समकालीन जनमत
कविता

माया प्रसाद की कविताएँ उस व्यक्ति-मन की प्रतिक्रियाएँ हैं जो अपने परिवेश के प्रति जागरुक और संवेदनशील है।

प्रज्ञा गुप्ता


डॉ माया प्रसाद की कविताएँ उस व्यक्ति-मन की प्रतिक्रियाएँ हैं जो बहुत संवेदनशील है और अपने पूरे परिवेश के प्रति जागरुक है। उनकी कविताओं में व्यक्तिगत जीवन की, पारिवारिक जीवन की, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की स्थितियों से उत्पन्न सहज अनुभूतियाँ हैं।

इन कविताओं में जीवन का माधुर्य ही नहीं, कड़वा-कसैला भी चित्रित है। उनकी कविताओं में जीवन-राग सहज रूप में चित्रित है। साथ ही जीवन स्थितियों के प्रति क्षोभ और आक्रोश है ।लेकिन उनकी कविताएँ संघर्ष का संकल्प भी देती हैं।

उनकी कविताओं में जिजीविषा है और यह सहज रूप में है जो बार-बार मन को छूता है । अपनी बात कहते हुए कवयित्री माया प्रसाद ने स्वीकार किया है कि ‘जिंदगी को जैसा जितना देखा-जाना वह सब बेबाकी से लिखा। उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम ज़िन्दगी के कई अनुभवों को जीते हुए गुज़रते चले जाते हैं। हताशा के बीच जिजीविषा भरती हैं उनकी कविताएँ। कवयित्री माया जी ने पहली ही कविता में स्वीकार किया है-

सब श्वेत लिखा , सब श्याम लिखा
हमने फ़लसफ़ा तमाम लिखा
आँखें खोलीं तो रंग लिखे
पलकें मूंदी घनश्याम लिखा ।

हर बार नए इलज़ाम लगे
टुकड़े-टुकड़े हो चीखा मन
पर हमने हार नहीं मानी ,
जिंदगी तुझे अविराम लिखा।

डॉ. माया प्रसाद की कविताएँ सीधे-सीधे सहज शब्दों में मार्मिक संप्रेषण करती हुई सामने आती हैं –

हमने अपने बारहमासे, जिनके ऊपर वार दिए
उनके घर से अक्सर मुझको पतझड़ का पैगाम मिला ।

माया प्रसाद की कविताएँ अपने परिवेश की विसंगतियों पर सहज ही प्रश्न उठाती हैं। वे लिखती हैं –

घर बैठे ही लूट जाती हैं
अस्मत सीता की मरियम की
शासन पर शासन कौन करें
पूरी बस्ती बटमारों की।

कवयित्री में एक स्नेहमयी माँ की ममता भी है, विवशता भी है, दर्द भी है, स्थितियों के प्रति क्षोभ और आक्रोश भी है, जब वे कहती हैं –
हर तरफ बिषकीट हैं,
आखेट बनती निर्भयायें
हर अजन्मी बालिका पूछे ,
कहाँ किस देश जाएँ ?

कवयित्री माया प्रसाद अपने पूरे परिवेश के प्रति जागरूक हैं। उनकी कविताओं में पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन की स्थितियों से उत्पन्न सहज अनुभूतियाँ है । साथ ही एक संकल्प भी है –
बर्फ से लिपटे हुए हैं
नगर ,बस्ती ,घर
लिखूंगी आग के अक्षर ।
है मलीन अभिव्यक्ति के
आकाश का चेहरा
हर तरफ जिंदा कलम पर
लग रहा पहरा।
नयन में दुबके हुए
सपने सजग हो लें ,
अश्रु पलकों से ढुलककर
भीति-भय धो लें
सृजन की उर्वर धरा यह
हो नहीं ऊसर
लिखूंगी आग के अक्षर।

उनकी कविताएँ निराशा के क्षणों से नहीं घबरातीं बल्कि जीवन की सीख देती हुई सामने आतीं हैं-

जली हुई खेती से जैसे फसलें रूठा करती है ,
वैसी ही हारे कदमों से मंजिल छूटा करती हैं
थोड़े कांटे चुभ जाने दो अपने कोमल तलवों में
फिर सपनीले फूल खिलेंगे पथराई अंगनाई में।

उन्होंने कुछ गज़लें भी लिखी हैं। गज़ल लिखते हुए माया प्रसाद बहुत ही सहजता से स्वीकार करती हैं –

अपने कद के बौनेपन से कब मैंने इनकार किया
कब बांधी आरियां पांव में कब चीड़ो पर वार किया

कहाँ कभी पाली थी ख़्वाहिश सौ-सौ चाँद सितारों की ,
एक दिया माटी का था इस दिल ने उससे प्यार किया

उड़ा ले गई छत आंधी, है दीवारें महफूज अभी
उनके ही साए में मैंने फिर अपना घरबार किया।

इनकी कविताओं के संबंध में वरिष्ठ कथाकार डॉ. अशोक प्रियदर्शी जी कहते हैं कि “उनकी कविताओं को पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया और मेरे मन में नुसरत फ़तेह अली की गाई सूफी रचना का एक टुकड़ा बजने लगा – मज़ा आ गया।“ वाकई इन कविताओं से गुज़रते हुए हम मन की सहज भावाभिव्यक्तियों में खो जाते हैं और लगता है यह तो अपनी ही अनुभूतियाँ हैं। कवयित्री की इस दुनिया में ज़िन्दगी से जुड़ी कई अनुभूतियाँ हैं- कहीं बाल श्रम के प्रति अगाध तड़प है, कहीं देश की दुर्दशा पर चिंतन है,  कहीं सामाजिक विसंगतियों पर प्रश्न है और साथ है जीवन के प्रति अगाध विश्वास।
ये कविताएँ जिजीविषा से भरी हैं। जब कवयित्री कहती हैं –

मुट्ठी बांधो विश्वास रखो
सब सुख हैं इसी हथेली में ।
खुशियों के फूल नहीं खिलते
सपनों की बंद हवेली में

तो मन में एक आस्था का भाव आता है। जब वे बेटियों के नाम कविता में कहती हैं –
अंजुरी में झड़े फूल के पराग सी लगें
ये बेटियाँ हैं जिंदगी के राग सी लगें।

तो मन में एक विश्वास का भाव उत्पन्न होता है। ‘सुनो युधिष्ठिर’ ,’बाकी हैं प्रार्थनाएँ’ और ‘लिखती हूँ जिंदगी तुझे’ उनकी तीन कविता- संग्रह प्रकाशित हैं। उनकी कविताओं की ख़ासियत यह है कि आज का समय बेबाकी से अभिव्यक्त है। वह जैसी है वैसा ही लिखती हैं। विगत तीन चार दशकों से वे नारी अस्मिता एवं सशक्तिकरण के लिए संघर्ष करती रही हैं। खास तौर से झारखंड में असंगठित क्षेत्र की महिलाओं के उन्नयन हेतु उन्होंने लगातार काम किया है। उनकी कविताओं में संघर्ष की चेतना और जीवन के प्रति विश्वास अभिव्यंजित है । 78 वर्ष की उम्र में भी वे कविताएँ रच रहीं हैं उनकी लेखनी बनी रहे। कवयित्री माया प्रसाद के ही शब्दों में –
ये शब्दों की दुनिया
किताबों के मेले
सलामत अगर हैं
नहीं हम अकेले।

 

 

माया प्रसाद की कविताएँ

1.लिखती हूँ ज़िन्दगी तुझे

सब श्वेत लिखा, सब श्याम लिखा
हमने फलसफा तमाम लिखा
आंखें खोली तो रंग लिखे।
पलकें मूंदी घनश्याम लिखा।
कितना कौशल ,कितना श्रमबल हमने खर्चा ,यह भ्रम पाला
इन हाथों की ही हद में है ,हर सुख की चाबी हर ताला।
सौदेबाजों की मंडी में ,अपना यह निपट अनाड़ीपन,
हर बार नए इल्जाम लगे टुकड़े-टुकड़े हो चीखा मन।
पर हमने हार नहीं मानी ,
जिंदगी तुझे अविराम लिखा।
आंखें खोली …..
ये रंग सभी कच्चे -पक्के ,आपस में घुलमिल जायेंगे
फिर उम्मीदों के बंद कँवल उमगेंगे खिल खुल जाएंगे
अपनी सांसों के धागे में,
तब मैं ये कँवल पिरोऊँगी
जगती की बंजर माटी में
कुछ बीज अनूठे बोऊँगी।
जो सुर साधे जो साज चुने,
सब कुछ तेरे ही नाम लिखा
आंखें खोली तो रंग लिखे
पलकें मूंदी घनश्याम लिखा।

 

2. गीत
हमने अपने बारहमासे जिनके ऊपर वार दिये,
उनके घर से अक्सर मुझको पतझर का पैगाम मिला।
फूलों में घुसपैठ किये जो
बिछ जाते हैं राहों पर ,
बेशर्मी, बेरहमी से इतराते सर्द गुनाहों पर ।
मेरी इस मुट्ठी में उनके
पथ के वे ही काँटे हैं,
साँसों की सरहद तक इन पर
चलने का आराम मिला।
जाने कितने सन्नाटों के
जंगल से हम गुजरे हैं ;
प्यासों को छलने वाले
अनगिन मृगजल से गुजरे हैं
इन गूंगी प्यासों का परिचय
बन जाऊँ यह काम मिला
वैसे तो यह पाँव
टीसते रहने के अभ्यासी हैं;
इनके लेखे कलियों वाले
सारे सपने बासी हैं
कभी-कभी मुरझाए छाले,
तो मुझको आराम मिला।

 

3.आग के अक्षर

बर्फ से लिपटे हुए हैं
नगर ,बस्ती ,घर
लिखूंगी आग के अक्षर ।
है मलीन अभिव्यक्ति के
आकाश का चेहरा
हर तरफ जिंदा कलम पर
लग रहा पहरा।

नयन में दुबके हुए
सपने सजग हो लें ,
अश्रु पलकों से ढुलककर
भीति-भय धो लें
सृजन की उर्वर धरा यह
हो नहीं ऊसर ।
लिखूंगी आग के अक्षर।
ब्याध को समझा सकूँ मैं,
जिंदगी का मोल,
गगन हो भयहीन,
पंछी गा सकें पर खोल
नाश के उन्माद का,
क्रम कर सकूं यदि भंग,
इंद्रधनुषी हो उठेगा
यह समय बेरंग।
फिर धरा पर खिलखिलाएँ,
प्यार के निर्झर।
लिखूंगी आग के अक्षर।

4. सब सुख है इसी हथेली में।

मुट्ठी बाँधो विश्वास रखो,
सब सुख है इसी हथेली में।
खुशियों के फूल नहीं खिलते
सपनों की बंद हवेली में।
बेमकसद सांसों की गठरी
ढोना भी कोई जीवन है,
कलपे जो बंद तिजोरी में
ऐसी पूंजी भी क्या धन है?
थोड़ा खर्चो, थोड़ा बाँटो,
गुड़ घणा रखा है भेली में।
सूरज नित प्रति मुट्ठी भर भर रोशनी लुटाता है हमपर,
ये फूल बिना अनुनय महकें
ये पंछी जी भर भर चहकें
जाने क्यों मनुज रहे उलझा
जीवन की सुगम पहेली में?
सब सुख है इसी हथेली में।

5. किताबों के मेले

ये शब्दों की दुनियाँ,  किताबों के मेले,
सलामत अगर हैं नहीं हम अकेले
कहीं आग इसके सफों पर लिखी है,
कहीं कैद है इसमें आंखों का पानी
कहीं खौलती है, कहीं ये मचलती,
किताबें हैं ये आईने जिंदगानी।
जो चेहरे से सारी शिकन पोछ डालें
अमन की गज़ल है, गदर की कहानी
हैं इल्मों हुनर की पहेली किताबें।
किताबें जमाने की वो खिड़कियाँ हैं
जो बोसदगी में महक घोलती हैं
नई रोशनी औ पुरानी रवायत
इन्हीं की रियासत में पर तोलती है किताबों के नखरे चमन में चहक लें,
चलो भूलकर बक्तियां ये झमेले।
किताबों के मेले नहीं हम अकेले।

 

6. समय देवता से

ओ समय के देवता! बस कर दुहाई

मूर्छना के वश कहीं विश्वास औंधे मुँह पड़ा है |
आदमी से आदमी इस तरह पहले कब डरा है?
और कब तक नफ़रतों से
हम लड़ेंगे ये लड़ाई ?
ओ समय के देवता…..

हर तरफ विषकीट हैं,
आखेट बनती निर्भयायें
हर अजन्मी बालिका पूछे,
कहां किस देश जायें?
आज फिर इन्सानियत की आँख,
किसने है झुकाई?

जीर्ण पत्रों के सरीखी अर्जियां बिखरी पड़ी हैं,
बढ़ रहे थे पाँव जो, उनकी परीक्षा की घड़ी है|
साधना-संकल्प सारे,
मांगते सिर धुन रिहाई
ओ समय के देवता! बस कर दुहाई

 

7. बेटियों के नाम
अंजुरी में झड़े फूल के पराग सी लगें,
ये बेटियाँ हैं, ज़िन्दगी के राग सी लगें |
खिड़की से झाँकती हो नई भोर की किरण,
चिड़ियों की चहक, उंघते विहाग सी लगें |
पल भर को भी जीवन में जो छा जाये अँधेरा,
आँखों को दे सुकून उस चिराग सी लगें |
हर रंजो गम को पाँव तले दाबकर खड़ी,
ये जेठ की तपिश में मुझे छाँव सी लगें |
निकलें जो बन- सँवर के तो दर्पण भी ये कहे,
ये मोहिनी तो सिया के सुहाग से लगें।

 

कुछ ग़ज़लें

1.

तब कश्ती थी साबुत अपनी, किसको थी फिक्र किनारो की,
जब से यह खस्ताहाल हुई बना आई है मंझधारों की।
इस कोठे–महल-अटारी पर जीवन का चैन गंवा बैठे,
मुंदती आँखों के संग जाना, यह बस्ती है बनजारों की |
जीवन के घट की बूंद-बूंद पी ली हमने रंजिश कैसी ?
काँटों की सेज बने धरती या बारिश हो अंगारों की।
भूखे–नंगों की टोली पर
क्यों जाया करते हो सपने
तन ढँके रहें, हों उदर भरे
फिर करना बात सितारों की |
घर बैठे ही लूट जाती है
अस्मत सीता की, मरियम की;
शासन पर शासन कौन करें
पूरी बस्ती बटमारों की |
बस जिन्स समझ तौला हमको
सोने-चाँदी की बाटों से,
सदियों तक हमें सजा रक्खा,
गलियों में इन बाजारों की।

 

2.
अपने कद के बौनेपन से कब मैंने इन्कार किया,
कब बाँधी आरियाँ पाँव में कब चीड़ों पर वार किया ?

कहाँ कभी पाली थी ख्वाहिश सौ – सौ चाँद सितारों की,
एक दिया माटी का था, इस दिल ने उससे प्यार किया |

उड़ा ले गयी छत आँधी, हैं दीवारों महफूज़ अभी,
उनके ही साये में मैंने फिर अपना घर – बार किया।

सूख रहे ज़ख्मों के बदले ज़ख्म नये दे जाते हैं,
वो ऐसे रखते हैं मरहम ऐसे ही उपचार किया |

एक पुरानी छतरी, जो फट जाये फिर-फिर सीने में,
थामा उसका हाथ हुलसकर मैंने पावस पार किया|

मेरे मिट जाने को मेंहदी की रंगत का नाम दिया,
भरम बनाए रखना था मैंने सुख का इज़हार किया।

 

 

 

 

 


 

डा. माया प्रसाद, जन्म-बिहार के पटना प वैशाली जिला मऊदह ग्राम मे ।
शिक्षा-पटना विश्वविद्यालय की स्नातक प्रतिष्ठा परीक्षा मे विशिष्टता के साथ प्रथम स्थान प्राप्त ।चार स्वर्ण पदकों एवं छात्रश्री की उपाधि से अलंकृत ।राँची विश्वविद्यालय से –“डा रामविलास शर्मा के समीक्षा- सिद्धांत “विषय पर पीएच.डी की उपाधि प्राप्त ।
प्रकाशन -,कविता संग्रह –सुनो युधिष्ठिर ,बाकी हैं प्रार्थनाएं ,लिखती हूँ जिन्दगी तुझे ।
कहानी संग्रह-“-विजय”
समीक्षा–“रामविलास शर्मा के समीक्षा सिद्धांत”!”‘.
अनेक सहयोगी संकलनों मे साझेदारी ।अन्विति, कतार, सृजन परिवेश,भिनसरिया आदि पत्रिकाओं के प्रकाशन से सम्बद्ध रही । अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं मे रचनाएँ प्रकाशित ।आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण ।

सम्मान- राजभाषा विभाग ,झारखंड सरकार
समाज कल्याण विभाग, राँची दूरदर्शन तथा अनेक साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित ।
अन्य-विगत तीन दशकों से नारी अस्मिता एवं सशक्तिकरण के लिए संघर्षरत ।सम्प्रति-स्वतंत्र लेखन एवं असंगठित क्षेत्र की महिलाओं के उन्नयन हेतु कार्य रत ।

 

टिप्पणीकार  प्रज्ञा गुप्ता का जन्म सिमडेगा जिले के सुदूर गांव ‘केरसई’ में 4 फरवरी 1984 को हुआ। प्रज्ञा गुप्ता की आरंभिक शिक्षा – दीक्षा गांव से ही हुई। उच्च शिक्षा रांची में प्राप्त की । 2000 ई.में इंटर। रांची विमेंस कॉलेज ,रांची से 2003 ई. में हिंदी ‘ प्रतिष्ठा’ में स्नातक। 2005 ई. में रांची विश्वविद्यालय रांची से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री। गोल्ड मेडलिस्ट। 2013 ई. में रांची विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 2008 में रांची विमेंस कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति ।

संप्रति “ समय ,समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में झारखंड का हिंदी कथा- साहित्य” विषय पर लेखन-कार्य।

विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
संप्रति स्नातकोत्तर हिंदी विभाग रांची विमेंस कॉलेज रांची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
पता- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,रांची विमेंस कॉलेज ,रांची 834001 झारखंड।
मोबाइल नं-8809405914,ईमेल-prajnagupta2019@gmail.com

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion