समकालीन जनमत
कविता

समवेत की आवाज़ हैं मनोज कुमार झा की कविताएँ

सन्तोष कुमार चतुर्वेदी


अब तलक जिन क्षेत्रों को दुर्गम समझा जाता था, आज की कविता वहाँ की यात्रा सहज ही कर लेती है। अब तलक जिन क्षेत्रों में जाने का साहस नहीं होता था, आज की कविता न केवल उन क्षेत्रों में जाती है अपितु उन विषयों को करीने से उठाती भी है। यानी कि कोई भी क्षेत्र या विषय कविता के लिए अलभ्य नहीं है।

यह आज के कविता की विशिष्टता है। मनोज कुमार झा ऐसे ही कवि हैं जिन्होंने अपनी कविता के दरवाजे और खिड़कियाँ खोल रखे हैं। इनसे जहाँ एक तरफ धूप और हवा बेरोकटोक आती है वहीं दूसरी तरफ आंधी-पानी के आने का खतरा भी होता है।

कवि इसी मायने में अलग दिखता है कि वह किसी भी तरह के खतरे से बचना नहीं चाहता बल्कि साहस के साथ उन खतरों से जूझता है और अपने हुनर से उनको भी अपनी कविता के सांचे में ढाल लेता है।

कविता ने जब से छन्द के दायरे को तोड़ा है तब से उसमें गद्यात्मकता का कुछ अधिक ही समावेश हुआ है। विषय को सहज ढंग से बरतने की वजह भी इस गद्यात्मकता का कारण है। लेकिन गद्य कविता का भी एक सौंदर्य है। यह सौंदर्य उसकी आंतरिक लय की वजह से है।

मनोज झा के यहाँ यह आंतरिक लय जीवन की लय बन कर कविता में आती है। इसीलिए मनोज की कविता कभी दुरूह नहीं लगती। ऐसा नहीं कि उनके यहाँ सपाटबयानी है। वे कविता को बरतते हुए, जीवन की तरह जीते हुए आगे बढ़ते हैं।

जीवन जो कई तरह के दुर्गम मोड़ों से हो कर गुजरता रहता है, अपने आगे बढ़ने की राह हर प्रतिकूल परिस्थिति में भी खोज ही लेता है। और तब वह सुगम लगने लगता है।

मनोज अपने लिए कविता की एक अलग शैली विकसित करने का जोखिम उठाते हैं। अमूर्तन को मूर्त बना देना और सपाटबयानी को भी अपने अंदाज़ में ढाल लेना मनोज की विशिष्टता है। यहीं पर वे अपने समकालीन कवियों से अलग खड़े दिखायी पड़ते हैं।

कहा जाता है कि हर कविता राजनीतिक कविता होती है। यानी कि हर कविता के अपने राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। यह हर कवि का दायित्व भी होता है कि विसंगतियों के खिलाफ वह अपनी आवाज़ उठाए। इसीलिए वह अक्सर प्रतिपक्ष में खड़ा दिखाई पड़ता है।

कवि स्वयं में एक संस्था होता है। इसीलिए अकेले होते हुए भी वह अकेले नहीं होता। उसकी आवाज़ ‘समवेत की आवाज़’ बन जाती है। उसकी संवेदना ‘समवेत की संवेदना’ बन जाती है।

कवि के पास खोने के लिए कुछ नहीं होता। उसे सब कुछ पाना यानी कि अर्जित करना होता है। भाषा, शिल्प, लय, छन्द, कथ्य सब कुछ को अपनी तरह से आगे बढ़ाना होता है।

कवि पुरखों की परम्परा को मनोज धैर्य, साहस और पुख़्तगी के साथ आगे बढ़ाते हैं। अपनी कविता ‘उलटे’ में वे लिखते हैं : ‘मैं सुअर की तरह मरा/ इस लोकतंत्र में।’ लोकतंत्र के भक्षक सबसे ज्यादा लोकतंत्र का ढोंग रचते हैं। लेकिन वस्तुस्थिति इसके उलट है।

