समकालीन जनमत
कविता

पवन करण की कविताएँ साहस एवं सजगता का प्रतीक हैं

अंकिता रासुरी


पवन करण की कविताओं में मौजूदा समाज एवं उसकी विडंबनाएँ मौजूद हैं। कैसे समाज बिखर रहा है बल्कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है ताकि आम लोगों के लिए चीजों को बद् से बद्तर किया जा सके। एक नागरिक, एक कवि के तौर पर पवन करण की चिंताएँ उनकी कविताओं में दिखती हैं।

‘हिमु मस्जिद’ कविता में पवन करण कहते हैं कि जहाँ इस मस्जिद को दोनों धर्मों के सहअस्तित्व एवं एकता की मिसाल होना था यही विभाजन का प्रतीक बन गई है। एक ऐसा समाज गढ़ा जा रहा है जो भविष्य को किसी गहरे अंधकार में झोंक देगा। कविता देश-समाज के इस धार्मिक विभाजन और बढ़ती सांप्रदायिकता पर चिंता एवं दुख ही नहीं जताती बल्कि इसमें इसके सुधर जाने की कामना भी है। ये जो सुधर जाने की उम्मीद है यह कवि की उम्मीद है। हर शख्स जिसे चिंता है उसे बेहतरी की उम्मीद भी होती है और वह उसके लिए कोशिश भी करता है। अगर हमें कोई चिंता नहीं होती है या नहीं करना चाहते हैं तो इसका मतलब हैं हम उस चीज को जैसे का तैसा स्वीकार कर चुके हैं।

मैं अब हि और मु में बंटना नहीं चाहती
हिमु ही बनी रहना चाहती हूँ
मैं जानती हूँ कि अब हिमु मेरा ही नहीं
मेरे हिंदुस्तान का भी कल  है
मैं कहती हूँ कोई मेरे कल से खिलवाड़ न करे

‘इन महलों को तोड़ दो’ कविता बताती है कि राजतंत्र सिर्फ एक शासन व्यवस्था नहीं बल्कि एक विचार है, जो भले ही प्रत्यक्ष तौर पर मौजूद ना हो लेकिन वो हर जगह है। हर दौर में एक वर्ग होता है जो राज करता है सारे विशेषाधिकार उसी के पास होते हैं। वही सब तय करता है और आम आदमी वही पुरानी तंगहाली एवं संघर्षशील स्थितियों में रहने को अभिशप्त होता है। ये राजा भले ही बात लोकतंत्र की करें, लेकिन इनकी करतूतें इसके उलट होती हैं। पवन करण इस कविता में असमानता एवं शोषण के दुष्चक्र को तोड़ने की भी अपील करते हैं ताकि हर इंसान, इंसान की तरह जी सके।

आश्चर्य कि ये महल हमारी सोच हर लेते हैं
उन पर मुग्ध हो हम, हम भूल जाते हैं
उनके वे दुर्दांत व्यवहार जो रहे उनके हमारे साथ
हम भूल जाते हैं होना उनका ताकतवर इतना
कि खुद की आज्ञा को बताने लगना
आज्ञा ईश्वर की और न मानने वाले के लिये
करने लगना निर्धारित दंड और मानने वाले के लिये दया

‘भीड़’ कविता में पवन करण देश में मौजूदा उन्माद और विभाजन की प्रवृत्ति की चर्चा करते हैं कि किस तरह सत्ता, लोगों की भावनाओं को बरगलाकर उन्हें भेड़ चाल चलने पर ही मजबूर नहीं कर रही है बल्कि उन्हें हिंसक भीड़ में तब्दील कर रही है। यह प्रोपेगेंडा हमारे समाज को तोड़ रहा है जो कि बहुत ख़तरनाक है। इस कविता में मौजूद चिंता बहुत सटीक है। हमारे आस पास ऐसे बहुत से लोग हैं जो भेड़ और भेड़ से भेड़िए में बदलने की कगार पर हैं, लेकिन उन्हें खुद नहीं पता कि वो इस प्रोपेगेंडा की गिरफ़्त हैं। वो हमारे आस-पास हर जगह मौजूद हैं।

जैसा कि ‘भीड़’ कविता कहती है कि सब भेड़ और फिर भेड़िये में तब्दील होते जा रहे हैं। ‘हिंदू पुलिस’ कविता भी इसी ओर इशारा करती है। आम आदमी ही क्या पुलिस भी उसी भीड़ का हिस्सा बनती जा रही है। वो सिर्फ पुलिस ही नहीं बल्कि एक धर्म विशेष की पुलिस बनकर रह गई और अपने मूल मकसद से भटकती जा रही है। लेकिन उम्मीद इस कविता में भी है कि काश पुलिस अपने को इस पूर्वाग्रह इस भेड़िए चाल से बचाने में कामयाब हो जाए। पुलिस अपनी जिम्मेदारियों को संविधान के हिसाब से निभाने में सक्षम हो सके। अपनी आँखों पर बंधी धर्म-जाति की पट्टी उतारकर फेंक सके।

