समकालीन जनमत
कविता

रचित की कविताएँ यथास्थिति को बदलने के लिए बेचैन हैं

जावेद आलम ख़ान


रचित की कविताओं में गुस्सैल प्रेमी रहता है ऐसा नायक जो यथार्थ को नंगा नहीं करता, बड़े सलीके से परोसता है जिसकी व्यंजना में त्वरित वाह निकलने के बाद आह की गूँज बनी रहती है।

रचित मनुष्यता की अदालत में खड़े होकर वाद दायर करते हैं कि आतार्किक सत्य भी कठघरे में खड़ा किया जाये। उनके पास गहरी संवेदनात्मक दृष्टि है और कहिन में खास तरह की सरलता।

इन कविताओं में फासीवाद के बढ़ते खतरों की चिंता है, सांप्रदायिक मूर्खताओं पर करारे व्यंग्य है, प्रेम के बदलते स्वरूप का चित्रण है तो आत्मकुंठाओं और ग्लानियों की ईमानदार अभिव्यक्ति भी।

रचित आज की पीढ़ी के उन कवियों में हैं जिन्होंने संख्या में कम भले लिखा लेकिन जितना लिखा सार्थक लिखा, दमदार लिखा।
उनके पास ‘बसंतसेना’ जैसी प्रौढ़ कविता है जिसकी भाषा छायावाद के निकट है तो दूसरी ओर बोलचाल के शब्दों की सादगी लिए आम आदमी की जिंदगी की कविताएँ भी हैं। इन कविताओं में चुटीले हास्यबोध के साथ गंभीर उक्तियां हैं जिन्हें वे विषय के हिसाब से कविताओं में प्रयोग करते हैं।

कुछ कविताओं में अंग्रेजी के शब्दों की अधिकता अखरती भी है लेकिन अबूझ नहीं है बल्कि प्रवाह का हिस्सा लगती है। उर्दू कविताओं की एक ख़ासियत है मुहावरा। यह विशेषता रचित की कविताओं में भी मिलती है।

बिना किसी शोर शराबे के गहरी बात को सहजता से कह जाना रचित की विशेषता है। कॉरपोरेट नौकरी के अनुभव से पगी कविताओं में नयापन है। आसान चीज़ों को महत्वपूर्ण बनाकर कवि जीवन को और बेहतर बनाने का स्वप्न देखता है।

रचित का कवि मन यथास्थिति को तोड़ने के लिए हर समय बेचैन रहता है। दरअसल यह बेचैनी एक नागरिक की अपने देश और समाज के प्रति जिम्मेदारी भरी चिंता है। सूक्तियों के बहाने धर्म, पूंजी और सत्ता किस तरह शोषण के हथियार गढ़ते हैं इसकी शिनाख़्त रचित बखूबी अपनी कविता में करते है और इन षड्यंत्रों से सचेत करते हैं। कई बार यह चिंता असहयोग के रूप में सामने आती है जब वे कामना करते हैं कि एक दिन जनता देवताओं और पैगंबरों की लड़ाइयाँ लड़ने से इंकार कर देगी।

रचित के पास कोमल हृदय, भाव संप्रेषण और कहने का साहस है।ब्रेकअप के बाद आज के युवा की मानसिक उधेड़बुन और जीवनचर्या को बड़ी ख़ूबसूरती से उकेरा है। कविताओं की बुनावट शानदार है।

 

रचित की कविताएँ

1.

ज़िंदगी बिताई जा सकती है,
किसी भी समय में करते हुए
एक ऐसी नौकरी जिसे कोई
गम्भीरता से नहीं लेता।

हड़प्पा-मोहनजोदड़ो से लेकर
सेंट्रल विस्टा की नक़्क़ाशी पर
बात करते हुए जिया जा सकता है
क़रीने का जीवन।

आगरा के पेठे, दाल की छौंक
और नत्थू की चाट पर
बात करते हुए भी हो सकती है,
समकालीन पत्रकारिता।

सबसे ग़ैर’ज़रूरी सवालों को
केंद्रीय बना देने की
योग्यता भी तो योग्यता ही है।

कि नरगिस के नूर पर बात करो
चमन के “आख़िरी दीदावर” के
नाबीना हो जाने तक।

मैं, यह सब सोच ही रहा होता हूँ
कि न जाने कौन ये कह जाता है,
कायरता के छुपने की सबसे शानदार जगह कला है।

 

2.

मैंने बाइक चलाते हुए जाना
कहीं से भी आ सकती हैं मूर्खताएं
हमें अपना रास्ता उनके बीच से ढूंढना होता है।

सिगरेट पीते हुए जाना
काग़ज़ चाहे स्याही से मिले
या तम्बाकू से
चढ़ता हमेशा दिमाग़ पर है।

मैंने झूले पर जाना
अपने वज़न से मुक्त होकर जीना
कितना भारी है।

मैंने नदियों, जंगलों, पहाड़ों की यात्रा से जाना
हर अच्छा साथी एक दिन छूट जाता है
हर प्रिय का अपना जीवन होता है
जिसका तुम हमेशा के लिए हिस्सा नहीं हो सकते

मैंने रुकने का अर्थ दौड़ते हुए समझा
और चूंकि मैं बहुत ज़्यादा नहीं दौड़ पाया
तो रुकने के बारे में बहुत कम जान पाया।

 

3.

एक साधारण ज़िन्दगी में मैं रोज़ सुबह 5 बजने उठने की कसम खाकर सोऊंगा।
और 7 बजे से पहले कभी उठ नहीं पाऊंगा।

एक साधारण ज़िन्दगी में मैं
अरेंज मैरिज करूँगा और रोज पत्नी को आई लव यू बोलूंगा।

एक साधारण ज़िन्दगी में मैं बहुत मेहनत करके एक नौकरी पा लूंगा
लोन लेकर दिल्ली में मकान ले लूंगा।

हर प्रधानमंत्री की इज़्ज़त करूँगा।
महंगाई की वजह अपनी कम आमदनी को मानूँगा।
उम्र के बढ़ते-बढ़ते खर्चे घटाते- घटाते खर्च होऊंगा।
वादा करने वाले हर नेता पर भरोसा करूँगा
हर न्यूज़ चैनल को सच्चा समझूंगा।

एक साधारण ज़िन्दगी में रोज मां को फोन करूँगा,
पापा की तबियत पूछूंगा।
बहन से लड़ूंगा फिज़ूल बातों पर।
छुप के सिगरेट पियूँगा,

एक साधारण ज़िन्दगी में मैं हर बार वोट दूँगा उसे जिसे सब दे रहे होंगे।
एक साधारण ज़िन्दगी में,
मैं किसी से लड़ूंगा नहीं
कहीं पिट जाऊंगा तो एक्सीडेंट का बहाना बनाकर ऑफिस से छुट्टी ले लूँगा
और “नेटफ़्लिक्स एंड चिल’ करूंगा।

एक साधारण ज़िन्दगी में मैं कितना कम संघर्ष होगा!
सच में!

 

4.

“चोरी करना पाप है।”
यह भूख के ख़िलाफ़ धन का षड्यंत्र है।

“हिंसा करना पाप है।”
यह यथास्थिति के समर्थन में गढ़ा गया तर्क है।

“हर इंसान की अपनी यात्रा होती है।”
यह जन-एकता के खिलाफ सत्ता का प्रचार है

“मृत्यु अंतिम सत्य है।”
यानि सत्य मर चुका है वह सिर्फ़ मुर्दों की स्मृति में है।

“अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।”
ताकि तुम किसी टार्च वाले के इंतज़ार में रहो,
छोड़ दो मशाल जलाना
और भूल जाओ
आग से अपना रिश्ता।

 

5. 

