प्रियदर्शन
मूलतः अपनी सामाजिक सक्रियता और मानवाधिकारों के पक्ष में अपनी लड़ाई की वजह से सत्ता की आंखों की किरकिरी बने और जेल तक जा चुके मनीष आज़ाद की कविताएं परंपरा की किस कोख से निकली हैं- यह समझना मुश्किल नहीं है। वे जन संघर्ष, प्रतिरोध और क्रांति की कामना के कवि हैं- पाब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत, ब्रेख्त, वरवर राव, पाश आदि से प्रेरणा लेने वाले। टॉल्स्टॉय, गोर्की जैसे लेखकों और पावेल और स्पार्टाकस जैसे किरदारों को याद करते हुए जिस वाम वैचारिकी का संवेदनशील संसार बनता है, उसी से निकलती हैं मनीष आज़ाद की कविताएं।
मैं शायद उन कुछ लोगों में हूं जिन्हें मनीष आज़ाद की जेल डायरी प्रकाशन से पहले पढ़ने का सौभाग्य मिला है। वह डायरी भी बताती है कि कविता और साहित्य ने मनीष आज़ाद की जीवन दृष्टि को किस तरह प्रभावित किया है। जेल के उस घुटन भरे अमानवीय माहौल में- जहां कुछ ही दूरी पर दूसरी जेल में उनकी पत्नी अमिता शीरीन भी कैद थीं- मनीष आज़ाद को कविताएं बचाती रहीं, उनके लिए जीवन को सहनीय और संभावनापूर्ण बनाती रहीं। लेकिन उस डायरी में मनीष की अपनी कविताओं का ज़िक्र शायद नहीं है या फिर कम है। मगर मनीष बहुत सशक्त कवि हैं। उनकी दृष्टि में कहीं से जाले नहीं हैं, वह मध्यवर्गीय अगर-मगर नहीं है जो अपनी सफ़ाई के लिए तरह-तरह के तर्क गढ़ती है और कोमल-मुलायम कविता की शरण लेती है। वे सीधे-सीधे राजा पर सवाल करते हैं, उसके मंसूबों की कलई खोलते हैं। वे किताबों को कंठस्थ कर लेने की, गीतों को न भूलने की, प्रेम पर कोई पाबंदी न मानने की सलाह देते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि तानाशाह गीतों और किताबों से डरता है, प्रेम से ख़ौफ़ खाता है। वे इस तानाशाह से लड़ने की ज़रूरत और तरीक़े दोनों पर बात करते हैं। उनकी एक कविता की अंतिम पंक्तियां कहती हैं-
‘यह समाचार को सामने से नहीं, / पीछे से देखने का वक़्त है, / क्योंकि तानाशाह अब समाचारों पर प्रतिबंध नहीं लगाता, / बल्कि उनमें तेज़ाब भरवाता है../ यह प्रश्नों को बचाने, गढ़ने और / उन्हें उछालने का समय है./ क्योंकि तानाशाह जानता है / कि ये प्रश्न / उसके उत्तरों की महागाथा की उड़ा सकते हैं धज्जियां./ यह युद्ध करते हुए, युद्ध सीखने का वक़्त है / क्योंकि तानाशाह जानता है कि / वह तभी तक सुरक्षित है / जब तक युद्ध पर उसका एकाधिकार है!!’ इस राजा पर व्यंग्य करने में भी वे पीछे नहीं रहते। एक अन्य कविता में वे कहते हैं कि तथ्य और सत्य इस राजा का भोजन हैं।
हिंदी कविता के नए पारखी इस जनवाद को किसी पुराने ज़माने की चीज़ मानते हैं। उन्हें लगता है कि कविता ऐसे आह्वानमूलक वक्तव्यों से नहीं बनती। एक हद तक यह बात सच हो सकती है, लेकिन वह बहुत बारीक रेखा होती है जो किसी नारे के कविता में बदलती है और किसी कविता में ऐसी ताकत पैदा करती है जो उसे बहुत सारे लोगों के लिए लड़ाई के नारे में बदल दे। कहने की ज़रूरत नहीं कि वह बारीक रेखा मनीष की कविता में मौजूद है।
उनकी काव्य चेतना में प्रतिरोध की ऊर्जा और ऊष्मा के साथ-साथ एक तरल तत्व हमेशा सक्रिय मिलता है जो उनकी कविताओं को एक संवेदनशील आयाम देता है। दरअसल मनीष की कविताएँ याद दिलाती हैं कि वैचारिक प्रतिबद्धता सिर्फ़ भावनात्मक उत्साह से नहीं निकलती, वह चीज़ों की इस अचूक समझ से भी पैदा होती है कि कौन सी ताकतें परिवर्तन चाहती हैं और कौन सी शक्तियाँ यथास्थिति को बनाए रखना चाहती हैं। राजा और उसके कारकून सोचते हैं कि दुनिया हमेशा ऐसी ही रहेगी, जबकि किसान और ग़ुलाम जानते हैं कि दुनिया को बदलना चाहिए। पूंजीपति को लगता है कि दुनिया ऐसी ही रहेगी, जबकि उसके लिए पसीना बहाने वाला मज़दूर जानता है कि इसे बदलना होगा।
सीधे-सपाट वक्तव्य सी लगती यह कविता धीरे-धीरे हमारे भीतर उतरती है और अचानक तब धंस सी जाती है जब बदलाव और यथास्थिति के इस सवाल को मनीष औरत और मर्द के रिश्तों तक ले आते हैं। वे लिखते हैं- ‘स्त्री को फूली रोटी और / बिस्तर की सलवट समझने वाला मर्द, / स्त्री से उसके सारे रंग छीनने वाला पुरूष / सोचता है कि दुनिया ऐसी ही रहेगी /
लेकिन दुनिया को विविध रंगों से रंगने का ख्याल लिए स्त्री / सोचती है कि दुनिया बदलनी ही चाहिए / और दुनिया बदल रही है, / निरंतर बदल रही है!’\
इन कविताओं से गुज़रते हुए यह बात शीशे की तरह साफ़ हो जाती है कि मनीष के लिए बदलाव की ज़रूरत के कई स्तर हैं- वे आर्थिक बराबरी के साथ-साथ लैंगिक बराबरी के प्रति संवेदनशील कवि भी हैं। इस बात को उनकी एक अन्य कविता बहुत मार्मिक ढंग से दर्ज करती है। इन दिनों हर कोई अतीत के उत्खनन में लगा है जिसमें उसे किसी काल्पनिक भव्यता की तलाश है। लेकिन मनीष जब इस अतीत में उतरते हैं तो क्या पाते हैं? वे लिखते हैं कि उन्होंने उत्खनन की कोशिश शुरू की। और फिर-
‘फावड़ा लेकर मैं निकल पड़ा अतीत की ओर…/ खोदते खोदते जब मैं थक रहा था / तो अचानक कुछ टकराया, / मैंने जल्दी – जल्दी मिट्टी हटाई /
लेकिन यहां किसी मंदिर का अवशेष नहीं / बल्कि एक कंकाल था / कंकाल एक महिला का / मैं बेहद आश्चर्यचकित / क्योंकि महिला की योनि पर ताला जड़ा था /’
अपने संपूर्ण अनुभव में यह सिहराने वाली कविता है। अतीत में बस कंकाल ही कंकाल हैं जिनके साथ अन्याय और उत्पीड़न की अनगिनत कहानियां जुड़ी हैं। वे सारे कंकाल अपने अस्फुट स्वरों में जैसे वर्तमान से अपना हिसाब मांग रहे हैं। बादशाहों और हवेलियों के अतीत से निकले, समुद्र तटों की गहराइयों से निकले ये कंकाल कविता में उठ खड़े होते हैं- कवि को समझ में आता है कि यह अतीत मरा नहीं है, जीवित है जो कभी न कभी अपना हिसाब वसूलेगा। यह लगभग मुक्तिबोधीय यंत्रणा और युक्ति है जिसे मनीष आज़ाद का वैचारिक संबल भविष्य के भरोसे से जोड़ता है।
मनीष यहीं नहीं रुकते। वे अपनी ओर से भी इस अतीत को आवाज़ देते हैं। जैसे वे सारी क्रांतिकारी शक्तियों का एक साथ आह्वान कर रहे हों। मौजूदा समय की विडंबनाओं के विरुद्ध, इस दौर के अत्याचारों के विरुद्ध, फ़र्ज़ी मुठभेड़ों और अदालत की बेमानी होती कार्रवाइयों को पहचानते हुए उनका कवि यह समझने की कोशिश में है कि स्पार्टाकस हारा क्यों, और वह फिर भी बार-बार पैदा क्यों हो जाता है। उन्हें लगता है कि इन क्रांतिकारी नायकों को अब किताबों के पन्ने से निकल आना चाहिए। वे गोर्की की ‘मदर’ के पावेल से पूछते हैं कि क्या अब किताब में तुम्हारी सांसें घुट नहीं रहीं, वे बताते हें कि अब भी जार की सेनाएं कुत्तों की तरह विद्रोहियों का पीछा कर रही हैं, वे उसकी मां को याद करते हैं जो टोकरी में क्रांतिकारियों तक संदेश ले जाया करती थी।
वे भगत सिंह को पुकारते हैं मगर इस चेतावनी के साथ-
‘आज़ाद भारत मे भी तुम्हें भूमिगत ही रहना पड़ेगा. / हम तुम सबका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं. /
लेकिन तुम्हारा इंतज़ार हम इसलिए नहीं कर रहे
कि हमारे पास / स्पार्टकस / पावेल / पावेल की मां / या भगतसिंह नहीं हैं./ हम तुम्हारा इंतज़ार इसलिए कर रहे हैं / क्योंकि हमें करनी है गुफ्तगू तुम्हारे साथ, / तुम्हारे सपनों को अपने सपनों में देना है विस्तार. / तुम्हारे कंधे से अपना कंधा रगड़ना है /
और उस तूफ़ान का निर्माण करना है / जिसका सपना कभी तुमने देखा था / और जिसके लिए ही तुम्हें लैम्पपोस्टों पर लटकाया गया था…।‘
ज़रा सा भी असावधान कवि इस कविता को एक गैरज़रूरी रोमानी पुकार में बदल कर छोड़ देता। लेकिन मनीष इस बात को बहुत सजगता के साथ समझते हैं कि अतीत के नायकों की प्रेरणा एक बात है, लेकिन नायक अंततः हमारे हैं, वे किताबों में नहीं, हमारे बीच ही हैं- हमारे अपने स्पार्टाकस, पावेल और भगत सिंह।
एक कवि इससे ज़्यादा और क्या कर सकता है? क्रांतिकर्म और साहित्य के इस नाजुक रिश्ते को मनीष इसलिए भी संभाल पाते हैं कि उनके पास अनुभव और अध्ययन का एक विपुल भंडार है। उनकी एक बहुत प्यारी कविता टॉल्स्टॉय और अन्ना करेनिना के बीच की बातचीत पर है- टॉल्स्टॉय उसे सुधारने के लिए उपन्यास लिख रहे थे, ख़ुद बदल गए। उनकी रचना भी बदल गई।
मनीष को पढ़ने के पहले एक वैधानिक चेतावनी- उन्हें कविता की शौकिया समझ के लिए न पढ़ें, संवेदनशीलता के उपभोग के लिए न पढ़ें, उन्हें उनके जज़्बे के साथ पढ़ें, उस क्रांतिकारिता की गहराई के साथ पढ़ें जो तमाम दमन के बाद भी, हर तरह की सड़ांध के बाद भी एक बेचैनी की तरह बची रहती है। जो कविता को उसकी बेडौल संरचना के बावजूद वह स्पंदन देती है जो बहुत सारी सजी-संवरी, मगर बेजान कविताओं में नहीं होता। यह जीवन की तराश और ख़राश है जहां तक मनीष की कविताएं हमें ले जाती हैं- मजबूर करती हुई कि उस सच से आंख मिलाएं जिससे आंख चुराने की हमें आदत सी पड़ गई है। इन्हें पढ़ते हुए खयाल आता है कि कविता और जीवन में क्रांति की कामना का बचे रहना कितना ज़रूरी है- किसी और चीज़ के लिए नहीं तो हमारी अपनी मनुष्यता के लिए ही।
मनीष आज़ाद की कविताएँ
1.
यह किताबों को कंठस्थ करने का समय है
क्योंकि किताबों को जलाने का आदेश
कभी भी आ सकता है.
तानाशाह को पता है
भविष्य जलाने के लिए किताबें जलाना जरूरी है..
यह गीतों को याद रखने
और उनके समूहिक गान का समय है
क्योंकि गीत ही वह पुकार है
जिसमें हम भविष्य का आहवान करते हैं!
तानाशाह यह जानता है
इसलिए वह गीतों को हमारी स्मृतियों से
खुरच देना चाहता है..
यह प्रेम करने का समय है
क्योंकि प्रेम करना हमेशा से
रवायतों के ख़िलाफ़ विद्रोह रहा है.
इसलिए हर तानाशाह प्रेम से खौफ़ खाता है..
यह समाचार को सामने से नहीं,
पीछे से देखने का वक़्त है,
क्योंकि तानाशाह अब समाचारों पर प्रतिबंध नहीं लगाता,
बल्कि उनमें तेज़ाब भरवाता है..
यह प्रश्नों को बचाने, गढ़ने और
उन्हें उछालने का समय है.
क्योंकि तानाशाह जानता है
कि ये प्रश्न
उसके उत्तरों की महागाथा की उड़ा सकते हैं धज्जियां..
यह युद्ध करते हुए, युद्ध सीखने का वक़्त है
क्योंकि तानाशाह जानता है कि
वह तभी तक सुरक्षित है
जब तक युद्ध पर उसका एकाधिकार है!!
2.
दास दासियों से घिरा
छप्पन भोग का आनन्द लेता राजा
सोचता था कि
दुनिया हमेशा ऐसी ही रहेगी
लेकिन चाबुक और लगान से दोहरा हुआ किसान
सोचता था कि दुनिया बदलनी ही चाहिए..
