समकालीन जनमत
कविता

नरेश गुर्जर की कविता दृश्य की पृष्ठभूमि पर ठहरी हुई निगाह है

बबली गुर्जर


कविताओं की सरलता उनकी ख़ूबसूरती का पैमाना होती है। कुछ कविताएँ किसी पदबंध के अधीन नहीं होती। उन्हें सुनते पढ़ते समय जिया भी जाता है। नरेश गुर्जर की कविताएँ कानों/आँखों से हृदय में ऐसे उतरती हैं जैसे मुख में गुड की डली पिघल रही हो। जैसे दो प्रेमियों के बीच  मीठी सी नोकझोंक चल रही हो। इन कविताओं में एक एक नायक है , एक अधिकार हीन प्रेमिका , इंतज़ार है, एक कवि है जो स्त्री मन और मान के प्रति जमकर खड़ा हुआ है, मुखर है। कवि उद्वेलित मन की व्यथा बताते हुए कहते हैं

देखना चुप्पियाँ जिस दिन आवाज़ बनेंगी,
सारे शोर थम जाएँगे

यह चुप्पियों की घुटन हम सभी के हिस्से सदा से आती रही है जिसकी मुक्ति होते ही संसार के समस्त शोर समस्त वाद शांत हो जाते हैं। सामाजिक और पारिवारिक ताने बाने को सुलझाती और बुनती स्त्री के लिए कवि कहते हैं –

कभी कभी प्रेम न करके भी
प्रेम को बचाया है स्त्रियों ने।

यह मर्यादा और नैतिकता का बोझ अब स्त्री द्वारा और नहीं उठाया जाना चाहिए। उन्हें अपने प्रेम के कारण, अपनी हाँ और न के कारण अपराध बोध न महसूस हो, समाज से भयभीत न होना पड़े। यह हमारे समाज की अपनीति ही तो है जहाँ नफ़रतें आसानी से और प्रेम मुश्किल से ज़ाहिर किया जा सकता है। ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ हैं जिनमे स्त्री की बेबसी महसूस की जा सकती है

जीना चाहिए मुझे
उस स्त्री के लिए
जिसे मेरी मृत्यु पर
खुलकर रोने का
हक भी नहीं होगा

यह खुलकर न रो पाने का दुःख भीतर भीतर सुलगता रहेगा। हम मनुष्य सदा से अपनी छवि के लिए इतने फ़िक्रमंद रहे हैं। मनुष्य जीवन मिलने पर हमने उसे सरल बनाने की बजाय और पेचीदा बना लिया है जिसके कारण हम ख़ुद का तकलीफ़ देते जा रहे हैं। असली ख़ुशी और सरलता मन की सुनने में ही तो है। कवि कहते हैं

हमारे पास वक़्त कम था और बातें अधिक इसलिए हम देर तक चुपचाप बैठे रहे..

इन कविताओं में रोज़मर्रा की स्तिथियों का गहरा विश्लेषण है। जीवन को देखने के भिन्न नज़रिए हैं। स्त्री मन की अनगिनत परते हैं। बराबरी के पैरोकार पुरुष का दम्भहीन ज़मीनी व्यवहार है और है बहुत सारा प्रेम …
प्रेम जिससे हर चीज़ और सुंदर और सहज और महत्वपूर्ण हो जाती है।

 

नरेश गुर्जर की कविताएँ

1. सात आदमी

हर आदमी के पास
एक वीणा है
जिसे वो
बजाना नहीं जानता

हर दूसरा आदमी कहता है
दुख एक स्वर है
जो पकड़ में नहीं आ रहा

हर तीसरा आदमी
उलझा हुआ है
विचारों को कसने में

हर चौथा आदमी
चारों ओर देख रहा है
इस उम्मीद से
कि कोई उसे देख ले

हर पांचवे आदमी का
नहीं है
उसके पास
अपना कोई परिचय

हर छठवें आदमी के पास
एक कहानी है
छल जिसका, मुख्य किरदार है

हर सातवें आदमी को
शिकायत है
हर पहले आदमी से।

2. एक बच्चा

मैंनै बुजुर्गों से बात की
उनके पास अनुभव थे
और अफसोस भी।

मैंने प्रौढ़ होते लोगों के भीतर देखा
वहाँ एक गहरा खालीपन था
अनसुनी पीड़ाएँ थी।

मैं युवाओं से मिला
उनके चेहरे पर
चिंताएं थी
प्रश्न थे।

फिर मुझसे एक बच्चा मिला
जिसके पास कुछ नहीं था
उसने आसमान की तरफ एक चुंबन उछाला
और मिट्टी पर लेट गया।

 

3. तो समझना

चित्र बनाते हुए
जो कभी
चित्रकार की कूंची से
एक अकेला रंग
छिटक कर बह निकले
विषय की विपरीत दिशा में

तो समझना
वो कोई मिजाजी बच्चा है
या कैद से छूटी कोई कविता

या फिर
खुद की ओर लौटती हुई
कोई स्त्री….

 

4. पकड़ा जाता हूँ

बहुत सी चीजों से मुझे बचना होता है
पर बच नहीं पाता हूँ
उनमें से एक है
मेरी अपनी आंखें
मैं अक्सर यह जानने के लिए उन्हें देखता हूँ
कि कहीं वो मुझे देख तो नहीं रही
और मैं पकड़ा जाता हूँ।

5. अब दुनिया में प्रेम

तुम्हारी उंगलियों के नाखूनों पर
बचा ये मेहंदी का रंग
देख कर लगा
कि कितना कम बचा है
अब दुनिया में प्रेम

और
कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं
नाखून।

6. मैं चुप हूँ

मैं चुप हूँ
यह देख कर
कि खोखले कथनों की लाठियों से
पीटी जा रही हैं
बीते वक्त की लकीरें।

मैं चुप हूँ
यह देख कर
कि आग को उजाला बताकर
भरमाया जा रहा हैं
रोशनी के लिए निवेदित लोगों को।

मैं चुप हूँ
यह देख कर
कि खबरें अब अचंभित नहीं करती हैं
जबकि अचंभे दिखाए जा रहे हैं
खबरों में।

मैं चुप इसलिए भी हूँ
क्योंकि मैं बस यही नहीं देखता

मैं देखता हूँ
चिंतातुर परिजन
प्रतीक्षा करती पत्नी
सपने देखते बच्चे
और नींद के लिए बेचैन
अपनी आंखें।

पर देखना
चुप्पियाँ जिस दिन आवाज बनेगीं
सारे शोर थम जाएंगे।

 

7. एक कवि

एक कवि
बना सकता है
शब्दों से चित्र

एक शिल्पी
दे सकता है
पत्थरों को शब्द

एक चित्रकार
लिख सकता है,
रंगों से कहानी

लेकिन एक स्त्री
जानती हैं
यह तीनों कलाएं

क्योंकि
वो सिखा सकती है
तुम्हें प्रेम करना।

 

 

8. नदी

मुझे जाना था दिसावर
उसे छोड़कर
वो बस रात भर रोती रही
बिना कुछ कहे

अगली सुबह सुना मैने
नदी का जलस्तर
अचानक बढ़ गया है
और डूब गया है
एकमात्र पुल भी

यह उसकी और नदी की मिलीभगत थी

दोनों जानती थी
मुझे तैरना नहीं आता।

 

9. जीने की वजहें

जीने से कहीं ज्यादा

आज मेरे पास

फिर भी
जीना चाहिए मुझे
उस स्त्री के लिए
जिसे मेरी मृत्यु पर
खुलकर रोने का
हक भी नहीं होगा

उस दोस्त के लिए
जिसने अभी पिछले दिनों ही
लिया हैं मुझसे मेरा नंबर
वक्त मिलते ही
बात करूंगा
यह कहकर

खिड़की मे रखें
उस पौधे के लिए भी
जरूर जीना चाहिए मुझे
जिसके पास बैठकर
मैं रोज चाय पीता हूँ

जीना चाहिए यह सोचकर
कि इस दुनिया के अलावा
शायद ही कहीं और बनती हो
आलू पापड़ की सब्जी

जीना चाहिए
उन कविताओं के लिए
जो लिखी जा चुकी है
या उन किताबों के लिए
जो लिखी जाएगी

मरने की
कितनी ही वजहों के बीच भी
मुझे जीना चाहिए
जिंदा रहने की
एक और वजह को
जन्म देने के लिए..

 

 

10. क्षणिकाएँ

1)
जिन्हें प्रेम मिला
उन्होंने प्रेम में
कविताएं लिखी

और जिन्हें नहीं
उन्होंने कविताओं में
प्रेम लिखा।

2)
हमारे पास वक़्त कम था और बातें अधिक
इसलिए हम देर तक बैठे रहे ।

 

 

 

कवि नरेश गुर्जर, जन्म- 1, अगस्त 1980, जन्मस्थान- श्रीगंगानगर (राजस्थान)

प्रकाशन- तीन कविता संग्रह “सारे सृजन तुमसे हैं” (2019) “मेरा मुझमें कुछ नहीं”(जनवरी 2021), “अंततः स्मृतियाँ बचती है’ (2022) और एक साझा संग्रह “प्रेम तुम रहना” (2021)

संपर्क-
गांव-दुजार
तहसील-लाडनूँ
जिला-नागौर

टिप्पणीकार बबली गुज्जर (3 नवम्बर 1990) इन्होंने कविता समीक्षा में पहली बार कलम चलाई है। बबली गुर्जर दिल्ली की मूलनिवासी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से मास कॉम्युनिकेशन की पढ़ाई की है। फोटोग्राफ़ी का शौक़ है।

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