मनोज जैसे जनता की आवाज़ को शब्दबद्ध कर रहे हैं। ‘सुअर की तरह मरना’ सबसे खराब स्थिति में मरने की तरह है। आज जब लोकतंत्र के सारे स्तम्भ जीहुजूरी में जुटे हुए हैं, कवि हालात ठीक न होने की तस्दीक करता है।

आगे कवि लिखता है : ‘मेरे बच्चों को कोई मुआवजा नहीं मिला/ उलटे उन्हें यह सिद्ध करना पड़ा/ कि पिता सुअर की तरह नहीं मरे।’ यह लोकतंत्र की विडंबना है। जो नहीं है उसे ही साबित करना होता है। जो है वह साबित ही नहीं हो पाता। पीढ़ियाँ इस दंश को भुगतने के लिए अभिशप्त होती हैं। मनोज यह बात बिम्ब में कह डालते हैं। कविता में अधिक कुछ नहीं कहते हुए भी वे बहुत कुछ कह डालते हैं। यही मनोज के कविता की ताकत है।

मनोज की एक कविता है ‘सूखा’। इस कविता में भी वे अलग तरह के बिम्बों का इस्तेमाल करते हैं। बात जीवन से शुरू होती है और हरियाली के मार्फ़त होते हुए समाप्त होती है उस अफसोस पर जिसमें कवि अपनी व्यथा को व्यक्त करते हुए कहता है ‘मैं एक सरकार नहीं चुन सकता/ तुम मृत्यु चुनने की बात करते हो।’ जब से ई वी एम के माध्यम से वोट देने की रीति विकसित हुई है तब से हर चुनाव में धांधली की शिकायत विपक्षी दलों ने की है। कई जगह किसी एक विशेष पार्टी के पक्ष में वोट मशीन में पहले से पड़े होने की बात की गई। लेकिन शिकायतें भला कौन सुनता है। ऐसे में जनता के सरकार चुनने की बात ही बेमानी हो जाती है। कविता में ‘सरकार न चुन पाने’ की व्यथा उस सार्वजनीन व्यथा में तब्दील हो जाती है जो एक बड़े वर्ग की व्यथा है। यहीं पर कवि अपने समय, अपने समाज और अपने जन से जुड़ता है।

भारतीय समाज के कुछ ऐसे विरोधाभास हैं जो आज अपना फन फैला कर समाज और राष्ट्र को चोटिल कर रहे हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के आधार पर समाज का जो विभाजन हुआ है, उसने समय समय पर उस राष्ट्र को ही दिक्कत में डाला है, जिसे राष्ट्रवादी पार्टी अपने टूल्स के रूप में इस्तेमाल कर रही है।

भारत धर्म के आधार पर विभाजन का एक दंश भुगत चुका है। लेकिन हमने तब भी कोई सीख नहीं ली। आज हालत यह है कि हम अपने संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर ही नहीं उठ पाते। मनोज की नज़र उन संकीर्णताओं पर भी है।

कवि का यकीन उस वैविध्य में है, जो हमारे राष्ट्र की ताकत है। ‘मगर हजारों नदियाँ इस देश में, इस पृथ्वी पर/ मैं किसी भी जल में उतर सकता हूँ।’ यह भविष्य के लिए सुखद है। राजनीति चाहें जो करवट ले; मीडिया चाहें जितनी चाटुकारिता करे; शासन के अंग चाहें जितनी सरकार की पक्षधरता करें; साहित्य अपना काम करता रहेगा। मनोज की कविता इस बात को यकीन में बदलती है।

 

 

1. उलटे

मैं सुअर की तरह मरा
इस लोकतंत्र में

कीचड़ में लथपथ

मेरे बच्चों को कोई मुआवजा नहीं मिला
उलटे उन्हें यह सिद्ध करना पड़ रहा
कि पिता सुअर की तरह नहीं मरे

 