गुलामों के मालिक कुत्तों के साथ
गुलामों पर निगरानी रखते
और सोचते कि दुनिया हमेशा ऐसी ही रहेगी
लेकिन जलते सूरज
और मालिक के कोड़े की मार पीठ पर लिए
खेतों से कपास चुनते गुलाम
सोचते थे कि दुनिया बदलनी ही चाहिए..
मजदूरों को मशीन में डालकर
उसका रस चूसने वाला पूंजीपति
सोचता है कि दुनिया ऐसी ही रहेगी
लेकिन पूंजीपति के लिए
कच्चा माल बनने से इंकार करता मजदूर
भविष्य का सपना देखता मजदूर
सोचता है कि दुनिया बदलनी ही चाहिए..
स्त्री को फूली रोटी और
बिस्तर की सलवट समझने वाला मर्द,
स्त्री से उसके सारे रंग छीनने वाला पुरूष
सोचता है कि दुनिया ऐसी ही रहेगी
लेकिन दुनिया को विविध रंगों से रंगने का ख्याल लिए स्त्री
सोचती है कि दुनिया बदलनी ही चाहिए
और दुनिया बदल रही है,
निरंतर बदल रही है!
किसी के सोच के इंतज़ार में नहीं
बल्कि भविष्य के बच्चों की खिलखिलाहट देखने की चाहत में
दुनिया लगातार बदल रही है…
3.
फिर समाज में कोई
अन्ना करेनिना बनने की कोशिश न करे
इसी दृढ़ निश्चय के साथ
टॉलस्टॉय लिखने बैठे.
तीस पेज तक आते आते
अन्ना शब्दों से निकलकर
टॉलस्टॉय की मेज पर एक खूबसूरत छोटी गुड़िया में अवतरित हो गयी.
‘टॉलस्टॉय, तुम मेरे प्रति इतने कठोर क्यों हो?’
टॉलस्टॉय का सीधा जवाब था
‘तुमने बेवफ़ाई की है’
‘किससे’?
अपने पति करेनिन से, समाज से.
तुमने तो अपने प्रेमी ब्रोंस्की के लिए
अपने बच्चे को भी छोड़ दिया
और अब तुम मुझसे नरमी की उम्मीद करती हो?
अन्ना जब ज़िंदा थी.
तो यह सब सुनने की उसे आदत हो गयी थी!
लिहाजा उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया.
अन्ना ने सीधा सवाल किया
बेवफाई क्या है, प्रेम क्या है, समाज क्या है?
टॉलस्टॉय ने इस पर अपना पूरा बोझिल दर्शन रख दिया.
अन्ना बिना प्रभावित हुए बोली
एक स्त्री को क्या चाहिए
प्यार और सम्मान
ब्रोंस्की ने मुझे दोनों दिया.
इसलिए मैं पति को छोड़ ब्रोंस्की के पास आ गयी
और माँ का दायित्व?
टॉलस्टॉय को लगा कि इस सवाल से अन्ना निरुत्तर हो जाएगी
लेकिन अन्ना का जवाब था
‘केरेनिन ने मेरे बच्चे को मुझसे छीना
और मैं सिर्फ माँ नहीं थी, एक स्त्री भी थी
स्वतंत्र स्त्री
प्यार और सम्मान की आकांक्षी’.
‘लेकिन ब्रोंस्की ने भी तो तुम्हें धोखा दिया,
आखिर तुम्हें मिला क्या?’
यह तो तुम ब्रोंस्की से पूछना
मैंने तो बस प्यार किया था
एक मासूम प्यार!
फिर समाज की नैतिकता का क्या?
नैतिकता के सवाल पर अन्ना भड़क गई,
‘तुम्हारे समाज की नैतिकता
मकड़ी के उस जाले की तरह है
जहाँ स्वतंत्र स्त्री का गला घोंटा जाता है
उसके प्यार, उसके सपनों का गला घोंटा जाता है
जैसे मेरा घोंटा गया
क्या मेरा गला घोंटने से तुम्हारे समाज की नैतिकता बच गयी?
सच कहूँ तो मैंने तो बस प्यार किया था
बहती नदी सा निश्चल प्यार.’
‘अच्छा छोड़ो टॉलस्टॉय
यह बताओ
अगर तुम मेरी जगह होते तो क्या करते?’
टॉलस्टॉय ने सिगार सुलगाई
बेचैनी में कमरे का कई चक्कर लगाया
फिर बेहद धीमी मगर गंभीर आवाज़ में कहा
‘वही करता जो तुमने किया’
यह सुनकर अन्ना करेनिना
पुनः शब्दों में विलीन हो गयी…….**
**कहते हैं कि टालस्टाय पहले अन्ना को नेगेटिव रूप में चित्रित करना चाहते थे. लेकिन वे ईमानदार रचनाकार थे.
इसलिए जैसे जैसे अन्ना के चरित्र में डूबते गए, उनकी अन्ना के प्रति सहानुभूति बढ़ती गयी और अन्ना अंत मे उपन्यास में सकारात्मक पात्र के रूप में उभर कर आई.
4.
एक शांत और अलसाये गाँव में
अचानक एक नौजवान ने सोचा
उसे सूरज को छूकर आना है
गाँव वालों ने उसका मजाक बनाया
उसे पागल कहा
लेकिन उसने किसी की न सुनी
और निकल पड़ा उगते सूरज की दिशा में..
रास्ता कठिन और ख़तरनाक था
लेकिन रास्ते मे प्रकृति अपने नए-नए रूप दिखा रही थी.
मानो इस नौजवान से लुका छिपी खेल रही हो.
कभी उसे संदेह होता
कि मैं चल रहा हूँ या यह रंग बदलती प्रकृति!
वह हैरान कि दुनिया इतनी विविध और सुंदर है
भूख लगने पर उसने क्या नहीं खाया
उसे तो महज चंद स्वाद पता थे
यहां तो असंख्य स्वाद थे!
इतने रंग के पक्षी देखकर वह वह दंग रह गया
सभी की अठखेलियाँ एकदम निराली
सच तो यह है कि उसने अभी तक केवल चंद रंग ही देखे थे
लेकिन यहां तो अनगिनत रंग थे!
उसने पक्षियों की भाषा सीखी
कल कल बहती नदियों से बातें की
नदियों में मछलियों से अपने तलुए सहलवाये.
ऊंचे ऊंचे पहाड़ों को अपनी आवाज़ देकर
अपनी प्रतिध्वनि सुनी!
घने वृक्षों वाले पहाड़, आँखों को चौंधिया देने वाले
बर्फ से ढके पहाड़,
और एकदम निचाट पहाड़.
कान लगाकर चीटियों के पैरों की आवाज़ सुनी
उसे आश्चर्य हुआ कि फूलों के भी मैदान हो सकते हैं,
ढलते सूरज तक जिनका विस्तार था.
इनकी खुशबू से इंसान बेहोश भी हो सकता था!
बारिश में
बारिश की बूंदों को हवा में ही अपनी चोंच में लेते पंक्षियों को देखा,
बारिश की बूंदों को नदियों से टकराते
और नदी में बनते अनगिनत
छोटे छोटे छल्लों को
एक दूसरे से टकराते और एक दूसरे में समाते देखा!
लेकिन अचानक एक दिन उसने निर्णय किया
कि गाँव वापस चला जाय,
गाँव वालों को इस जादुई संसार के बारे में बतायेगा,
और उन्हें भी ‘सूरज छूने’ के लिए इधर लायेगा!
वह गाँव लौटा
उसे देखते ही गांव वालों के चेहरे पर व्यंगात्मक मुस्कान थी
सूरज को छू लिया?
नौजवान ने भी मुस्कुराते हुए छोटा सा उत्तर दिया
‘हां छू लिया!’
5.
अतीत को न्याय दिलाने वाले
इस ‘राष्ट्रीय खुदाई अभियान’ में
अन्ततः मैं भी शामिल हो गया!
फावड़ा लेकर मैं निकल पड़ा अतीत की ओर…
खोदते खोदते जब मैं थक रहा था
तो अचानक कुछ टकराया,
मैंने जल्दी – जल्दी मिट्टी हटाई
लेकिन यहां किसी मंदिर का अवशेष नहीं
बल्कि एक कंकाल था
कंकाल एक महिला का
मैं बेहद आश्चर्यचकित
क्योंकि महिला की योनि पर ताला जड़ा था.
ताले में भरसक जंग लग गया था
लेकिन वह टूटा नहीं था.
तभी वह दर्द से कराही
मैं डरकर पीछे हट गया
वह अपने आप में कुछ कह रही थी
मैंने कान लगाया
‘मेरी योनि को मुक्त करो’!
इसकी चाभी खोजो और मुझे मुक्त करो!!
मैं पसीने से तरबतर
ये कैसे हो सकता है
सदियों से यह महिला
अपनी योनि पर लगे ताले के खुलने के इंतजार में मरी नहीं है.
घबराकर मैंने खुदाई बन्द कर दी.
दूसरे दिन मैंने दूसरी जगह खुदाई शुरू की
इस बार जब टन्न की आवाज आयी
तो मैं हैरान
यह तो सिर्फ सिर का कंकाल है.
धड़ कहाँ है?
सर के इस कंकाल को जैसे ही मैंने हाथ में लिया.
यह कांपा
और कहीं से बारीक सी आवाज आई
मेरे धड़ को ढूंढो!
बिना उसके मैं कैसे मर सकता हूँ
हमारे सिर को तो पेशवाओं ने फुटबॉल बना कर खेला
धड़ का क्या किया
हमें पता नहीं.
मैंने धड़ की तलाश में चारो तरफ तेज़ी से खुदाई कर डाली
लेकिन हर तरफ सिर का ही कंकाल मिला
फुटबॉल की तरह हिलते डुलते
सदियों बाद भी मरने से इंकार करते.
अचानक मेरी नज़र
कुछ अकड़े काले पड़ गए कंकालों पर पड़ी
ये तो आग में जले मालूम होते हैं
मैं सहमते सहमते उनके नज़दीक गया
मुझे देखते ही उन्होंने करवट बदल ली
अरे, ये भी ज़िंदा हैं!
मैंने साहस करके पूछा
तुम्हारा तो अंतिम संस्कार हो चुका है
फिर तुम ज़िंदा क्यों हो?
उनमें से एक ने लगभग खीझते हुए कहा
हमें अपनी झोपड़ियों में हमारे बच्चों सहित फूंक दिया गया था
मैंने आश्चर्य से पूछा
क्यों?
क्योंकि हमने पहली बार अपने खाने में घी का तड़का लगाया था!
दक्षिण टोले से जाने वाली घी की महक उन्हें बहुत नागवार गुजरी!
क्योंकि घी के स्वाद पर उनका ही अधिकार था
इसलिए खाने से पहले ही हमें जला दिया गया!
हम अभी भी भूखे हैं
तो फिर मर कैसे सकते हैं?
मैं पसीने से तरबतर वहां से भागा..
मुझे लगा मैं पागल हो जाऊंगा…
लेकिन कुछ दिनों बाद
इन सबको दिमाग से निकाल कर
मैंने फिर खुदाई शुरू की
इस बार एक जर्जर हवेली की खुदाई करते हुए
मुझे उसकी नींव में एक के ऊपर एक कई साबुत कंकाल मिले.
वे भी मरे नहीं थे, बल्कि कराह रहे थे
उन्होंने फुसफुसा कर मुझसे कहा
इस महल को बनाते हुए हम इसी में दब गए
इसकी नींव हो गए.
राजा ने महल की सुरक्षा का वास्ता देकर
हमारे परिवार वालों को यहां आने से रोक दिया.
बिना अंतिम संस्कार, हम मर कैसे सकते हैं?
मैं वहां से भी जान बचाकर भागा
अंततः एक खुले मैदान की मैंने खुदाई शुरू की
रात भर खुदाई के बाद जब मैं पस्त हो चुका था.
तो अल्लसुबह जो मैंने देखा
उसने मेरे होश उड़ा दिये.
यहां वहां बिखरे थे हज़ारों कंकाल
लेकिन कोई साबुत नहीं था.
किसी की टांग गायब थी, किसी का हाथ
और किसी की आंख
मुझे आश्चर्य हुआ, कि ये भी मरे नहीं हैं!
सब कसमसा रहे हैं
मानो मिट्टी का बोझ हटने से
अब उठना चाह रहे हों
उनमें से किसी एक ने बहुत धीमी आवाज़ में कहा
‘अंधायुग’ में हम जिस राजा के ख़िलाफ़ लड़े
उसे तो हम नहीं ही जानते थे
लेकिन जिस राजा के लिए लड़े, उसके बारे में भी हमें कहां पता था!
विजयी और पराजित राजा
दोनों ने संधि की
और हमे छोड़कर चले गए.
हम अपने परिवार वालों के इंतजार में
अभी भी मरने का इंतजार कर रहे हैं
क्या तुम उन्हें इत्तिला दे सकते हो?
मैं परेशान
कि यह सब क्या हो रहा है
कहीं यह कोई दुःस्वप्न तो नहीं है
अतीत इस कदर ज़िंदा कैसे है!
मैंने फावड़ा फेंका
और हताश होकर समुद्र में छलांग लगा दी
जब सांस रोके समुद्र की गहराई में गोते लगाता
तलछट पर पहुँचा
तो यहां भी आश्चर्य ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा
मैंने जो देखा, वह भयावह था!
कल्पना से परे था!
समुद्र की तलहटी पर लाखों कंकाल बिछे हुए थे…
इनके न सिर्फ हाथ और पैर बंधे थे
बल्कि वे एक दूसरे से भी बांधे गए थे!
मुझे समझते देर न लगी
जरूर गुलाम विद्रोह के कारण इनके जहाज डूबे होंगे
मैंने सोचा कि पानी मे तो निश्चित ही ये मर चुके होंगे.
लेकिन मैं यहां भी गलत था
नज़दीक पहुँचने पर मैंने देखा कि वे हिल रहे हैं
उन्हें लहरे हिला रही हैं या वे खुद हिल रहे हैं!
पता नहीं
लेकिन मुझे देखते ही
सभी कमज़ोर आवाज में, मगर एक स्वर में बोलने लगे
‘संकोफ़ा, संकोफ़ा…’
मैं समझ गया
ये मुझे सुदूर अतीत में भेजकर
अपने लिए कुछ मंगाना चाहते हैं
ताकि अपनी यातनादायी बेड़ियां तोड़ सकें!
मुक्त होकर एक दूसरे के गले लग सकें!!
और चैन से मर सकें!!!
या अफ्रीकी मुहावरे में कहें तो चैन से जी सकें!
अब मेरी सांस घुटने लगी थी
मुझे अतीत से बाहर आना ही पड़ा
समुद्र के ऊपर आकर लम्बी लम्बी सांस भरकर
मैं सोचने लगा
अतीत तो सचमुच ज़िंदा है, पूरी तरह ज़िंदा!
ठीक हमारी ही तरह
और न्याय के इंतजार में है
ठीक हमारी ही तरह…..
6.
आठ बाई आठ के एस्बेस्टस वाली छत के नीचे
मैं सुबह-सुबह ही गर्मी से कुलबुलाता उठ बैठा.
एक बर्नर के चूल्हे पर बटुली में दाल बलक रही थी,
मेरा मजदूर दोस्त बिना सीमेंट की दीवार पर
मोके में किसी तरह टूटे शीशे को टिकाए
अपना मूंछ रंग रहा था.
मैं हैरान कि इसे इसकी क्या ज़रूरत
मैंने तंज़ कसा
‘तुम मजदूरी पर जा रहे हो या किसी फैशन परेड में?’
दोस्त मजदूर मुस्कुराया.
लेकिन इस मुस्कुराहट में गहरी वेदना थी,
जिसे कविता में कहना मेरे लिए संभव नहीं.
उसने मुस्कुराते हुए ही कहा
फैक्टरी गेट पर गार्ड
उन दिहाड़ी मजदूरों को बाहर ही रोक देता है
जिनके बाल या मूछें सफ़ेद हो चुकी हैं
आखिर वहां हमारा मुकाबला नौजवान मजदूरों से जो है.
मैं हैरान
फैक्ट्री मजदूरों का खून चूसती है, यह तो पता था,
लेकिन आज यह पता चला
कि फैक्ट्री मजदूरों का अपना रंग भी चूस लेती है!!
7.
राजा को वरदान है
उसे कोई मार नहीं सकता.
लेकिन साथ ही एक चेतावनी भी है,
उसे छोटे छोटे घावों से बचना होगा.
इन घावों में अगर चीटियां लग गयी
तो राजा को कोई नहीं बचा पायेगा.
राजा के पैरों तले अनेक चीटियां कुचली जाती
कभी राजा उन्हें गुस्से में कुचलता
कभी प्यार में
और कभी कभी तो यूं ही.
चीटियां परेशान थी
उन्हें राजा के घाव का इंतजार था,
ठीक उसी तरह जैसे सांप के घाव का इंतजार रहता है चीटियों को.
एक दिन राजा ने ऐलान किया कि
उसे एक ही रंग पसंद है
बाकी रंग या तो राज्य छोड़ दे, या अपना रंग फीका कर लें.
राज्य में अफरा-तफरी मच गई
कुछ ने राजा की बात मानते हुए अपना रंग फीका कर लिया,
कुछ ने अपना रंग चटकीला बनाये रखने की भरसक कोशिश की.
और इस जुर्म में जेल भी जाते रहे.
राजा के पैरों तले कुचले भी जाते रहे.
लेकिन कुछ रंग भूमिगत हो गए
राजा के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया
राजा ने भी इनके खिलाफ अपनी पूरी सेना उतार दी.
लेकिन भयानक दमन के बावजूद
विद्रोहियों ने राजा को एक छोटा घाव दे ही दिया
चीटियों को इसी बात का तो इंतजार था.
चीटियों ने पंक्तिबद्ध होकर राजा के घाव पर हमला बोल दिया
राजा और उसके निजी सैनिक
चींटियों को मारते रहे!
लेकिन चींटियों की पंक्ति तो अंतहीन थी
दरवाजे, खिड़की सब बन्द कर दिए गए
लेकिन
कभी रोशनदान से, किवाड़ों की झिर्रियों से, तमाम सुराखों से
चीटियों का संकल्पबद्ध काफिला आगे बढ़ता ही रहा
चीटियां मरती रही,
दूसरी चीटियां मरती चीटियों के ऊपर से आगे बढ़ती रही!
राजा के घाव को गहरा बनाती रही!!
राजा के शरीर का तापमान बढ़ता रहा!!!
और अंत मे राजा यह बुदबुदाते हुए मर गया
कि आखिर राज्य में कितनी चीटियां है????
8.
माँ तो माँ ही होती है
लेकिन एक दिन
माँ की एक पुरानी सहेली ने हमसे यूं ही कहा
तुम्हारी माँ जब जवान थी तो बहुत ही खूबसूरत थी!
ओह!
ऐसे तो माँ के बारे में मैंने कभी सोचा ही नहीं था.
हालांकि मेरे लिए यह सोचना थोड़ा मुश्किल है कि
कोई भी औरत बदसूरत कैसे हो सकती है,
जब तक कि वह सत्ता में न हो.
खैर,
मेरी माँ अगर खूबसूरत थी
तो उसके प्रेम के किस्से भी होंगे.
हम दोस्तों की तरह उसके भी कुछ दोस्त होंगे
जिनमे लड़कियां भी होंगीऔर लड़कें भी.
माँ का एक नाम भी होगा.
अभी तो हमने माँ के नाम को ‘म्यूजियम’ में रख दिया है
जहां कभी कभी हम घूम आया करते हैं
और यह सोच कर गर्व करते हैं कि
हमे अपनी माँ का पूरा नाम पता है.
लेकिन अब आश्चर्य होता है, यह सोचकर
कि कभी उसे उसके नाम से ही पुकारा जाता होगा.
लेकिन अंततः
अपने प्रेम को दफना कर,दोस्तियों को पीछे छोड़ कर
अपने नाम को एक पोटली में लपेटकर, बहती नदी में फेंककर
वह ससुराल आयी होगी!
शायद कभी कभी
वह सबकी नजर बचाकर
अपनी कब्र पर लौटती भी हो,
कुछ सफेद फूल भी चढ़ाती हो
शायद कभी वह नदी किनारे अकेले बैठती भी हो
इस इंतजार में कि शायद धारा पलट जाए
और उसे उसके नाम वाली पोटली दिख जाए.
आजकल तो खुदाई का फैशन है
लेकिन क्या हमारे अंदर वह साहस है
कि हम अपनी माँ के अतीत की खुदाई करें.
और हर उस चीज के फासिल्स की तलाश करें
जिसका ‘माँ की गरिमा’ ने गला घोंट दिया है.
क्या हम अपनी मांओं को अपनी प्रेम कहानी
लिखने के लिए प्रेरित कर सकते हैं?
इतना तो तय है,
जिस दिन हमारी मांओं ने
अपनी प्रेम कहानियां लिखनी शुरू कर दी
उस दिन पुरुष सत्ता की चूले तो हिलेंगी ही
लेकिन
उनकी बेटियों के जीवन में बसंत आ जायेगा!
9.
आजकल राजा क्या खाता है?
मैंने राजा के रसोइए से पूछा.
वैसे तो राजा की रेसिपी गुप्त होती है
लेकिन आपको बता देता हूँ
फिर इधर-उधर देखकर, फुसफुसा कर बोला
आजकल वह तथ्य और सत्य खाता है.
नाश्ते में तथ्य और खाने में सत्य.
मैं हैरान था कि ये भी कोई खाने की चीज़़ है.
लेकिन वो राजा है, कुछ भी खा सकता है.
तो क्या इसलिए देश मे तथ्य और सत्य की कमी होती जा रही?
रसोइए से मेरा अगला सवाल था.
फिर वो देश कैसे चलाता है?
उसने फिर इधर उधर देखा और फुसफुसा कर बोला
कहानियों से.
कहानियों से??
कहानियों से कहीं देश चलता है?
लेकिन चल तो रहा है.
मैं निरुत्तर था
मेरा अगला सवाल था कि ये कहानियां गढ़ी कहां जाती हैं?
उसने अफसोस जताया कि
उसे नहीं पता.
मेरे दिमाग मे फिर एक सवाल कौंधा
राजा के जूठन में जो सत्य और तथ्य निकलते हैं
उनका क्या होता है?
उसने महल के पिछवाड़े इशारा किया
उन्हें यहीं फेंक दिया जाता है, सड़ने के लिए.
इसके बाद रात मुझे नींद नहीं आयी
झपकी लगी तो देखा
सामने वही जूठे तथ्य और जूठे सत्य खड़े थे.
राजा की लार अभी भी उनपर लिपटी थी,
मख्खियां उन पर भिनभिना रही थी,
वे दम तोड़ते प्रतीत हो रहे थे.
मेरी नींद खुल गयी
मैं पसीने से तरबतर
न जाने किस प्रेरणा से
मैंने रात के घने अंधेरों में ही
डरते डरते बचते बचाते
उन सड़ते हुए तथ्य और सत्य को इकठ्ठा किया.
घर लाकर उन्हें धुला, साफ किया.
सत्य को तथ्य से अलग किया
और तथ्यों को जोड़कर सत्य बनाया.
सुबह पूरे राज्य में
टीवी वाले गला फाड़कर चिल्ला रहे थे
राज्य से तथ्य और सत्य की चोरी हुई है!
यह किसी आतंकवादी गिरोह की चाल है!
ब्रेकिंग न्यूज़ में पाक का हाथ बताया जाने लगा
एक टीवी वाला चिल्ला रहा था
कौन है जो देश से सत्य और तथ्य को चुराकर
उसका कत्ल करना चाहते हैं.
और देश में झूठ को खोटे सिक्के की तरह फैलाना चाहते हैं.
राजा ने आनन फानन में अपने ख़ुफ़िया तंत्र के
‘विशेष प्रशिक्षित’ भेड़ियों को इस चोरी के पीछे लगा दिया.
राजा ने ऐलान किया कि
पिछले राजा ने सत्य और तथ्य को अकेला छोड़ दिया था.
लेकिन अब हम इसकी रक्षा करेंगे.
और इसके लिए एक सेना बनाएंगे.
यह सब देख-सुन मेरे पास मौजूद तथ्य और सत्य
बेहद डर गए
और भूमिगत हो गए.
भूमिगत होते हुए, उन्होंने मेरे कान में धीमे से कहा
अगर झूठ के लिए राजा को सेना की ज़रूरत है
तो सत्य के लिए भी सेना की ज़रूरत होगी
क्या तुम मेरे लिए एक सेना तैयार कर सकते हो??
10.
बुजुर्ग कामरेड बताते है
सत्तर के दशक में कलकत्ता में
हॉकर चिल्ला चिल्ला कर बेचता था अखबार
‘वियतनाम में अमरीका को करारी शिकस्त!’
समय बदला, लोग बदले, अखबार बदला
अब हॉकर चिल्लाता नहीं
उसे पता है, चिल्लाने का ठेका टीवी वालों ने ले रखा है.
वह सिर्फ घरों में फेंकता है अखबार
बिना किसी भाव के.
हां, कभी कभी बसों ट्रेनों में उत्साही हॉकर
अभी भी चिल्लाते हैं
लेकिन अब वो बहुत दूर की खबर नहीं सुनाते
वे हमारे पड़ोस की खबर सुनाते हैं
वे सुनाते है-
‘ताजमहल के बन्द कमरों में राम लला मिले’
और मस्जिद के नीचे शिवलिंग.
आतंकवादियों के पास से जब्त हुई
उर्दू की ढेर सारी किताबें .
अब सुबह सुबह टहलते हुए
साईकिल से जाते अखबार वालों को
अखबार रोल करके, बिना साइकिल रोके
जब घरों में फेंकते देखता हूँ
तो सहसा दिमाग मे कौंधता है
ये घरों में अखबार फेंक रहे हैं या पेट्रोल बम!
ये पेट्रोल बम व्यक्ति को बाहर से नहीं
अंदर से जलाता है
पन्ना दर पन्ना पलटते हुए व्यक्ति की रूह जल कर खाक होती रहती है.
और व्यक्ति मगन होकर सोचता है कि
दूसरी कौम के लोगों में तो रूह होती ही नहीं.
11.
स्पार्टकस के शहीद होने के बाद
जब लटकाया जा रहा था लैम्पपोस्टो पर
गुलाम विद्रोहियों को
तो आखिरी हिचकी से पहले पूछा था डेविड ने
‘स्पार्टकस हम हार क्यों गए?’
तब से आज तक
वारीनिया ने कई स्पार्टकस को जन्म दिया
उन्हें ‘स्पार्टकस’ की कहानियां सुनाई
ये सभी स्पार्टकस, इतिहास का रथ आगे ढकेलते हुए
डेविड के प्रश्न का उत्तर भी तलाश रहे थे.
शायद उन्होंने उत्तर खोज भी लिया है..
लेकिन इसी बीच हम फिर से उसी रोम की तरफ बढ़ रहे हैं
जहां राजा गुलामों को जलाकर
उसकी रोशनी में पार्टियां किया करता था
जिसमें शामिल होते थे
कवि कलाकार सेनापति और कुछ दार्शनिक भी.
स्पार्टकस क्या तुम्हें नहीं लगता
कि अब तुम्हें किताबों से बाहर आ जाना चाहिए.
डेविड के सवालों का जवाब देना चाहिए.
यह वक़्त नायकों को किताब के पन्नों से बाहर लाने का है.
किताबों में उनकी सांस घुट रही है.
इधर समाज मे हमारी सांसे घुट रही हैं..
घुटन बढ़ रही है.
और तूफ़ान का कहीं आता पता नहीं है..
पावेल क्या तुम्हारी सांस भी गोर्की के उपन्यास में अब घुटने लगी है?
क्या तुम बाहर आना नहीं चाहते?
आज हम फिर से वहीं पहुँच गए है,
जहां ज़ार की पुलिस
कुत्तों की तरह विद्रोहियों के पीछे पड़ी थी.
माफ़ करना मुझे तुम्हारी माँ का नाम याद नहीं
लेकिन ज़रूरत तो उनकी भी है
टोकरी में छिपाकर गुप्त पर्चे मजदूर विद्रोहियों तक कौन पहुँचायेगा?
आना तो मां को भी साथ लाना.
भगत सिंह क्या तुम्हें नहीं लगता
कि उस वक़्त तुमने अपने को गिरफ़्तार करवाकर गलती की?
अब यह गलती मत करना.
अब तुम उस तरह अदालत का इस्तेमाल नहीं कर पाओगे.
यह आज़ाद भारत है
यहां तुम्हारा ‘इनकाउंटर’ कर दिया जाएगा, गिरफ़्तारी से पहले ही.
आज़ाद भारत मे भी तुम्हें भूमिगत ही रहना पड़ेगा.
हम तुम सबका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं.
लेकिन तुम्हारा इंतज़ार हम इसलिए नहीं कर रहे
कि हमारे पास
स्पार्टकस
पावेल
पावेल की मां
या भगतसिंह नहीं हैं.
हम तुम्हारा इंतज़ार इसलिए कर रहे हैं
क्योंकि हमें करनी है गुफ्तगू तुम्हारे साथ,
तुम्हारे सपनों को अपने सपनों में देना है विस्तार.
तुम्हारे कंधे से अपना कंधा रगड़ना है
और उस तूफ़ान का निर्माण करना है
जिसका सपना कभी तुमने देखा था
और जिसके लिए ही तुम्हें लैम्पपोस्टों पर लटकाया गया था…
12.
सभी सत्ताओं की तरह
पुरुषों की सत्ता के नीचे भी
एक भूमिगत दुनिया होती है,
औरतों की भूमिगत दुनिया .
इसमे चूड़ी, बिंदी,साड़ी, फाल के अलावा
और भी बहुत सी बातें होती हैं.
मिन्नत मनौतियों की बाते होती हैं,
बचपन की खट्टी मीठी कहानियां होती हैं,
पुरुषों की आहट पाते ही यह भूमिगत दुनिया भंग हो जाती है.
और औरतें अपने सदियों पुराने काम पर लौट जाती हैं.
औरतों की इस भूमिगत दुनिया में
अधूरे अरमानों, अधूरे सपनों की बातें होती हैं,
इस भूमिगत दुनिया में स्वेटर के साथ साथ सपने भी बुने जाते हैं.
कभी कभी यह भूमिगत दुनिया अदालत का रूप भी ले लेती है,
जहाँ किसी भी पुरूष को कटघरे में खड़ा किया जाता है.
उनके देखने की नज़र का भी यहां एक्सरे किया जाता है,
और साहसी निर्णय सुनाए जाते हैं.
यह और बात है कि ये निर्णय कभी उस पुरुष तक नहीं पहुचते.
इस भूमिगत दुनिया मे औरतों के बाहरी और भीतरी जख्म भरे जाते हैं.
इस भूमिगत दुनिया में दबी रुलाई का ज्वालामुखी भी फूटता है.
और हंसी के फौव्वारे भी.
इस भूमिगत जीवन मे
उस मासूम प्यार की बातें भी होती हैं,
जिन्हें कुचल कर ही औरतें जवान होती हैं.
पति के सामने इस मासूम प्यार का जिक्र भर करना
‘ओरिजिनल सिन’ से भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है.
कुल मिलाकर यह भूमिगत जीवन
औरतों के सांस लेने की जगह होती है.
ये भूमिगत जीवन न हो, तो शायद ज्यादातर औरतें पागल हो जाएं.
पुरुष औरतों के दो तीन रंगों से ही परिचित होते हैं,
लेकिन इस भूमिगत जीवन मे औरतें असंख्य रंग जीती हैं.
इसी भूमिगत जीवन मे कभी-कभी
मुक्ति की खतरनाक योजना भी बनती है.
पांच साल की शादीशुदा जिंदगी बिताने के बाद
एक रोज अपने पति को सोता छोड़कर
मुँह अंधेरे एक औरत
ज़िंदगी के पथरीले पथ पर निकल पड़ती है.
पुरुष सोचते हैं
कितनी सीधी थी वह.
किसके बहकावे में उठाया होगा उसने यह खतरनाक कदम?
फिर खुद ही निष्कर्ष निकालते हैं
आजकल औरतें कितनी चरित्रहीन हो गयी हैं…
13.
बच्चे हर काम दौड़ कर करते हैं..
बच्चे हर काम को खेल में बदल देते हैं..
चाहे वह गुड़िया को खिलाते हुए खुद खाना खाना हो..
या फिर किसी चीज़ को टारगेट करके सू सू करना हो..
एक बार
मेरी गोद में मस्ती में झूलता नन्हा अब्बू
अचानक मंदिर के चबूतरे पर लुढ़़क गया.
उसने रोते हुए मुझसे पूछा
भगवान ने मुझे गिरने से बचाया क्यों नहीं?
फिर खुद ही निष्कर्ष निकाला
भगवान गंदा है….
बच्चे चीज़ों को
सिद्धांत से नहीं व्यवहार से तय करते हैं.
बच्चे किसी जादूगर की तरह होते हैं
निर्जीव चीज़ों में भी जान फूंकने वाले.
खिलौनों के अलावा कटोरी चम्मच
सबमे जान आ जाती है
जब ये नन्हे जादूगर के हाथों में होती हैं..
वे कटोरी को उलटकर कछुआ
और चम्मच को साँप बना सकते हैं..
दूरियां उनके लिए मायने नहीं रखती
क्योकि वे जादूगर होते हैं.
कल्पना के जादूगर
छत पर सोते हुए रात में
टार्च से सितारों की तरफ़ रोशनी फेंक कर
वे उन्हें दोस्ती का संदेश भेजते हैं..
वे कहानी सुनते नहीं, कहानी में जीते हैं
रोज सुबह
बच्चों के रोने से डरकर, सूरज निकलता है.
बच्चों को झुलाने के लिए
पृथ्वी अपनी धुरी पर लगातार घूमती है..
बच्चों का नर्म स्पर्श पाने के लिए
फूल खिलते हैं..
बच्चों को छूने के लिए
नदियां दौड़ती हैं, समुद्र उछाल मारते हैं..
फिर भी
हम बच्चों से जल्दी बड़े होने की उम्मीद करते हैं..
उधर बच्चे हमसे थोड़ा मासूम होने की उम्मीद करते हैं….
14.
बहुत से लोग दाएं हाथ से लिखते हैं
लेकिन कुछ लोग बाएं हाथ से भी लिखते हैं..
दाएं हाथ से लिखने वालों का तर्क था कि
बाएं हाथ से लिखने वाले लेखन कला को भ्रष्ट कर रहे हैं
इसके खिलाफ बाएं हाथ से लिखने वालो के मजबूत तर्क थे
लेकिन वे अल्पमत में थे.
दाएं हाथ से लिखने वालों ने कहा
हम दाएं हाथ से लिखने वालों का राष्ट्र बनाएंगे
और राष्ट्र बन गया..
दाएं हाथ से लिखने वालों में
बहुत से लोग नीली स्याही से लिखते थे
लेकिन कुछ लोग काली स्याही से भी लिखते थे
नीली स्याही से लिखने वालों का तर्क था कि
काली स्याही वाले अक्षर के भविष्य को काला कर रहे हैं
इसके खिलाफ काली स्याही वालो के मजबूत तर्क थे
लेकिन वे अल्पमत में थे.
इस तरह नीली स्याही से लिखने वालों का राष्ट्र बन गया..
नीली स्याही से लिखने वाले बहुत से लोग सादे पेज पर लिखते थे
लेकिन कुछ लोग रूलदार पेज पर भी लिखते थे
सादे पेज वालो का तर्क था कि
रूलदार पेज पर लिखने वाले शब्दों को दो लाइनों के बीच कैद कर रहे हैं
इसके खिलाफ रूलदार पेज पर लिखने वालों के मजबूत तर्क थे
लेकिन वे अल्पमत में थे..
इस तरह सादे पेज पर लिखने वालों का राष्ट्र बन गया..
सादे पेज पर ज्यादा लोग प्रार्थनापत्र लिखते थे
लेकिन कुछ कविता भी लिखते थे
प्रार्थनापत्र लिखने वालों का तर्क था कि
कविता युवाओं को भ्रष्ट करती है
इसके खिलाफ कविता लिखने वालों के मजबूत तर्क थे
लेकिन वे अल्पमत में थे.
और इस तरह प्रार्थनापत्र लिखने वालों का राष्ट्र बन गया..
लेकिन इस राष्ट्र में
बाए हाथ से लिखने वाले
काली स्याही से लिखने वाले
रूलदार पेज पर लिखने वाले
और कविता लिखने वाले नहीं थे
राष्ट्र अब बुरी तरह डरा हुआ था
क्योंकि अब वह अल्पमत में था…
15.
घूंघट के नीचे डबडबाई आँखों से
किवाड़ के पीछे छिपी
मेरी बहन
मुझे ओझल होने तक निहारती रही,
मानो उसे शक हो
कि दुबारा मैं आऊंगा भी या नहीं.
इधर अपनी रूलाई को गले मे घोटते हुए
मैं सोच रहा था
किस जादूगर ने मेरी अल्हड़ गुस्सैल बहन को
रातों रात
मोम की एक मूर्ति में तब्दील कर दिया.
पोछा लगे फर्श पर जब हमारा पैर पड़ जाता
तो हमें पीटने से वह कोई गुरेज नहीं करती.
और यहाँ?
वह उन जगहों को बार बार लीप रही है
जहां से लोग बेपरवाह गुज़र रहे हैं.
घर मे मेरी बहन सिर्फ बाप से डरती थी
यह देख मैं हैरान था कि यहाँ उसके कई बाप थे
अकेले में मैं सिसकियां लेकर रोता
कि मेरी बहन कहाँ गायब हो गयी!
किसने उसकी हत्या की!
घर आकर जब मां पूछती
बिट्टी कैसी है??
मेरी दबी रुलाई बांध तोड़ देती
मेरे आंसुओ में
मां वह सब देख लेती, जो मैं उन्हें बताना चाहता
आंख पोछते हुए मां मेरे सर पर हाथ रख देती
और अपने उसी काम में लग जाती
जिसे स्त्रियां सदियों से बिना थके करती आ रही हैं.
पिता सिर्फ किराया पूछते
और पर्स से निकाल कर पकड़ा देते.
मैं बदहवास घर के कोने कोने में अपनी बहन को ढूंढता
यहाँ उसने मुझे पीटा था, इसी बिस्तर से मैंने मौका पाकर
उसे ढकेल दिया था,
बाल्टी से हल्की सी चोट लगने पर
मुझे सीने से चिपटा कर
यहीं से भागी थी वो डॉक्टर के पास.
कहां गयी मेरी वो बहन??
कुछ सालों बाद
अपने पति, ईश्वर और पिताओं को पीछे छोड़कर
एक दिन वो सुबह-सुबह सूरज के साथ
दोनों बच्चों को थामे
पीठ पर अपने अस्तित्व का बोझ लिए
मेरी एक दोस्त के दरवाज़े पर खड़ी हो गयी.
उसने उस दोस्त से फुसफुसा कर
मगर सधी आवाज में कहा
ससुराल और मायके के बीच
मुझे ‘अपना कमरा’ बनाना है!
और शुरू हुई जद्दोजहद
अपने दुःखों की सिलाई करते
अपनी परेशानियों को काटते
उम्मीद की नाप लेते,
गुज़रे सालों को अपनी साइकिल की रफ्तार से पीछे छोड़ते
उसने मायके और ससुराल के बीच
‘अपना कमरा’ बनाया.
और मुझे मेरी वही अल्हड़ गुस्सैल प्यारी बहन वापस मिल गयी…
16
पृथ्वी को उसकी धुरी पर किसने घुमाया होगा?
क्या एक कुम्हार ने
जैसे घुमाता है वह अपना चाक.
या एक स्त्री ने?
जो पृथ्वी की तरह ही
अपनी धुरी पर घूमती है आजीवन
चौबीस घंटे.
घर की हर चीज़
घूमती हैं उस स्त्री के साथ
जैसे घूमते है, नदी पहाड़़ जंगल
पृथ्वी के साथ.
पृथ्वी निर्णय नहीं करती, न ही सोचती है
वह बस घूमती है, साल दर साल
सदी दर सदी.
ठीक वैसे ही
स्त्री भी निर्णय नहीं करती, न ही सोचती है
वह भी बस घूमती है
साल दर साल, सदी दर सदी.
अपने घर, अपने ईश्वर को कांधे पर उठाए
लेकिन एक बार
एक स्त्री रुकी
उसके रुकते ही
रुक गयी पृथ्वी, घर और ईश्वर भी.
स्त्री ने सोचा
मैं इस घर इस पृथ्वी और इस ईश्वर को
गढूंगी अपने अनुसार!
तभी किसी मर्द ने यह सुन लिया
और जोर से चिल्लाया
आखिर मालिक कौन है??
कवि मनीष आज़ाद
राजनीतिक – सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्र लेखक , अनुवादक. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित. विगत 20 सालों से राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय. 2019 में 8 महीने जेल में बिताया. जेल के अनुभवों पर आधारित जेल डायरी प्रकाशनाधीन.
टिप्पणीकार प्रियदर्शन कवि, आलोचक, कथाकार, अनुवादक, पत्रकार और संपादक के रूप में साहित्य की दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं.)