निरंजन श्रोत्रिय
युवा कवि मिथिलेश कुमार राय की कविताएँ छोटे-छोटे वाक्य विन्यास के जरिये कविता का वह संसार रचती है जो बहुत सहज और आत्मीय रूप से पाठकों के मन का हिस्सा हो जाता है।
इन कविताओं की बनावट ही ऐसी है कि वे एक प्राकृतिक और अनायास तरीके से पाठकों के अंतर्मन का हिस्सा हो जाए। ऐसा लगता है कि युवा कवि ने संवेदना के एक बड़े आकार को छोटे-छोटे संवेदना खण्डों में तोड़ दिया है और हर संवेदना खण्ड अपने आप में कविता हो जाना चाहता है। दिलचस्प लगता है यह जानना कि क्या यह मिथिलेश की काव्य भाषा अर्जन का परिणाम है या इस युवा कवि की अपनी काव्य-संवेदन कवायद।
युवा कवि के पास एक सहज और उपलब्ध शब्दावली है और है एक ऐसी दृष्टि जो इस काव्य भाषा को एकदम नये अर्थों से भर देती है। ‘सबसे सुंदर लड़कियाँ /अभी कहीं बकरी चरा रही हैं/ हंसिया लेकर बैठी मेड़ पर/ किसी गीत के मुखड़े गुनगुनाती /घास काट रही हैं’ ( विश्व सुंदरियाँ )।यहाँ रेखांकित करने योग्य बात यह है कि कवि यदि श्रम में जुटी अस्त-व्यस्त लड़कियों में सौन्दर्य को उद्घाटित करना तो कवि-दृष्टि का परिचायक तो है ही लेकिन उसके सिर पर रखी टोकरी या तगारी को ताज मान लेना ऐसा ‘पंच’ है जो इस कविता को महत्वपूर्ण बनाता है। ‘मालिक’ जैसी छोटी कविता में वह शासक वर्ग के प्रश्नों के माध्यम से सर्वहारा समाज के शोषण की मार्मिक तसवीर प्रस्तुत करते हैं।
यह शोषण सर्वहारा से मानवीय असंलग्नता है जो आम तौर पर दिखता नहीं। ‘हम ही हैं’ कविता में शोषित-दमित वर्ग की विवशता और लगातार हाशिये पर पटक दिये जाने की व्यथा तो है ही साथ में उस वर्ग की एकजुटता भी है जो सर्वहारा के एक साथ, एक ही तरह छले जाने को मार्मिकता से रेखांकित करती है। ‘विजेता चाहे जो बने हों/ लेकिन लड़ाई में जिन सिरों को काटा गया तरबूजे की तरह/ वे हमारे ही सिर हैं।’
गाँवों से शहरों में विस्थापन का दर्द मिथिलेश की कविताओं में बार-बार उभर कर आता है। ‘शुभ संवाद’ और ‘त्योहार बीत जाएगा’ ऐसी ही कविताएँ हैं जो इस पलायन को कभी बहुत ही सहज रूप से तो कभी सवालों के माध्यम से प्रकट करती हैं।
युवा कवि मिथिलेश की यह सामाजिक संलग्नता और सरोकार ही उनकी कविता को एक प्रतिबद्ध कविता बनाते हैं। अपनी जड़ों से कटने का संकट और जमीन से जुड़ने की आकांक्षा उनकी कविता में यहाँ-वहाँ छितरी हुई है। यहाँ तक कि उन्हें धरती और पाँव के बीच चप्पल भी गवारा नहीं। इसके साथ ही ‘महामहिम’ जैसी कवित में एक राजनीतिक चेतना और प्रतिरोध का भी स्पष्ट परिचय देते हैं।
इस कविता में व्याप्त ‘विट’ देखने योग्य है। कविता के चरम पर कवि महामहिम से यही नहीं कहता कि आप खेत की मेड़ पर कैसे चल पाएँगे? वह यह कह कर खत्म करता है कि ‘आप गिर पड़ेंगे’।
यह अतिरिक्त पंक्ति दरअसल कवि की आकांक्षा है जो दरअसल जनता की आकांक्षा भी है। कवि ने इस प्रतिरोध को इतने बारीक और कलात्मक रूप से कविता में रखा है इस प्रतिभा पर मुग्ध होने का मन होता है।
युवा कवि मिथिलेश कुमार राय की कविता हमारे समय के एक सजग युवा कवि की कविता है जो न सिर्फ अपने परिवेश से गहरे सरोकार रखता है बल्कि अपने समय पर आए आसन्न खतरों के प्रति हमें आगाह भी करता है। कवि की प्रतिबद्धता की इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि वह गरमी का पारा जानने के लिए आपको मौसम विभाग नहीं, तपती रेत पर चलते मजदूरों, रिक्शे वालों या चूल्हे पर रोटियां सेंकती स्त्रियों के पास भेजना चाहता है।
मिथिलेश कुमार राय की कविताएँ
1/ विश्व सुंदरियाँ
सबसे सुंदर लड़कियाँ
किसी गाँव में अभी
गोबर के उपले थाप रही हैं
बड़े जतन से
मिट्टी के चूल्हे बना रही हैं
सबसे सुंदर लड़कियाँ
अभी कहीं बकरी चरा रही हैं
हंसिया लेकर बैठी मेड़ पर
किसी गीत के मुखड़े गुनगुनाती
घास काट रही हैं
ताज पहनी लड़की तो कोई और है
सबसे सुंदर लड़कियाँ तो अभी
किसी खेत में बथुआ खोंट रही हैं
सूरज के आगे अपनी देह झुलसाते
कपास चुन रही हैं
ध्यान से देखें
इनके सिर पर भी ताज है।
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2/सपनों की बातें
एक व्यक्ति जिसे सेब खाने के बाद नींद आई थी
उसने सपने में हवाई जहाज देखा
जिसमें इत्मीनान से बैठा हुआ वह
बादल के टुकड़े को निहार रहा था
सवेरे वह जगा तो उसके चेहरे पर तेज था
होठों पर मुस्कुराहट थी
उसी नगर में उसी रात एक दूसरा आदमी
जिसे मच्छर बड़ा दानी समझता था
और जिसकी भूख
प्याज-रोटी से नहीं मिटी थी तो उसने
भूख को दो लोटे पानी के नीचे दबा दिया था
डसकी बीवी चूडि़याँ तोड़ रही थी उसके सपने में
डसके बच्चे कूड़े के ढेर पर बांसुरी बजा रहे थे
और सवेरे जब उसके पास कोई भी नहीं था
उसने अपने आप से कहा
कि अब तो सपने भी मरने के ही आते हैं
इस बात की कोई प्रामाणिक जानकारी
उपलब्ध नहीं कर पाया कोई
कि उस रात उस नगर का राजा
क्या खाकर सोया था
कि सपने में उसे आतिशबाजी करते हुए
लोग दिख रहे थे
जो नाच रहे थे
गा रहे थे
और बड़े प्यार से एक-दूसरे के मुँह में
मिठाइयां डाल रहे थे
और जब सवेरे उसने यह बात दरबार में बताई
तो नवरत्नों ने इतिहास देखकर बताया
कि लोग
अब से पहले इतने खुश कभी नहीं थे।
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3/ हिस्से में
इन्हें रंग धूप ने दिया है
और गंध पसीने ने
यूँ तो धूप ने चाहा था
सबको रंग देना अपने रंग में
इच्छा थी पसीने की भी
डुबो डालने की अपनी गंध में सबको
मगर सब ये नहीं थे
कुछ ने धूप को देखा भी नहीं
पसीने को भी नहीं पूछा कुछ ने
शेष सारे निकल गए खेतों में
जहाँ धूप फसल पका रही थी
पसीना बाट जोह रहा था।
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4/ आदमी बनने के क्रम में
पिता मुझे रोज पीटते थे
गरियाते थे
कहते थे कि साले
राधेश्याम का बेटा दीपवा
पढ़-लिख कर बाबू बन गया
और चंदनमा अफसर
और तू ढोर हांकने चल देता है
हंसिया लेकर गेहूँ काटने बैठ जाता है
कान खोलकर सुन ले
आदमी बन जा नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूँगा
और बांस की फुनगी पर टांग दूँगा
हालांकि पिता की खुशी
मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी
लेकिन मैं बच्चा था और सोचता था
कि पिता मुझे अपना-सा करते देखकर
गर्व से फूल जाते होंगे
लेकिन वे मुझे दीपक और चंदन की तरह का
आदमी बनाना चाहते थे
आदमियों की तरह सारी हरकतें करते पिता
क्या अपने आप को आदमी नहीं समझते थे
टादमी बनने के क्रम में
मैं यह सोच कर उलझ जाता हूँ।
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5/ मालिक
मालिक यह कभी नहीं पूछता
कि कहो भैया क्या हाल है
तुम कहाँ रहते हो
क्या खाते हो
क्या घर भेजते हो
अपने परिजनों से दूर
इतने दिनों तक कैसे रह जाते हो
मालिक हमेशा यही पूछता है
कि कितना काम हुआ
और अब तक
इतना काम ही क्यों हुआ।
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6/ हम ही हैं
हम ही तोड़ते हैं साँप के विष-दंत
हम ही लड़ते हैं सांड से
खदेड़ते हैं उसे खेत से बाहर
सूर्य के साथ-साथ हम ही चलते हैं
खेत को अगोरते हुए
निहारते हैं चाँद को रात भर हम ही
हम ही बैल के साथ पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं
नंगे पैर चलते हैं हम ही अंगारों पर
हम ही रस्सी पर नाचते हैं
देवताओं को पानी पिलाते हैं हम ही
हम ही खिलाते हैं उन्हें पुष्प, अक्षत
चंदन हम ही लगाते हैं उनके ललाट पर
हम कौन हैं कि करते रहते हैं
सब कुछ सबके लिए
और मारे जाते हैं
विजेता चाहे जो बने हो
लेकिन लड़ाई में जिन सिरों को काटा गया तरबूजे की तरह
वे हमारे ही सिर हैं।
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7/ शुभ संवाद
कुछ शुभ संवाद मिले हैं अभी
ये चाहें तो थोड़ा खुश हो लें
पान खाए
पत्नी से हंस-हंस के बतियाएँ
दो टके का भांग पीकर
भूले-बिसरे गीत गाएँ
टुन्न हो अपने मित्रों को बताएँ
कि बचवा हो गया है मैट्रिक पास
गैया ने दिया है बछड़ा
कुतिया ने जने थे जो पिल्ले
हो गए हैं बड़े
और कल रात वह अकेला नहीं गया था खेत पर
दोनों पिल्ले भी चल रहे थे आगे-आगे
मगर सोचने पर ढेर तारे जमा हो जाते हैं
आँखों के सामने
कि गेहूँ में दाने ही नहीं आए इस बार
दो दिन पहले जो आँधी आई थी उसमें
सारे मकई के पौधे टूट गए
टिकोले झड़ गए
दो में से एक पेड़ उखड़ गए
महाजन रोज आता है दरवज्जे पर
कि गेहूँ तो हुआ नहीं
अब कैसे क्या करोगे जल्दी कर लो
बेकार में ब्याज बढ़ाने से क्या फायदा
जानते ही हो कि बिटवा शहर में पढ़ता है
हरेक महीने भेजना पड़ती है एक मोटी रकम
सुनो गाय को क्यों नहीं बेच देते
वाजिब दाम लगाओगे तो मैं ही रख लूंगा
दूध अब शुद्ध देता कहाँ है कोई
हे भगवान क्या मैट्रिक पास करके बचवा
भाग जाएगा पंजाब
बिटिया क्यों बढ़ रही है बांस की तरह
दूल्हे क्यों हो रहे हैं महँगे।
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8/ त्योहार बीत जाएगा
लाल भैया नहीं आएंगे
बोले कि बोनस मिलता है
ले के आएँगे
मजूरों की कैसी होली
क्या दीवाली
हरखू के सेठ ने उसे
छुट्टी ही नहीं दी
मांगने पर तुनक गया
बोला सब भाग जाओगे तो
कुत्ते को तुम्हारा बाप घुमाएगा ?
नंदू भी नहीं आ रहा
कहता है कौन जाए
बकरियों की तरह ठूंस कर ट्रेन में
वहाँ से अच्छी
यहीं होती है दीवाली
एक जोड़ी कपड़ा
गिफ्ट में देता है मालिक
मिठाई और कुछ पैसे अलग से।
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9/ गरमी के बारे में
गरमी के बारे में
मैं कुछ नहीं बता सकता
आप भी नहीं बता सकते
मौसम वैज्ञानिक सिर्फ यह बता सकते हैं
कि आज पारा चालीस के पार चला जाएगा
गरमी के बारे में
ठीक-ठीक जानकारी चाहिए तो
हमें रिक्शेवाले से पूछना होगा
घर बना रहे मजदूरों से पता करना होगा
या जो फसल काट रहे तपती धूप में
या कोई गीत गुनगुनाती
चूल्हे के पास बैठी
जो स्त्रियाँ रोटी सेंक रही हैं
वे बता पाएँगी गरमी के बारे में
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10/ पाँव
मेरा पाँव पृथ्वी का अहसास करना चाहता है
पाँव चाहता है ि कवह
किसी भी खोल को त्याग दे
और धरती पर नंगा होकर दौड़े
पाँव यह चाहता है कि चलते-चलते
उसमें कोई काँटा चुभे
और उससे लाल-लाल रक्त निकले
पाँव तनिक दर्द को महसूस करना चाहता है
वह कुछ देर कराहने का आनंद उठाना चाहता है
छूना चाहता है धरती
लेकिन पाँव और पृथ्वी के बीच
आ जाती है चप्पल।
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11/ ढिबरी
क्म-से-कम एक कविता
मैं ढिबरी पर लिखना चाहता हूँ
जो लालटेन से कम तेल पीता है
और अमावस्या की तनिक परवाह नहीं करता
मैं कुछ कविताएँ
उन सुंदर लड़कियों पर लिखना चाहता हूँ
जो जन्मी थीं तब गोरी थीं
बाद में खेतों की मेड़ पर
घास काटने और
फसल से प्रेम करने के क्रम में
स्याह हो गई
मैं उन कविताओं में
उनके ओंठ दबाकर गीत गुनगुनाने का
रहस्य खोलना चाहता हूँ
उनके नहीं खिलखिलाने का
अर्थ खोलना चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ कि एक कविता
उन लाठियों पर लिखूं
जिनके सहारे सांड को हांका जाता है
और जिनके सहारे रात से लड़ा जाता है।
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12/ महामहिम
हमारे साथ यहाँ आइये
आप आएँगे तो
साथ में बहुत आएँगे
मंत्री आएँगे
अफसर आएँगे
अखबार आएगा
टीवी आएगा
आपके आने से पहले
सड़क आएगी
रोशनी आएगी
आप आएँगे
सपने दिखा कर चले जाएँगे
लेकिन सड़क यहीं रह जाएगी
रोशनी यहीं रह जाएँगी
इसीलिए हम आपको बुला रहे हैं
दरअसल हम सड़क को बुला रहे हैं
हम रोशनी को बुला रहे हैं
लेकिन आप यहाँ कैसे आएँगे
क्यों आएँगे
एक तो यह आपके
कहीं आने-जाने का मौसम नहीं है
दूसरा हम तो मेड़ पर चलने के अभ्यस्त हैं
आप कैसे चलेंगे मेड़ पर
आप गिर पड़ेंगे।
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13/ दार्शनिक पिता
कभी-कभी पिता
दार्शनिक हो जाते थे
कहते थे कि दुनिया में
खेती से अच्छा कोई पेशा नहीं
पिता थोड़ी-सी जमीन के जोतदार थे
वे घर का खाते थे
और मस्त रहते थे
लेकिन जब बाद में महँगाई
पहाड़ छूने लगी
और कटाई के समय
फसल की कीमत
जमीन पर लौटकर दम तोड़ने लगी
पिता के गाल पिचकने लगे
आँखों में पीलापन झांकने लगा
तब उन्होंने पहला काम
मुझे शहर की ओर धकेलने का किया।
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14/ छोटी लड़कियाँ
छोटी रहेंगी लड़कियाँ
तो यहाँ दौड़ सकेंगी
ऊँचे स्वर में गा सकेंगी
वे बुक्का फाड़कर रो सकेंगी
खिलखिलाकर हँस सकेंगी
खेत तक जाकर
साग खोंट कर ला सकेंगी
बड़ी होंगी तो
खिड़की से झांककर
आगंतुक को देख सकेंगी
हँसते हुए उन्हें
मुँह पर हाथ रखना होगा
बिना आवाज किये चलने का
अभ्यास करना होगा।
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15/ वैसे ही
सवेरे खेत की ओर गया मैं
दोपहर बाद लौटता हूँ
तब मेरा चेहरा
पके धान की रंगत लिए
अगहन की धूप में
खूब चम-चम करता है
मुझ में आग नहीं
हरियाली है
और आँखों में
शोले नहीं
सावन का बादल तैरता रहता है
जो बरसता है तो
हरे धान की फसल नाच-नाच उठती है
बाढ़ की तरह
मुझे गुस्सा नहीं आता
मैं नदी जो नहीं हूँ
कभी-कभी वैसे ही मन करता है
विरहा गाने का
मगर खाट पर गिरते ही
नींद दबोच लेती है।
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(युवा प्रेरणा पुरस्कार से सम्मानित कवि मिथिलेश कुमार राय, जन्मः 24 अक्तूबर 1982 को बिहार के लालपुर गाँव (जिला सुपौर) में, शिक्षाः हिन्दी साहित्य में स्नातक। प्रमुख पत्रिकाओं में कविताएँ और आलेख प्रकाशित, इंडियन पोस्ट ग्रेजुएट नामक वृत्त चित्र का निर्माण। संप्रतिः पत्रकारिता। संपर्कः ग्राम व पोस्ट लालपुर, वाया सुरपत गंज, जिला- सुपौल (बिहार)- 852 137
मोबाइलः 94730 50546
टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य हैं.)