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निदा रहमान की कविताएँ स्त्री जीवन के जद्दोजहद की निर्भीक अभिव्यक्ति हैं

विपिन चौधरी


स्त्री-चेतना को तर्कसंगत दृष्टिकोण देने के साथ-साथ निर्भीक अभिव्यक्ति को अपनाए जाने की समझ प्रदान करने वाली विधा कविता में स्त्री रचनाकार एक ऐसा स्पेस प्राप्त करती है जिसमें वह अपनी भावनाओं, अपने विचारों, अपनी कल्पनाओं, अपने दुख-सुख, अपनी गहरी पीड़ाओं को आसानी से लयबद्ध कर सकती है.
युवा कवयित्री निदा रहमान की कविताएँ इसी श्रेणी की कविताएँ हैं।

निदा रहमान की कविताएँ अनुभवों के प्रकाश में साफ़गोई से लयबद्ध हैं जो अपनी भावनात्मक प्रतिक्रिया के ज़रिए स्त्री पाठकों को ऐसी जागरूकता के साथ जोड़ने में सफल होती हैं जिसकी जरूरत हर समय और हर समाज की लड़कियों को हमेशा से रही है.

कविता से मिलने वाली इन संभावनाओं के साथ निदा रहमान अपने रचनात्मक दायरे के अंतर्गत स्त्री के जीवन से जुड़े भयावह सच्चाईयों से परिचित करवाती हैं और एक बार फिर स्त्री जीवन से जुड़े इस सच को सामने रखती हैं कि पितृसत्ता की संरचनाओं को पूरी तरह से ध्वस्त करना आज के समय की सबसे प्रमुख ज़रूरत बन गई है उस समय जब भारत में स्त्रियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार, इस पृथ्वी पर होने वाला सबसे बड़ा मानवाधिकार उल्लंघन बन गया है.
वही हाथ वही जिस्म
मेरी स्मृतियों में मुझे नोंचते हैं
बहुत गहरी याददाश्त में
इतनी की उन पंजेनुमा हाथों के सिवा कुछ नहीं
मेरी नींद में
वे रेंगते थे किसी सांप की तरह
चुभते थे किसी बिच्छू के डंक की तरह ( इंसाफ़)

ये पंक्तियाँ जितनी बार सुनी पढ़ी गई हैं उतनी ही बार दबा भी दी गई हैं क्योंकि भारतीय स्त्री के लिए चुप्पी आज भी एक अदब है जिसके नीचे कई सत्य दबा दिए जाते हैं. ऐसे में अपनी कविताओं में जब निदा रहमान जैसी युवा कवयित्री एक ऐसी योद्धा की तरह सामने आती हैं जो आत्म प्रेम की सीख के साथ भविष्य की असीमित संभावनाओं की ओर संकेत भी करती हैं तो कुछ उम्मीद बंधती है।

यह सार्वभौमिक सत्य है कि हर जागरूक लड़की की यात्रा की शुरुआत अपने साथ होने वाली भेदभावों के साथ ही शुरू होती है. उम्र के इसी दौर में युवा लड़की, स्त्री की अपनी पहचान के साथ संघर्ष भी कर ही रही होती है. इसी समय में लिखी गई कविताओं में स्त्री मन का आक्रोश है, स्त्री संघर्ष की राह में आने वाली संकटों की पहचान है और स्त्रियों के लिए एक आह्वान है कि अब बिसुरने का समय नहीं है.

निदा की कविताएँ अपने भीतर की परिपक्वता को निथारने की कविताएँ हैं.
लड़कियों तुम बनाती रहो
अपनी सीढ़ियों को
जिनसे छा जाओ आसमान पर
कि तुम्हें अपने हिस्से की जंग खुद ही लड़नी है ( सीढ़ियाँ)

