समकालीन जनमत
कविता

मनीष कुमार यादव की कविताएँ अपनी चुप्पी में एक बहुत गझिन यात्रावृत्त को समेटे रहती हैं

वसु गन्धर्व


मनीष की कविताएँ एक कठिन ज़मीन की कविताएँ हैं जो अपने प्रस्तावित पाठ में पाठक से उतने ही सृजनात्मक संघर्ष की अपेक्षा करती हैं जितना कि कवि के द्वारा इनके सृजन में अनुभूत प्रतीत होता है। इन कविताओं का यथार्थबोध बहुत ठोस और सुलझा हुआ है। इनमें अपने समय की विसंगतियों के प्रति भरपूर खीज और अकुलाहट है। इनमें एक अकूत ज़िम्मेदारी का बोध है जो अपनी मुखर और नम्र उपस्थिती से हिन्दी के नये कवियों की इस पीढ़ी को एक बहुत महत्वपूर्ण आयाम देता है।

मनीष की कविताओं में एक घना अवसाद है जो पूरी तरह कभी मुखर नहीं होता, बल्कि कथ्य के पार्श्व में धीरे-धीरे रिसता हुआ सा प्रतीत होता है। इस अवसाद का बहुत सा हिस्सा सामाजिक और राजनैतिक पृष्टभूमि लिये हुए है वहीं इसका एक पक्ष नितांत व्यक्तिगत भी है। जीवन की तमाम आंतरिक वेदनाएँ जैसे एक धीमे संगीत में विन्यस्त होती आती हैं, कि पढ़ने के बाद पता ही नहीं चलता कि कविताओं की बहुत सी संदर्भहीन, आवारा पंक्तियाँ बार-बार मन में क्यूँ कौंध रही हैं। मसलन;

“मैं एक काटी गयी उम्र हूँ
जिसे नदी द्वारा काटी गयी
मिट्टी का पर्याय हो जाना चाहिए था”

“जब चलने और ठहरने से पेट भरा
तब लोगों ने यात्राओं का
दुखांत लिखना चुना”

“तुमने
दृश्य से उठ कर
चले जाना चुना

और मैंने चुनीं
तयशुदा समय की बीमार उपमाएँ”

“प्रेम मनुष्य के लिये सबकुछ बचा लेता है
जो प्रतिक्षाओं को नहीं प्राप्त होता”

“मैं एक खोया हुआ यात्री हूँ

अधिष्ठित सपनों में
अपना घर भूल आया हूँ”

इन कविताओं में प्रेम बस स्पर्श की सिहरन भर कौंधता है, पर उसकी परोक्ष, या संभावित उपस्थिती इन्हें बहुत गहरी संवेदना देती है। ये कविताएँ अपनी चुप्पी में एक बहुत गझिन यात्रा वृत को समेटे रहती हैं जिसका बहुत सारा हिस्सा अतीत से जुड़ता है, बहुत सा हिस्सा जैसे अपने स्वर को तलाशते एक और गहरी उदासी में आपना ठौर खोज लेता है।

मनीष की कविताएँ अनायास प्रेरणाजनय, अकस्मात पैदा होती कविताएँ नहीं हैं। वे कई मायनों में मुक्तिबोध की याद दिलातीं, जीवन और काव्यकर्म के मिले जुले अनुभव-संघर्ष में तपी कविताएँ हैं। इनमें गहरा अंतर्द्वंद और अंतः-संघर्ष व्याप्त है। इनमें यथार्थ है लेकिन यथार्थ को सुलभ और संप्रेषणीय बनाने की आड़ में छिपा रिडक्शन नहीं है। यह इस अन्धकरावृत्त समय में स्मृति, वेदना, ऊब, उदासी; अंततः जीवन की अनंत संभावनाओं के अनेक शिल्प रचती हैं। यह दुनिया, उसकी विसंगतियों, और उसकी पूरी-पूरी जटिलताओं को अपनी तीव्र बौद्धिक दृष्टि से देखती-परखती हैं। ये हमारे समय की ज़रूरी कविताएँ हैं जिनका स्वागत होना चाहिए।

मनीष यादव की कविताएँ

1. पिता और नदी

पिता एक अशेष आलिंगन हैं
जिनकी ओट में
मैं अपनी असमर्थता छिपाए बैठा रहा
एक-चौथाई उम्र

पिता नदी में देखते हुए
मेरे भविष्य के बारे में सोचते हैं
पर मैं बस नदी की
अठखेलियाँ ही देख पाता हूँ

पिता लगभग नदी होते हैं

नदी को देखते हुए
नदी हुआ जा सकता है
पर पिता को देखते हुए
पिता हो पाना लगभग असंभव है

लगभग असंभावनाओं ने घेर रखा है मुझे
मैं असंभावनाओं का समुच्चय हूँ
या अपने पिता जैसा न हो पाने के
अंतरद्वंद्वों का अतिरेक?

पिता कहते थे—
प्रौढ़ नदियाँ ज़्यादा मिट्टी काटती हैं
और परिमार्जन करके कछार बनाती हैं

पुल बन जाने से सबसे ज़्यादा उदासी
नावों को हुई
और नदियों का पानी लौट जाने पर
कछारों को

नदियों के सूखने का एक मौसम होता है
और उफान का भी

पिता एक-चौथाई उम्र तक रहे
और तीन-चौथाई रहीं उनकी स्मृतियाँ

स्मृतियाँ जब बहुत कचोटतीं
तब बुरा स्वप्न लगने लगतीं
लेकिन बादल बनकर बरसने पर भी
बारिश नहीं लगतीं

मैं एक काटी गई उम्र हूँ
जिसे नदी द्वारा काटी गई
मिट्टी का पर्याय
हो जाना चाहिए था!

2. मैं लाशें फूँकता हूँ

मेरे दुख में विसर्ग नहीं है
मेरे घर की औरतें
बिना पछाड़ खाए गिरा करती हैं

मैं लाशें फूँकता हूँ
जैसे जलती लाश की ऊष्मा से जीवन तपता है
जैसे अधजली लाशों के अस्थि-चर्म जलते हैं
जैसे वेदना से हृदय गर्हित है

विरह में आँखें रोती हैं
सुहागन के शव के गहने जलते हैं

मैं लाशें फूँकता हूँ
लेकिन उस तरह नहीं
जैसे फूँकी हैं तुमने
दंगों में बस्तियाँ
झोंकी हैं तुमने ईंट के भट्ठों में
फुलिया और गोधन की ज़िंदगियाँ

मैं लाशें फूँकता हूँ
किंतु मेरी एक जाति है
जैसे ऊना में चमड़ा खींचने वालों की
और इस देश में नाली-गटर में उतरने वालों की

समय के घूमते चक्र में क्या कुछ नहीं बदला
राजशाही से लोकशाही
बर्बरता से सभ्यता
मगर लाशों को फूँकते
ये हाथ नहीं बदले
न इनकी जाति
न मुस्तक़बिल

मात्र घाट के जलते शव
हैं, पार्श्व में सन्नाटा
और जीवन मृगतृष्णा
मैं लाशें फूँकता हूँ
मेरे दुख में विसर्ग नहीं है!

3. कजरी के गीत मिथ्या हैं

अगले कातिक में
मैं बारह साल की हो जाती
ऐसा माँ कहती थी
लेकिन जेठ में ही मेरा
ब्याह करा दिया गया

ब्याह शब्द से
डर लगता था
जब से पड़ोस की काकी
जल के एक दिन मर गई

मरद की मार
और पुलिस की लाठी से
मरी हुई देहों का
पंचनामा नहीं होता
न ही रपट लिखाई जाती है

नैहर में हम हर साल सावन में कजरी गाते थे—
‘तरसत जियरा हमार नैहर में
कहत छबीले पिया घर नाहीं
नाहीं भावत जिया सिंगार नैहर में’

गीतों में ससुराल जाना अच्छा लगता है
लेकिन कजरी के गीतों से
ससुराल कितना अलग होता है

नैहर और ससुराल
दो गाँवों से ज़्यादा दूरी का
मैंने व्यास नहीं देखा
न ही इससे ज़्यादा घुटन

मैं घुटन से तंग हूँ
लेकिन सब कुछ पीछे छोड़कर
कहीं नहीं जा सकती

विवाहित स्त्रियों का भाग जाना
क्षम्य नहीं होता
उनको जीवित जला दिया जाना
क्षम्य होता है

कुछ घरों की बच्चियाँ
सीधे औरत बन जाती हैं
लड़कियाँ नहीं बन पातीं

कजरी के गीत मिथ्या हैं
जीवन में कजरी के गीतों-सी मिठास नहीं होती!

4. लगभग विशेषण हो चुका शासक

किसी अटपटी भाषा में दिए जा रहे हैं
हत्याओं के लिए तर्क

‘एक अहिंसा है
जिसका सिक्का लिए
गांधीजी हर शहर में खड़े हैं
लेकिन जब भी सिक्का उछालते हैं
हिंसा ही जीतती है’

जो लोग मारे गए विभीषकाओं में
वो लगभग मारे जाने के करीब थे

सबसे अगली पंक्ति में
सबसे भयभीत और कायर, तमगे लगाए बैठे हैं

सबसे भयभीत और कायर सबसे पुष्ट हत्यारे हैं

उनकी आभामय दीवारों पर
बैठे हैं प्रायोजक
आवांछित तत्वों की तरह

वो, जो न्याय को छलकर
चोले की तरह उतारकार चले गए

वो उस शासक के संरक्षण में हैं

नहीं है जिसकी प्राथमिकताओं में
प्रवणता
कमतर जीवन का दुःख

ना ही हैं
जून कमाने की जुगत में मारे गए
लोगों के आंकड़े
जिनके नागरिकताबोध की शिनाख्तगी में
शायद साल-महीने लगें

शासक को देखा है
मुखौटा उतारकर
उँघते
वीभत्स मुद्राओं में

उसका अभिनय प्रायोजित है
और पीड़ाएँ विज्ञापित

वह गहन आत्म-सम्मोहन में
बेहद फूहड़ और बाज़ारू चीज़ें
गाता है

उसकी महानता के झूठे किस्से गढ़े गए

लगभग निरंकुश हो चुका शासक
अब
लगभग विशेषण है

और सत्ता से असहमत लोग
लगभग ख़ारिज नागरिक!

5. यथेष्ट

इस वैकल्पिक दुनिया में
इतना अँधेरा रहा
कि चारों ओर मोमबत्तियाँ
जलाकर बैठे लोग
उजाले की चाहत में
रात बुझा बैठे

मैने दुखों को नहीं
दुखों ने मुझे चुना था
फिर न जाने क्यों
यह कुछ पतंगों को रास नहीं आया

कैमरों में प्रेम दर्ज हो गया
और आज़ादी क़ैद हो गई

मेट्रो की सुबहों में इतनी गुंजाइश होती
कि प्रेम करने वाले बैठे हों
तो घूरती निगाहें नहीं होतीं

याद की अवस्थिति में
दुनिया से मिली
उलझनें होतीं

हम अपनी उलझनें
दर्पण के सामने कहते रहे

दर्पण चेतन होने का अभिनय करते रहे

वे अपनी कहानी में उलझे
हमारी कहानी कहते रहे!

6. तयशुदा समय की बीमार उपमाएँ

कुहासे के छँटने में इतना विलम्ब था
कि इंतिज़ार कर रहे लोग
कुछ देर और ठहर जाते

तुम्हारे साथ ठहरने के सुख इतने बड़े थे
कि अधराये पाँव
पूरा शहर
देखने से पहले थक जाते

पूरा शहर देख चुके लोग
रास्ता भटक जाते

रास्ता भटक चुके लोगों ने
बहुत थक जाने पर
ठहरना चुना

जातीय अस्मिताओं के पहाड़ इतने बड़े थे
कि उन्होंने प्रेमियों को
घर की देहरी
नहीं लाँघने देना चुना

जब चलने और ठहरने से पेट भरा
तब लोगों ने यात्राओं का
दुःखांत लिखना चुना

तुमने
दृश्य से उठकर
चले जाना चुना

और मैंने चुनीं
तयशुदा समय की बीमार उपमाएँ

7. वितानमय

निष्ठुरताओं से घिरा भयभीत मन
धैर्य का अभिनय कर रहा है

अवमुक्त होने के संदर्भ में
कुछ स्मृतियाँ कुछ आशंकाएँ बची हैं

आगंतुक पत्र के साथ
चपरासी
शहर से शहर भागता है

एक दिन ठग लिए गए समय की राख
हमारी नियोजित इच्छाओं पर
धूल की तरह
पड़ रही होती है

बहुत आत्मीय लगते हैं रास्ते
जटिल दुनिया में आतिथ्य तलाशते
प्रेम-पत्रों की तरह

उस दिन अमलतास से नीचे
कोई फूल नहीं गिरा
पदचिह्न मिटाकर
कोई ज्योत्सना-अभिमानी चल नहीं सकता

मैं एक खोया हुआ यात्री हूँ

अधिष्ठित सपनों में
अपना घर भूल आया हूँ

मैं जब सो जाता हूँ
तो मुझे अपने सपनों में
असली कहानी मिलती है
और देखता हूँ
आँखों से एक हाथ दूर
पुराना अतीत बैठा है

अजीब घटनाओं में
समय रुकने का भ्रम छिपा है

मन किसी शोकागार में बिलखती चिड़िया है
सम्प्रेषित नहीं हो पाता निष्ठुर अवबोध

कथानकों की दुर्लब्ध भाषा में गहरे डूबा मैं—
छिछला अवसाद लिए हुए

समय का प्रवाह अब आगे नहीं बढ़ रहा है
(हालाँकि आत्महत्या अब एक परित्यक्त विचार है)
और समय की प्रतिबद्धता जैसे हताशा का चेहरा है

प्रतिबद्धताएँ कातर मन का दिवास्वप्न हैं
यही वास्तविकता की संरचना की
कुल तोड़फोड़ है।

8. स्मृतियाँ एक दोहराव हैं

उत्कंठाओं के दिन नियत थे
प्रेम के नहीं थे

चेष्टाओं की परिमिति नियत थी
इच्छाओं की नहीं थी

परिभाषाएँ संकुचन हैं
जो न कभी प्रेम बाँध पाईं
न देह

स्मृतियाँ एक दोहराव हैं
जो बीत गए की पुनरावृत्ति का
दंभ तो भरती हैं लेकिन
अपनी सार्थकता में अपूर्ण
शब्दभेदी बाण की तरह
अंतस में चुभती रहती हैं

विरह बिम्बों से भरा दर्पण है
जो एक और बिम्ब के
उर्ध्वाकार समष्टि का भार
सहन करने में असहाय
हर एक विलग क्षण में टूटता रहता है

दर्पण का टूटना
प्रतीक्षाओं के उत्तरार्ध की निराशा है

उससे छिटककर गिरा एक बिम्ब
कृष्ण के पाँव में धँसा हुआ
बहेलिए का तीर है

प्रेम मनुष्य के लिए सब कुछ बचा लेता है
जो प्रतीक्षाओं को नहीं प्राप्त होता

सब जाते हैं उद्विग्नता से प्रेम की तरफ़
और लौटते हैं
स्मृतियों की खोह में बरामद होते हुए

एकांत के समभारिक क्षणों में कहीं कोई स्थायित्व नहीं है

वेदनाएँ अभ्यस्त एकालाप हैं
और एकांत—
अनीश्वरवाद की पीड़ा!

9. आवरण

आँखों का अस्तित्व
हर तरह की सत्ता के लिए ख़तरा है
इसलिए आए दिन आँखें
फोड़ दिए जाने की ख़बरें हैं

इससे पहले आपकी भी आँखें फोड़ दी जाएँ
नज़र और धूप के चश्मे ख़रीदिए

धूप के चश्मे पूँजीवादी सभ्यताओं का आविष्कार हैं
और फूटती आँखें हमारे समय का सच
ये चश्मे हमें दुनिया में सब कुछ सही होने का भ्रम कराते हैं
दिखाते हैं कि अब भी हमारे पाँव के नीचे ज़मीन बाक़ी है
लेकिन इस दुनिया ने आवरण ओढ़ रखे हैं

हमने मूर्तियों को नैतिकताओं का आदर्श बताया
और इन्हीं मूर्तियों के अपक्षय से सहज होते गए
पलक झपकने के पहले हम कुछ और होते हैं
पलक झपकने के बाद कुछ और

परिवर्तन अनिमिष होते हैं
व्यथा यह है कि त्रासदियाँ अनिमिष नहीं होतीं

ये त्रासदियों का दौर है और हम निमित्त
शून्य हमारी संवेदनाओं का नियतांक

रिक्तता सभ्यताओं का आवृत्त सच
और त्रासदियाँ
इन्हीं रिक्तताओं को भरने की
असफल चेष्टाओं का प्रतिफल

ताम्रिकाओं पर नहीं लिखे गए
विवर्तनिक परिसीमन
सकरुण अवसान
परिष्कृत वंचनाएँ
सहस्राब्दियों का तिमिर
नैतिकताओं का आयतन

प्रतिध्वनियों के अतिशय में हम नहीं सुन पाए
नेपथ्य का कोलाहल

प्रायिकताओं का अपवर्तनांक
हमें भावशून्यता तक ले आया

और आज जब
आँखें फोड़ना राज्य प्रायोजित है
तब बेहतर यही है कि
नज़र और धूप के चश्मे ख़रीदिए!

कवि मनीष कुमार यादव, उम्र 19 वर्ष। हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक-अनुवादक हैं। इनकी कलम अभी नई है। वह इन दिनों राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान (लखनऊ) में पढ़ाई कर रहे हैं।

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