समकालीन जनमत
कविता

मोहन कुमार डहेरिया की कविताएँ व्यक्तिगत और सामूहिक अभिव्यक्ति को सशक्त और बेचैन होकर ज़ाहिर करती हैं

पीयूष कुमार


आत्मा के पेड़ पर बैठा कवि

मोहन कुमार डहेरिया की कविताओं में मनुष्यविरोधी समय का अतियथार्थ अपनी विकलताओं और भावसघनाओं के साथ आता है। वे अपने वर्तमान को उसकी प्रचलित भाषा के साथ अपनी कविताओं में जाहिर कर सकने वाले कवि हैं। मोहन कुमार डहेरिया राजनैतिक (कु)व्यवस्था और सामाजिक व्यवहार के ढोंग को उधेडने में बहुत ईमानदार हैं। उनकी कविताओं में अनुभूति की प्रामाणिकता आत्मअन्वेषण के रूप में नहीं बल्कि अप्रिय वास्तविकताओं के साक्षात्कार में प्रस्तुत होती हैं जहां सत्य कोई छुपी हुई वस्तु नहीं है। सत्य जो सत्ता या कहें सामंती भाव को और ढोंगी समाज को कडवा लग सकता है पर जिसे कवि कहने का साहस कर लेता है, यह साहस मोहन कुमार डहेरिया के पास है।

मोहन कुमार की कविताओं की बडी विशेषता है, फैंटेसी। उनकी वैचारिकी भावसघन होकर अपना रूप कविताओं में धरती है और अपनी व्यापकता को उसकी त्वरा के साथ जाहिर कर पाती है। उनकी कविताओं में किसी ज्ञात अज्ञात की पुकार सुनाई पडती ही रहती है। उनकी ‘कोई बैठा था आत्मा के पेड़ में रात को’ में उनकी फैंटेसी मुक्तिबोध के ‘अंधेरे में’ की याद दिलाती है। इसी तरह उनकी कविता में तनाव एक मुख्य तत्व है। उनका भीतरी तनाव (Intension) भाव और विचार का लगातार विकास करता हुआ कविता के रूप में बाहरी तनाव (Extension) तक यात्रा करता है। इस तनाव का मुख्य कारण व्यवस्था से, जमाने से मोहभंग है। इसलिए मोहन कुमार डहेरिया की कविताओं में दुःखवाद की एक समानांतर धारा बहती रहती है।

मोहन कुमार डहेरिया आधुनिक भावबोध के कवि हैं। पिछले तीसेक वर्षों में तकनीक और संचार के साथ संपन्न और लंपट मध्यवर्ग का उदय भी हुआ है जो अपने व्यवहार में सामंती है और धार्मिकता का दिखावा करता है। इसके साथ ही पूरी व्यवस्था के अंग अपने मूल चरित्र को खो चुके हैं, उन सभी बातों को मोहन कुमार ने अपने पांच कविता संग्रहों में बराबर दर्ज किया है। वह चाहे राजनीति हो या मीडिया या सांगठनिक गिरोहों का व्यवहार, वे अपने समय में हो रहे सार्वजनिक पतन और मनोदशाओं की विभिन्न परतों को चित्र की तरह अपनी कविता में लाते हैं। उनकी इन कविताओं का ज्यादातर रंग धूसर है जिसमें वे सिस्टम के गलत के खिलाफ ही खडे दीखते हैं। मोहन कुमार डहेरिया की इन तमाम कविताओं में उनके बिंब और प्रतीक भी नए रंग रूप के हैं जो गहरी पीडा, संत्रासपूर्ण और व्याकुलता के साथ नजर आते हैं।

उनकी कविताओं का एक महत्वपूर्ण पक्ष प्रेम है। उनका प्रेम रूमानी एहसास के बाद की जीवन की खतरनाक सच्चाईयों के बीच पीडा, अवसाद, यातना और गहन स्मृतियों से संपृक्त है। इन तमाम आशंकाओं, असुरक्षा और प्रायश्चित के बावजूद उनकी कविता प्रेम के सकारात्मक संभावना के लिए मौजूद है। उनका एक कविता संग्रह है, ‘न लौटे कोई इस तरह’। इस संग्रह की सभी कविताएं प्रेम के बाद के विछोह, सामाजिक कानूनी प्रताडना और भागे हुए प्रेमियों की पीडा को जाहिर करती हैं। इन कविताओं में भागी हुई लडकियों के घर लौटने को भी दर्ज किया गया है। हिंदी में इस तरह से इस विषय पर शायद यह अकेली कविताएँ हैं। मोहन कुमार डहेरिया की यह तमाम कविताएँ व्यक्तिगत और सामूहिक अभिव्यक्ति को सशक्त और बेचैन होकर जाहिर करती हैं, उन्हें पढा जाना चाहिए।