ये कविताएँ उस युवा लड़की की कविताएँ है जिसकी चेतना इतनी परिपक्व हो गई है कि अब कोई विश्वासघात उसके नज़दीक नहीं आ पाएगा. ऐसी ही लड़कियाँ अपनी जंग खुद लड़ती हैं और आज़ाद लड़कियाँ कहलायी जाती हैं, उस समाज में जहाँ आज भी लड़कियों का जन्म शोक लेकर आता है.
वो भागती नहीं डर के मारे
वो अब पलटकर दे देती हैं जवाब
आँख में आँख मिलाकर
गालीबाजों को कर देती हैं नाकाम
हाँ अब आज़ाद लड़कियां
तुम्हारी गालियों पर
खिलखिला देती हैं (आज़ाद लड़कियां)

 

निदा रहमान की कविताएँ

1. इंसाफ़

हड्डियों के ढांचे में
सिकुड़ी हुई खाल लिए
ज़िंदगी से बेज़ार हुए
जब जब उसे देखती हूं
तो न दिल में कोई एहसास होता है
न किसी तरह का कोई रहम आता है,

जैसी मेरी फितरत है
मैं किसी अनजान को भी
इस बदहाली में देखूं तो तड़प जाऊं
लेकिन उसे देख के ऐसा क्यों नहीं होता,

हां मैं बचती हूं
उसके सामने जाने से
क्योंकि वो हाथ जो आज कांप रहे हैं
वो जिस्म जो आज निढाल है
वहीं हाथ, वही जिस्म
मेरी स्मृतियों में मुझे नोंचते हैं,
बहुत गहरी याददाश्त में
इतनी कि उन पंजे नुमा हाथों के सिवा कुछ याद नहीं
मेरी गहरी नींद में
वो रेंगते थे किसी सांप की तरह
चुभते थे किसी बिच्छू की डंक की तरह,

वैसे तो ज़िंदगी के कई
खूबसूरत लम्हें ज़हन से कहीं छुप गए
लेकिन जिसे मैं हर रोज़ भूलना चाहती हूं
वो आ जाते हैं कहीं गहरी अंधेरी खाई से निकलकर,

वो वक़्त जब मुंह में ज़ुबान तो थी
लेकिन मैं चीख नहीं सकती
और जब चीखी तो मेरी आवाज़ बंद कर दी गई,

सब कहते हैं
जो गुज़र गया सो जाने दो
ख़ुदा तुम्हारा इंसाफ़ करेगा
हां वो दो जहाँ का मालिक ही तो इंसाफ़
करने वाला है
ये इंसानों के बस की बात नहीं,

शायद उस खटिए से लगे शख़्स को याद भी नहीं
उसका किया गया ज़ुल्म
और मैं बस चुपचाप देखती हूं
उसका हश्र, और लाचारी,
जो उसके लिए दुआ करते हैं
जो उस पर तरस खाते हैं
अब मैं उन्हें देख के बस मुस्कुराती हूं
और ख़ुदा से कहती हूं
तुम मेरा साथ देना और मेरा इंसाफ़ करना।

 

2.एहसास की मौत

समझने, समझाने से इतर
अब ख़ामोश रहना ही सही लगता है,
मुझे नहीं कहना कुछ भी
न कोई गिला करना है
न ही किसी से कोई शिकायत है,

जैसे ये पृथ्वी अपनी धुरी पर
चलती चली जा रही है लगातार
मैं भी एक धुरी पर सिमट सी गई हूं,

सब कुछ ऑटो मोड पर है
इमोशंस शून्य से हो गए है,

जज़्बात इतने ज़ब्त किए कि
अब वो बहुत तकलीफ़ होने पर भी कराहते नहीं,

मुसलसल सुनते चले जाने का नतीजा ये है
कि अब किसी की आवाज़ से बेचैन नहीं होती
सब शब्द ब्रम्हांड में गूंजते हुए कहीं खो जाते हैं,

तुम्हारे जाने की प्रक्रिया ने
मुझे अंदर से खाली कर दिया है,

मैं बरसों बाद भी ये स्वीकार नहीं पाती कि
अब हम नदी के दो धारे बनकर बह रहे हैं,

फिर भी सच ये है कि तुम्हारी मोहब्बत में
ख़ुद को ख़ाक करने के बावजूद भी
तुम्हारी नज़रों में अनगिनत सवाल होते हैं
नश्तर से चुभते, मुझे लहूलुहान करते,

लेकिन अब हर ज़ख्म मेरे किसी तमगे की तरह है
मैं मुस्कुराती हूं इस ख़ामोशी से
कि दुनिया और तुम भी रश्क करो
मेरे चेहरे के इत्मीनान देख के।

3. इश्क़ की वसीयत

मैं कुछ ख़त
छोड़ के जाऊंगी तुम्हारे नाम
जिसमें लिखीं होंगी
मेरी तमाम उम्र की मोहब्बत
उसकी तासीर, उसकी अजीयत,

तुम्हें खो देने का ग़म
कितना बड़ा था ये शायद तुम्हें कभी बता ना पाऊं
और समझा भी नहीं पाऊंगी,

लेकिन जब तुम यादों में,… मेरा हाथ थामोगे
तो तुम्हारे हाथों में आईं…..सर्द हथेलियां बताएंगीं
कि जिंदगी ऐसी निकली हैं
जैसे बर्फ़ से गल जाता है जिस्म,

तुम्हें हमेशा लगता रहा कि
मैं अपनी ज़िन्दगी को अपने मुताबिक जीती रही
हां बात सही भी है
लेकिन जो भटकन थी वो तुम्हारी तलाश की ही तो थी,

तुम्हें जब मेरा ख़त मिलेगा
मेरा चेहरा ज़र्द हो चुका होगा
मेरा जिस्म अकड़ चुका होगा
आंखें बंद हो चुकी होंगी
लेकिन इंतज़ार उनमें तुम्हारा होगा,

मैं तुम्हें अपनी मोहब्बत का एतबार
सफ़ेद कफ़न में लिपट के भी ना दिला पाऊं,

मेरी जान
जब ये जान निकल गई होगी
तब भी उसने सिर्फ ओ सिर्फ तुमसे मोहब्बत की होगी
और उसी मोहब्बत में ख़ुद को मिटा गई होगी,

तुम चाहो तो इतरा सकते हो
ज़माने से कह सकते हो
कि देखो ये जो जनाज़ा
जा रहा है इसमें इक ऐसी लड़की लिपटी है,

जो मेरी गुमनाम मोहब्बत में फना हो गई
और मैं इसकी मोहब्बत पर एतबार तक न कर पाया।

4. .वो बेतरतीब शख़्स

उसके कमरे में हर चीज़
बेहद करीने से सजी थी
दीवारों पर खूबसूरत वॉल पेपर थे
जिन पर अचानक ही ठहर गई थी नज़र,

मैंने उसके कमरे को उसकी ही नज़र से देखा
मोहब्बत और अपनेपन से सराबोर इक इक कोना,

एक एंटीक मेज़, सौ साल से भी पुराना संदूक
सबको ऐसे संजो रखा था जैसे वो साँस ले रहे हों,

वो कहता ये कमरा नहीं दुनिया है मेरी
यहां सूरज भी मेरी मर्ज़ी से झाँक पता है,

उसे रौशनी से उलझन होती थी
लेकिन उसकी आंखों की चमक किसी को भी चौँधियां दे,

कोई झाँक नहीं सकता था उसके अंदर
कि उसका वजूद आफताब सा था,

उसे ख़ामोशी रास आती थी
लेकिन जब भी उदास होता
फुल वॉल्यूम में सुनता म्यूज़िक,

उसे ज़माने की परवाह नहीं थी
फिर भी परवाह करने लगा था मेरी
और मैं उसे दिल के किसी कोने में छुपाए बैठी थी,

सच ये है कि
बेहद करीने से रहने वाले लोग
असल में होते हैं बेतरतीब,

वो जीते हैं अपनी बनाई दुनिया में
जहां इश्क़ भी उनकी मर्ज़ी से आता है….

