नों के कटघरे में खड़ा नहीं करता बल्कि ‘क्या करूँ बूधन बिरजिया’ कविता में कहता है –
“क्या करूँ बूधन बिरिजिया
हमारी बाँहें कितनी छोटी
कितनी बौनी,,,,
इतना शोर, इतनी ध्वनियाँ,
फटी पड़ी दसों दिशाएँ कैसे सुनाई दे
पत्ते झरने -सी तुम्हारी हिचकी”
बूधन बिरिजिया के लिए स्वयं कुछ ना कर सकने का अहसास कवि को बेचैन करता है और यह बेचैनी मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ की बेचैनी जैसी है। वही ‘बूधन बिरिजिया और शहर’ जैसी कविता कवि के समय में बहुत गहरे उपस्थित होने का प्रमाण ही नहीं देती बल्कि एक ऐसी चेतना की मांग करती है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुधार सके। इस मूल्य हीन होते युग में मानव मूल्यों की बात करना रणेंद्र की कविताओं की विशेषता है। ‘पानी और स्त्री’ कविता में जब वे लिखते हैं –
“पानी की कीमत/
थार की स्त्रियां जानती हैं
या पहाड़ की
भर फफोले
तलाशते
उतर जाता है
देह का पानी का
काश! इनके लिए शेष हो हमारी आंखों में
बस, थोड़ा सा पानी “
तब वे एक कथा लिख रहे होते हैं। रणेन्द्र युगबोध के कवि हैं। यथार्थ उनकी कविताओं में मुखर है ।’आँगन’कविता में वे बताते हैं कि माई के आँचल – सा आँगन जिसमें बच्चे धमाचौकड़ी मचाते थे आज की जीवनशैली से लुप्त हो रही है। कवि का मानना है कि-
” बनियौटी में
कहीं छूट गया आँगन”
इस छूटने के साथ ही आँखो में बहुत कुछ टूटता है। आज के इंटरनेट युग में हमारे पास ना तो माँ है, ना दादी है, न हीं आँगन है। यह बात कवि को अखरती क्योंकि कवि अपने परिवेश के प्रति सजग हैं।
रणेन्द्र का कवि मन अपनी विविध प्रतिबद्धताओं, सरोकारों के बीच रागारुण संवेदना के साथ उपस्थित है- किशना बिरहोड़ की स्मृति, बूधन बिरिजिया और शहर, जामुनी रंग, पन्नाधाय, सुंदर सृष्टि, क्या करूं बूधन बिरजिया, या पानी और स्त्री, कविता रचती स्त्री, साँवरी जैसी उत्कृष्ट कविताएँ हमारे समक्ष आ पायी हैं उसका कारण कवि की यह दृढ़ आस्था है-
“जब तक शेष है
गुड़ में ईख का स्वाद
लाई की गोलाई में
माई की अंजुरी का अहसास
बच्चों की तुतलाहट
पड़ोसियों की आहट
दही के जोरन की उधारी
भात -भरी थाली के साथ
चूड़ियों की खनक प्यारी
तब तक बचा रहेगा प्रेम
बचा रहेगा जीवन
बची रहेंगी प्रेम कविताएँ”
रणेन्द्र की कविता ‘सलवा जुडूम’अपने समय में घट रही घटनाओं का कथात्मक अन्वेषण करती हुई इतिहास की ओर प्रेरित करती हैं। माटी के ढूहों, खेतों के पार, सांवले जंगलों के बीच, माटी के गांव हैं जहां माटी के गीत गाते, माटी के सांवले बेटे कैसे मुख्यधारा से विलगा दिए गए, इसकी समीक्षा करते हुए कवि इतिहास के यातना पूर्ण अध्यायों को समझाना चाहता है। वह मानता है कि सत्ता का दंभ मानव को नरभक्षी बना डालता है और यह कोई नई बात नहीं-
