समकालीन जनमत
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प्रेम और संघर्ष की आकांक्षाओं से भरा है पूजा यादव का कविता संसार

पार्वती तिर्की

पूजा नए दौर की कवयित्री है, उसका काव्य लेखन एक नयापन लिए हुए है। नई तरह की क्रांति और प्रेमाकांक्षाएँ है। प्रतिरोध जैसे प्रेम करना और कलात्मक है। एक तरफ़ उसकी कविताएँ ‘स्त्री’ और उसके ‘सौंदर्य ’ के बने बनाए प्रतिमानों को तोड़ रहीं हैं और उसी वक़्त नए प्रतिमान गढ़ रहीं हैं। सुंदर-असुंदर के प्रतिमान जैसे साथ रचे जा रहे हैं ! स्त्री सौंदर्य का नयापन है। यह कविताओं में समानांतर दिखलाई पड़ रहा है। कवयित्री की ‘पिचकी रोटी’ और ‘ज़िद दुपट्टे को अपने हिसाब से ओढ़ने की’ स्त्री होने के पूर्व निर्धारित पैमानों का मुँह चिढ़ाती है—

“लड़की से कहा गया
ऐसी रोटी बना
जैसे यौवन से भरी
नायिका के वक्ष हों

लेकिन
लड़की ने ऐसी रोटी बना दी
जो पिचकी सी थी”

कविता में चंचलता और निश्चलता का समावेश है। प्रेम सम्बंधों में नयापन और निडरता है। प्रेमी और प्रेमिका जैसे सहभागी हैं। उनका प्रेम संबंध सहभागिता की डोरी थाम चल रहा है — “मेरे कलम की रोशनाई / तुम्हें उजालों से भरती जाएगी” । पूजा का काव्य लेखन नाउम्मीदी और बेबसी से परे उत्साह और ऊर्जा से भरा हुआ प्रेमिल संसार रच रहा है। यहाँ असह्य पीड़ा में मुस्कुराने और गीत गाने का साहस है। ख़ामोशियों का टूटना है। चली आ रही पूर्व परिपाटी से असहमति है। उनसे सहज विलगना है— “अब मैं नहीं सुनती ऋषियों की वाणी” ।

कविता तथाकथित समाज के मुखौटाधारियों पर रोष व्यक्त करती है। उनके बनाए मानदंडों से खीजती है। उस असमानता से खीज है, जिसकी बुनियाद पर बने मानदंड घुटन पैदा करते हैं। एक स्त्री का दुपट्टा जो उसके मस्तिष्क को भी बांधे हुए है, उसकी घुटन असह्य है। कविता इससे मुक्ति की आकांक्षा करती है। वह स्वत्व को खोजती हुई है। अपनी जगह तलाशती है — हवा की तरह जगह पाने की आकांक्षा है। यहाँ उन्मुक्तता और स्वच्छंदता की चाह है। यहाँ संघर्ष का रास्ता कलात्मकता को लिए हुए है। कवित्व एक रोशनाई लिए हुए है।

कवयित्री अपने पूर्वजों को याद करती हैं। उसके प्रिय कवियों की झलकियाँ जगह – जगह दिखाई पड़ती है। यहाँ कई बहानों से अपने पूर्वज और समकालीन कवियों का स्मरण है —“ जिसे प्रिय हैं फ़ैज़, पाश और विद्रोही की कविताएँ / मुझे फ़ख़्र है उस प्रेमी पर”। जीवन की स्मृतियाँ गीली मिट्टी के समान है, जिसमें सोंधापन और ताजगी है —

“स्मृतियाँ गीली मिट्टी की मानिंद लिपटी रहती है
मन की दीवारों से
और जब बहती है ठहरी हुई हवाएँ तो बिखर जाती है
ख़ुशबू की भाँति”