5. सीढ़ियां

टूटी फूटी लकड़ी
जुगाड़ की रस्सी से
इक लंबी सीढ़ी बनाई थी
जिससे पहुंचना था उसे
अपने ख्वाबों के क़रीब,

वो रोज़ जतन करती
रोज़ मशक्कत करती
जूझती,गिरती और फिर
खड़ी हो जाती,

वो जानती थी उसके पास नहीं हैं
कोई दूसरा मौका
लड़कों की तरह,
वो लड़के जो दर्जनों बार नाकाम हुए
फिर भी उन्हें मिलते रहे मौके,

उस लड़की ने हार मानना नहीं सीखा था
ख़ुदा ने ज़िद उसमें भर के भेजी थी
वो झटपटाहट के साथ
तोड़ने में लगी थी अपने पैरों की बेड़ियां
जद्दोदहद में वो ख़ामोश हो गई
लेकिन उसने अपनी कमज़ोर सीढ़ियों पर
चढ़ना नहीं छोड़ा,

वो आहिस्ता आहिस्ता सफ़र कर रही थी
और कोशिश में थी
कि इक रोज़ वो आसमान में टांक देगी अपने ख़्बाव,

हां मुझे उम्मीद है
और मैं उसके लिए दुआ करती हूं
कि उसकी बनाई कमज़ोर सीढ़ी
इतनी मज़बूत बन जाएं कि तमाम वो बेटियां
जो भरना चाहती हैं अपने सपनों में रंग
वो मुकम्मल कर पाएं अपना सफ़र,

बेटियों की यही कहानी है
वो अपनी मंज़िल के लिए रोज़ाना
मीलों का सफ़र करती हैं
ऐसा सफ़र जो अक़सर
उसके आसपास के लोगों को नज़र नहीं आता है
और अगर किसी ने देख लिए उनकी आंखों के ख्बाव
तो उन्हें छीनने में जुट जाते हैं,

तो लड़कियों तुम बनाती रहो
अपनी सीढ़ियों को
जिनसे छा जाओ आसमान पर
कि तुम्हें अपने हिस्से की जंग ख़ुद ही लड़नी है।

6. आज़ाद लड़कियां

गालियों को
गले लगाने लगी हैं
आज़ाद लड़कियां,

वो असहज नहीं होती
नज़रे चुराकर नहीं निकलती

वो भागती नहीं डर के मारे
वो अब पलटकर दे देती हैं जवाब

आंख में आंख मिलाकर
गालीबाज़ो को कर देती हैं नाकाम

हाँ अब आज़ाद लड़कियां
तुम्हारी गालियों पर
खिलखिला देती हैं….

 

7. बोलो
बोलना ज़रूरी है
वरना लोग
हमें गूंगा समझेंगे,

चीखो
चीखना ज़रूरी है
वरना लोग
हमें बेज़ुबान कहेंगे,
चिल्लाओ
चिल्लाना ज़रूरी है
वरना लोग
हमें डरपोंक कहेंगे,

गलत को गलत कहो
असहमत हो तो
अपनी असहमति दर्ज कराओ
वरना लोग
हमें बुज़दिल कहेंगे,

नाइंसाफी हो तो
आवाज़ उठाओ
वरना लोग
हमें कायर कहेंगे,

ज़िंदा
हो तो आवाज़ उठाओ
वरना लोग
मरा हुआ समझेंगे,

सिर्फ़
साँस लेना
सुबह उठना
नौकरी पे जाना
जीना नहीं है,

ज़िंदा हो तो
इंक़िलाब लाओ
वरना लोग
ज़िंदा लाश कहेंगे

 


कवयित्री निदा रहमान, जन्म स्थान छतरपुर
शिक्षा- बीएससी एंड मास्टर इन जर्नलिज्म। एक दशक तक राष्ट्रीय न्यूज चैनल में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी, सामाजिक राजनीतिक विषयों पर निरंतर संवाद , स्तंभकार, स्वतंत्र पत्रकार और लेखक

सम्मान पत्रकारिता के विशिष्ट योगदान के लिए 2019 में विमेंस प्रेस क्लब, मध्यप्रदेश द्वारा स्मानित। लाडली मीडिया एडवेटाइजिंग अवॉर्ड  2021 पत्रकारिता के लिए विकास संवाद संस्था द्वारा संविधान फेलो प्राप्त। संयुक्त कविता संग्रह ‘वर्जनाओं से बाहर’ 2024 में आया गद्य और ‘इश्क़ इतवार नहीं ‘कविताओं का संग्रह

 

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.

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