एक पूरी पीढ़ी ने रटा,
बेवकूफी से भरा जुमला कि
स्वर्ग का गुलाम होने से बेहतर है
नरक का राजा होना, और लग गयी
राजा होने की तैयारी में।

बिना ये सोचे की राजा के लिए कहीं नहीं होता नरक,
गुलाम का नहीं होता कोई स्वर्ग।

और मैं सोचता हूँ क्या ही अंतर है
स्वर्ग और नरक में,
अगर वहां भी
राजा और गुलाम होते हैं।

 

6.

जब वे गुस्सा करें
तो ख़ुश होइए
कि वे गालियाँ नहीं दे रहे हैं
जबकि भी वे दे सकते थे।

जब वे गालियां दें तब ख़ुश होइए
कि वे हाथापाई नहीं कर रहे हैं
जबकि वे करते भी तो आप क्या कर लेते!

यदि वे हाथापाई भी करें
तब भी इस पर तो ख़ुश हुआ ही जा सकता है
कि वे हत्या नहीं कर रहे हैं।
हत्या तो ख़राब है।

और जब वे हत्या भी करें
तो ख़ुश हो कर मरिये कि पुनर्जन्म होता है।
और चूंकि आपने पूरा जीवन ही
धैर्य और संयम की साधना में बिताया है।
तो अगला जन्म तो अच्छा ही होगा।
सो गर्व से मरिये कि मरना सहयोग है सृष्टि चक्र में।

 

7.

मैं उस दिन के इंतज़ार में हूँ
जब दुनिया के सब इंसान साफ-साफ कह देंगे,
अपने देवताओं और पैगम्बरों से,
कि वे खुद लड़ें अपनी लड़ाइयाँ
हमें नहीं है फुर्सत,
हमें करने हैं कुछ ज़रूरी काम
हमें पहाड़ को नहलाना है,
बादल को दरवाजे तक छोड़ कर आना,
नदी का आगत-स्वर सुनना है,
सरसों को फूलते देखना है।
चीनी खरीदने जाना है।

 

8. 

भूला नहीं हूँ बसंतसेना
सदानीरा में बाढ़ थी
जिसमें बहता था हमारा समय।

मैं सम्राट की दिग्गविजय
वासना में तुमसे दूर हुआ
वह फागुन था जिसे हमने तलवारों से
गर्म किया था।
विदा के समय तुम्हारा आगे बढ़ के नाव की रस्सी खोल देना,
तब तुम्हारी राष्ट्रभक्ति लगती थी आज हमारी सामूहिक मूर्खता लगती हैं
यहाँ युद्ध क्षेत्र में,
कोई राष्ट्र नहीं है
कोई पवित्रता नहीं है,
बस रक्त है
मिट्टी-सना-रक्त।

मैं युद्ध क्षेत्र के बीच एक टूटे रथ की छाया में बैठा हूँ बसंतसेना
पिछले कई पहरों से लगातार लड़ता रहा हूँ
युद्ध ने सम्राट को क्या दिया मुझे नही पता
लेकिन मेरा वह हाथ जिसे,
विदा के समय तुम देर तक थामे रहती थीं,
अब उठ नहीं रहा।

अब मैं इस युद्धक्षेत्र में शत्रु नहीं
छिपने की जगह ढूंढ रहा हूँ बसंतसेना
अब मैं सैनिक नहीं युद्ध के बीच फंसा एक अपाहिज हूँ।
तुम्हारा गर्व मुझे धिक्कारता है बसंतसेना।

कल रात एक स्वप्न देखा
तुम विजय तिलक लगाने आगे बढ़ती हो
एक आहत सैनिक तुम्हारा गला काट देता है।

सम्राट क्यों होते हैं बसंतसेना?
क्या वे सच में हमारे गोधन की रक्षा करते है

बसंतसेना मुझे नहीं पता दिग्गविजय किसे कहते हैं
शायद हर दिशा में रक्त बिखेर देने में इसका कोई अर्थ हो
या मेरे शरीर से आठो पहर गन्ध आती रहने वाली गन्ध में इसका कोई अर्थ छिपा हो,
जो धीरे धीरे दुर्गंध में बदल जाती है
यदि उसपर और ताजा रक्त न चढ़ा दिया जाए।
या मेरे तलवे में लगातार रहने वाली चिपचिपाहट जो धीरे-धीरे काली पड़कर शरीर का हिस्सा हो जाती है
और रात में हमारे सोते समय
उसे खाने के भ्रम में चूहे हमारी उंगलियाँ कुतर जाते
चूहे नहीं करते लिच्छवी और मगध के चमड़ी में स्वाद का अंत।

परसों नदी में अपना चेहरा देखा तो
सबसे पहला विचार यह आया
कि काटी जा सकती है मेरी गर्दन
तलवार के एक ही वार से ही,
बड़ी आसानी से।
क्या कहता था वह बूढ़ा वात्सायन शंख जैसी ग्रीवा,
उसे कहना एक सैनिक के लिए यह गुण नहीं दोष है।

बसंतसेना हमने जितनी नदियाँ पार कीं,
उतने प्यासे हुए।
हम नदी में पाँव रखने से पहले
भूमि पर लेटकर उसका पानी पी लेते हैं
क्योंकि
हमारे रक्त से लिथड़े पाँव पड़ने के बाद
वह पानी पीने योग्य नहीं रहता।

लगता नहीं कि युद्ध कभी खत्म होगा
काटने के लिए कुछ गर्दनें
जीतने के लिए
भूमि का कोई न टुकड़ा
सदैव शेष रहेगा
बसंतसेना मेरा इंतज़ार मत करना वसंतसेना।

हमने सिर्फ शत्रुओं को गर्दनें नहीं काटी
असंख्य नदियों के बलात्कार किये
अनेक फसलों की भ्रूण हत्याएं की
अपना मार्ग प्रशस्त करने के लिए
जब हम एक किसान की फसल कुचल रहे थे
तब मुझे पिता का पसीना
और
सरसों का वो टुकड़ा याद आया
जिसे तुमने एक दिन मांग में पहन लिया था वसंतसेना।

बसंतसेना
काश वह कवि विष्णुदत्त यहाँ होता
जीवन के इस नग्न सत्य के सम्मुख
कितना सुख देतीं उसकी मिथ्या कवितायें।

बसंतसेना
मुझे अब सम्राट पर क्रोध नहीं आता
समझ चुका हूँ वजह की क्यों
वे योद्धाओं से ज़्यादा समय कवियों, मसखरों और कलाकारों को देते हैं
वे क्यों मंत्रमुग्ध रह जाते हैं
नगरवधू के नूपुर की थापों पर।
सत्य बहुत निर्मम है कला बहुत सुंदर मिथ्या है।

कोई मुझसे पूछे मृत्यु के इस क्षण में
मैं क्या होना चाहूँगा अगले जीवन में,
बसंतसेना मैं योद्धा नहीं बनूँगा अगले किसी जन्म में
मैं विष्णुदत्त बनकर…
कविताएँ लिखकर, चित्र बनाकर,
सप्तसिंधु की सब गणिकाओं के अंगवस्त्र धोकर सिलकर पूरा जीवन बिता दूंगा।

विष्णुदत्त से कहना वह सच ही कहता था
कहना मेरे पिता से वीरता बहुत साधारण होती है।
कहना मेरे पिता से हल की धार तलवार की धार से बहुत गहरी होती है।
वात्सायन से कहना की वह अमर रहेगा।
तुम खुद को समझाना जीवन प्रेम से कहीं बड़ा है
कहीं महान है बसंतसेना।
बसंतसेना…,
बसंतसेना…।

 

9. चार तार्किकताएँ

I. चाबी- ताला

चाबी कभी खराब नहीं होती,
खो जाती है।
ताले हो जाते हैं खराब चाबी खोते ही।

कुछ लोग ताले हैं,
कुछ ताले चाबियां हैं।
कुछ चाबियां नहीं खोई हैं।

II. स्टेपलर- किश्त

स्टेपलर खत्म होता है
छोटी किश्तों में,
हर बार किसी न किसी को जोड़ने की कोशिश करता हुआ।

कुछ लोग स्टेपलर हैं।
कुछ स्टेपलर किश्त हैं।
कुछ किश्तें कोशिशें हैं।

III. टेबल- डायरी

टेबल डायरी लोकतंत्र है,
गैस वाले के नम्बर के ठीक बगल में
लिखा है महाकवि का नंबर।
यह महान समानता है।

महाकवि महान है,
कुछ महानतायें महान हैं।
सब महानताएं अलोकतांत्रिक हैं।

IV.  ग्लोब- पृथ्वी

ग्लोब खुद नहीं घूमता,
घुमाना पड़ता है,
पृथ्वी खुद घूमती है।
उस पर मनुष्य भी घूमता है।

कोई ग्लोब पृथ्वी नहीं है।
कुछ पृथ्वियां रुकी हैं।
कुछ ग्लोब घूमते हैं।

 

10. 

एक पूरी पीढ़ी ने रटा,
बेवकूफी से भरा जुमला
“स्वर्ग का गुलाम होने से बेहतर है
नरक का राजा होना”
और लग गयी
राजा होने की तैयारी में।
बिना ये सोचे की राजा के लिए कहीं नहीं होता नरक,
गुलाम का नहीं होता कोई स्वर्ग।
और मैं सोचता हूँ आखिर अंतर क्या है
स्वर्ग और नरक में,
अगर वहां भी राजा और गुलाम होते हैं।

 

11.

और एक दिन मान ही लेता है मनुष्य
की सिगरेट की डिब्बी पर
कैंसर के बारे में जो लिखा है
वह कैंसर का विज्ञापन है

एक दिन मान ही लेता है मनुष्य कि
छोटे-छोटे झूठ
जीवन में सुख भरते हैं

एक दिन मान ही लेता है मनुष्य
कि शायद वह कुछ कम मनुष्य है।
कि कम भी बहुत है शायद।

 

12. आत्मस्वीकृति

ब्रेकअप के लिए मजबूत कारण न मिल पाने की वजह से हम प्रेम में थे।
हम फरहाद के फूफा थे,
मजनू के मामा,
और 007 जेम्स बांड भी।
हम इतने हल्के थे कि
हर फिल्म के हीरो में हमें अपना अक्स दिखता था।
हम जार्डन भी थे, वेद भी
सिड भी और राकेट सिंह भी,
और हम ही थे
‘कैसी तेरी खुदगर्ज़ी’ सुनते हुए बनी।
हम किसी ग्रैंड एंट्री के साथ
‘नाक का नगीना देखा
कान में पुदीना देखा’ गाते हुए कहीं से लौटना चाहते थे
लेकिन
जहां थे वहाँ से जाना नहीं चाहते थे कि लौट सकें।

सच कहें तो हम सिर्फ और सिर्फ भटके हुए लड़के थे
जिन्हें कुछ लड़कियों ने बेइंतहाँ प्यार किया।
हम जो खुद को कभी नहीं जान पाए।
सबने हमें अपने हिसाब से परिभाषित किया।
हम हर परिभाषा में जिये,
जब तक,
उससे बेहतर परिभाषा नहीं मिल गयी।

हम ऐसे आज़ादख़याल थे जिन्हें
न आज़ादी थी समझ थी
न किसी का ख्याल।
हम ऐसी कमज़र्फ पीढ़ी के लड़के थे
जिनकी मौत हार्ड अटैक से होनी थी।
हम यह जानते थे।
हम जानते थे कि हम कहीं नहीं पहुचेंगे।
कहीं पहुँचना हमारी औकात से बाहर की चीज थी।
हम सफल लोगों से जलते थे
पैसे वालों से जलते थे।
चूंकि हमें कुछ बड़ा करना था इसीलिए
सबसे ज़्यादा प्रधानमंत्री से जलते थे।
हम वो थे जिन्होंने अपनी प्रेमिका का बदला भाजपा से लिया।
और भाजपा का बदला ख़ुद से।

हम प्रेम, राजनीति, दर्शन सबकी सतही समझ के साथ खुश थे।
खुद से ज़्यादा क़ाबिलों के साथ नहीं बैठते थे,
उल्टा उन्हें “डैश-डैश” कहते थे।
हम वो थे जिन्हें लगभग हर बड़े ने सम्भावनाशील कहा था
और हमने सबको निराश किया था।
हमने इतने दिल नहीं तोड़े थे जितना निराश किया।
हम निराश करने के विशेषज्ञ थे।

हम इतने अस्थिर थे कि रामायण खत्म होते ही सेक्स इन द सिटी देख सकते थे।
और इतने काहिल थे कि जो कर सकते वो कभी नहीं करते थे।
और मेहनती इतने की हमेशा वही करना चाहते थे जो सम्भव नहीं था।
हमने न जाने कितनी बार ऑफिस का काम छोड़ कर एलियन लाइफ पर विचार किया था।
कैबिनेट में किस मंत्री की जगह किसे रखा जाना चाहिए
इस पर गृहमंत्री से ज़्यादा माथापच्ची हमने की थी।

पैसा हमें काटने को दौड़ता था।

हमें अपने जीवन में आने वाली हर लड़की पर दया आती थी,
हम जो क्रूरता को पीकर विनम्र हुए थे
हम जो गुस्से, और खिसियाहट को घोंट कर व्यवहार कुशल हुए थे।
हमारे हर नमस्ते में एक अश्लील गाली की लाश थी।
हर ‘गुड मॉर्निंग’ में फक ‘ऑफ निहित’ था।
हम वो थे जिन्होंने आई आई टी का फॉर्म भी डाला
और आई टी आई का भी।
हम चार दिन जिम गए,
5 दिन बैंक की कोचिंग।

हम वो थे सौ चूहे खाकर एक दिन बुद्ध हो जाना चाहते थे,
और एक दिन अपनी सब ग़लतियाँ किसी कविता में लिखकर
मोक्ष की मासूम इच्छा पाल लेते थे।
और इतने नीच कि उस कविता के लिए भी प्रशंसा चाहते थे।
जबकि
हमारा ह्रदय जानता था-हमें माफ नहीं किया जाना चाहिए।
हम माफी के बिल्कुल लायक नहीं थे।

 


कवि रचित, 10/6/1990 को उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में जन्म। स्कूली शिक्षा पूरनपुर, पीलीभीत से और बी. ए. और एम. ए. की पढ़ाई, बरेली कॉलेज, बरेली से। 2018 से दिल्ली में निवास। 5 साल से सीनियर रिसर्च एनालिस्ट के बतौर निजी कम्पनियों में काम। वर्तमान में फ्री लांस लेखन। प्रकाशन : कई पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल्स पर कविताएँ प्रकाशित।

संप्रति : फ्रीलांस अनुवाद और कंटेंट राइटिंग
वर्तमान डाक का पता : B-9-10, Block B, पांडव नगर-गणेश नगर कॉम्प्लेक्स, अग्रवाल स्वीट्स दिल्ली -110092

ईमेल- rachitdixit2020gmail.com
मोबाइल- 9457520433

 

टिप्पणीकार जावेद आलम खान, जन्म – 15 मार्च 1980, जन्मस्थान – जलालाबाद, जनपद- शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा – एम. ए. हिंदी , एम. एड, नेट(हिंदी)। सम्प्रति – शिक्षा निदेशालय दिल्ली के अधीन टी जी टी हिंदी

कविता संग्रह – स्याह वक़्त की इबारतें (बोधि प्रकाशन से दीपक अरोड़ा स्मृति योजना में चयनित)

कई पत्रिकाओं और ऑनलाइन पोर्टल आदि में रचनाएँ प्रकाशित

संपर्क  – javedalamkhan1980@gmail.com

 

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