 

मोहन कुमार डहेरिया की कविताएँ

1. कभी सोचा न था

ऐसे जिया जायेगा जीवन
फुनगियाँ पूछेगी जड़ों से
उनके होने का औचित्य
चन्द स्लोगनों में समा जायेगी
जीवन की सारी जटिलताएं
कोई भरोसा नहीं
खेल के मैदान की हार
बन जाए विश्वयुद्ध का कारण

कभी सोचा न था
एक फूहड़ शोर को
कहना होगा अद्भुत संगीत
इतना सुलभ होगा मोक्ष
बटन दबाते ही चैनलों पर मिल जाएगा
लाख निचोड़ने पर भी
न निकलेगा पानी
पत्थर सी होगी क्षमा
सुबह की मौत बाधा नहीं बनती
शाम के सेलिब्रेशन में
जिसके पास होगा
जितना आधुनिक रिमोट कंट्रोल
उतना ही सुखी और सफल होगा
दाम्पत्य जीवन

कभी सोचा न था
सबसे अच्छा माना जाएगा वह दर्शन
गुजार सके डरता छिपता आदमी
जिसमे किसी तरह उम्र

यह वह समय होगा
जब हमला और बचाव
एक ही शब्द के पर्यायवाची होंगे !

 

2. पुकार

तय किया है मैंने
ले-लेकर तुम्हारा नाम मैं सिर्फ पुकारूँगा !

कभी उस तरह पुकारूँगा
जैसे रेत पर पड़ी कोई जर्जर नाव पुकारती है
जल, लकड़ी और पाल के संयोग से बनी
किसी गुप्त भाषा में
समुद्री तूफ़ान में खो गए अपने मल्लाह को…

तो कभी उस धावक सा पुकारूँगा
मैदान में गश खाकर गिरने के बाद भी पुकारता रहता है
अपने असंख्य रोमछिद्रों से अपने लक्ष्य को…

मैं जानता हूँ
पुकारने से नहीं मिल जाता कोई किसी को
समस्या का हल भी नहीं है पुकारना
एकनिष्ठ प्रेम की तपस्या करने के बाद
जब मिले भीष्म की तरह बाणों की शैय्या
और सूर्य उत्तरायण में जाने का नाम ही न ले
तो पुकारने के अलावा कोई कर ही क्या सकता है

हाँ ! पुकारते समय
जाने कितने मानसूनों का जल होगा मेरी आँखों में
कंठ में कितनी स्मृतियों का हलाहल
संभव नहीं बता पाना
मैं तो ले-लेकर तुम्हारा नाम बस पुकारूँगा…

बताता इतिहास भी यही
पाकर किसी की पुकार का दंश
रचे जाते रहे हैं महाकाव्य
खड़े होकर किसी की पुकार की जमीन पर
बनवाए हैं लोगों ने महान स्मारक !

 

3. मीडिया

व्यर्थ ही मत पुकारो दुखों से घिरे जीवन
मैं मीडिया बोल रहा हूँ
नहीं आ सकूँगा तुम्हारे पास !

नहीं है तुम्हारी कहानी में आंसू और चटखारों
का सुंदर समन्वय
ना पेश किया जा सकता तुम्हें
पाठकों श्रोताओं और दर्शकों के आगे तश्तरी में सौंप और इलायची की तरह
और फिर मध्ययुगीन भी है मदद मांगने का तुम्हारा शिल्प

बेशक हूं मैं जीवन का प्रहरी
मुझे अकेली जान के हवाले पर कितना कितने काम
आखिर कहां कहां जाऊं
अब अफ्रीका महाद्वीप के
इस सुदूर आदिवासी गांव को ही लो
अकाल की महामारी से जूझ रहा पूरा गांव लोग खा रहे अपने ही बैलों का मांस
पी रहे एक दूसरे की पेशाब
भूख का ऐसा दुस्साहस
प्यार की ऐसे दूरदर्शी सूझ
जाना तो पड़ेगा ना वहां तुरंत
और यह दूसरा दृश्य
पुल पर लटका दुर्घटनाग्रस्त रेलगाड़ी का डिब्बा
पिचकी खिड़की से झूल रहा
किसी बालिका का हाथ
आ रही रुदन की धीमी धीमी आवाज
ईश्वर की ऐसी दर्शनीय बर्फीली तटस्थता जाना तो पड़ेगा ना वहां से पहले

व्यर्थ ही न पुकारो यातनाओं से घिरे जीवन
संभव नहीं मेरा अभी तुम तक पहुँच पाना
न पहना तुमने तकलीफों का
उत्तेजक रंगों वाला लिबास
न शामिल है तुम्हारी चीत्कारों के बीच-बीच में किसी प्रायोजक का रोचक विज्ञापन

 

4. पता ही नहीं चला

पता ही नहीं चला
कब बदल गए हमारे रास्ते और मंजिलें मंगल भाई

पता ही नहीं चला
कब शामिल हो गए मेरी भाषा में
पिज़्ज़ा, ब्रांडेड जींस, लैपटॉप, शेयर मार्केट तथा डॉलर जैसे शब्द
कब तुम्हारी बोली बानी का हिस्सा हुए
गरीबी रेखा कार्ड, मिट्टी का तेल,बोहनी बट्टा और त्यौहारी बाज़ार जैसे शब्द
कब तीन कश के बाद ही फेंकने लगा मैं कीमती सिगरेट
कब कानों में खोंचने लगे तुम अधजली बीड़ी कि पी सको कई बार
कब लगा लिया मैंने कार में टीवी, एसीतथा विदेशी म्यूजिक सिस्टम
कब चौड़ा करवा लिया तुमने साइकिल का कैरियर
लगवा ली हैंडिल में लाइट
कब बीतने लगे मेरे गर्मियों के तपते दिन
शिमला, कश्मीर और स्विट्जरलैंड में
कब जेठ की लू से भरी तुम्हारी दोपहरें गुजरने लगी
गुढ़ी, राखीकोल, तामिया तथा उमरेठ के बाजारों में
लगाते थिगड़ेदार पाल वाली दुकान

ऐसा तो नहीं था पहले
एक ही माँ की कोख से पैदा हुए हम
एक ही आँगन में पले बढ़े
बचपन में जब फाड़ दिया था बब्बू ने मेरी पतंग
कैसे टूट पड़े तुम उस पर
और टंगड़ी मार गिरा दिया था जब श्याम बघेल ने तुम्हें हॉकी के खेल में
कैसे गढ़ाए मैंने उसके पैरों पर दाँत
ज़ाहिर है एक ही मिट्टी से जुड़ी थी हमारी जड़ें

पता ही नहीं चला
कब भूल गए मेरे शरीर के जीवाणु रोगों से लड़ने का हुनर
कब शिकार हो गया मैं उच्च रक्तचाप, मधुमेह, अनिंद्रा और अवसाद का
कब घास के मुक्के में तब्दील हो गया मेरा क्रोध और प्रतिरोध
कब मेरे जीवन सरोकारों में आ घुसा एक बहेलिया लेकर अपना जाल
जड़ ली कब मैंने हाथ की अंगूठी में हीरे की जगह अपनी ही आत्मा

पता ही नहीं चला
कब लौह छड़ों में बदल गई बोझ ढोते ढोते तुम्हारे शरीर की हड्डियाँ
कब सीख ली
कुत्तों की तरह जीभ से चाट – चाटकर अपने घाव को ठीक करने की कला
किस दुकान से खरीद लाए गाढ़ी, गहरी नींद
कब उतार फेंका अपने आक्रोश की देह से रेशमी लिबास
निकलने लगे मुँह से थूक के सच्चे गुस्सैल छीटें
कब करियाकर हो गया तुम्हारा माथा प्रखर और ज्यादा मनुष्योचित
श्रम की धूप में झुलस – झुलस कर