“कई नाम है
बादशाह सलामत के
इतिहास के पन्नों से लेकर
भविष्य की पुस्तकों तक
सैकड़ों हजारों नाम
हम कोई भी एक चुन सकते हैं
जैसे ईदी अमीन”
कवि के हृदय में बदलाव की कामना है अतः वह हमें जताना चाहते है कि वर्तमान भी उसी लीक पर है। लोकतंत्र की मुख्यधारा से अलग, माटी के सांवले बेटे यूँ ही नक्सली नहीं बन बैठे; उसके पीछे एक इतिहास है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने धरती पुत्रों को बेघर किया । कवि रणेंद्र चाहते हैं कि सबको अपना-अपना दाय मिले। इसके लिए यह आवश्यक है कि हमारे हृदय एवं मस्तिष्क में सबके लिए समान भाव हो। बाहुबली या खजुराहो के युगनद्ध होकर हम विषमता की खाई नहीं पाट सकते ।अर्धनारीश्वर की विराट चेतना ही मानवता को कायम रख सकती है।
रणेन्द्र की कविताओं के संग्रह का नाम ही है ‘थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ।’ इसे ध्यान में रखकर देखा जाए तो कहा जा सकता है कि ‘थोड़ा -सा स्त्री होना चाहता हूँ’ कविता रणेंद्र की कविताओं का मर्म-स्थल है। कवि चाहते हैं कि नर और नारी को समान रूप से परागों की मधुर मिठास मिले, धारोष्ण दूध की पुष्टि और सुनहरी सुस्वादु रोटी मिले। मूँछ-मुरैठा, और भृकुटी की मर्यादा, आँचल के दूध और आंखों के पानी से सींचा रहे। कवि की आस्था दृढ़ है कि विध्वंसक चेतना कभी न कभी तो हृदय की आवाज़ समझेगी। सृष्टि के सुंदरतम की सहज संगति की ‘चाहना’ लिए; अपनी अनंतिम कामना को पूरी करने के लिए कवि खुदा को भी चुनौती दे सकते हैं।–
“या खुदाया !
तप और तपा मुझे
कर विसर्जित धूल धूसरित”-
पर कवि का निश्चय दृढ़ है ।
-“खड़ा रहूँगा
हिय कटोरी में
मिताई की मीठी खीर लिए
रुद्ध कंठ सजल- नयन।”
कवि रणेन्द्र की कविताएँ, उपभोक्तावादी संस्कृति से आक्रांत साहित्य-सृजन के बीच उस करुणा का आह्वान करती हैं जिसने डाकू रत्ना को ऋषि बाल्मीकि बनाया।
कवि रणेन्द्र श्रम से उपजे नमकीन सौंदर्य के पारखी हैं। साँवरी कविता पढ़ते हुए निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर ‘ का अनायास ही स्मरण हो आता है। कवि मानते हैं कि श्रमजात सौंदर्य ही कालचक्र को उलट, विदग्ध हृदय को पुनर्जीवित करता है-
यह देह भी सत्य है
रूह भी
और
अलौकिक खुशबू भी।
कई स्थानों पर ऐतिहासिक प्रसंगों के उल्लेख में जिन सांस्कृतिक शब्दों का प्रयोग कवि रणेंद्र ने किया है उसने काव्य भाषा को मधुर बनाया है। नए-नए उपमानों से कविता का सौंदर्य निखर कर सामने आया है –
“तुम्हारे
लावण्य के एक परस ने
मनो मन रेत गला दी है
कालचक्र को उलट
संभव किया है
किशोर हो जाना
मेरे मन का
पुनर्नवा/
कि जैसे
अपनी ही राख से
फिर जाग गया हो
ककनूस पंछी”
शिल्प के स्तर पर रणेंद्र की कविताओं में जो चीजें विशिष्टता लाती हैं उनमें से एक है नए-नए बिंबविधान जैसे- ‘आँगन’ कविता की पंक्तियां द्रष्टव्य हैं-
“आँगन माई के आँचल का ओट
जहां शारदीय धूप
गंगपारिन मैथिल दुल्हन की तरह
दूधिया चेहरे पर पियरी घूंघट किए
हौले हौले ,मध्यम- मध्यम
सीखती कुशल गृहिणी के गुण “।
रणेंद्र की कविताओं में स्वतःस्फूर्त संवेदना के रूपकों और बिंबो की भी कमी नहीं है -‘साइकिल सवार लड़की’ कविता की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है-
“नवोदित सूर्य के प्याले में
कूची डुबोकर
सुनहरा रंगेगी सारा आकाश
चांद को मुट्ठी से निचोड़
दूधिया कर देगी सातों समुद्र
सप्तर्षी के छत्ते से
शहद चुआ कर मीठा बनाएगी
नदियों का पानी
हरे होंगे सारे ठूंठ
पकेगा सपनों का लाल -लाल फल ।”
कवि आशावान है कि समता का समुत्कर्षक स्वप्न एक दिन पूरा होगा क्योंकि सारे विडंबनाओं के बीच शेष है-“उदास आंखों में सुनहरे सपने की इच्छा /सूनी निगाहों को उजले कल की प्रतीक्षा ।“
आज के समय को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त करते हुए कवि रणेन्द्र वृहत् सामाजिक बदलाव की आकांक्षा रखते हैं, जहाँ श्रम को महत्व मिले, जीवन में संवेदना बची रहे और एक-दूसरे के सुख-दुख के भागी बन कर हम मनुष्य होने की ओर अग्रसर हों।
रणेन्द्र की कविताएँ
1. किशना बिरहोड़ की स्मृति
उसकी मृत्यु मेरी व्यक्तिगत क्षति है,
ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दे,
ऐसी औपचारिक बातें कैसे कह सकता हूँ
सिर्फ कहने के लिए
उसकी मौत की खबर
अखबारों में नहीं छपी थी,
विधवा आई थी गोद में बच्चा लिए,
चिथड़े कपड़े, आँखों में आँसू,
कुछ न कहा, न माँगा
थोड़ी देर ही बैठी
हतप्रभ, हतवाक्
क्या कहता
कौन से शब्द
जो आँसू पोंछते
अबोध बच्चे के सर पर धरते हाथ
स्मृतियों में डूबा,
कुछ सोच नहीं पाया,
उठकर चली गई
टी.बी. था उसे
और भूख ले गई भट्टा कमाने,
टूट ही गया
उम्र ही क्या थी बस चौबीस साल,
कौन जाने उसके बिरहोड़ टंडा में
बसंत आता था या नहीं,
अकाल-मृत्यु आ ही जाती अक्सर
कई-कई रूप धर कर।
2. आँगन
आँगन, माई के आँचल का ओट
जहाँ शारदीय धूप
गंगपारिन मैथिल दुल्हन की तरह
दूधिया चेहरे पर पियरी घूँघट किए
हौल-हौले, मध्यम-मध्यम
सीखती कुशल गृहिणी के गुण
कभी बड़ी- पापड़ सूखाती
आचार का मर्तबान हिलाती