मैं अपनी वर्दी में खुद को हिंदुस्तान की पुलिस
की शक्ल में ढूंढती हूँ
मगर मैं वहाँ खुद को हिंदू पुलिस की सूरत में मिलती हूँ

‘नागरिकता’ कविता भी धार्मिक आधार पर भेदभाव को रेखांकित करती है किस तरह देश में मुस्लिमों को टारगेट किया जा रहा है, नागरिकता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। जबकि इसी देश के बाशिंदे है सब। नागरिकता सिर्फ़ एक कागज़ का टुकड़ा नहीं हो सकती बल्कि पीढ़ियों से देश से जुड़ाव ही नागरिकता का सबसे बड़ा सुबूत है।
मुझसे नहीं मेरी नागरिकता के बारे में
देश की मिट्टी से पूछो
वही बतायेगी की उसके आगोश में
मेरी कितनी पीढ़ियां दफ्न हैं
मेरी बल्दियत मुझसे ज्यादा इसे पता है

‘चुनी हुई सरकार’ कविता सरकार एवं पूंजीपतियों के गठजोड़ को उजागर करती है। आज के दौर में देश इस भ्रम में है ये उसकी पसंद की सरकार है जबकि यह पूंजीपति वर्ग के हितों में काम करने वाली सरकार है। लोगों की यह खुशफ़हमी देश के लिए बेहद ख़तरनाक साबित हो रही है। जनता चाहे जिस ख़ुशफ़हमी में रहे सरकार को पता है उसे क्या करना है और किसके लिए काम करना है।

जनतंत्र का मतलब है जनता अपनी पसंद के अनुसार अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करे, लेकिन अभी नौबत यहाँ तक आ गई है कि सरकारें अपनी पसंदीदा जनता चुनें। अयोध्या सीट पर सत्ता पार्टी की हार के बाद अयोध्या की जनता के ख़िलाफ़ प्रोपेगेंडा चलाया जा रहा है। क्या यह प्रोपेगेंडा जनता कर रही है? नहीं यह सत्ता के लोगों द्वारा किया जा रहा है और जनता को उस भेड़ चाल में धकेला जा रहा है। ‘सरकार की पसंद का नागरिक’ कविता का एक अंश-
सरकार को सोता हुआ नागरिक पंसद है
सोचता हुआ नहीं 

‘बीमारी का घर’ कविता नस्लीय एवं धार्मिक एवं सामाजिक भेदभाव पर प्रहार करती है। किस तरह हम आपस में तमाम आधारों पर बँटे हुए हैं, कैसे दूसरों से नफ़रत करते हैं। यहाँ तक कि रोगों को भी उनके समुदाय से जोड़कर देखते हैं। अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे कि उनके पास जो कुछ भी मौजूद है वो बहुसंख्यक आबादी का एहसान है।

‘किसान तिरंगा’ कविता में पवन करण ने किसान आदोंलन के मुद्दे को उठाया है। सरकारें किसी की नहीं सुनती ना किसानों की ना जवानों की ना अल्पसंख्यक ना किसी की भी पीड़ित की। आंदोलनकारी किसान दरअसल खुद की ही लड़ाई नहीं बल्कि पूरे देश की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनका संघर्ष सबके लिए है। किसान संघर्ष को तिंरगे के प्रतीक से जोड़कर इसे संविधान और देश को बचाने की लड़ाई बताया गया है।

सफ़ेद रंग के कागज़ पर लिखे
संविधान जैसी सड़क पर
किसान तिरंगे ने खुद को फ़हरा लिया है।

‘महामारी में सरकारें’ कविता में पवन करण ने कोरोना महामारी से निपटने में सरकारों की नाकाम का पक्ष भी दिखाया है।  ये सिर्फ़ हमारे देश नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर देखने को मिला। किस तरह सरकारें नाकाम होते हुए भी खुद को हीरो बनाकर पेश करती रहीं।

अभी पिछले दिनों ही कोविशील्ड स्कैम तो वैसे भी पूरी दुनिया के सामने आ ही गया है। महामारी की आड़ में किस तरह ज़्यादतियाँ की गईं। चाहे कोई भी देश हो सबने अपनी-अपनी छवियों को चमकाया, अपने हिसाब से काम किया। देश के नागरिकों की ज़रूरतों और प्राथमिकताओं को ध्यान में नहीं रखा बल्कि आपदा में भी अपने लिए अवसर खोज लिया।

‘हिंदू देश’ कविता में देश के बदलते हालात एवं हिंदूकरण की कोशिशों पर सवाल उठाते हुए सिर्फ़ सरकार को कठघरे में नहीं खड़ा किया है बल्कि न्यायपालिका एवं चुनाव आयोग के साथ-साथ मीडिया के हिंदूकरण पर भी सवााल उठाए हैं। शॉर्ट टर्म लाभ के लिए इस सरकारी साजिश में शामिल होते संस्थानों और व्यवस्था पर सवाल उठाया है।
देश इतना हिंदू होकर क्या करेगा
देश इतना हिंदू होकर ज्यादा मरेगा।

पवन करण जैसी कविताएँ लिख रहे हैं ये काफ़ी साहसिक काम है वो भी ऐसे समय में जब सरकारें ही नहीं बल्कि आसपास के समाज को भी असहिष्णु बनाकर नफ़रत से भरा जा रहा है। पवन करण हमारे दौर के स्थापित कवि हैं मेरी टिप्पणी उनकी कविताओं को पढ़ने के क्रम में लिए गए नोट्स की तरह हैं आप ‘समकालीन जनमत’ पर प्रस्तुत उनकी कविताओं से रूबरू होकर इन कविताओं के मिज़ाज को ज़्यादा बेहतर समझ सकेंगे।

 

 

पवन करण की कविताएँ

1. हिमु मस्जिद

मेरा नाम मस्जिद हिमु है, सदियों से,
मैं हिंदुस्तान की ज़मीन पर खड़ी हूँ
हिमु मस्जिद मुझे अपना यह नाम बहुत पसंद है
हिमु यानि हिन्दू-मुस्लिम मस्जिद

कैसे कहूँ जब मुझे बनाया गया
एक मंदिर को मुझमें शामिल कर लिया गया
तब मुझे भी इस बात का बुरा लगा
कि मुझे बनाने के लिये आखिर एक मंदिर को
मुझमें शामिल करने की क्या ज़रुरत थी
एक ऐसे मंदिर को जिसमें
अपने सुख-दुःख लेकर बहुत लोग आते-जाते

मगर मैं मंदिर को शामिल करते हुए
ख़ुद को बनने से नहीं रोक सकी तब से
मैं एक ऐसी मस्जिद हूँ
जिसमें एक मंदिर भी शामिल है
हिमु मस्जिद अपना यह नाम मैने खुद रखा

तब से मेरे दो दरवाज़े हैं जिसमें से एक
मंदिर के लिए खुलता है, एक मस्जिद के लिए
एक के भीतर पूजा-पाठ होती है
तो एक के अंदर नमाज़ पढ़ी जाती है

देखते-देखते मंदिर और मैं आपस में
इस कदर घुल-मिल गये हैं कि हमें
लगता ही नहीं कि हम दो अलग पहचान हैं
हमारी ईंटो और पत्थरों नें एक-दूसरे को
ईद-दीपावली पर बधाई देते हुए गले मिलते
मनुष्यों की तरह अपनी बाँहों में बांध रखा है

मेरी दीवारों को साथ में गा-गाकर
मंदिर में गाईं जाने वालीं आरतियाँ रट गयी हैं
ठीक उसी तरह हर बार मंदिर की दीवारें
अजान के स्वर में अपना स्वर
मिलाये बिना नहीं रहतीं, उनके लिए
आरती और अजान दोनों एक हैं

न के बराबर नमाजी हैं, जिन्हें मुझमें शामिल
मंदिर पर गर्व है, पूजापाठियों ने भी
गंगाजमना की दो लहरों सा इसे साध लिया है
मगर मैं देखती हूँ कि कब की एक मासमज्जा हुईं
मेरी और मंदिर की दीवारों में घबराहट है
उन्हें लग रहा है कि जिस तरह उन्हें
एक-दूसरे से जोड़ दिया गया था उसी तरह उन्हें
अब एक-दूसरे से अलग कर दिया जायेगा

ईट, पत्थर, बजरी, गारा एक होने के बावजूद
जब मेरी और मंदिर की दीवार को जोड़ा गया
तब दोनों दीवारें एक-दूसरे के लिए अजनबी थीं
मगर जब वे एक-दूसरे के इतने करीब पहुंचीं
तो एक होती चली गई, इतनी एक
कि उन्होंने मान लिया कि मंदिर-मस्जिद
कि होने के बावजूद उनका सच यही है
कि वे अब एक हैं और आगे भी एक ही रहेंगीं

एक रहना कितना कठिन हो गया है न
पूजकों और नमाजियों की बुदबुदाहट
मुझे साफ-साफ सुनाई देती है
जबकि हम रह सकते हैं, हम रहते आये हैं
जब बे बड़बड़ाते हैं मेरे हृदय की
धड़कने बढ़ जाती हैं, आशंका की
अनगिनत लकीरें मेरे माथे पर उभरने लगती हैं
मैं अब हि और मु में बंटना नहीं चाहती
हिमु ही बनी रहना चाहती हूँ
मैं जानती हूँ कि अब हिमु मेरा ही नहीं
मेरे हिंदुस्तान का भी कल है
मैं कहती हूँ कोई मेरे कल से खिलवाड़ न करे

जिसके साथ मैंने इतना लंबा जीवन जी लिया
मुझे उस मंदिर से जुदा न करे।

 

2. इन महलों को तोड़ दो

आगे बढ़ो और जनता की राह में रूकावट
माल-असबाब से भरे इन महलों को तोड़ दो,
इनके भीतर अब भी देखा जाता है सपना राजतंत्र का

ये महल खड़े हैं तो अब भी इनकी सोच में
खड़ा है सपना राज का उस राज का जिसमें
प्रजा को बता सकेंगे वे खुद को ईश्वर का अवतार

जिन्हें होना चाहिये मिट्टी उनके उन महलों को देखो
कि वे किस तरह ठसाठस भरे संधियों में मिले उपहारों से

हम ढहा दें उन्हें आज कि वे हमें दिलाते याद
इन महलों के लिये बहे हमारे खून-पसीने
और हमारी पीठों पर बरसे कोड़ों की
कि इन महलों से अधिक रक्तरंजित
और उबलता हुआ हमारा इतिहास
इन महलों में लगे संगमरमर जितने सफेद
हमारे चेहरे अब भी उतने स्याह

ये महल हमारे दम से कितने मजबूत
कि इनकी नीव में दबी हमारी चीखें
कि इनकी नीव में खंडे बनकर लगी हमारी हड्डियां
कि इनकी नीव में हमारी राख हमारा रक्त

ये महल अब भी जच्चाखाने
जन की जगह राजा को जनने के
ये महल अब भी स्कूल राजा को गढ़ने के
ये महल अब भी जन को रौंदते हुए ऊपर चढ़ने के

हमारे विगत में शूल की तरह गढ़े ये महल
देते दुहाई हमसे अपने पारिवारिक रिश्तों की
वे कौन से रिश्ते हैं जिनके बारे में वे बार-बार
हमसे कहते हैं, हमारा और उनका कैसा रिश्ता

रिश्ता तो राजा और राजा के बीच होता है
महल और महल के बीच होता है
जनता और राजा का कैसा रिश्ता
झोपड़ी और महल का कैसा रिश्ता

इन महलों में रहने वाला राजा कभी
रोटी खाने आया चूल्हे की राख से मंजी
हमारी थाली में, रोने आया कभी तपेदिक से मरे
हमारे पुरखे की मौत पर कभी आया ब्याह के समय
हमारी बेटी को विदा करने बल्कि वह तो
छीनकर ले गया हमारी कितनी ही बेटियां

ये महल जब तक रहेंगे खुद को अब भी
राजा मानते ये राजा खुद को राजा मानते रहेंगे
उसके भीतर राजतंत्र की चाह नहीं टूटेगी कभी
ये महल तब तक उसके भीतर से
राजतंत्र की आदिम चाह नहीं टूटने देंगे
जब तक हम नहीं तोड़ देंगे इन्हें

जब ये महल टूटेंगे तभी उनके भीतर की
यह चाह टूटेगी कि कभी भी लौट सकते हैं हम
कि कभी भी प्रजा के बीच से होकर
हाथी के हौदे पर बैठकर
हमारे दीर्घायु होने की जय-जयकार करती
राजांध जनता के बीच से गुजर सकते हैं हम

जब यह महल टूटेंगे तभी टूटेगी उनकी यह चाह
कि जितनी जल्दी हो राज आये कि अब भी
सुरक्षित यह महल, अब भी हमारा राजसिंहासन सुरक्षित
राज्यरोहण का सोने का थाल सुरक्षित रंगबिरंगे अंगरखे
सुरक्षित पगड़ी, भाले, तलवारें और कृपाण

आश्चर्य कि ये महल हमारी सोच हर लेते हैं
उन पर मुग्ध हो हम, हम भूल जाते हैं
उनके वे दुर्दांत व्यवहार जो रहे उनके हमारे साथ
हम भूल जाते हैं होना उनका ताकतवर इतना
कि खुद की आज्ञा को बताने लगना
आज्ञा ईश्वर की और न मानने वाले के लिये
करने लगना निर्धारित दंड और मानने वाले के लिये दया

बताने लगना यह कि उन्होंने राजा रहते बनाये
अपनी बहन बेटियों के नाम स्कूल और अस्पताल
कि उन्होंने बनाईं हमारे लिये अपने नाम की सड़कें
कि उन्होंने मंदिरो को किया हमसे ही
जबरन छुड़ाये गये रूपयों का दान और हमेशा
खड़े दिखे जोड़े हाथ ईश्वर की मूर्ती के आगे

कि हमने अब भी उन्हें लाद रखा अपनी पीठ पर
कि अब भी छाती पर हमारी उनके पांव
कि अब भी गर्दन पर हमारी उनके हाथ
और अब भी लगातार यह अधिकार उन्हें सौंपते जाते हम

मगर हम अब राजा को धकेल सकते गड्डे में
जमा सकते उसके पीछे कसकर लात
दिखा सकते उसे उसका कमतर होना
मिट्टी में मिलाकर रख सकते उसके ये महल

अब वे आयें तुम्हारे पास उनके हाथ जोड़ने के ढंग
और उनके बहरूप पर हंसना जोरों से
बस हंसना और मत देना कोई जबाव
बस जाना और इनके उन महलों को जो
ताकतवर बना रहे इनको और राज की दिला रहे याद
उन महलों की दीवार पर हथौड़ा मार आना जोरों से

हम उनके इन महलों को नहीं तोड़ेगे
तो कल ये ही फिर से हमारा मनुष्य-महल तोड़ देंगे।

 

3. हिंदू देश

संसद, विधानसभाएं, केंद्रशासित प्रदेश
नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक आदि
हिंदू होने के लिए छटपटा रहे थे

न्यायापालिका हिंदू होने के लिए
मरी जा रही थी

चुनाव आयोग हिंदू होने के लिए
बेचैन था बहुत

पत्रकारिता तो जैसे हिंदू होने के लिए
तलाश में थी पुचकार की

तो सबके दिल की हुई जा रही है
देश हर क्षण हिंदू हुआ जा रहा है

मगर

देश इतना हिंदू होकर क्या करेगा
देश इतना हिंदू होकर ज्यादा मरेगा।

 

4. भीड़

हम भीड़ थे इसलिये उनके लिये मुफीद थे
भीड़ से भेड़ो में बदलकर
हमें हांक लेना आसान था उनके लिये

हांककर उन्होंने हमें भेड़ ही नहीं रहने दिया
भेड़ियों में बदल दिया रंगकर

उन्होंने दाढ़ों में खून लगाकर हमारी
हमें हमारे शिकार भी बता दिये

शिकार भी वे जो सदियों से हमारे साथ
रहते आये, सुबह—शाम जो हमें
और हम उन्हें दुआ—सलाम कहते आये

अब हम हर वक्त अपने शिकार पर गुर्राते रहते हैं
और एक दिन हम उन्हें जरूर खा जायेंगे
खुद को इस बात का विश्वास दिलाते रहते हैं।

 

5. हिंदू पुलिस

मैं अपनी बर्दी में खुद को हिंदुस्तान की पुलिस की शक्ल में ढूंढती हूं
मगर मैं वहां खुद को हिंदू पुलिस की सूरत में मिलती हूं

मुझे तो देश की पुलिस होना था
मगर मैं बस धर्म की पुलिस कैसे बन गई
मैं तो सबके लिये थी मगर मैं कुछ की कैसे रह गई

मैं भी देश के मुसलमानों को
कट्टर हिंदुओं की तरह गालियां देने लगी
उनसे पाकिस्तान जाने को कहने लगी
उनके जलते हुए घर देखकर चुप रहने लगी
उन पर गोलियां दागने के आदेश का इंतजार करने लगी

जमीन पर खून से लथपथ उनसे वंदेमातरम
गवाने और उसके के और उसके वीडियो बनाने लगी
बार—बार हाशिमपुरा दोहराने को कसमसाने लगी

हिंदू पुलिस से बचने, हिंदू पुलिस से लड़ते
हिंदू पुलिस पर पत्थर फैकते हिंदुस्तानी मुसलमानों पर
देशद्रोह के मुकदमे दर्ज करने लगी

जातियों छूतों—अछूतों में बंटी
आखिर मैं कैसे ऐसी हिंदू पुलिस में बदल जाती हूं
कि मुसलमानों को मारने आगे बढ़ते
हिंदू दंगाई मुझे अपनी बताने लगते हैं

अपने दंगाई चेहरे में मेरा चेहरा मिलाने लगते हैं
एक बेशर्म हंसी मेरे होठों पर चिपकाने लगते हैं

मुझ हिंदू पुलिस से हिंदुस्तानी मुसलमान डरते हैं
मैं उन्हें उनकी पुलिस नहीं लगती, मैं उन्हें
हर जगह बस हिंदुओं की पुलिस नजर आती हूं

हिंदू पुलिस की जगह क्या मैं बस
हिंदुस्तान की पुलिस नहीं हो सकती
क्या मैं हिंदू और मुसलमान दोनों की पुलिस नहीं बन सकती
क्या मैं धर्म की जगह बस अपने
संविधान की पुलिस नहीं हो सकती

हो सकती हूं, जरूर हो सकती हूं, मैं आज से ही
हिंदू पुलिस की जगह हिंदुस्तान की पुलिस हो सकती हूं

आज और अभी से हिंदू पुलिस की जगह
हिंदुस्तान की पुलिस होने की शुरूआत कर सकती हूं

मैं खुद पर लगा हिंदू पुलिस का कलंक मिटा सकती हूं
मैं हिंदुस्तान की पुलिस होकर, हिंदू—मुस्लिम
दोनों तरफ के दंगाईयों पर लगाम लगा सकती हूं।

 

6. पुलिस

बंदूक चलाते वक्त तुम्हें
बस मेरा चेहरा दिखाई देता है
मगर गोली खाते समय मुझे तुम्हारे चेहरे में
दूसरा चेहरा नजर आता है

मुझे सबक सिखाने एक बार फिर से
उन्होंनें तुम्हें भेज दिया
तुमसे बचने मैंने एक बार फिर से
अपने हाथों में पत्थर उठा लिये

दूर से तुम पर फैके जाने वाले पत्थरों
और पास आकर मुझ पर
टूट पड़ने वाले डंडों में कोई अंतर नहीं

मेरे पत्थर और तुम्हारे डंडे
उन तक कभी नहीं पहुंचते
जो हमें हर बार एक—दूसरे के
सामने खड़ा कर देते हैं

जिसके चलते तुम मुझसे
कितनी घृणा करने लगे हो
और मैं तुमसे कितना डरने लगा हूं

तुमसे लड़ते हुए मैं गद्दार कहलाता हूं
मुझे मारते हुए तुम हत्यारे हो जाते हो

मरने के बाद कब्रिस्तान में
मैं दफ्न हो रहा होता हूं
मुझे मारने के बाद तुम थाने में
सबूत दफ्न कर रहे होते हो

 

7. नागरिकता

मुझसे नहीं मेरी नागरिकता के बारे में
देश की मिट्टी से पूछो
वही बतायेगी की उसके आगोश में
मेरी कितनी पीढ़ियां दफ्न हैं
मेरी बल्दियत मुझसे ज्यादा इसे पता है
इसने मेरा खून मलमूत्र चलना दौड़ना
गिरना उठना औलाद की तरह स्वीकारा है
इसने मुझे कहीं नहीं जाने दिया
जो इसे छोड़कर चले गये दूर रहकर भी
इसे अपना बताते रहे
ये उन्हें शिद्दत से याद आती रही
मिलने पर हाथ चूमते और
फूट फूटकर रोते हुए कहते रहे
हमारी तुम्हारी मिट्टी एक है
जिसमें पुरखे दफ्न हों
मजा उसी मिट्टी में मिलने का है
मेरी नागरिकता के सभी दस्तावेज
इसकी रगों में सुरक्षित हैं
इसने मुझे मुसलमान नहीं मनुष्य माना है

 

8. चुनी हुई सरकार

अंतत: उसने अपनी सरकार ही चुन ली

हालाकि उसके पहले की सरकार भी
उसके कहने पर ही काम करती थी
उसे लाभ पहुंचाने वाली योजनाएं
और उसे बचाने वाले कानून गढ़ती थी

तब भी वह देश की सरकार कहलाती थी
और देश हमेशा सरकार को उसकी कारगुजारियों पर
लगाम लगाये रखने को बाध्य करता था

ऐसे में कभी—कभार सरकार के आगे उसे
हाथ जोड़कर खड़ा होना पड़ता था
जो उसकी बढ़ती जातीं लालसाओं में
कांटे की तरह गढ़ता था

तो खिसियाकर उसने देश के लिये
अपनी पसंद की सरकार चुन ली
अपनी पसंद की सरकार समझकर
देश ने उसे बाद में चुना

देश को लगता है वह उसकी सरकार है
सरकार जानती है वह किसकी सरकार है

देश को लग रहा है सरकार को उसने चुना है
सरकार को पता है कि उसे किसने चुना है।

 

9. सरकार की पंसद का नागरिक

सरकार को सोता हुआ नागरिक पंसद है
सोचता हुआ नहीं

सुनता हुआ नागरिक पसंद है
कहता हुआ नहीं

दुम दबाता हुआ नागरिक पंसद है
सींग दिखाता हुआ नहीं

सरकार को बोट देकर उसे चुनता हुआ
नागरिक पसंद है उसे बदलता हुआ नहीं

हम इस सरकार की पसंद के नागरिक हैं।

 

10. मैं उनके साथ हो लिया हूं

मैने अपने किसान पुरखों को नहीं देखा
मगर जिन्होंने उन्हें देखा वे बतलाते हैं
मेरा चेहरा उनसे मिलता है

मुझे वे खेत भी देखने को नहीं मिले
जिनमें मेरे पुरखे खेती करते थे
जो आज होते तो मेरे कहलाते

मेरे अंदर गांव, खेत और अपने
किसान पुरखों को लेकर
हमेशा हूक उठती रही

मगर मुझे आज अचानक अपने
खेतों को बचाने के लिए लड़ते
सभी पुरखे मिल गये एक-एक कर
मैने उन्हें पहचान लिया

मैं उनके साथ हो लिया हूं
मैं उनके जैसा दिख रहा हूं
मुझे अपने खेत और उनमें
खड़ी फसलें दिखाई दे रही हैं

अपने पुरखों के साथ धरने पर बैठे
और नारे लगाते हुए आप भी मुझे पहचान सकते हैं। ।

 

11. बीमारी का घर

तुम अफ्रीकी हो
तुम्हारे कंधे बहुत मजबूत हैं
तुम अपने कंधों पर
बीमारी लादकर लाते हो
और उसे हमारे बीच छोड़ देते हो

तुम काले हो
तुम्हारा और बीमारी का रंग एक सा है
तुम्हारे रंग में बीमारी छिप जाती है
वो हमें देखती है और उछलकर
हमारे गोरे रंग से चिपक जाती है

तुम अल्पसंख्यक हो
तुम कितने गंदे रहते हो
बीमारी तुम्हारी सांसो में
घर बनाकर रहती है
तुम अपनी सांसें हर समय
हमारे आसपास छोड़ते रहते हो

इसके बावजूद कि हमनें तुम्हें
रहने को जगह
खाने को अन्न
दफ्न होने को कब्रिस्तान दे रखे हैं
तुम हम दुनिया के मालिकों को मारने का
कोई अवसर नहीं छोड़ते

 

12. अस्पताल से अपील

बांधने के लिए पट्टियां, घाव साफ करने के लिए स्प्रिट रुई,
बुखार उतारने और दर्द कम करने के लिए
दवाइयां, इंजेक्शन पहले से देखकर रखना
चिकित्सक, नर्स, बार्डवाय मौजूद रहना अस्पताल में
उनकी बात में शामिल है तुम्हारी बात भी

इकट्ठे होकर सरकार से अपनी बात कहने के लिए निकले
पुलिस की लाठियों से घायल नौजवान आयेंगे
तब उन्हें तत्काल तुम्हारी मदद की जरुरत होगी
सरकार उन्हें अपनी बात कहने, एकजुट होने,
नारे-झंडे-पोस्टर लगाने से रोकने के लिए,
उन पर पानी की तेज बौछारें करवाने
आंसू गैस के गोले छुड़वाने के साथ-साथ
उन पर लाठियां भी बरसवायेगी, वे घायल होते जायेंगे
मगर सरकार से अपनी बात कहने से नहीं चूकेंगे

उन्हें अपनी बात कहने से रोकने के लिए
लाठियों से पीटकर सरकार ने उन्हें किस कदर
घायल किया है जिनमें से कुछ तो मरणासन्न होंगे
ये बात सरकार के कहने पर टीवी-अखबार
छुपा जायेंगे, मगर तुम्हें पता होगी कि सरकार से
अपनी बात कहने के लिए इकट्ठा हुए
नौजवानों को रोकने की सरकार ने कितनी बर्बर
कोशिश की और यह कोशिश उस जगह की गई
जो जगह कहने-सुनने के लिए ही निर्धारित है
जिस जगह अक्सर सरकार की कही सुनने
और अपनी कहने लोग जमा होते आये हैं

इस सरकारी अस्पताल से कम से कम यह उम्मीद
तो की ही जा सकती है कि सरकार को अपनी
बात सुनाने इकट्ठा हुए मगर सरकार की लाठियों से
पिटकर लौटे इन नौजवानों को जिनमें से
अधिकतर ने ऐसे ही सरकारी अस्पतालों में
लिया जन्म को पट्टी-रुई, बुखार उतारने और
दर्द कम करने की दवाइयां तो उपलब्ध करा दे

कभी अपनी पहली रुलाई इन अस्पतालों के कानों में
छोड़कर गये ये युवा आज कराहते हुए लौटे हैं।

 

13. आपदा

अकाल में अन्न के अभाव में
हम बहुत सारे मारे गये

बीमारी में दवाईयों के बिना
हम खूब सारे जिन्दा नहीं बचे

बाढ़ में, तूफान में, भूकंप में
हम ढेर सारे दुनिया में नहीं रहे

हमारे बड़ी संख्या में मरने से
आपदाएँ कहलाईं बड़ी

इस आपदा का बड़ा कहलाना भी
हमारे बड़ी संख्या में मरने पर टिका है

छोटे-छोटे घरो में अपने बड़े-बड़े
परिवारों के साथ बुरी तरह ठुसे हम

खाने के लिये सबके आगे अपने पेट
और अस्पतालों के सामने
दवाईयों के लिये अपने हाथ पसारे हम