सचमुच पता ही नही चला मंगल भाई
कब पीछे लग गया बदबू का एक झोंका
फ़ूलों और इत्र की खुशबू में डूबे मेरे उत्सवों के पीछे
गटर और कीड़ों से बिलबिलाती नालियों से घिरे मोहल्ले में रहने के वाबजूद
कैसे सने है जीवन की सुरभि से अभी तक तुम्हारे सारे त्यौहार।

 

5. जय श्रीराम

‘ राम ‘ नहीं ‘ जय श्रीराम ‘ हो तुम अब
नामों से खिलवाड़ के उदाहरण अन्यतम

नई बात नहीं नामों से खेलना
हमारे गली मोहल्ले में सबकी थी छाप
घनश्याम ओमरे को कहते थे चटुआ
विवाह हो या मृत्युभोज युवतियों से निकटता की चाह में
बाबर्चीखाने पहुँच पूछता अक्सर चटुआ चलाऊँ क्या?
मेरा कस्बा कहता जिसे आज भी ‘ मुन्ना भैया ‘
मदन सिसोदिया नाम के एक बड़े शहर का कलेक्टर है सबको होगी याद ‘ बाबी ‘ फिल्म की डिंपल कपाड़िया
पहली मुलाकात में जिसने ऋषि कपूर को’ डिब्बा ‘ कहा था
अपमान , क्रोध से फिर भी नहीं बौखलाया हीरो
सुन ली थी जैसे उसने उस व्यंग्य के नेपथ्य में
भीष्ण गति से अपनी तऱफ आते
प्रेम के अश्व की टापों की आवाज़

छापों की परंपरा से तुम्हें भी जोड़ा गया है ऐसा इस बार
कि भ्रामक हो गए तुम्हारे होने के निहितार्थ
हालाँकि यह सच है
बचाया था एक वचनवद्ध राजा को तुमने
उसकी रानी के सामने शर्मिंदा होने से
निकला गोली खाकर गिरते गांधी के मुँह से
हत्यारे के लिए
एक विराट क्षमा की पुकार सा तुम्हारा नाम
घने जंगल में सुनसान पगडंडियों
या गाँव की सीमाओं पर
अभिवादन के रूप में ही सही
तुम्हारे तेजस्वी रूप का आदान – प्रदान
खड़े कर देता था दो अनजान मनुष्यों को
भय , संदेह , असुरक्षा की दहकती जमीन मुक्त कर
बर्फीले झरने के नीचे

सर्वविदित यह भी
कल्पे तुम सीता से बिछुड़कर छाती पीटते जंगल – जंगल
फूल पत्ती , परिन्दों , जलाशयों तक में दिखती तुम्हें प्रेयषी की छवि
पर इन दिनों एक राजनैतिक मर्दवादी गंडासे से काटकर
अलग किया जा चुका तुम्हारे नाम से सीता का नाम
सचमुच पहचान में नहीं आ पाते हो
अब तुम कभी
तुष्टिकरण के खिलाफ तनी मुठ्ठी
पाशविक राष्ट्रवाद के रथ के सारथी
एक प्यारे ढुलमुलपने के बरक्श उठा हुआ
करुणाहीन ठोस कदम
या सांस्कृतिक रूप से मनोरोगी
कुछ धर्मगुरुओं की चिलमों से उठा गंजेड़ी नारा हो
और हाँ
अभिशप्त शिला में तब्दील होने वाली स्त्री
नहीं चाहती तुम्हारे पैरों स्पर्श से पुनर्जीवित होना
एक कौम विशेष के कान तो
तुम्हारा नाम सुनते ही चौकन्ना हो खड़े हो जाते हैं
घास चरते हिरणों को
मिली मानों बाघ की आहट

राजनेताओं खेलो
शब्दों , मिथकों , संविधान , राष्ट्रगान , न्यायालयों , पाठ्यक्रमों , संस्कृतियों , साहित्य , विदेश नीतियों , लोकनायकों
जिससे भी खेलना है जरूर खेलो
खेले थे जैसे इतिहासकार
औरंगजेब को एक जिंदा पीर कह बना उसे बहुआयामी
यशोदा ने कृष्ण को माखनचोर का नाम दे
दी वात्सल्य को नई ऊँचाई
कुछ ऐसा तुम भी खेलो।

 