दादी माँ का कमर ससार
तीन पहर बीतते ही
स्लेटी शाल संभालती
पछियारे कोने के रसोईघर में
चूल्हा सुलगाने सिमट जाती
जेठ-वैशाख की तपती रात में
आँगन, सफेद चादर वाली खाट
जिस पर लेटे अंगौछा हौंकते दादू
काकु, बाउ जी से
सुनते खेत-बाघार का समाचार
खाता-खतियान, कचहरी-पेशी, जमा- खर्च
चाँद-रथ से उतर
हौले-हौले पंखा झलती दूधपरी
तुलसी-चौरे की दियरी की ओट से
निंदिया रानी झपकते ले जाती हमें
जलेबियों की नगरी में
भर सावन-भादो आँगन सुनाता
पहरों-पहर, कजरी, राग-मल्हार
उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में
चमचमाता नजर भर आसमान
भर फेफड़ा ताजी हवा
उसकी मैदान-सी गोद में
जब हम मचाते धमा-चौकड़ी
तो पुरवारी कोने में बँधी
पहलौटी कारी के चारों छिम्मी से
टपकने लगता था दूध
फ्लैट्स-बंगले-अपार्टमेंट्स,
स्पेस मैनेजमेंट की बनियौटी में
कहीं छूट गया आँगन
छूट गया अगस्त्य फूलों का पेड़
अब तो हाथ-पैर भी हिलाते हैं
नन्हें शैतान
तो बहुत हड़बड़ता है, मैनेज्ड स्पेस
बहुत कुछ टूटता-फूटता है
दादी माँ की आँखों में।
3. बूधन बिरजिया और शहर
अपनी फटी हुई गमछी पहन कर
शहर आ गया
बूधन बिरिजिया
जब शहर में
चारों ओर छाई थी
ऐश्वर्या राय
और उनका नौलखा परिधान
राजपथ पर सवारी निकली थी
ऐश्वर्या राय की
फुटपाथों पर कटआउट्स खड़े थे
मैदानों में मंच सजा था
ऐश्वर्या राय का
टीवी स्क्रीन से निकलकर
हर घर में
मटक रही थी ऐश्वर्या राय
पाँच गाँवों का सवाल ले
खड़ा था बूधन बिरिजिया
सुई की नोंक भर छुपा रहा था शहर
राजनेता सवारी को रास्ता दिखा रहे थे
कदमों की मटकन और अनहद नाद के
तुलनात्मक अध्ययन में व्यस्त थे
बुद्धिजीवी
हर मुस्कुराहट पर
समाचार-न्यौछावर कर रहा था
संचार-तंत्र
बजट की संचिका में
जगह तलाश रहा था बूधन बिरिजिया
कंधे उचका रहा था शहर
सब सुरक्षा में लगे थे
ऐश्वर्या राय की
हर चौराहे पर चौकस थी
रैपिड एक्शन फोर्स
गली-मुहाने पर
लाल-बत्ती गाड़ियाँ
सबको खतरा था
बूधन बिरिजिया
उसकी फटी हुई गमछी
और उठी हुई उंगली से
सब धकियाना चाहते थे
बूधन बिरिजिया को
नृ-विज्ञान के दीमक खाए पत्रों तक
दीमक हो रहा था शहर।
4. युद्ध
उसे कोई साहसी नहीं कहता
हर गिद्ध निगाहों से टकराता
पंजों की नोच से ऊर्जा पाता
मुरैठा बाँध
बेझिझक घुसता है
बूधन
बन्द खनन खोह में
आशंकाओं-खतरों को
देकर धता
धँसता जाता
भीतर और भीतर
देह-माथे पर टपकते
काले पत्थरों को झटकता
खखोर ही निकालता है
जीवन-आधार
नहीं गाई गईं
उसकी शौर्य-गाथाएँ
लोककवियों के होंठों पर भी
राजे-रजवाड़ों के ही गीत
वीर बहादुरों की कथाओं में
नहीं हैं
कहीं भी अपना बूधन मीत
पर देखिए!