2. जीवन में शेष

इतने सूचना-तंतु, इतने ज्ञान-कण
सब बेकार सीसीटीवी कैमरों की तरह
किसी आशंका में सब कुछ दर्ज करता हुआ

तलाशता मन वे फूल जो
चढ़े नहीं किसी देव किसी मज़ार पे
गिरे धरती पर और फेंक दिए गए पोखर में
मेरी अस्थियां भी बह गई थीं जिनके साथ

 

3. सेज पर उदासी

कामाकुल मैंने हाथ रखा उसकी पीठ पर
उसने रोका व्याकुल विनम्र
अभी रुकिये आरती की घण्टियाँ बज रही हैं
और सिगरेट कम पीजिए, पत्नी को बुरा लगता होगा

पहली बार मैंने सोचा वेश्या की सेज पर
थोड़ा सा ईश्वर रहता जीवन में तो जान पाता कदाचित
कि यह जो इतना मजहबी शोर है
क्या बचा है इसमें थोड़ा सा जल
जिससे धुल सके एक लज्जित चेहरा

 

4. सूखा

जीवन ऐसे उठा
जैसे उठता है झाग का पहाड़
पूरा समेटूँ तो भी एक पेड़ हरियाली का सामान नहीं
जिन वृक्षों ने भोर दिया, साँझ दिया, दुपहरी को ओट दिया
उसे भी नहीं दे सकूँ चार टहनी जल
तो बेहतर है मिट जाना
मगर मिटना भी हवाओं की सन्धियों के हवाले
मैं एक सरकार चुन नहीं पाता
तुम मृत्यु चुनने की बात करते हो !

 

5. जटिल बना तो बना मनुष्य

मेरी जाति जानकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा
तुम और मेरी जाति के लोग एक सरल रेखा खींचोगे और चीख़ोगे
कि उसी पार रहो, उसी पार
मगर इन कँटीली झाड़ियों का क्या करोगे
जो किसी भी सरल रेखा को लाँघ जाती हैं, जिनकी जड़ें अज्ञात मुझे भी
हालाँकि मेरी ही लालसाओं से ये जल खींचती हैं

एक धर्म को तुम मेरा कहोगे और भ्रम में पड़ोगे
कोई एक ड्रम की तरफ़ इशारा करेगा
और कहेगा कि यह इसी में डूबकर मरेगा
मगर हज़ारों नदियाँ इस देश में, इस पृथ्वी पर
मैं किसी भी जल में उतर सकता हूँ
किसी भी रंग का वस्त्र पहने और किसी भी धातु का बर्तन लिए

तुम मेरा जन्मस्थान ढूँढोगे और कहोगे
अरे यह तो वहाँ का है, वहाँ का
किन्तु नहीं, मेरा जन्मस्थल धरती और मेरी माँ के बीच का जल है आलोकमय
अक्षांशों और देशान्तरों की रेखाओं को पोंछता

चींटियों का परिवार इसमें, मधुमय छत्ता, कोई साँप भी कहीं
दूर देश के किसी पँछी का घोंसला, किसी बटोही का पाथेय टँगा
मनुष्य एक विशाल वृक्ष है पीपल का
सरलताओं के दिठौनों को पोंछता

इस चौकोर इतिहास से तो नमक भी नहीं बनेगा
कैसे बनेगा मनुष्य!

 

6. यात्रा

मैं कहीं और जाना चाहता था
मगर मेरे होने के कपास में
साँसों ने गूँथ दिए थे गुट्ठल

इतनी लपट तो हो साँस में
कि पिघल सके कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा

कि जान सकूँ जल में क्या कैसा अम्ल
मैं अपनी साँस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था
नहीं कि कहीं पारस है जहाँ मैं होता सोना

बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता हूँ

 

7. दूसरा कोना

जिस भाषा में मेरे नाम का मतलब कुत्ता है
वो भाषा भी सीखूँगा
हो सकता है उस भाषा में
मेरे दोस्त के नाम का मतलब हंस हो
न भी हो तो
हंस के लिए कोई तो शब्द होगा ही
कोई शब्द होगा सुंदर के लिए
कोई शब्द रोटी के लिए
प्यार के लिए और पृथ्वी के लिए
क्यों न करूँ परिक्रमा जीवन के एक अन्य रथ पर हो
सवार

 

8. संशय

आग की पीठ से पीठ रगड़ना कभी, कभी पैरों में बाँध लेना जल की लताएँ
रात की चादर की कोई सूत खींच लेना, फेंट देना उसे सुबह के कपास में
कमल के पत्ते से छुपाना चेहरा, फ़ोटो खिंचवाना गुलाब से गाल सटाकर
ट्रेन से कूदना देखने मोर का नाच और बुखार में हाथ हिलाना जुलूसियों को

कोई मेघ उड़ेलता उस घाट जल जहाँ मेरी लालसाएँ धोती हैं वस्त्र
या बस लुढ़क रहा एक पत्थर बेडौल अटपट गुरूत्त्व के अधीन

 

9. कोई भी, कहीं भी

कभी भी हास्यास्पद हो सकता हूँ
इससे भी नीचे का कोई शब्द कहो
कोई शब्द कहो जिसमें इससे भी अधिक ताप हो, अधिक विष
मनुष्यता को गलनांक के पार ले जाने वाला कोई शब्द कहो

कभी भी हो सकता हूँ हास्यास्पद – घर, बाहर कहीं भी
बच्चे के हिस्से का दूध अपनी चाय में डालते वक़्त
कभी भी कलाई पकड़ सकती है पत्नी
मेरे जैसा ही तो था जो उठाने झुका कोलतार में सटा सिक्का
मैं उसको चीन्ह गया, उस दिन एक ही जगह ख़रीदे हमने भुट्टे
जब उसको कह रहे हास्यास्पद तो मैं ही कितना बचा

कभी भी हो सकता हूँ हास्यास्पद –
और यह कौन बड़ी बात है इस पृथ्वी पर
जब हर इलाके में जूठा पात चाट रहा होता है कोई मनुष्य,
सुविधा में जिसे पागल कह डालते हो

 

10. इस कथा में मृत्यु

इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है
यह इधर की कथा है
जल की रगड़ से घिसता, हवा की थाप से रंग छोड़ता
हाथों का स्पर्श से पुराना पड़ता और फिर हौले से निकलता
ठाकुर-बाड़ी से ताम्रपात्र
यह एक दुर्लभ दृश्य है
कहीं से फिंका आता है कोई कंकड़
और फूट जाता है कुएँ पर रखा घड़ा

गले में सफ़ेद मफ़लर बाँधे क्यारियों के बीच मन्द-मन्द चलते वृद्ध
कितने सुन्दर लगते हैं
मगर इधर के वृद्ध इतना खाँसते क्यों हैं
एक ही खेत के ढेले-सा सबका चेहरा
जितना भाप था चेहरे में सब सोख लिया सूखे ने
छप्पर से टपकते पानी में घुल गया देह का नमक
काग़ज़ जवानी का ही था मगर बुढ़ापे ने लगा दिया अँगूठा
वक़्त ने मल दिया बहुत ज्यादा परथन

तलुवे के नीचे कुछ हिलता है
और जब तक खोल पाये पंख
लुढ़क जाता है शरीर

उस बुढ़िया को ही देखिए जो दिनभर खखोरती रही चौर में घोंघे
सुबह उसके आँचल में पाँच के नोट बँधे थे
सरसों तेल की शीशी थी सिर के नीचे
बहुत दिनों बाद शायद पाँच रूपये का तेल लाती
भर इच्छा खाती मगर ठंड लग गयी शायद
अब भी पूरा टोला पड़ोसन को गाली देता है
कि उसने राँधकर खा लिया
मरनी वाले घर का घोंघा

वह बच्चा रात उठा और चाँद की तरफ दूध-कटोरे के लिए बढ़ा
रास्ते में था कुआँ और वह उसी में रह गया, सुबह सब चुप थे
एक बुज़ुर्ग ने बस इतना कहा-गया टोले का इकलौता कुआँ

वह निर्भूमि स्त्री खेतों में घूमती रहती थी बारहमासा गाती
एक दिन पीटकर मार डाली गयी डायन बताकर

उस दिन घर में सब्जी भी बनी थी फ़िर भी
बहू ने थोड़ा अचार ले लिया
सास ने पेटही कहकर नैहर की बात चला दी
बहू सुबह पाई गयी विवाहवाली साड़ी में झूलती
तड़फड़ जला दी गयी चीनी और किरासन डालकर
जो सस्ते में दिया राशनवाले ने
पुलिस आती तो दस हज़ार टानती ही
चार दिन बाद दिसाबर से आया पति और अब
सारंगी लिये घूमता रहता है

बम बनाते एक का हाथ उड़ गया था
दूसरा भाई अब लग गया है उसकी जगह
परीछन की बेटी पार साल बह गयी बाढ़ में
छोटकी को भी बियाहा है उसी गाँव
उधर कोसी किनारे लड़का सस्ता मिलता है

मैं जहाँ रहता हूँ वह महामसान है
चौदह लड़कियाँ मारी गयीं पेट में फोटो खिंचवाकर
और तीन महिलाएँ मरीं गर्भाशय के घाव से

2
कौन यहाँ है और कौन नहीं है, वह क्यों है
और क्यों नहीं – यह बस रहस्य है
हम में से बहुतों ने इसलिए लिया जन्म कि कोई मर जाये तो
उसकी जगह रहे दूसरा
हम में बहुतों को जीवन मृत सहोदरों की छाया-प्रति है
हो सकता है मैं भी उन्हीं में से होऊँ
कई को तो लोग किसी मृतक का नाम लेकर बुलाते हैं
मृतक इतने है और क़रीब कि लड़कियाँ साग खोंटने जाती हैं
तो मृत बहनें भी साग डालती जाती हैं उनके खोइछें में
कहते है फगुकिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान
वरना कैसे काट लेता है इतनी तेजी से
वह बच्चा माँ की कब्र की मिट्टी से हर शाम पुतली बनाता है
रात को पुतली उसे दूध पिलाती है
ओैर अब उसके पिता निश्चिन्त हो गये हैं

इधर सुना है कि वो स्त्री जो मर गयी थी सौरी में
अब रात को फ़ोटो खिंचवाकर बच्ची मारने वालों
को डराती है, इसको लेकर इलाके़ में बड़ी दहशत है
और पढ़े-लिखे लोगों से मदद ली जा रही है जो कह
रहे हैं कि यह सब बकवास है और वे भी सहमत हैं
जो अमूमन पढ़े-लिखों की बातों में ढूँढ़ते हैं सियार का मल

इए इलाके़ का सबसे बड़ा गुंडा मात्र मरे हुओं से डरता है
एक बार उसके दारू के बोतल में जिन्न घुस गया था
फिर ऐसी चढ़ी कि नहीं उतरी पार्टी-मीटिंग में भी
मन्त्री जी ले गये हवाई जहाज़ में बिठा ओझाई करवाने

इधर कोई खैनी मलता है तो उसमें बिछुड़े हुओं का भी हिस्सा रखता है
एक स्त्री देर रात फेंक आती है भुना चना घर के पिछवाड़े
पति गये पंजाब फिर लौटकर नहीं आये
भुना चना फाँकते बहुत अच्छा गाते चैतावर

 

11.रात्रिमध्ये

तय तो था एक एक सुग्गे को बिम्ब-फल
उसका भी वो जो उदि्वग्न रात-भर ताकता रहता चाँद
अगोरता रहा सेमल का फल पिछले साल
वन-वन घूम रही प्यास की साही
निष्कंठ ढ़ूँढ़ती कोई ठौर पथराई हवा से टूट रहे काँटे

घम रहा रात का गुड़
निद्राघट भग्न पपड़िया रहा मन

खम्भे हिल रहे थे, तड़-तड़ फूट रहे थे खपड़े
ग्राह खींच रहा था पिता के पाँव
उस अंधड़ में बनाई थी कागज की नाव भाई की ज़िद पर
सुबह भूल गया था भाई, गल गई कहीं
या चूहे कुतर गए
या दादी ने रख दिया उस बक्से में जहाँ धरा हुआ है उनका रामायण
और सिंहासन बत्तीसी
छप्पर की गुठलियां दह गई
इधर की गुठली हुई आम किधर या सड़ गई
किसी लाश की लुंगी में फँसकर किसी डबरे में
मुठभेड़ के बाद वह आदमी सड़क हो गया
दौड़ रहे महाप्रभुओं के रथ, कल तो वो
डाभ मोला रहा था बच्चे संग लिए
वसन्त की उस सुबह रक्त में घुली थी जिसकी छुअन
क्या उसका चेहरा भी हो गया फटा टाट !
चेहरे क्यों हो जाते फसल कटे खेत एक दिन
ताजिया पड़ा हुआ … निचुड़ती रंग की कीमिया पल पल ….
लुटती रफ़्ता रफ़्ता काग़ज़ की धज …
ये कहाँ चली छुरी कि गेन्दे पर रक्त की बूँदें
कुछ भी नहीं जान सका उस तितली की मृत्यु का
मैं तो ढ़ूँढ़ रहा था कबाड़ में कुरते का बटन
हर कठौती की पेंटी में छेद, हर यमुना में कालियादह
कहाँ भिगोऊँ पुतलियाँ ……. किस घाट धोऊँ बरौनियाँ …..
ताँत रँगवाऊँ कहाँ …. किस मरूद्वीप पर खोदूँ कुआँ
बहुत उड़ी धूल, पसरा स्वेद-सरोवर क्षितिज के पार तक
रोशनी सोख रही आँखों का शहद ….
धर तो दूँ आकाश में अपने थापे हुए तारे
… क्या नींद के कछार में बरसेंगी ओस
पंक हुए प्यास में जनमेगी हरी दूब जहाँ पाँव दाब चलेंगे देवगण… !

 

12. नया

जैसे सबकी तरह की मेरी नींद सबसे अलग
सबकी तरह का मेरा जगना सबसे अलग
रोज की तरह रहना यहीं पर हर रोज की तरह हर रोज से अलग
पर एक काँप अलग होने से जीने का मन नहीं भरता
कोई अंधड़ आये सारे पीले पत्ते झर जाएँ पेड़ दिखे अवाक करता अलग
मनुष्य होने का कुछ तो सुख मिले बसा रहूँ मकई के दाने-सा भुट्टे में
और खपड़ी में पड़ूँ तो फूटूँ पुराने दाग लिए मगर बिल्कुल अलग

 

13. कल मरा बच्चा आज कैसे रोपू धान

हर जगह की मिट्टी जैसे क़ब्र की मिट्टी
पाँव के नीचे पड़ जाती जैसे उसी की गर्दन बार-बार
उखड़ ही नहीं पाता बिचड़ा अँगुलियां हुई मटर की छीमियाँ
कुछ दिनों तक चाहिए मुझे पोटली में अन्न
कुछ दिनों तक चाहिए मुझे हर रात नींद
कुछ दिन तो हो दो बार नहान
पीपल के नीचे से हटाओ पत्थरों और पुजारियों को
फूटी हुई शीशियों और जुआरियों को
ना ही मिला कोइ अपना कमरा
मगर पाऊँ तो बित्ता-भर ज़मीन जहाँ रोऊँ तो गिरे आँसू
बस पृथ्वी पर किसी के पाँव पर नही।

 

14. उत्तर-यात्रा

बहुत दूर से आ रहा हूँ
चिरइ की तरह नहीं
चिरइ तो माँ भी न हुई जो वह चाहती थी
कथरी पर सुग्गा काढ़ते, भरथरी गाते
जुते हुए बैल की तरह आया हूँ
बन्धनों से साँस रगड़ता और धरती से देह
हरियाली को अफसोस में बदल जाने की पीर तले

मेरी देह और मेरी दुनिया के बीच की धरती फट गई है
कि कहीं से चलूँ रास्ते में आ जाता कोई समन्दर

किसके इशारे पर हवा
कि आँखों में गड़ रही पृथ्वी के नाचने की धूल

इतनी धूल
इतना शोर
इतनी चमक
इतना धुआँ
इतनी रगड़
हो तो एक फाँक खीरा और चुटकी भर नमक
कि धो लूँ थकान का मुँह

 

15. स्थगन

जेठ की धहधह दुपहरिया में
जब पाँव के नीचे की ज़मीन से पानी खिसक जाता है
चटपटाती जीभ ब्रह्माण्ड को घिसती है
कतरा-कतरा पानी के लिए
सभी लालसाओं को देह में बाँध
सभी जिज्ञासाओं को स्थगित करते हुए
पृथ्वी से बड़ा लगता है गछपक्कू आम
जहाँ बचा रहता है कण्ठ भीगने भर पानी
जीभ भीगने भर स्वाद
और पुतली भीगने भर जगत
चूल्हे की अगली धधक के लिए पत्ता खररती
पूरे मास की जिह्वल स्त्री अधखाए आम का कट्टा लेते हुए
गर्भस्थ शिशु का माथा सहला
सुग्गे के भाग्य पर विचार करती है
शिशु की कोशिकाओं की आदिम नदियों में
आम का रस चूता है
और उसकी आँखें खुलती जाती हैं उस दुनिया की तरफ़
जहाँ सर्वाधिक स्थान छेक रखा है
जीवन को अगली साँस तक
पार लगा पाने की इच्छाओं ने

माथे के ऊपर से अभी-अभी गुज़रा वायुयान
गुज़रने का शोर करते हुए
ताका उत्कण्ठित स्त्री ने
आदतन ठीक किया पल्लू जिसे फिर गिर पड़ना था
बढ़ी तो थीं आँखें आसमान तक जाने को
पर चित्त ने धर लिया अधखाया आम
और वक़्त होता तो कहता कोई
शिशु चन्द्र ने खोला है मुँह
तरल चाँदनी चू रही है
अभी तो सारी सृष्टि सुग्गे की चोंच में
कम्पाऽयमाऽन
( भारत भूषण पुरस्कार से पुरस्कृत कविता)

 

(भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार एवं भारतीय भाषा परिषद के युवा पुरस्कार से सम्मानित कवि और अनुवादक मनोज कुमार झा। जन्म-1976. ऐजाज़ अहमद की किताब ‘रिफ्लेक्शन ऑन आवर टाईम्स’ का अनुवाद प्रकाशित। कविता की एक पुस्तिका ‘हम तक विचार’ तथा दो कविता संग्रह ‘तथापि जीवन’ और ‘कदाचित अपूर्ण’ प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख। समकालीन चिंतकों और दार्शनिकों के अनुवादों का नियमित प्रकाशन।

 

2013 में मलखान सिंह सिसौदिया पुरस्कार से सम्मानित टिप्पणीकार संतोष कुमार चतुर्वेदी।
जन्म 2 नवम्बर 1971 को उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के हुसेनाबाद गाँव में एक किसान परिवार में।

1997 से 2010 तक कथा के सहायक सम्पादक। 2011 से आज तक अनहद के सम्पादक। एक ब्लॉग पहली बार के मॉडरेटर। प्रकाशित कृतियाँ: कविता संग्रह : पहली बार, दक्खिन का भी अपना पूरब होता है। इतिहास की तीन किताबें ‘भारतीय संस्कृति’, ‘भोजपुरी लोकगीतों में स्वाधीनता आंदोलन’, ‘भक्ति काल का वर्तमान परिप्रेक्ष्य’

सम्प्रति चित्रकूट जिले के मऊ स्थित एम पी महाविद्यालय के प्राचार्य। संपर्क: 9450614857)

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