कवयित्री प्रेम पर अटूट विश्वास रखती है। बद्रीनारायण की कविता ‘प्रेमपत्र’ के बहाने कवयित्री साहसी प्रेम को रचती है। प्रेम की ख़ूबसूरती पर यक़ीन रखती है। प्रेमपत्र की ख़ुशबू को नहीं चुरा पाएगा कोई प्रेत — “आग की लपटों से/ प्रेम पत्र और भी निखर जाएगा/ प्रलय के दिनों में/ नाव बन जाएगा प्रेमपत्र” । यहाँ कोई बेबसी नहीं है। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी बेबसी से प्रतिकार है।
कवित्व स्मृति, प्रेम और संघर्ष की आकांक्षाओं से भरा है। अंतत: पूजा की कविता नाउम्मीदी में उम्मीद की तलाश है —

“मैं जीना चाहती थी
उस नाउम्मीदी और उदासी में भी
जो टहनी में अटके
पीले पत्ते की तरह थी”

पूजा यादव की कविताएँ

  1. लड़की और रोटी

लड़की से कहा गया
रोटी बनाना सीख लो
एकदम गोल-गोल
जैसे चांद हो
लेकिन
लड़की ने
रोटी चक्र की तरह बना दिया
जो धारदार हथियार था
लड़की से कहा गया
ऐसी रोटी बना
जिसमें एक भी चकत्ता न हो
जैसे किसी अप्सरा का रूप हो
लेकिन
लड़की ने ऐसी रोटी बना दी
जैसे चेचक के दागों वाला चेहरा
जिसकी कुरूपता असह्य हो
लड़की से कहा गया
ऐसी रोटी बना
जैसे यौवन से भरी
नायिका के वक्ष हों
लेकिन
लड़की ने ऐसी रोटी बना दी
जो पिचकी सी थी
जिसकी सौंदर्यशास्त्र के ढांचे में
कोई जगह नहीं थी
लड़की जितनी बार रोटी बनाती
उतनी बार तोड़ती
पितृसत्ता के मानकों को
लड़की के लिए
जैसे
रोटी प्रतिरोध का जरिया बन गया
जिसे वह बार-बार दोहराती
इस तरह लड़की
रच रही थी
प्रतिरोध की एक और कला।

  1. प्रेमपत्र

आती रहेगी प्रेमपत्र की खुशबू
किताबों के पन्नों से
उस खुशबू को कैसे निकाल पाएगा प्रेत
पहाड़ों की दरकनों में भर जाएगा
प्रेमपत्र का एक-एक अक्षर
उन पहाड़ों को कैसे नोच खाएगा गिद्ध
बारिश से गला हुआ प्रेमपत्र
समुद्र की गहराइयों तक पहुंच जाएगा
आग की लपटों से
प्रेमपत्र और भी निखर जाएगा
प्रलय के दिनों में
नाव बन जाएगा प्रेमपत्र
वे लगाते रहेंगे बंदिशें प्रेमपत्र पर
फिर भी लिखा जाता रहेगा प्रेमपत्र
और इस तरह
सृष्टि के अंत तक बचा रहेगा प्रेमपत्र ।

  1. मुझे फख़्र है उस प्रेमी पर

मुझे फख़्र है उस प्रेमी पर
जो अपनी मुठ्ठियों को हवा में ताने हुए खड़ा है
जिसकी आंखों में ज़िद है हक़ की लड़ाई लड़ने की
मुझे फख़्र है उस प्रेमी पर
जिसकी ज़ुबां पर आज़ादी के नारे गूंजते हैं
जो जम्हूरियत के लिए लड़ रहे पूरी आवाम से मोहब्बत करता है
मुझे फख़्र है उस प्रेमी पर
जो अपनी पीड़ा को भी अपनी हिम्मत बना लेता है
जिसके हौसलों को तूफान भी डिगा नहीं पाता है
मुझे फख़्र है उस प्रेमी पर
जिसके विचारों में भगत सिंह,पेरियार,बिरसा,अंबेडकर बसते हैं
जिसे प्रिय है फ़ैज़,पाश और विद्रोही की कविताएं
मुझे फख़्र है उस प्रेमी पर
जो एक मासूम सा बच्चा बन जाता हैअपनी प्रेमिका से लिपट कर
जिसका स्वाभिमान से भरा सिर मां की गोदी में झुक जाता है
मुझे फख़्र है दुनिया के उन तमाम प्रेमियों पर
जो बेबाक,निडर और आत्मविश्वास से भरे होते हैं
जिनके दिलों में बसता है उनका मुल्क ।