6. कोई बैठा था मेरी आत्मा के पेड़ पर रात में

कीचड़ के कंबल के नीचे छटपटा रही है मेरे फूलों की पंखुडियॉ
मेरी फुनगियों पर घोड़ों की टापों सा पड़ रही सूर्य की किरणें

अरे ! कौन बैठा था रे रात में मेरी आत्मा के पेड़ पर

अभी – अभी सोकर उठा हूँ
हाथ मुँह धोकर पी चुका गर्मागर्म चाय
महसूस नहीं पर जरा भी स्फूर्ति
निचोड़ लिया जैसे किसी ने शरीर का सारा खून
भय और आतंक की धुंधली छाया में जकड़ा पूरा वजूद
याद करता हूँ तो लगता है
शायद रात में देखा कोई दुःस्वप्न
बैठा था जिसमें कोई भयानक विराट परिंदें जैसा कुछ मेरी आत्मा के पेड़ पर
मैं लेखक जो ठहरा
लिहाजा परिंदें तो बैठते ही रहे हैं मेरी आत्मा के पेड़ पर
लेकिन उनके बैठते ही
सितार के तारों की तरह झंकृत होने लगती मेरी डालें
बज उठता आदिम नगाड़े सा देह का तना
ऐसा वीभत्स कभी नहीं रहा उनका बैठना
कि बैठते ही टपकने लगे उनकी चोंचों पँखों और पैरों से
लिप्साओं की इल्लियां
फड़फड़ा उठे हर पत्ता करता जैसे किसी महामारी का उदघोष

अरे ! कौन बैठा था रे रात में मेरी आत्मा के पेड़ पर

बार – बार सोचता इस रहस्य के बारे में
पर कुछ समझ में नही आता
तभी अचानक आया ख्याल
कहीं ऐसा तो नहीं
किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का कोई सिरफिरा रोबोटनुमा मालिक
दाखिल हो गया हो किसी परिंदें के अंदर
कर दिया हो सूक्ष्म तकनीक से खत्म उसका परिंदापन
निकला फिर उड़ान पर पृथ्वी की कीमत का अंदाजा लगाने
और बैठा हो इस क्रम में उड़ते – उड़ते
मेरी आत्मा के पेड़ पर अनायास

आसमान में उड़ने का ख़्वाब देख रही मेरी जड़ें
अरे ! कौन बैठा था रे रात में मेरी आत्मा के पेड़ पर?

 

7. नहीं दूंगा अपना दुःख किसी को

तय है अब
दाखिल हुआ है जो दुःख मेरे जीवन में
इसे किसी को नहीं दूँगा
न धर्मगुरु को न राजनेता को

धर्मगुरु को दिया तो बदल देगा सूक्ति वचनों में
राजनेता को दिया तो भर देगा इसके अंदर नारों का भूसा
दर्शनशास्त्री किसी धुंध को सौंप बढ़ा देगा इसकी जटिलता
हाँलाकि अपने दुखों को दूसरों के साथ बाँटना
अँधरे और आशंका में डूबे एक घर की सारी खिड़कियों को
हजारों दिशाओं में एक साथ खोल देना
या अपनी पीठ के कुबड़ को
अपने आगे चलती प्रखर ज्योति में बदल देना भी हो सकता है
परंतु न जाने क्यों लग रहा डर
सौंपा अगर इसे किसी को
नष्ट न हो जाए इसकी मौलिकता
प्रदूषित न हो जाए सरलता

तय किया इसलिए
दाखिल हुआ है जो दुःख मेरे जीवन में
मैं इसे किसी को न दूँगा
न भाषाविद को न इतिहासकार को
भाषाविद को दिया तो
व्याकरण के नियमों में जकड़कर सोख लेगा इसकी नमी
इतिहासकार को दिया तो
किसी कौम विशेष का कलंक कहकर न कर दें अपमान
अर्थशास्त्री आँकड़ों की छुरी से कर सकता वध

क्या करूँगा फिर इस दुःख का
ढोते रहूँगा क्या तमाम उम्र
नहीं निभाऊँगा बल्कि एक ऐसे अंधे की भूमिका
जो खुद ही हटा लेता अपने पथ प्रदर्शक के कंधे से हाथ
तोड़ देता हाथ की लाठी
विकसित हो सके ताकि
दुर्गम रास्तों के आते ही ख़तरों को भाँपने की उसकी इंद्रियाँ
आकार ले सके खुद के चलने का शिल्प।