आठ मन काले पत्थरों को
कई बोरों में सजा
टूटही साइकिल के आगे-पीछे
बीच में ठूँस
ठेल रहा
पतरातू-सिकिदिरी घाटियों की
सीधी-खड़ी चढ़ाइयों पर
पूस माह में भी
तर-तर छूट रहा पसीना
फटी गंजी, घुटने लुंगी
अँटे-सेट कोयले-कण
छिलन-चोट के लाल निशान
तमगे-से चमचमा रहे
बूधन कमाण्डो के सीने पर
पंजों पर पूरी ताकत समेट
इंच-इंच सरकाता
साइकिल का पहिया
हँफनी से जब
उखड़ने लगती साँस
लकड़ी ओट लगा
बीड़ी फूँकता-सुस्ताता
साँसों को थिरकर
आगे, बस आगे बढ़ता जाता
हमारा जनरल-मार्शल
वीर बूधन जवान
वह लो थरथराता
एक संगी अब गिरा
ओट लगा, दौड़ पहुँच
संग-साथ, जोर लगा
पार करवा डाली
सबसे खड़ी चढ़ाई
पर सोचो मेरे भाई,
क्यों नहीं लिखे जाते
उसके लिए दोस्ती के गीत
कदम-कदम संगीत
उसे जीतना ही है
पल-पल हाँफता
दम उखाड़ता
भूख के खिलाफ
यह हतावार मोर्चा
भले हर मोड़ पर
खाकी वर्दी नोंचे
उसका आहार
या ढाबेवाला, चाय-दुकानदार
हर खरीददार
बन ठगों का सरदार
कम से कम कीमत में
झटकना चाहे
उसके पसीनों का हार
पर नहीं
कभी नहीं मानेगा वह हार
हमारा वीर बहादुर
जनरल-मार्शल
बूधन जवान
जानता है
किसी दिन
खदान धँसान से
देगा वह बलिदान
न बिगुल
न तिरंगा
न कोई चक्र
न सम्मान!
पर पूरे आन-बान से
मुरैठा बाँध बेझिझक घुसता है
बन्द खनन-खोह में
5. जामुनी रंग
दीठ बँधी ढीठ-सा
देखता ही रह गया
खेत के उस छोर पर
महुआ तले
दुपहर निकौनी कर
जीमनें बैठीं
आदिवासी युवतियाँ
श्रम ने कसा था
जिनके अंग-अंग
धूप ने भरा था
जामुनी रंग,
रूप पर पसीने की लड़ियाँ
पारदर्शी मोतियों की
गहने की कड़ियाँ
पर सच है
सब पर भारी था
हाय! वह जामुनी रंग
जमुनिया!
नन्दलाल बसु के
चित्रों से उतरी थीं
अभी-अभी,
या कहीं से उठकर
चित्रों में गई थीं वे कभी
या क्षितिज पर लटकी-सी
सजीव चित्र हैं ये ही
दीठ बाँध उलझा रहा
ढीठ-सा जामुनी रंग
6. अवसान बेला पर
मुख्यधारा की फनफनाती लहरों पर
सवार होकर आए
आरियाँ, बुलडोजर, डम्फर, बाजार
दतर, कुर्सियाँ, वर्दी, हथियार
मोटी- मोटी कानूनी किताबें
माननीय भाष्यकार
सभी महान संस्कृति के पहरुए
महान लक्ष्य से प्रेरित होकर |
पहरुओं ने नजरें इनायत कीं
चिन्हित हुए हम
खनन-भू-अर्जन के लिए
मुआवजे के क्रमांक
वन-कानूनों के लिए
शत्रु-सामान
कल्याण-संचिकाओं के लिए
फटी हुई झोली
रैयत,वादी-प्रतिवादी, रेजा-कुली
नहीं रहे मुकम्मल इंसान
सरई वनों तक पहुंच गईं
काली-चमकीली कोलतार की सड़कें
हमारे अखड़ा-धूमकुरिया घोटुल
सरना- मड़ई-पत्थलगड़ी- मसना
माँदर-नगड़ा, तीर-धनुख
गीत-नाच, सरहुल, बेटियाँ
सभी बाजारू हुए
चाट के चटखारे हुए
हमारे यौन-जीवन के
ईस्टमेन कलर विवरण
जताया गया
मुख्यधारा को हमारी चिंता है
जरूरत है
राष्ट्रीय त्यौहारों पर हमारे प्रदर्शन
बजट/मंचों पर जनवादी अभिभाषण
बंगलो में बर्तन-बासन के लिए
कविता-कहानियों में क्रांतिकारी छौंक
नृ-विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन
ईंट-भट्टों, खानों
लखटकिया पेंटिंग्स में
देह-देह-देह के लिए
मुख्यधारा को हमारी बेहद चिन्ता है
जादूगोड़ा के यूरेनियम कचरे में
दम-दम दमकता है
मुख्यधारा का चमकीला चेहरा, जिसकी
सूर्य की आभा झेल नहीं पा रही
विकलांग हो रही
हमारी पीढ़ी
महान संस्कृति के महान ग्रंथ से
निकल कर कुलाँचे भर रहा है
विकास का मायावी स्वर्ण मृग
जिसकी नित-नित नूतन छवि के पीछे
गुम होती जा रही
पूरी की पूरी पतलून पहनती नई पीढ़ी
अपहृत होती बेटियाँ
घर
घरों की ओर लौटते
नहीं दिखते जिनके पदचिन्ह
मृग की अछोर भूख
निगलती जा रही है
हमारे पाट-पठार, स्वर्णरेखा, कोयल-कारों
धान के कटोरे दोन-टाँड़
प्रकृति पूजकों की वन-संस्कृति की
इस अवसान बेला पर
छाती भर दम भर कर
हाँक देना चाहता हूँ
सहिया हो
7. साइकिल सवार लड़की
चौखट के उस पार
घुटनों के बीच सिर छुपाए
सदियों से जमी हुई, चुप वो
गुनगुनाते हुए खड़ी हों
प्रत्यंचा की तरह ही तनी है
गलगलाए चौखट को
ठेंसा कर भुरभुराते हुए
पूरे ब्रह्मांड नापने को
पहला कदम उठाती है
सींगों में लपटाई
गझिन झाड़ियों को
जड़ों से उखाड़
थकी मृगी ने
हवा में चौकड़ी भरी है
समय की गति को
जिसकी अलकों में समेटने की
अभ्यर्थना की थी कवियों ने
उन अलकों को झटक
पैडल जोर-जोर चाँप
समय की गति के मुकाबिल
गतिमान हो चली है वह
घूंघट, चौखट, भृकुटि, फरमानों को
अगले पहिए से किनारे ठेल
रास्ता बना रही है
नई सृष्टि रच रही है
ब्रह्मा की नई बेटी
नवोदित सूर्य के प्याले में
कूँची डुबो कर
सुनहरा रँगेगी सारा आकाश
चाँद को मुट्ठी से निचोड़
दूधिया कर देगी सातों समुद्र
सप्तर्षि के छत्ते से
शहद चूआ कर
मीठा बनाएगी नदियों का पानी
हरे होंगे सारे ठूँठ
पकेगा सपनों का लाल-लाल फल
8. प्रेम
जब तक शेष है
गुड़ में ईख का स्वाद
लाई की गोलाई में
माई की अंजुरी का अहसास
बच्चों की तुतलाहट
पड़ोसियों की आहट
दही के जोरन
की उधारी
भात भरी थाली के साथ
चूड़ियों की खनक प्यारी
तब तक बचा रहेगा प्रेम
बचा रहेगा जीवन
बची रहेंगी प्रेम कविताएँ
जब तक शेष है
उदास आँखों में सुनहरे
सपनों की इच्छा
सूनी निगाहें को उजले
कल की प्रतीक्षा
रोपाई-ओसाई के गीत
मिट्टी पसीने की जीत
फूल-तितलियों के रंग
दूध-कटोरा-चन्दा मामा
लोरियों के संग
हरी भरी वनराई के
हरे-हरे अंग
जिह्वाग्र पर कच्ची इमली की खटास
गिलहरी कुतरी अमरूद की मिठास
तब तक बचा रहेगा प्रेम
बचा रहेगा जीवन
बची रहेंगी प्रेम कविताएँ
जब तक शेष है
श्रम की आँखों में/जीवन की ललक
चौराहे की भीड़-भाड़ के बीच
मुस्कान-लबालब चाय की छलक
जब तक बचा रहेगा
उमग कर हाथों का हाथों से छूना
किसी एक के न होने से