  1. मैं तुम्हें बार-बार लिखूंगी

मैं तुम्हें बार-बार लिखूंगी
तुम उतरते जाओगे मुझमें और भी गहराई से
तुम्हारे दर्द को मैं कतरा-कतरा संजो लूंगी
मैं तुम्हें बार-बार लिखूंगी
मेरे कलम की रोशनाई
तुम्हें उजालों से भरती जाएगी
मेरे रंगों से भरे चित्र
तुम्हें नई उम्मीदों से भरते जाएंगे
कुछ इस तरह मैं अपने शब्दों को तुम से भर दूंगी
मैं तुम्हें बार-बार लिखूंगी
जब तुम थक जाओगे
अपने अकेलेपन से निराश हो जाओगे कभी
तब मैं कैनवास सी तुम्हें अपनी बाहों में भर लूंगी
मैं तुम्हें बार-बार लिखूंगी
इस कायनात के आख़िर तक
तुम पढ़े जाओगे मेरे लिखे में
तुम्हें कुछ इस तरह मैं अपने गीतों में रचूंगी
मैं तुम्हें बार-बार लिखूंगी।

5. क्रांति

सदियों से ख़ामोश लब
जब पहली बार बोले
तब हुई क्रांति

काँपते हाथ मुठ्ठी बांधकर
जब पहली बार तने
तब हुई क्रांति

डरी हुई आँखों में भरा
जब पहली बार आत्मविश्वास
तब हुई क्रांति

बेड़ियों से बँधे पाँव देहरी को
जब पहली बार किए पार
तब हुई क्रांति

बुझी हुई राख में बची एक चिंगारी
जब पहली बार बनी आग
तब हुई क्रांति

एक स्त्री ने हिम्मत की जलाई
जब पहली बार मशाल
तब हुई क्रांति

और
जिस दिन आधी आबादी निकल पड़ेगी,
बेख़ौफ़
लेने अपने अधिकार,चुनने अपनी राह
उस दिन दुनिया की
सबसे खूबसूरत और नायाब क्रांति होगी।

6. फटी बेवाइंयां

मां की फटी बेवाइंयों की चुभन
रात को हल्की छुवन से
मुझमें भर जाती है
मैं सिहर जाती हूँ
अपने पैरों को खींच लेती हूँ
लेकिन वह दर्द धीरे धीरे मेरे भीतर रिसता जाता है
और मेरी नींद उन बेवाइंयों के खुरदुरे पन में जा उलझती है

मैं देखती हूँ अंधेरे में
खिड़कियों से आती रोशनी के बीच
मां के चेहरे को
उसके माथे को सहलाती हूँ
उसकी सांसो की आवाजाही को
चुपचाप सुनती हूँ
और सोचती हूँ
क्या सचमुच सो गई है मां……

7. स्मृतियां

स्मृतियां गीली मिट्टी की मानिंद लिपटी रहती हैं
मन की दीवारों से
और जब बहती है ठहरी हुयी हवाएं तो बिखर जाती है खुश्बू की भांति
कितना कुछ भरा रहता है एक साथ इन स्मृतियों में
कभी खिलते हैं हंसी के फब्बारे तो कभी आंखे भर जाती है दर्द की दरकनों से

स्मृतियां सँजोए रखती है संघर्षों की अनगिनत कहानियां अपने भीतर

स्मृतियों को हमारा चुप रह जाना रास नहीं आता
इस तरह बार-बार लौट आती हैं स्मृतियां

और जब लौटती हैं स्मृतियां
तो कुरेदती है हमारी अंतरात्मा को
हमसे बार-बार पूछती हैं
आख़िर हम चुप क्यों थे उस वक़्त
जब जरूरत थी अपनी आवाज को प्रतिरोध की आवाज बनाने की

इस तरह स्मृतियां अनगिनत सवालों से घेर लेती हैं
और बेचैन कर जाती हैं हमें.

8. कविताएं

(1)
अब लिखते-लिखते खुद ब खुद रुक जाते हैं हाथ
कि छूट जा रहा है कितनों के हिस्से का दर्द

अब गाते-गाते कही गुम हो जाती है आवाज़
कि कहीं कोई कर रहा है लोरियों का इंतज़ार

अब हंसते-हंसते उदासी से भर जाती हैं आंखे
कि कोई सिसक रहा है सदियों से अभी

अब चलते-चलते ठिठक जाते हैं ये कदम
कि भर गए हैं छालों से हजारों के पाँव

(2)
अब नहीं पढ़ती में किसी ईश्वर की गाथा
कि न जाने कितनों के साथ हुआ अन्याय

अब मैं नहीं चढ़ाती किसी मंदिर में दूध
कि अभी भी भूखे मरते हैं हजारों लोग

अब मैं नहीं खुश होती बनकर कोई देवी
कि जो हर रोज होती हैं बलात्कार की शिकार

अब मैं नहीं सुनती ऋषियों की वाणी
कि जिसने छीना हमारी सृजनात्मकता का आधार

(3)
अब मैं बोलती हूँ अपने जैसे हजारों के लिए
कि जिसे गूंगा बना हाशिये पर धकेला गया

अब मैं पढ़ती ही नहीं,लिखती भी हूँ
कि अब नहीं रही तेरे विचारों की गुलाम

अब मैं ख्वाब देखती ही नहीं,पूरे भी करती हूँ
कि ख्वाबों पर रहा नहीं बस तेरा अधिकार

अब मैं मेरे आँचल को बांध लेती हूँ माथे पर
कि ध्वस्त करने हैं तेरे बनाये सभी प्रतिमान.

9. मेरा बलात्कार

कोई अजूबा तो न था
रोज ही तो पढ़ती थी बलात्कार की खबरें
अंतर आज इतना ही है कि
एक और बलात्कार की खबर छपी
जिसे मेरे सिवा सबने पढ़ा
फिर कैसे अजूबा हो सकता है
मेरा बलात्कार

न जाने कितने अखबार में
बिलखते माँ बाप की तस्वीरें छपती है
तब हम देखते हैं अपने घर में
खेलती नन्हीं बिटिया को
और फोन से बात करते हैं
शहर में पढ़ रही बिटिया से
फिर सुकून से एक लम्बी सांस भरते हैं
उन्हें महफूज़ पाकर
और पलट देते हैं अखबार का पन्ना
इसी तरह दफ़्न हो जाती है
बिलखते माँ बाप की उम्मीद

सड़कों पर न जाने कितने हादसों के शिकार होते हैं
आज मैं भी जला दी गई
मेरी बची उम्मीदों के साथ
शायद आज तुम्हारी आंखें नम हुई थी
तब तुमने चश्मा निकाल
आंसुओं में बह रही
मेरी उम्मीदों को भी पोंछ दिया
फिर तुम चश्मा लगा कर
अखबार का पन्ना पलट
मनोरंजन की खबरें पढ़ने लगे

और भूल गये
मेरा बलात्कार
मुझ कराहती हुई की उदास आंखें
तुम सब भूल गये
आखिरी पन्नों के साथ अपनी मुस्कुराहट में.