 

8. हरीश कुमार आजकल बिल्कुल नहीं लिखता

सुना है
हरीश कुमार आजकल बिल्कुल नहीं लिखता

क्या करता होगा फिर
बैलों सा जुता तो नहीं परिवार के कोल्हू में
कहीं मानने तो नहीं लगा
साहित्य तथा कलाओं को मनुष्य की आत्मा का फिजूल का शगल
रह तो नहीं रहा किसी नासूर के अंदर
विरक्त तो नहीं देख लेखकीय पांखड और पुरस्कारों की राजनीति
भर तो नहीं ली पेन में कोई पिघली हुई आग
चल तो नहीं पडा़ किसी धर्मगुरु की मायावी छाया के पीछे
वहशत दिखाई देती थी उसकी आंखों में और होंठ अक्सर बुदबुदाते
सरक तो नहीं रहा अंदर ही अंदर किसी मनोः चिकित्सालय की ओर

पहले तो ऐसा नहीं था
लिखना- पढ़ना उसके लिए सांस लेने जैसा था
कहता – मात्र औसत पु़त्र, पिता या भाई नहीं वह
परन्तु सुना है
हरीश कुमार आजकल बिल्कुल नहीं लिखता
खड़ा तो नहीं अपने कवि होने और न होने की दुविधा में
किसी पर्यटक सा देखने तो नहीं लगा जीवन की त्रासदियों को सैलानी भाव से
उठती तो होगी उसके अंदर लिखने की लहर
बहकाता होगा अपनी आत्मा को कुतर्कों से

आशंका तो पिछली मुलाकात से थी
मिला वर्षों बाद जब
कसकर गले न लग तना रहा लोहे की छड़ सा
नहीं लगाये पीठ पर आत्मा को खिलखिला देने वाले घूंसे
नहीं कहा मुझे सुनाने को कविता
मना किया अपने वातानुकूलित घर में जोर- जोर से बात करने को
लगाये मैंने भी बात- वेबात जोरदार अट्ठाहास
जोर से पादा हाल के बीचों – बीच खड़े होकर
साहित्य, जीवन और मनुष्यता के पक्ष में
मेरे पास उस समय इससे बुलंद आवाज कोई और न थी

सुना है
हरीश कुमार आजकल बिल्कुल नहीं लिखता
क्या करता होगा फिर वह
याद आया कहा करता था
शेर है वह साहित्य के जंगल का
करेगा जब भी शिकार सिर्फ तीन छलांग में ही करेगा
तय की थी उसने लिखने के लिए जो शेरपने की कसौटी
ध्वस्त तो नहीं हो गया उसे साधने की कोशिश कहीं वह ।

 

9. रुलाई

वह एक रुलाई थी
आंसू ना थे इसमें ना हिचकियों के साथ हिलते हुए कंधे
फिर भी वह एक रुलाई थी

पुलिस थाना था वह
बैठे थे मेज के दोनों तरफ एक युवक और युवती
अपने अभिभावकों के साथ
जाहिर है
खड़ी की जा चुकी थी उनके बीच दीवारें
कुचला जा चुका था प्रेम
हर दिखा पर हो रही थी उनकी स्मृतियों पर
पत्थरों की बौछार
आधी गर्दन कटे मुर्गे की तरह लग रहे थे
उन्हें यातना के तेज झटके
निकल नहीं पा रहा था फिर भी उनके मुंह से
रुदन का एक भी शब्द।

आखिर कैसी थी वह रुलाई
शब्द न थे इसमें
ध्वनि नहीं थी कोई
किसी शोक गीत की एक पंक्ति तक नहीं थी
क्या अपनी हद से गुजर जाता है जब प्रेम
कष्ट की अनुभूतियों से परे हो जाती देह
हठयोगी में तब्दील हो जाता मनुष्य और दुख घड़ी लेता है अपने लिए कोई नई भाषा

बेशक विलाप का कोई मर्मस्पर्शी अंदाज ना था
उनके पास फिर भी
वह एक रुलाई थी
चारों तरफ से बंद एक लौहकुंड के भीतर
होती इकट्ठा बूंद बूंद
जिसे समझने का कौशल
उस समय किसी के पास ना था

 

10. पिछड़ा नहीं हूँ मैं

पिछड़ा नहीं हूँ इस दौड़ में मैं

बेशक
ताने मारे चाहे जितना मुझे
देखे हेय नजरों से
पिछड़ा नहीं हूँ

चाहता तो भाग सकता था बंदूक की गोली सा सनसनाता
बस इतना ही तो करना था
एक वर्णशंकर भाषा को गले लगाना था
चूसकर फेंक देना था गुठली सा अपनी बोली – बानी को
धर्म को आत्मा के प्रति जवाबदेह न मानना था
फ़िल्मी गानों की फूहड़ पैरोडी में उसे खिलते हुए देखना था
बाँटना था अनाथालयों में कंबल महापुरूषों के जन्मदिनों में
फेरते हुए तोंद पर हाथ,छोड़ते हुए हिंसक डकारें
धर्म को इतिहास समझना था
इतिहास को महज़ ख़ूनी दंतकथा

जाहिर है करना तो न था कुछ खास
मारना था बस आँख के पानी को
नैतिकता को मान लेना था फटा हुआ ढोल
इस्पात का नहीं बना था मैं
मेरे भी बीबी- बच्चे थे,मित्र और उम्मीदों से तरबतर रिश्तदार
कमजोर क्षणों में हुआ शामिल इस दौड़ में
पर देखा पैरों के नीचे कुचला जा रहा
नीम की दातौन बेचने वाला एक बूढ़ा
सुनाई दी पीठ पीछे
किसी आदिवासी छात्रावास में नोंची जाती नाबालिग लड़कियों की करुण पुकारें
और मैं विचलित हो हर बार ठहर गया

पिछड़ा नहीं हूँ इस दौड़ में
पिछड़ेपन के औसत अर्थ से पहले ही बाहर आ गया था मैं।
_______________________

 

 

 

कवि मोहन डहेरिया, जन्म : 1 जुलाई 1958, बड़कुही , जिला – छिंदवाड़ा (मप्र) शिक्षा : एम॰ ए॰ ( हिन्दी, अर्थशास्त्र ), बी॰ एड॰ 

प्रकाशन :  कहाँ होगी हमारी जगह, उनका बोलना, न लौटे कोई इस तरह, इस घर में रहना एक कला है  (काव्य संग्रह)। विभिन्न कविता संग्रहों में कविताएँ शामिल । कुछ कविताओं के उड़िया एवं मराठी में अनुवाद प्रकाशित । कभी -कभार कहानी लेखन भी । ‘उनका बोलना’ कविता संग्रह दो वर्ष तक गुजरात के एक विश्वविद्यालय में एम.फिल. के पाठ्यक्रम में शामिल । पुरस्कार  – सुदीप बनर्जी सम्मान, शशिन सम्मान. संप्रति  – सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त नई पहाड़े कॉलोनी, जवाहर वार्ड, गुलाबरा ,छिंदवाड़ा. जिला – छिंदवाड़ा  (मप्र) 480001

फोन नं॰  – 8718903626 

Email – mohankumardeheria@gmail.com

 

टिप्पणीकार पीयूष कुमार, जन्म – 03 अगस्त 1974. सह सम्पादक – ‘सर्वनाम’ पत्रिका. लेखन – कविता, समीक्षा, सिनेमा, अनुवाद और डायरी आदि विधाओं में लेखन। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं और ऑनलाइन मंचों, पोर्टल्स आदि पर नियमित प्रकाशन। आकाशवाणी और दूरदर्शन से आलेखों का प्रसारण और वार्ता। ‘चैनल इंडिया’ अखबार रायपुर में छत्तीसगढ़ी गीतों पर ‘पुनर्पाठ’ नाम से साप्ताहिक आलेख। प्रकाशन – सेमरसोत में सांझ (कविता संग्रह) भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित। अन्य – लोकसंस्कृति अध्येता, फोटोग्राफी (पुस्तकों और पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठ के लिए छायांकन) 

संप्रति – सहायक प्राध्यापक (हिंदी) शासकीय बद्रीप्रसाद लोधी स्नातकोत्तर महाविद्यालय आरंग, छत्तीसगढ़।

सम्पर्क : मोबाइल – 8839072306

ईमेल – piyush3874@gmail.com

 

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion