शिरोमणि राम महतो
कुछ लोग कविता बनाते हैं और कुछ लोग कविता रचते हैं। जो कविता बनाते हैं, उनकी कविताओं में बनावटीपन ज्यादा होता है और जो कविता रचते हैं उनकी कविताएँ स्वतः स्फूर्त होती हैं। उनमें सहजता और तरलता होती है.
युवाकवि नीरज नीर कविता रचते हैं, उनमें स्वस्फूरण होता है। उनमें जबरन कुछ भी नहीं होता। वे कविता को रचने में पूरा समय लेते हैं। उनमें कविता के लिए कोई जल्दबाजी नहीं है। वे उन्हें अच्छी तरह सीझने देते हैं, पकने देते हैं। इसीलिए तो उनकी कविताओं का पाठ करते हुए हम महसूस करते हैं – “पहले कौर के स्वाद जैसे / धीमे – धीमे घुलता हुआ / उतरता हुआ / भूख के मरूस्थल में / संतोष के गहरे आस्वाद के साथ •••।”
जैसा कि मैंने कहा कि नीरज कविता रचते हैं, तो उनकी कविताओं का रचाव और कसाव बड़ा सुगठित होता है । उनकी भाषा सटिक व संतुलित है। उनका रचना संसार व्यापक है : और गरिमापूर्ण है। उनमें समस्त जैव – जगत समाहित है। कवि नीरज अपने आसपास के जन – जीवन और जैव – जगत को बड़े संवेदनात्मक और चित्रात्मक ढंग से कविताओं मे अभिव्यक्त करते हैं-
” डर हुए खेत / अपनी बाहों में
गेहूँ और सरसों की फसलों को समेटे/
विष्ण्ण और विस्फारित नेत्रों से/
देख रहे हैं – शहर को ।”
नीरज नीर अपने समय और समाज की विसंगतियों और विद्रूपताओं पर तीक्ष्ण ट्टष्टि रखते हैं और गहरी अन्वेषणा के साथ अभिव्यंजना में साधते हैं –
“यह आज का युग है
यह कठपुतलियों का युग है
यह झूठ पर इतराने का युग है
यह सच पर झुंलाने का युग है ।”
सचमुच , हमारे समय की विडबंनात्मक बोध से संसिक्त हैं.
नीरज नीर की कविताएँ
1. कठकरेज लड़के
धान बेचकर
कोचिंग की फीस का
जुगाड़ नहीं होता,
लाखों की फीस चुकाने में
चुक जाती है हिम्मत,
बिक जाता है
सड़क किनारे का चरकट्ठा खेत,
एक दो साल टल जाती है
बहन की शादी।
छोटे शहर से बड़े सपने लेकर आने वाले लड़के
अपने माथे पर लेकर आते हैं
पिताजी की उम्मीदों का बोझ
माताजी के अभावों के आँसू
बहन की शादी के सपने ..
छोटे से कमरे में एक तख्त और एक मेज के साथ रहते हुए
कुकर में सेपेरेटर डाल कर
बना लेते हैं फटाफट दाल-भात चोखा
सामान्य ज्ञान, विज्ञान और समसामयिक घटनाओं को
रटने के साथ
उन्हें सीखनी होती है
अंग्रेजी भी
बीच-बीच में वे दुहरा लेते हैं
कुछ समानार्थक और विपरीतार्थक शब्द
कुछ इडियम्स, कुछ फ्रैजेज
द हिन्दू में छपे आलेखों को समझने में
करनी पड़ती है गहरी मशक्कत
पर वे हार नहीं मानते ….
कोचिंग में साथ पढ़ने वाली लड़कियां
जब बतियाना चाहती हैं दो शब्द,
बड़े शहरों के लड़के उनके साथ बनाते है
जब मल्टीप्लेक्स में जाने के कार्यक्रम
तो मन को कड़ा करके
वे चल देते हैं अपने कमरे की ओर
कि कहीं टूट न जाए तैयारी का क्रम,
जिससे जुड़ी है पिताजी की उम्मीद, बहन के सपने
उन्हें विह्वल करता है माँ का आशीषों से भरा चेहरा
पिता की आँखों में चमकते आशाओं के जुगनू …
बड़ी शहर की लड़कियों को लगता है
बड़े कठकरेज होते हैं, छोटे शहर के लड़के
लेकिन सच तो यह है कि
छोटे शहर के लड़कों के दिल
बड़े नाजुक होते हैं।
नीरज नीर/
2. कठपुतलियों का युग
कठपुतलियाँ नचायी जा रही हैं।
नाच की कुशलता पर
कठपुतलियाँ आह्लादित हैं,
दर्शक मुग्ध हैं,
डोर अदृश्य है,
नचाने वाले मुस्कुरा रहे हैं
नेपथ्य से,
हर तरफ हो-हो का शोर है ।
कठपुतलियों भ्रमावृत हैं,
उन्हें लगता है,
वे नाच रही हैं स्वयं ही,
कठपुतलियाँ भूल रही हैं
धीरे-धीरे
डोर का अस्तित्व।
देखने वाले भूल रहे हैं
कठपुतलियों की वास्तविकता।
जिन्हें मालूम है
डोर का सच,
जिन्हें मालूम है,
कठपुतलियों के पीछे की हकीकत,
वे बताए जा रहे हैं अँधे, अज्ञानी।
यह आज का युग है,
यह कठपुतलियों का युग है,
यह झूठ पर इतराने का युग है
यह सच पर झुँझलाने का युग है ।
3. प्रेम की पुकार
जीव विज्ञान कहता है,
जो कूकता है
वह नर होता है
पर समाज का मन कहता है
इतनी मधुर आवाज,
ऐसी मोहक पुकार
किसी मादा की ही हो सकती है,
समाज की दृष्टि में कोयल हमेशा ही गाती है..
समाज की मान्यताओं में
पुरुषों के हिस्से
नहीं आते
कोमल अहसासों के
सार्वजनिक प्रदर्शन,
उनके लिए वर्जित है
अपने दुःख में खुलकर रोना,
हास्यास्पद है
प्रेम पीड़ित विह्वल पुकार ..
धर्म के लिए लड़ने वालों ने
सदैव ही माना
प्रेम के लिए लड़ने को
तिरस्कार योग्य ,
उपहास्य,
अपुरुषोचित ..
समाज के आरंभ से
पुरुषों के दुःख भी
सेती आ रही है स्त्री,
उन्हें मानकर अपने हिस्से का दुःख
पुरुषों के दुःख भी माने गए स्त्रियों के ही दुःख।
यूँ पुरुष के दुःख,
उनकी पुकार
रह गए सदा ही
अनाम, अगेय, अवाचित ..
पीड़ाओं को जज़्ब कर
दृढ़ता दिखलाना,
भीतर से फटना
बाहर से जुड़े रहना,
कुछ स्थापित मापदण्ड हैं
पुरुषों के लिए ..
सच तो यह है कि
पुरुष भी रोना चाहते हैं
किसी स्त्री की तरह,
चाहते हैं प्रेम में विह्वल होकर पुकारना
कोयल की तरह ..
4. प्रेम में
रहना चाहता हूँ, मैं प्रेम में
पहले कौर के स्वाद के जैसे
धीमे-धीमे घुलता हुआ,
उतरता हुआ
भूख के मरुथल में
संतोष के गहरे आस्वाद के साथ …
मैं रहना चाहता हूँ
पुष्पित प्रथम पुष्प की तरह
जो आता है
किसी बच्चे के द्वारा
लगाए पौधे में, ढेर सारी मुस्कान
और सृजन के
प्रथम अनुभव के साथ ..
मैं रहना चाहता हूँ
उस पहली बोली की तरह
जब बच्चा पहली बार बोलता है “माँ”
और माँ पा लेती है
प्रकृति की तरह पूर्णता का सुख ….
बहुत कुछ होने की चाह नहीं
अभिलाषा पाने की नहीं
भय खोने का नहीं
मैं रहना चाहता हूँ
बस प्रेम में
किसी पेड़ की तरह
जिसके नीचे मिला करते हैं दो युवा प्रेमी
खोलते हुए हृदय गवाक्ष ….
5 उस दिन की प्रतीक्षा में
लड़कियाँ हँस रही हैं,
हँसती हुई लड़कियाँ अच्छी लगती हैं।
लड़कियाँ झुण्ड में हैं,
लड़कियां जब झुण्ड में होती हैं,
ठठाकर हँसती हैं।
अकेली हँसती हुई लड़की डरती है
समाज से,
वर्जनाओं से, लांछनों से।
लड़कियाँ गीत गा रही हैं,
गीत गाती हुई लड़कियाँ अच्छी लगती हैं,
लड़कियां गीत गाती हैं,
जब झुण्ड में होती है,
अकेली गाती हुई लड़की डरती है
प्रतिबंधों से
गलत समझ लिए जाने के भय से,
कलंक से।
लड़कियाँ नाच रही हैं
नाचती हुई लड़कियाँ अच्छी लगती हैं
लड़कियों को नाचना आता है ,
उन्हें नाचना भाता है,
लड़कियाँ झुंड में हैं
लड़कियाँ नाचती हैं, जब झुंड में होती हैं।
अकेली नाचती हुई लड़की डरती है
समाज की दृष्टि से,
बदनामी से ..
एक दिन ऐसा आएगा, जब लड़कियों को
हँसने, गाने, नाचने के लिए
समूह की आवश्यकता नहीं होगी ..
उस दिन की प्रतीक्षा में हैं
मेरी कविताएँ ।
6. पहचान
पहले जंगल
खेतों के पास थे
इतने पास कि
जंगली जानवर कर देते थे कभी-कभी
अतिक्रमित
खेतों और जंगल की सीमा …
मेरे पिता ने देखे थे कई बार
भालू और बाघ
मेरी माँ समझती थी
लकड़बग्घे की आवाज
वे देखते समझ जाते थे
गेहुअन और करैत का फर्क …
हमने सुनी थी साँप की कहानियाँ
जो गाय का पैर बांध कर
उसका दूध पी जाती थी …
अब जंगल खेतों से दूर चले गए
और जानवर आ गए हैं
घरों के अंदर,
जिनकी पहचान संभव नहीं है
मेरे बच्चों के लिए खतरा बढ़ गया है …
7. डरे हुए हैं खेत
डरे हुए खेत
अपनी बाँहों में
गेहूं और सरसों की फसलों को समेटे
भयभीत, विस्फारित नेत्रों से
देख रहे हैं शहर को,
ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली में
कोई मजदूर बिहारन
अपने गोद में बच्चे को उठाए
देखती है सेठ को
और करती है कोशिश
बोलने की “हाँजी बाउजी… हाँजी बाउजी…”
शहर बढ़ रहा है सुनामी की गति से
खेतों की ओर,
रोज निगल रहा है
धान और आलू के खेत,
ठीक वैसे ही जैसे बड़ी कंपनियां
निगल रही हैं छोटे मजदूरों के हक
बिना बचाव का कोई मौका दिए।
खेत भाग रहे हैं बेतहाशा
पीछे की ओर
किसी हारे हुए सैनिक की तरह
उनकी छोड़ी हुई जमीन पर
उग रही हैं
विशालकाय इमारतें
एक के बाद एक
आपस में ही एक दूसरे से
होड़ करते हुए ….
खेत रोज हार रहे हैं,
शहर रोज जीत रहे हैं।
खेतों के गले पर रखी हुई है तलवार
उन्हें जिंदा रहने की मोहलत है
गुलामी की शर्त पर,
शर्त है कि उन्हें समाना होगा गमलों में
लटकना होगा बालकोनियों से
गेहूं, मकई, आलू की जगह
उगाने होंगे
देशी विदेशी नस्ल के गमकौआ फूल ….
खेत धीरे-धीरे सीख रहे हैं
गमलों में समाना,
समेट कर अपने विस्तार को,
ठीक वैसे ही जैसे शहर की मलिन बस्तियों में
समाना सीखते हैं
गाँव से गए हुए मजदूर।
8. पिता सूखते हैं वृक्ष की तरह
पिता होते हैं फलदार वृक्ष
बने रहते हैं
सदा सघन सायादार …
पिता हमेशा हरियाए रहते है
आसमान की ओर सर उठाए
जमीन को मजबूती से पकड़े हुए
पर पिता जब सूखते हैं तो
यकायक सूखते हैं
किसी वृक्ष की तरह …
फिर बच जाते हैं
पिता बस सूखी लकड़ी …
बच्चे उनकी छाया से
आजाद
निकल चुके होते हैं
ऊँची परवाज के लिए।
सूखे वृक्ष की ऊपरी टहनी पर
तब आकर बैठने लगते हैं
गिद्ध …
पिता गिद्ध के बैठने का अर्थ
अच्छे से समझते हैं।
9. प से पीड़ा, प से पहाड़
प से पहाड़ नहीं
प से पीड़ा बोलिए साहब
जिसे आप धरती की ऊँचाई समझते हैं
वह धरती की पीड़ा होती है…
पीड़ाएँ बढ़कर अक्सर
पहाड़ हो जाती हैं,
जिससे पार पाने में
लगती हैं कई-कई सदियाँ
गुजरना होता है
दुःख की कई-कई नदी घाटियों से
लाना होता है
संघर्षों की पथरीली ऊँचाई को
अपने पाँव के नीचे।
10. रोने की कला
रोना भी एक कला है ….
पीड़क होकर पीड़ित का स्वांग
और उस स्वांग में
गहरे यकीन…
जो हत हुये, उन्हें ही बता देना हत्यारा,
सच कहना सफ़ेद झूठ को
और देना उसी की दुहाई
छाती पीटते हुये
दुहत्थे…
अभिसंधियों की प्रस्तावना
और करना उन्हें व्याख्यायित
नई अर्थवत्ता व वाकजाल के साथ…
बाघों के द्वारा
हिंसा का दोषी ठहराना
भेड़ों को,
चित्रों को असल से ज्यादा खतरनाक बताना…
किसी की हत्या करके
रोना जार-जार, बार-बार
तब तक
जब तक उनके रोने पर
सब यकीन न कर लें ….
हत्यारे रोने की कला में
माहिर होते हैं
11. वापसी
फिर से दिखने लगे हैं
यहाँ-वहाँ कौए
वे लौट आयें हैं,
उनकी बोली से
गूंजने लगा है
फिर से घर आँगन।
कौओं ने की है वापसी की अपनी यात्रा
काल-प्रवाह के विरुद्ध,
वे लड़कर लौटे हैं,
वे जीत कर लौटे हैं।
उनकी बोली में विजय घोष है,
उन्होंने जीत ली है
आधुनिकता और विकास के
विनाशी तंतुओं से बुने जालों से लड़ाई,
तोड़ दिया है
मृत्यु के चक्रव्यूह का सातवाँ द्वार।
जिस तरह से कौए लौटे हैं
एक दिन उसी तरह से
लौट आएगी
शायद नन्ही गोरैया भी ..
और एक दिन
इसी तरह मजहबों के भयहेतुक बंधनों से
निकल
लौट आएगी मानवता भी
हमारे घर आँगन में
प्रेम का विजय घोष करने ….
कौए पुरोधा हैं,
जिजीविषा में मनुष्यों के सगे ….
कवि नीरज नीर. राँची विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक। प्रकाशन: ढुकनी एवं अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह). थके पाँव से बारह कोस (कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य). प्रकाशित पुस्तकें: जंगल में पागल हाथी और ढोल (काव्य संकलन). पीठ पर रोशनी (काव्य संकलन) कुछ अनकहा सा (काव्य संकलन –शीघ्र प्रकाश्य). अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कवितायें, यात्रा वृतांत एवं समीक्षाएं प्रकाशित. कुछ बाल कवितायें व बाल कहानियाँ भी प्रकाशित। पंजाबी, ओड़िया, तमिल, नेपाली, मराठी भाषाओं में कविताओं का अनुवाद। अंग्रेजी एवं पञ्जाबी में कहानी का अनुवाद। “ढुकनी” कहानी की कई बार नाट्य प्रस्तुति। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित कविताओं, कहानियों का प्रसारण।
उल्लेखनीय सम्मान :
(i) महेंद्र स्वर्ण साहित्य सम्मान’ 2018
(ii) सृजनलोक कविता सम्मान’ 2018
(iii) ब्रजेन्द्र मोहन स्मृति साहित्य सम्मान’ 2019
(Iv) अखिल भारतीय कुमुद टिक्कु श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार
(v) जयशंकर प्रसाद स्मृति सम्मान’ 2020
(vi) सूरज प्रकाश मारवाह साहित्य रत्न अवॉर्ड 2021
सम्पर्क: 8789263238
ईमेल – neerajcex@gmail.com
15 पता : “आशीर्वाद”, बुद्ध विहार, opp – अशोक नगर गेट नंबर 4 , Po – डोरण्डा,
राँची – 834002, झारखण्ड
कवि शिरोमणि महतो, जन्मः 29 जुलाई 1973 को नावाडीह (झारखण्ड) में। शिक्षाः एम. ए. हिन्दी (प्रथम वर्ष) सृजनः देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। एक उपन्यास‘उपेक्षिता’ एवं दो काव्य-संग्रह ‘कभी अकेले नहीं’ और ‘भात का भूगोल’ प्रकाशित। पत्रिका ‘महुआ’ का सम्पादन। पुरस्कारः डॉ. रामबली परवाना स्मृति सम्मान, अबुआ कथा-कविता पुरस्कार, नागार्जुन स्मृति पुरस्कार.
संप्रतिः अध्यापन। सम्पर्कः नावाडीह, बोकारो (झारखण्ड) 829 144। मोबाइलः 09931552982
ई-मेलः shiromani_mahto@rediffmail.com