मन के कोनों का सुना होना
तब तक बचा रहेगा प्रेम
बचा रहेगा जीवन
बची रहेंगी प्रेम कविताएँ
9. थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ
सृष्टि के सुन्दरतम की
सहज संगति चाहता हूँ,
चाहता हूँ
वृन्त पर झूमता
प्रथम प्रस्फुटित पुष्प
भीनी महक अलौकिक
बस उनके लिए हो
मधुर मदिर
संगीत अनुपम
सहज कविता भावमयी
मधुमक्खियों से शेष
परगों में छिपी मिठास
तवे पर नाचती पहली
सुनहरी रोटी स्वादमयी
धारोष्ण दूध की धाह
अन्तरिक्ष तक उछाल की चाह,
सब उनके लिए हो,
हिय कटोरी काढ़ी के
मिताई की मीठी खीर
कँपकँपाती अँजुरी में थामे
खड़ा हूँ कालपथ पर
अविश्वास भरी निगाहें तीक्ष्ण
मेरा चेहरा टटोलती है
ढूँढ़ना चाहती हैं
एक आदमी के भीतर
दस-बीस आदमी
मूँछ, मुरैठा, भृकुटी….
रक्तरंजित, स्याह, सब
आस्था-अनास्था के
तने-तन्तु पर डोलती अनवरत
और काँपती
दूध-जली सजग
एक पुरुष को
सुजाता क्यों माने?
किन्तु जिद्दी मैं भी
खड़ा रहूँगा
हिय कटोरी में
मिताई की खीर लिए
रूद्धकंठ, सजल-नयन
क्या निरर्थक?
या खुदाया!
तप और तपा मुझे
कर विसर्जित धूल धूसरित
लेकिन इसी जनम में अपनी
सहज संगति की चाह
पूरी हो कामना अनन्तिम इसीलिए
थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ
हरियाली से गुजरता
हरा होना चाहता हूँ |
10. शरणार्थी शब्द
दिल की पगडंडी के किनारे ,
न जाने कब से जमा हो रहे थे,
पूजा के सूखे फूल,
लोबान की गंध ,
अन्यता बोध की बास,
उत्तेजना से कांपती कुछ ध्वनियां,
विक्टिमहुड की एक पुरानी ताबीज ,
और न जाने क्या-क्या,
सब आंधी के साथ उड़े,
और क्षितिज पर छा गए ।
वर्षों से बना रखा है
इन्होंने,
सातों समुद्र पर दबाव का क्षेत्र ,
तूफानी हवा,
तितलियों का शिकार करती,
बौराई घूम रही है,
संवेदनाएं दहशत से हतवाक हैं ,
शोक और सांत्वना श्मशानी सन्नाटे में गुम,
और शर्म सकुचाई धरती में गड़ी जा रही है।
धूल भरी आंधियां ,
हिला रही आकाशदीप के खंभों को,
उम्मीद के आकाश में डोलती नावें,
रास्ता भटक भंवर में फंस गईं हैं ।
भरी दोपहर गुर्राता चक्रवात ,
खुली खिड़कियों-दरवाजों पर,
लगातार थपेड़े मारता है,
चंद कदम पीछे हटी हैं ,
निगहबान आंखें।
होर्डिंग्स के नियॉन लाइट्स के,
जगमग उजाले में ,
दमदम दमक रहा ,
डोमा जी उस्ताद का विजय जुलूस ,
राजपथ के दोनों ओर पंक्तिबद्ध ,
लाडली बहनें बलैया ले रही हैं।
तेज बारिश उतार रही ,
हमारी आत्मा के वस्त्र,
और नि:वस्त्रता हमें सुकून दे रही है
बीच चढ़ाई में भारी बोझ उतरा हो जैसे,
सफलताओं के सारे सुनहरे शिखर,
सरक कर समीप आने ही वाले हैं ।
इंद्रजाल से मायावी मंच ,
मादक संगीत की धुन पर,
नंगेपन में उत्फ़ुल नाच रहे ,
जुलूस में नए-नए शामिल हुए ,
कवि – कलाकार, विचारक -कथाकार ,
और तमाम बुद्धिजीवी ,
नंगई की धक्कमपेल की गुबार में ,
ढका जा रहा है राजा इंदर का नंगापन ।
होठों और ध्वनियों के बीच,
लगातार कुछ मरता जाता है ,
जिनके पास थे चिड़ियों से पंख,
तितलियां सी रंगीनी ,
भर चांदनी उजास ,
और सातों आसमान पार के सपने ।
दक्षिण दिशा वाले यम कोने में,
मृतक पुरखों के पास ,
डर कर जा बैठी है ,
पाकीज़ा किताब से भागी चिड़ियाँ
कुछ कांपती बूंद को बचाएँ,
थरथराते छुपते फिर रहे ,
शरणार्थी शब्द ,
जिन्हें जुगनूओं
जैसे ,
रात में जल उठने वाले,
दिलों की तलाश है ।
कवि रणेन्द्र का जन्म 4 मार्च 1960 को बिहार के नालन्दा जिले के सोहसराय में हुआ।
प्रशासनिक सेवा से सम्बद्ध रहे रणेन्द्र की प्रकाशित कृतियाँ है : ग्लोबल गाँव के देवता, गायब होता देश, गूँगी रूलाई का कोरस (उपन्यास), रात बाकी एवं अन्य कहानियाँ, छप्पन छुरी बहत्तर पेंच (कहानी-संग्रह) और थोड़ा-सा स्त्री होना चाहता हूँ (कविता संग्रह)। इन्होंने ‘झारखण्ड एन्साइक्लोपीडिया’ और ‘पंचायती राज : हाशिये से हुकूमत तक’ का सम्पादन भी किया है।
इनकी अनेक रचनाएँ कई भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘लॉड् र्स ऑफ ग्लोबल विलेज’ नाम से प्रकाशित हो चुका है।
इन्हें श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको सम्मान, प्रथम विमलादेवी स्मृति सम्मान, वनमाली कथा सम्मान, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, जे.सी. जोशी स्मृति जनप्रिय लेखक सम्मान कई और अनेक सम्मानों से सम्मानित किए जा चुका है।
सम्पर्क: 9431114935
ईमेल: kumarranendra2009@gmail.com
टिप्पणीकार प्रज्ञा गुप्ता का जन्म सिमडेगा जिले के सुदूर गांव ‘केरसई’ में 4 फरवरी 1984 को हुआ। प्रज्ञा गुप्ता की आरंभिक शिक्षा – दीक्षा गांव से ही हुई। उच्च शिक्षा रांची में प्राप्त की । 2000 ई.में इंटर। रांची विमेंस कॉलेज ,रांची से 2003 ई. में हिंदी ‘ प्रतिष्ठा’ में स्नातक। 2005 ई. में रांची विश्वविद्यालय रांची से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री। गोल्ड मेडलिस्ट। 2013 ई. में रांची विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 2008 में रांची विमेंस कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति ।
संप्रति “ समय ,समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में झारखंड का हिंदी कथा- साहित्य” विषय पर लेखन-कार्य।
विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
संप्रति स्नातकोत्तर हिंदी विभाग रांची विमेंस कॉलेज रांची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
पता- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,रांची विमेंस कॉलेज ,रांची 834001 झारखंड।
मोबाइल नं-8809405914,ईमेल-prajnagupta2019@gmail.com