समकालीन जनमत
कविता

प्रियंवदा की कविताएँ हिंदी कविता के आँचल में ग़ज़ल के फूल टाँकने का फ़न हैं

अजमल सिद्दीक़ी 


प्रियंवदा के अब तक के साहित्यिक सफ़र को मैं ने बहुत क़रीब से देखा है , मैं इस सफ़र के हर उतार चढ़ाव हर दुर्गम और सुगम रास्तों का गवाह रहा हूँ। मुझे याद है जब इन्होंने अपने जीवन का पहला शे’र कहा था जो यूँ था
बदन को याद हैं वो सारे क़िस्से
शजर पर नक़्श हर रुत की कहानी

मैं हैरान रह गया था कि कोई अपना पहला शे’र ऐसा कैसे कह सकता है! न सिर्फ़ यह कि तकनीकी तौर पर यह शे’र था बल्कि एक अच्छे शे’र होने के बहुत से मापदंडों पर पूरा उतरता था, और इस से बढ़ कर यह बात ज़्यादा प्रभावित कर रही थी कि यह मेरे लिये एक नया रूपक था। वरना जब कोई नया नया लिखारी बनता है तो वह अपने अब तक के अध्ययन से ही प्रभावित रहता है और अपने लेखन के शुरुआती ज़माने में उसका अवचेतन दूसरों के ही विचारों को अपने शब्दों में क़लम-बंद कर रहा होता है। यह एक बहुत बड़ा अंतर था जो अपने पहले शे’र से ही प्रियंवदा को एक अलग पायदान पर सुशोभित कर रहा था। क़ुदरती तौर पर वह ग़ज़ल की बह्र से थोड़ा बहुत परिचित थीं और फिर बहुत मेहनत और अभ्यास के बाद कई छोटी बड़ी बहरों में ग़ज़लें कहना शुरू किया।

मैं भाषा को केवल माध्यम मात्र मानता हूँ, मैं पाठक तक अनुभूति के पहुंचने को हर भाषा के काव्य का मूल मानता हूँ। इंसान चाहे उर्दू बोलता हो चाहे मराठी उसकी संवेदनाएँ वेदनाएँ उसके जज़्बात और एहसास तक़रीबन एक से हैं। वह एक जैसी बातों पर ही दुखी होता है और एक जैसी बातों पर ही सुख महसूस करता है, लेकिन इससे कौन इंकार कर सकता है कि हर भाषा के साहित्य का एक अलग स्टाइल होता है, एक अलग अंदाज़ होता है। आप देखिये कि मैंने ऊपर जब प्रियंवदा के पहले शे’र का ज़िक्र किया तो मैंने उसे कविता नहीं कहा बल्कि शे’र कहा। यानी मैं उसे ग़ज़ल का हिस्सा उस वक़्त मान रहा था जब वह सिर्फ़ अकेला शे’र था, न साथ में मतला था न कोई और शेर ।
क्या इसे ग़ज़ल का शे’र कहने के पीछे मेरे पास सिर्फ़ यह वज्ह थी कि यह ग़ज़ल की एक निर्धारित बह्र में है? तकनीकी तौर पर यह बात सही भी है कि शे’र है तो बह्र में ही होगा मगर क्या हिंदी कविता को इस बह्र में नहीं लिखा जा सकता? यह बह्र तो हिंदी के विधाता छंद और विजात छंद के निकट की भी है। तो इसे शे’र कहने की वज्ह?
अस्ल में उर्दू ग़ज़ल का जो अंदाज़ रहा है, जो रूपक और उपमाओं को बरतने का तरीक़ा रहा है, जो संक्षेप में लेकिन प्रभावी रंग में बात कहना है, जो पहली पंक्ति में बात को ज़रा पर्दे में रखना और दूसरी पंक्ति में बात को इस तरह खोलने की परंपरा रही है कि मुशायरा वाह वाह की आवाज़ से गुंजित हो उठे वो सब इस शे’र में है।

प्रियंवदा नें ग़ज़लों के अध्ययन से अपनी यात्रा शुरू की और ज़्यादातर ग़ज़लें ही कही हैं। हिंदी कविताएँ भी कही हैं लेकिन मैं इन्हें बुनियादी तौर पर ग़ज़ल की शायरा ही मानता हूँ। इनकी हिंदी कविताओं में भी ग़ज़ल का वही बाँकपन और वही लहज़ा है। यह अंदाज़ प्रियंवदा को तो कविता के पटल पर स्थापित करता ही है साथ ही कविता के आँचल को भी विस्तार देता है और उस विस्तृत आँचल को फिर और मालामाल भी करता है।
ग़ालिब की उर्दू शाइरी के बारे में कहा जाता है कि वह फ़ारसी में सोचते थे और उर्दू में लिखते थे, मैं प्रियंवदा के बारे में कहना चाहता हूँ कि यह चाहे कविता लिखें या कहानी या कोई और फ़ॉर्म, यह ग़ज़ल की ज़बान में ही सोचती हैं। यह कविता ही लीजिये –

दोस्त बढ़ कर प्रेमी हो सकते हैं
अक्सर होते भी हैं
लेकिन प्रेमी घट कर
सिर्फ़ दोस्त कभी नहीं हो सकते
लिखा है बायरन ने
बात सच है लेकिन अधूरी है
प्रेमी घट कर दोस्त नहीं हो सकते
घट कर तो
कोई कुछ नहीं हो सकता
मगर प्रेमी दोस्त नहीं हो सकते
ऐसा नहीं है
प्रेमी दोस्त हो सकते हैं
घट कर नहीं
बढ़ कर

बायरन की कविता को केन्द्र बनाया और उस के शब्दों में ज़रा सा परिवर्तन किया, बल्कि परिवर्तन भी नहीं किया सिर्फ़ स्ट्रेस का स्थान बदला। वही शब्द रखे बस अंतर यह है कि बायरन ने “प्रेमी घट कर दोस्त नहीं हो सकते” कहते समय “दोस्त नहीं हो सकते थे” पर बल दिया था, प्रियंवदा ने इन्हीं शब्दों में सिर्फ़ बल का स्थान बदला और “घट कर” पर स्ट्रेस दिया, कि हाँ आप सही कह रहे हैं प्रेमी “घटकर” दोस्त नहीं हो सकते, बढ़ कर दोस्त होंगे जब भी होंगे। यह कमाल है कि शब्दश: वही बात दुहराई है लेकिन स्ट्रेस का स्थान बदलने से अर्थों में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ आ गया और सिर्फ़ अर्थ का बदलना ही अहम नहीं है बल्कि जो नया अर्थ उभरा है वो भी कितना सुंदर है। दोस्ती के संसार के तमाम रिश्तों से, यहाँ तक कि सबसे अज़ीम समझे जाने वाले रिश्ते प्रेम से भी ऊपर रखा (यहाँ प्रेम से आशय वो प्रेम है जिसका आधार रोमांस है)
अगर यही बात कह दी जाती कि दोस्ती का रिश्ता प्रेम से ज़्यादा महत्त्व रखता है तो यह बात बस एक बात होती, कविता न होती, लेकिन बायरन के शब्दों से खेल कर यह बात कहना इस में जो सुंदरता जो आश्चर्य जो विस्मय पैदा कर रहा है वह क्राफ़्ट है। इसके अलावा ग़ज़ल की परम्परा भी इस में पूरे आब ओ ताब के साथ मौजूद है जब कि न बह्र है न ही उर्दू का कोई क्लिष्ट शब्द । यह शब्दों के ज़रा से हेर फेर से बात का कुछ से कुछ हो जाना ग़ज़ल में बहुत आम है। फ़हमी बदायूनी का यह शे’र देखिये
पहले लगता था तुम ही दुनिया हो
अब यह लगता है तुम भी दुनिया हो

ज़ाहिर है ऐसे तज्रबे सिर्फ़ ग़ज़ल तक सीमित नहीं रहे बल्कि हिंदी समेत और भी भाषाओं में रहे हैं लेकिन हमारे हिंदुस्तानी साहित्य में ग़ज़ल में लफ़्ज़ो के उलट फेर से नए अर्थ पैदा करने का चलन ज़रा ज़्यादा रहा है और आज तक है। किसी का एक मशहूर शे’र औरदेखिये
अगर वह पूछ लें हम से तुम्हें किस बात का ग़म है
तो फिर किस बात का ग़म है अगर वह पूछ लें हम से

ग़ज़ल की क्राफ़ट को हिंदी कविता में इस सुंदरता से समाहित करना तो एक ख़ासियत हुई, इसके अलावा भी प्रियंवदा की कविताएँ कई और कारणों से भी प्रभावित करती हैं। यह कविता देखिये-
हर सवाल में निहित है
एक उत्तर
उत्तर जो कभी न कभी
पाया जाना है
सवाल जिन का
उत्तर नहीं होता
बदल लेते हैं अपना निशान
बन जाते हैं पूर्ण विराम
और मौन हो जाते हैं
हमेशा के लिए
जब मैं थी मौन होने को
पूर्ण विराम होने को
तुम ने मुझे हैरत दी
और एक सवाल
जिस का उत्तर न था
बन गया
विस्मयादी बोधक!

हिंदी काव्य का जितना मेरा अध्ययन है उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि प्रियंवदा की यह कविता ख़ालिस आधुनिक हिंदी परंपरा की कविता है, सिम्बल्ज़ में इस तरह बात कहना हिंदी कविता का ख़ास्सा रहा है पिछले कुछ दशकों से। हिंदी काव्य में प्रतीकवाद का जो एक सुंदर सिलसिला है जिस में अज्ञेय जैसे महान नाम शामिल हैं, यह कविता उसी सिलसिले की एक कड़ी होने का हक़ बख़ूबी निभा रही है। इस में खोज, हसरत, इंतज़ार, खोज की थकन, बेज़ारी, निराशा और उस निराशा में एक हल्की सी आशा दिखने पर जो अन्तरमन पुन: जीवित हो उठता है, इस पूरे प्रॉसेस को सिर्फ़ विराम चिन्हों के प्रतीकों द्वारा बहुत सधे हुए अंदाज़ से व्यक्त किया है।

जहाँ यह कविता अपने स्टाइल और अपने प्रतीकों की वजह से हिंदी की एक अच्छी कविता है वहीं “हैरत” शब्द प्रियंवदा की ग़ज़ल कीदुनिया से आया है, वही ग़ज़ल जहाँ आँखों का काम हैरत ही होता है। ग़ज़ल में आँखों में बहुत से भाव आते जाते हैं लेकिन सब से ज़्यादा ज़िंदा भाव हैरत या हैरानी ही है।

हुस्न को देख कर हैरान होना किसी की बेवफ़ाई पर हैरान होना किसी मंज़र को देख कर हैरत में पड़ना, ग़रज़ कि यह ग़ज़ल की रवायत का बहुत अहम भाव है।
कुल मिला कर बात यह है कि हिंदी कविता के आँचल में ग़ज़ल के फूल टाँकने का फ़न इस कवयित्री के पास है और वह भी इस सलीक़े से कि आँचल का स्वरूप भी न बदले, फूल उसकी शोभा भी बढ़ाए और देखने वाला फूल और आँचल को एक दूसरे से अलग भी न देख पाये।
यह दो कविताएँ तो निजी तौर पर मेरी पसंदीदा हैं इसके अतिरिक्त भी प्रियंवदा की कविताओं में विषयों की ख़ूब रंगा-रंगी है। आप उन्हें किसी एक भाव या एक मूड से बंधा हुआ नहीं पायेंगे, दर्शन है तर्क है तो कहीं प्रेम का औघड़पन, कहीं करुणा कहीं लोगों के परेशानी भरे जीवन को आसान बनाने की कामना तो कहीं अस्तित्व पर ही सवाल, कहीं मनोवैज्ञान की तह में उतर कर रोज़-मर्रा के संबंधों को देखना, कहीं पूरे संसार से सहजता से संबंध महसूस करना। शायद यही विचारों और विषयों के अलग अलग रंग ही थे जिनकी वज्ह से इन्होंने हिंदी कविता के कैनवस को चुना, क्यूंकि ग़ज़ल का फॉरमैट ही ऐसा है कि हर बात वहाँ कहना मुश्किल है। सो एक ऐसा सोचने वाला मस्तिष्क जिसमें कितने ही विचार रंगों में ढलने को बेताब रहते हों उसे एक विस्तृत कैनवस की तलाश थी और वही तलाश है जो उसे ग़ज़ल की दुनिया से यहाँ लाती रहती है। इन की एक कविता देखिये। यह कविता असीमित प्रेम को महसूस करने के लिये जीवन के सीमित होने की शिकायत है
कसकता है दिल
देख कर सुंदरता
सोच कर कोई प्यारी बात
उदास हो जाता है मन
तुम्हें महसूस करने के लिए
ये जीवन कितना कम है

सुंदरता देख कर दिल कसकना और प्यारी बात सोच कर उदास होना में विरोधाभास है लेकिन पूरी तरह जस्टिफ़ाई हो रहा है, यह काव्य के शिल्प का एक और सुंदर नमूना है।
प्रियंवदा की इस कविता पर ग़ौर करिये, अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाती यह कविता बहुत सशक्त अंदाज़ में सवाल स्थापित करती है। यह पढ़ते हुए अनायास ही जौन एलिया की यह पंक्ति याद आ जाती है कि “वजूद ख़याल का ज़वाल है”, यानी अस्तित्व जो है वह कल्पना का पतन है, कोई कल्पना जब कल्पना होती है तब वह अपने होने के चरम पर होती है और जब वह मूर्त रूप लेती है तो वही उसका पतन होता है।
आधुनिक जीवन की आपा-धापी में जहाँ करुणा, परोपकार, दूसरों के दुख हरने का समय तक किसी के पास नहीं है, वहाँ दूसरों के दुख से विचलित होना लेकिन कुछ न कर पाने को इस तरह इस कविता में खींचा है मानो कोई स्टेशन की सीनरी देख रहे हों
परेशान चेहरा
जूझता किसी मुसीबत से
मन होता है पूछ लूँ
क्या हुआ?
रूमाल के कोर से
जब पोंछीं गयीं आँखें
मन हुआ गले लगा लूँ
सोचती हूँ अपनी ज़िंदगी रोक कर
घंटों सुनूँ बातें
ढूँढूं वो गाँठ जो
मन का गला घोंट रही है
हो जाऊँ वो जो किसी का दर्द मिटाने के लिए
मुझे होना चाहिए

मनुष्य तर्क करने वाला प्राणी है और तर्क के आधार पर ही हर किसी ने अपना सच गढ़ लिया है और अपने सच को ही अंतिम सत्य मानना उसकी मजबूरी भी है और उसके जीवन का आधार भी। इन तरह-तरह के परस्पर विरोधी सत्यों की जंग को इस कविता में बाँधा है
चिंता ये नहीं है कि
बदलाव होगा
न ये कि नहीं होगा
डर ये है कि क्या होगा
जब अपने अपने बदलाव लिए
अपने अपने रास्तों से आते
अपने अपने क्रांतिकारी
मिलेंगे चौराहे पर
मुझे चिंता है
तब क्या होगा

दुख को अलग अलग बरतने के तरीक़े और उनके चरणों को बयान करती यह छोटी सी कविता देखिये
दुःख मिलने पर बदल जाना
प्रतिक्रिया है
न बदलना प्रतिरोध
समझना विकास है
और प्रेम करना
जीत

कविता लिखने से क्या कोई बड़ा परिवर्तन संभव है? यह सवाल या यह आपत्ति अक्सर उठाई जाती है, यह कविता इसी सवाल को ऐड्रेस कर रही है, और बताने का प्रयास कर रही है कि कविता कुछ बुरा भले ही न टाल पाये लेकिन एक क्लोज़र तो देती ही है और यहकोई कम बात तो नहीं !
इसीलिए तो लिखती हूँ
वो लाशें जो न जलायी जा सकीं
न दफ़न हो सकीं
वो लाशें जिन्हें प्रेत लिए घूमते हैं
मैं उन की जगह बनाती हूँ
मैं क़ब्र खोदती हूँ
मैं चिता जलाती हूँ

एक लड़की को हमारे समाज में किस तरह कंडीशन्ड किया जाता है कम में सुखी रहने के लिये, उस को आधार बना कर लिखी हई यह कविता बताती है कि तमन्ना दब ज़रूर जाती है लेकिन किसी राख में दबी चिंगारी की तरह, हल्की सी अपनेपन की और प्रेम की हवा मिली और वही चिंगारी भड़कने लगती है।

तुम मिले
जब मेरी तमाम ज़रूरतें
पूरी हो चुकी थीं
थोड़ी थोड़ी
फिर भी तुमने मुझे पुकारा
सारा का सारा
अब तक की कमियों के सबब
बना दिया जाना चाहिए
तुम्हें मेरा
हमेशा के लिए
जो भी हो तुम
मेरी पसन्द के

कैसा भी प्रेमोन्माद हो, एक समय के बाद आम भी हो सकता है, ख़त्म भी हो सकता है और इस से उपजा दुख भी एक समय सीमाके बाद साथ तो रहेगा मगर टीसना बंद हो जायेगा।

अंतरतम में दम तोड़ेंगी भावनाएँ
मुँह से नहीं निकलेगा एक शब्द
आँख से ढलके आँसू
खो जाएंगे मौन में
और ये सब
सहज होगा
नहीं सोचोगे ऐसा क्यूँ हुआ
बदलना नहीं चाहोगे कुछ भी
एक गहरी साँस लेकर
लग जाओगे अगले काम पर

प्रियंवदा की काव्य यात्रा अभी अपने आरंभिक पड़ाव में ही है, ज़ाहिर है कुछ कमी बेशी कुछ गिरना सँभलना कुछ थकना, ताज़ा-दम होना और फिर चलना यह सब जारी रहेगा। अभी पाठकों के हृदय में भी पैर जमाने हैं और अपने को व्यक्त करने में अभी और पारंगत होना है, लेकिन इस आरंभिक पड़ाव के अंदाज़ देख कर मुझे यह कहने में ज़रा संकोच नहीं है कि आने वाले समय में ग़ज़ल, कविता, कहानी और साहित्य की दूसरी विधाओं में भी यह नाम अपना मक़ाम बहुत मज़बूती के साथ बनायेगा।

प्रियंवदा की कविताएँ

1.
पूछा जाता है ये सवाल सब से
क्यूँ लिखते हो?
मुझ से भी पूछा जाएगा
ये सोच कर मैंने ख़ुद से पूछा
कई बार
क्यूँ लिखती हो?
विश्व शांति के लिए?
मज़लूमों की क्रांति के लिए?
सुंदर बनाना है इस दुनिया को?
बच्चों तक लाना है उन की गुड़िया को?
पैसे चाहिए तुम को?
शोहरत की भूखी हो?
कहीं ये तो नहीं
कि इश्क़ में रूठी रूठी हो?
या लेखक बनना है तुम को
पानी हैं अदब की गहराइयाँ सारी
सोचती हूँ कोई अच्छा सा जवाब
जो किताब के
पहले पन्ने पर लिखा जा सके
सवाल हल हो जाता है
एक अच्छा इंसान होने की भावना से
भर जाती हूँ कंठ तक
इतनी कि दम घुटता है
इतना कि बदन में रहा नहीं जाता
मैं अपनी ही लाश पहने हूँ
सारी तारीफ़ें गिरतीं हैं मुझ पर
जैसे मुर्दे पर फूल
देखती हूँ
सबने ही पहन रखी हैं लाशें
इन लाशों को
जलाने की दफ़नाने की जगह
ख़ुदा ने बनायी ही नहीं
इनसे निजात पाने की तरकीब
किसी ने बतायी ही नहीं
प्रेत मुस्कुराते हैं ख़ुदा पर
और मेरी लाश बदन बनने लगती है
इसीलिए तो लिखती हूँ
वो लाशें जो न जलायी जा सकीं
न दफ़न हो सकीं
वो लाशें जिन्हें प्रेत लिए घूमते हैं
मैं उन की जगह बनाती हूँ
मैं क़ब्र खोदती हूँ
मैं चिता जलाती हूँ

 

2.
दोस्त बढ़ कर प्रेमी हो सकते हैं
अक्सर होते भी हैं
लेकिन प्रेमी घट कर
सिर्फ़ दोस्त कभी नहीं हो सकते
लिखा है बायरन ने
बात सच है लेकिन अधूरी है
प्रेमी घट कर दोस्त नहीं हो सकते
घट कर तो
कोई कुछ नहीं हो सकता
मगर प्रेमी दोस्त नहीं हो सकते
ऐसा नहीं है
प्रेमी दोस्त हो सकते हैं
घट कर नहीं
बढ़ कर

3.
कसकता है दिल
देख कर सुंदरता
सोच कर कोई प्यारी बात
उदास हो जाता है मन
तुम्हें महसूस करने के लिए
ये जीवन कितना कम है

 

4.
मैंने डाली है आदत
थोड़े की
जो भी मिलता था
थोड़ा कम मिलता था भाई से
मगर मिल तो रहा था
मेरी पसन्द का

दोस्त बनते
जो पानी पीने भी
साथ जाते थे
मगर छोड़ देते थे साथ
जब उन्हें मिलते थे नब्बे
और मुझे नौ
पर दोस्त तो थे
मेरी पसन्द के

प्यार हुआ
और पहली बार
मैंने फ़लसफ़े जाने
दुनिया के मसाइल समझे
बस जो न समझा वो था
एक दिल
पर प्यार तो था
मेरी पसन्द का

सहारा मिला
जो साये सा था
साथ था, पास था
जिसे छुआ न जा सका
मगर सहारा तो था
मेरी पसन्द का

तुम मिले
जब मेरी तमाम ज़रूरतें
पूरी हो चुकी थीं
थोड़ी थोड़ी
फिर भी तुमने मुझे पुकारा
सारा का सारा

अब तक की कमियों के सबब
बना दिया जाना चाहिए
तुम्हें मेरा
हमेशा के लिए
जो भी हो तुम
मेरी पसन्द के

 

5.
हमारे बीच का मौन ही था
ब्रम्हांड के सृजन से पहले
कुन से पहले का सन्नाटा
हम थे प्रिय
हमारा होना संभाले था
कुछ भी न होने को
कुछ न होना विचलित हो उठा
हमारे न होने से
उस ने हमें ढूँढा, आर्त्तनाद किया
उस आर्त्तनाद की गूँज
युगों युगों तक पहुँच रही है
जहाँ तक पहुँचती है
वहाँ आरंभ होता है नया युग
नया काल
ये गूँज अधूरेपन की गूँज है
सृजन अधूरेपन से अभिशप्त है
अस्तित्व अधूरा है हमारे बिना
ये गूँज
कहाँ पाएगी हमें
हमारे मौन को
जिसे किसी संवाद की
ज़रूरत नहीं
किसी आवाज़ की
ज़रूरत नहीं
हमारा मौन हमारी पूर्णता था
हमारी पूर्णता
हमारा अंत

 

6.
परेशान चेहरा
जूझता किसी मुसीबत से
मन होता है पूछ लूँ
क्या हुआ?
रूमाल के कोर से
जब पोंछीं गयीं आँखें
मन हुआ गले लगा लूँ
सोचती हूँ अपनी ज़िंदगी रोक कर
घंटों सुनूँ बातें
ढूँढूं वो गाँठ जो
मन का गला घोंट रही है
हो जाऊँ वो जो किसी का दर्द मिटाने के लिए
मुझे होना चाहिए
तभी सीटी बजती है
ट्रेन सरकने लगती है
विपरीत दिशा में
चेहरा नज़रों और स्मृति
दोनों से
ओझल होने लगता है
ये आख़िरी स्मृति जो बस
इस वर्तमान का हिस्सा है
आँखों से विदा पाती है
वो इतना ही कह पातीं हैं
अपना ख़याल रखना
अजनबी

7.
हर सवाल में निहित है
एक उत्तर
उत्तर जो कभी न कभी
पाया जाना है
होते हैं कुछ सवाल
जिन का उत्तर नहीं होता
बदल लेते हैं वो अपना निशान
बन जाते हैं पूर्ण विराम
और मौन हो जाते हैं
हमेशा के लिए
जब मैं थी मौन होने को
पूर्ण विराम होने को
तुम ने मुझे हैरत दी
और एक सवाल
जिस का उत्तर न था
बन गया
विस्मयादिबोधक!

8.
चिंता ये नहीं है कि
बदलाव होगा
न ये कि नहीं होगा
डर ये है कि क्या होगा
जब अपने अपने बदलाव लिए
अपने अपने रास्तों से आते
अपने अपने क्रांतिकारी
मिलेंगे चौराहे पर
मुझे चिंता है
तब क्या होगा

 

9.
दुःख मिलने पर बदल जाना
प्रतिक्रिया है
न बदलना प्रतिरोध
समझना विकास है
और प्रेम करना
जीत

 

10.
प्रिय से प्रियतम भी
एक वक़्त के बाद
नहीं समझ पाएगा तुम्हारे भाव
अंतरतम में दम तोड़ेंगी भावनाएँ
मुँह से नहीं निकलेगा एक शब्द
आँख से ढलके आँसू
खो जाएंगे मौन में
और ये सब
सहज होगा
नहीं सोचोगे ऐसा क्यूँ हुआ
बदलना नहीं चाहोगे कुछ भी
एक गहरी साँस लेकर
लग जाओगे अगले काम पर

 

कवयित्री प्रियंवदा, निवास – बीकानेर, राजस्थान 
पैदाइश- 3 फ़रवरी 1991 दिल्ली 
शिक्षा-  बायोटेक्नोलॉजी में मास्टर्स किया और फिर उसके बाद अंग्रेज़ी अदब में मास्टर्स की डिग्री 
काम – आकाशवाणी बीकानेर में कम्पीयर , फ़्री लांस एंकर, ट्यूटर और कंटेंट राइटर 
प्रतिलिपि और रेख़्ता वेबसाइट पर शायरी उपलब्ध
उजाला और अन्य पत्रिकाओं में शेर प्रकाशित
संपर्क:priyamwada777@gmail.com
टिप्पणीकार अजमल सिद्दीक़ी चर्चित गज़लकार हैं और दिल्ली के रहने वाले हैं  हैं। इनकी गज़लों को रेख़्ता वेबसाइट पर पढ़ा जा सकता है। 
संपर्क: m.ajmalsiddiqui@gmail.com

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