विपिन चौधरी
बहरहाल..
गाय-वाय-स्त्री-विस्त्री-योनि-वोनि
कुछ नहीं होना मुझे
मुझे मेरे होने से छुट्टी चाहिए (मुझे छुट्टी चाहिए)
नाज़िश अंसारी की कविताएँ उस युवा सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं जो समाजिक नियमों से नहीं बल्कि स्वयं निर्मित नियमों से वाबस्ता हैं. जिन्होंने अपने जीवन की बागडोर को अपने हाथों में मजबूती से थाम रखा है. बचपन में इन प्रखर युवतियों को भी ‘अच्छी लड़की’ बनने की घुट्टी पिलाई गई थी मगर अब वे उस घुट्टी के स्वाद को बिसरा चुकी हैं उन्हें ऐसा करना इसलिए भी जरूरी लगा क्योंकि ‘अच्छी लड़की’ की उनकी परिभाषा उनकी पूर्ववर्ती स्त्रियों से कहीं अलग है. ये युवतियाँ, गुड गर्ल सिन्ड्रोम से बाहर आयी हुई युवतियाँ हैं, जो अपना जीवन दूसरों की हामी के इंतजार में नहीं बिताना चाहतीं, सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार अपनी इच्छाओं की बलि नहीं देती और अपने जीवन, अपने परिवेश में आमूल चूल परिवर्तन लाने के लिए किसी बड़े संघर्ष से रत्ती भर भी नहीं घबराती.
हमारा घर-परिवार, समाज लड़की को जिस तरह से बड़ी होती लड़की को शिक्षा देता है उसमें अदब से रहना, सलीके से बोलना आदि कई तरह की छोटी-बड़ी नसीहतें शामिल होती हैं. फिर जब लड़की की चेतना जागृत होती है तब उसकी सोच और घर-परिवार-समाज द्वारा दी गई शिक्षा के बीच एक मानसिक संघर्ष होता है इसी संघर्ष से निकलता है अमृत मंथन. मगर इससे पहले एक चेतना सम्पन्न युवती को अपने ही परिवार के विरोध का सामना करना पड़ता है और इस विरोध में उनके सामने होती हैं उनकी अपनी ही नानी, दादी और माँ, जो हमेशा अपने हिसाब से ‘अच्छी लड़की’ बनने का भार उनपर लादे रखना चाहती हैं,
“ उनकी झुकी गर्दन ज़रा तनी
ऐतमाद से भरी पूरी हुई
पुरखिनों को भनक लगी तो
खानदान की जनानियाँ सात पुश्तों की इज़्ज़त
उनके गालों पे जड़ कर कहती हैं –
अच्छे घरों की लड़कियाँ नौकरी नहीं करती’( अच्छे घरों की लड़कियाँ)
तो हर युवती का शुरुआती संघर्ष घर से ही शुरू होता है, संघर्ष के शुरुआती दौर में जब लड़की पूछती है, माँ मुझे क्या करना चाहिए ? तो उधर से जवाब आता है, सबसे पहले उसे “अच्छी लड़की” बनने का अभ्यास करना चाहिए.
मगर युवती जो कहती है वह नाज़िश अंसारी की कविता में पंक्ति में कुछ यूं है,
“तुम्हारा जीवन मैं भी जियूँ इतना मुझमें साहस कहाँ
तुमसे मुहब्बत बहुत हैं मगर तुम मेरा आदर्श नहीं हो माँ’( माँ मुझे क्या करना चाहिए
ऐसा साहस उस स्त्री-चेतना की बदौलत उत्पन्न होता है जो बेधड़क यह कहने का साहस भी रखती है कि,
‘तुम नहीं जानती
टोपी धरे सजदे झुके सर
अल्लाह से काम सामाज से ज्यादा डरते हैं
उससे भी ज्यादा उन औरतों से
जिनके हाथों में किताब है’ ( बुर्के वालियाँ)
नाज़िश की कविता, ‘अच्छे घरों की लड़कियाँ’, पढ़ते हुए अनायास ही पंजाबी कवि और पत्रकार निरुपमा दत्त की कविता, ‘बुरी औरतें’ याद आयी. जिसमें ऐसी औरतों का जिक्र हैं जो मुखर हैं, जो हँसती हैं और अपने मन मुताबिक अपना जीवन बिंदास होकर जीती हैं मगर समाज उन्हें बुरी औरतों की संज्ञा देता है.
नाज़िश की यह कविता भी पितृसत्तात्मक समाज पर तंज़ करती है.
नाज़िश की कविताओं में युवा आक्रोश है. सकारात्मक सोच से उत्पन्न होने वाली इस हिम्मत के बल पर ही नए समाज का निर्माण हो सकेगा जिसकी कर्णधार होंगी नाज़िश जैसी प्रखर सोच रखने वाली लड़कियाँ जिनके साथ होगा स्त्री चेतना का हथियार और इन्हीं लड़कियां के पास ही अंधेरे में भी अपनी राह तलाश लेने का हौसला भी होगा.
नाज़िश अंसारी की कविताओं के विषयों के जद में बिकलिस बानो हैं, जिनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा न्याय पाने में कट गया, बुलडोजर राजनीति है, जिसमें पिस्ते मज़लूम लोगों की आवाज़ें हैं और इंटरसेक्शनलिटी है, जो मुस्लिम समाज में एक युवती की स्थिति पर प्रकाश डालती है.
ये कविताएँ समाज की आँखों में आँखें डाल कर सवाल करने की हिम्मत रखती हैं. आज के समय में इसी हिम्मत की दरकार है क्योंकि समाज सचमुच ऐसी स्त्रियों से डरता है जिनके हाथों में किताब है.