10. उम्मीद

मैं जीना चाहती थी
उस नाउम्मीदी और उदासी में भी
जो टहनी में अटके
पीले पत्ते की तरह थी।

11. चेतना पारीक

ट्राम में एक याद
यही कविता है न
जो तुमने मुझे पहली बार सुनाई थी

तुम सुना रहे थे
और मैं डूबती जा रही थी कविता में

मुझे लग रहा था
तुम कवि हो उस कविता के
और मैं चेतना पारीक

मैं उतार लेना चाहती थी
तुम्हारी तस्वीर
जब तुम पढ़ रहे थे
उस कविता की एक नन्ही सी पंक्ति

‘देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है’

तब मैं कहना चाहती थी
तुम्हारे शहर की भीड़ में भी
मेरे आकार के बराबर जगह सूनी रहेगी

तुम महसूस करना मुझे
मैं तुम्हें पहले जैसे ही मिलूँगी

कुछ कुछ खुश
कुछ कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास

तुम भर लेना मुझसे
अपने भीतर के सुने कोने को
और डूब जाना
हल्की मुस्कुराहट लिए
खुद में

तुम देखना मुझे अपनी बंद आँखों से
फिर धीरे से पूछना
कैसी हो चेतना पारीक?

12. माई का डर

मुझे चिढ़ होती जब माई
दुप्पट्टा ढंग से लेने को बोलती है

मैं अक्सर उसके पल्लू को खिसकाकर
भाग जाया करती देहरी के पार
वह तुरंत ढकती अपने पल्लू से अपना माथा
और मेरी इस हरकत को
बेहयाई करार देती

मैं खुश होती उसकी इस खीझ पर
और उसके सामने से अपने दुपट्टे को
हवा में लहराते निकल जाती खलिहानों की ओर

जहां काका की नकल करती
और बना लेती पगड़ी इस दुपट्टे से

माई की सोच से कितनी अलग थी काका की सोच
यही सुना माई को
मैं ज़िद करती दुपट्टे को अपने हिसाब से ओढ़ने की

तब माई जैसे डरी हुई मेरे पास आती
और मुझे कसकर अपनी बाहों में छिपा लेना चाहती
जैसे किसी गिद्ध की नज़र मुझपर ताक लगाए हुए हो

माई मुझे उड़ता हुआ तो देखना चाहती थी
लेकिन दुपट्टे को मेरे शरीर से बांधना नहीं भूलती
जिसमें मुझे न जाने क्यों बस घुटन होती
मैं उसे दूर फेंक देना चाहती
फिर न जाने क्यों माई की उदास आंखे
मुझे ऐसा करने से रोक देती है।

मैं माई के आंखों में छुपे उस डर को
आज भी वैसे ही देखती हूँ
अब वह मुझसे कुछ बोलती नहीं
मेरे जीन्स पहनने पर भी कोई एतराज नहीं करती
लेकिन आज भी वह जब मुझे गले लगाती है
तो लगता है
जैसे न जाने कितने गिद्धों की नज़रों से
मुझे बचा लेने की जद्दोजहद कर रही है।


(कवयित्री पूजा यादव का जन्म – उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले में हुआ है।
शिक्षा – काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर।
वर्तमान में ‘पारिस्थितिकी नारीवाद’ से सम्बंधित विषय पर शोधरत है।

इससे पूर्व साखी, वागर्थ और अनीश पत्रिकाओं में कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई हैं।

ईमेल – py014886@gmail.com
दूरभाष – 8400262908
पता – SF2, भगीरथ भवन, महामनापुरी कालोनी
आशा जनरल स्टोर के सामने,
वाराणसी – 221005

टिप्पणीकार पार्वती तिर्की, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से ‘कुड़ुख आदिवासी गीत : जीवन राग और जीवन संघर्ष’ विषय पर शोधरत है।
पता – सोसो मोड़, कार्तिक नगर, गुमला – 835207 (झारखंड)
ईमेल – ptirkey333@gmail.com
दूरभाष – 9262235165)

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