हम.. हम.. हम.. हम.. हम

 

14. महामारी में सरकारें

दुनिया की तमाम सरकारें महामारी में भी एक सी हुईं साबित

एक सरकार ने अपने देश की जनता को
पहले ही उसके मरने की संख्या बता दी

एक सरकार को लेकर ये संदेह गहरा है
कि उसने दुनिया से अपने देश में
मरने वालों की संख्या छुपा ली

एक सरकार ने खुद को सदा के लिये
देश की सरकार बनाये रखने
अपने देश का संविधान ही बदल लिया

एक सरकार ये कहते हुए कि वह
अपनी जनता को मरने से बचाने के लिये
कुछ नहीं कर सकती
फूट-फूटकर रोती दिखाई दी

एक सरकार इस महामारी को भी
उत्सव और अवसर में बदलने और
जनता के बीच फूट बोने में लगी रही

कुछ सरकारें तो अपने देश के
धर्मांधों के आगे झुकने के मामले में
इतनी एक सीं दिखाई दीं कि उनके देश के
शमशान और कब्रिस्तान लाशों से पट गये

 

15. किसान तिरंगा

लाल किले, संसद, राष्ट्रपति भवन
और शहीद स्मारक पर
जो तिरंगा फहरा रहा है
वह वहां बस कपड़ा बचा है

तिरंगे से निकलकर चक्र
आंदोलनकारी किसानों की
ट्रॉलियों के पहियों में
बदल चुका है

हरे रंग ने किसानों के कुर्तों
और पगड़ियों के रंग में बदलकर
फसलों की शक्ल
अख्तियार कर ली है इन दिनों
जिसे उन्होंने पहन रखा है

केसरिया रंग बलिदान हो रहे
किसानों की लाशों से लिपटकर
उन्हें उस मिट्टी तक
पहुंचा रहा है जिसे बचाने
ठंडे मौसम से भी ठंडी
सरकार से वे जूझ रहे हैं

सफेद रंग के कागज पर लिखे
संविधान जैसी सड़क पर
किसान तिरंगे ने खुद को फहरा लिया है।

 

16. जनता की हार

जनता को हराया जा रहा है

जिस जनता ने उसे चुना
उसी जनता को हराकर
राजा हो रहा है खुश

राजा के पास अपनी जनता से
हारने का हौसला नहीं
उसके साथ अपनी जनता को
हराने की हिमाकत है

जनता को हारता देख
राजा के मंत्री-संत्री
बजा रहे हैं तालियां
गलियों में नाच रहे विदूषक

खुद को खुद के राजा की
कोशिशों से हारते देख
हताश नहीं जनता हार से
उसकी पहचान बड़ी पुरानी

हार-हार कर ही
वह राजा को हरा पायेगी
जिंदा होने की अपनी
पहचान बचा पायेगी

जो उसे हर बार खड़ा कर देती है
उसे उस मिट्टी पर भरोसा है


 

कवि पवन करण का जन्म 18 जून, 1964 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की। जनसंचार एवं मानव संसाधन विकास में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि।

उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं-‘ इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाजू पर बटन’, ‘कल की थकान’, ‘स्त्रीशतक’ (दो खंड) और ‘तुम्हें प्यार करते हुए’। अंग्रेजी, रूसी, नेपाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, असमिया, बांग्ला, पंजाबी, उड़िया तथा उर्दू में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं और कई कविताएँ विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं।

‘स्त्री मेरे भीतर’ मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, उर्दू तथा बांग्ला में प्रकाशित है। इस संग्रह की कविताओं के नाट्य-मंचन भी हुए। इसका मराठी अनुवाद ‘स्त्री माझ्या आत’ नांदेड महाराष्ट्र विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल और इसी अनुवाद को गांधी स्मारक निधि नागपुर का ‘अनुवाद पुरस्कार’ प्राप्त। ‘स्त्री मेरे भीतर’ के पंजाबी अनुवाद को 2016 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।

उन्हें ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रजा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।

सम्प्रति : ‘नवभारत’ एवं ‘नई दुनिया’, ग्वालियर में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का सम्पादन तथा साप्ताहिक-साहित्यिक स्तम्भ ‘शब्द-प्रसंग’ का लेखन।

ई-मेल : pawankaran64@rediffmail.com

 

टिप्पणीकार अंकिता रासुरी, 5 मई 1991 टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड में जन्म। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। जनसंचार में एमए एवं एमफिल। ‘देहात’ एग्रीटेक कंपनी में सीनियर कंटेट राइटर के तौर पर कार्यरत। फिलहाल गुरुग्राम में निवास।

सम्पर्क: मोबाइल नं.- 8319320157
ईमेल- ankitarasuri@gmail.com

 

 

 

 

 

 

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion