समकालीन जनमत
कविता

महेश पुनेठा की कविताएँ जीवन, प्रकृति और परिवेशगत विडंबनाओं को धारदार रूप में अभिव्यक्त करती हैं

कल्पना पंत


  ’भवानी प्रसाद मिश्र” की ’कवि’ शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं
 “जिस तरह हम बोलते हैं 
 उस तरह तू लिख
 और इसके बाद भी
 हमसे बड़ा तू दिख”

महेश पुनेठा की कविता पर यह पंक्तियाँ अक्षरश:  लागू होती दिखती हैं उनकी कविताएं रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी सहज कविताएं हैं  जिनकी भाषा लोक भाषा के प्रचलित शब्दों  की सहजता और सरलता को लेकर चलती है. उनकी इस संग्रह की पहली ही कविता अमर कहानी बड़ी सहजता के साथ एक तीखा व्यंग्य कर जाती है-
 “कहानी अमर हुई बस
 उस बच्चे के कारण
 जिसने कहा- राजा नंगा है”

संग्रह की दूसरी कविता ’उसका लिखना’ स्त्री के जीवन के उन व्यापक दुखों को इंगित करती है जिसमें सुख के पल तो मात्र गिने-चुने है या हैं ही नहीं और दुखों की एक लंबी काली रात है.
“वह दुख लिखने लगी 
 लिखती रही 
 लिखती रही 
 लिखती ही रह गई” 

’नचिकेता’ कविता जिज्ञासा कि सतत अनिवार्यता का  बखान करती है यदि प्रश्न खत्म हो जाएंगे तो ब्रह्मांड और जीवन के रहस्य, जीवन के उद्विकास, इतिहास के प्रति जिज्ञासा और अमानवीय स्थितियों में परिवर्तन की इच्छा और बदलाव की आकांक्षा भी  नहीं रहॆगी. मूलत: एक  अध्यापक होने के नाते कवि प्रश्नों का गहरा महत्व जानता है, और अपने विद्यार्थियों में प्रश्न पूछने की क्षमता और साहस बनाए रखना चाहता है.
“जब तक प्रश्न रहेंगे
तब तक तुम भी रहोगे.” 

’गांव में सड़क’ इस संग्रह की सिग्नेचर कविता है जो विकास के छलावे और पहाड़ की विडंबना कह जाती है-
 सड़क अब पहुंची हो तुम गांव 
 जब पूरा गांव शहर जा चुका है 
 सड़क मुस्कुराए 
 सचमुच कितने भोले हो भाई 
 पत्थर लकड़ी और खड़िया तो बची है न !’

आम लोगों के लिए नहीं बल्कि इसी तरह के विकास का प्रपंच रत्न रचने वाले माफियाओं और व्यवसायियों के लिए बनती है पहाड़ के दूर दराज के इलाकों में सड़क.
’पता नही” कविता में कवि एक छोटे से बटन के माध्यम से विस्थापन की पीड़ा को सामने लाकर रख देता हैं वे हाथ कितने महत्वपूर्ण हैं और कितने संवेदना से भरे हुए कि बटन के टूटते ही उसे उसकी सही जगह पर टांक देते हैं ताकि वह अपने स्थान से विस्थापित होने का दुख महसूस न कर सके और हम आज बड़े-बड़े बांधों, बड़े-बड़े आवासीय भवनों, फैक्ट्रियों इत्यादि के मद्देनजर अनेकानेक जनसमूहों को विस्थापित किए किए जा रहे हैं और उनकी पीड़ा का आनन्द ले रहे हैं. ’जेरूसलम” कविता, धर्म के आधार पर बटे हुए मानव जीवन पर शानदार टिप्पणी करती है वह प्राचीन शहर जो तीन तीन धर्मों की पवित्र भूमि है, वहां भी इतनी नफरत इतना खून खराबा मौजूद है कवि को लगता है कि अच्छा होता कि जेरूसलम पवित्र भूमि न होकर एक निर्जन भूमि होता कम से कम इतने खून खराबे इतनी मार काट का साक्षी तो न होता. कविता धर्मांधता को अस्वीकार करती है-
“ हे ! दुनिया के प्राचीन शहर 
क्या कभी तुम्हें लगता है 
कि पवित्र भूमि की जगह तुम 
काश! एक एक निर्जन भूमि होते” 

पहाड़ी गांव कविता में पहाड़ी गांव की नियति का बखान है जहां बिछोह मिलन और बिछोह जिसकी नियति है पहाड़ से लोग बाहर जा चुके हैं- रोजगार के लिए, तरक्की के लिए. अब पहाड़ की याद आने पर कुछ दिनों के लिए मिलने तो आते हैं पर स्थाई रूप से रहने के लिए वहां कोई भी नहीं आना चाहता-
“पहाड़ी गांव 
यानी बिछोह  मिलन फिर बिछोह”

इस संग्रह की लंबी कविता मेरी रसोई मेरा देश जाति, धर्म, वर्ग के मध्य सांप्रदायिक सौहार्द और सामंजस्य स्थपित करने की और जीवन को बेहतर बनाने वालों की चेष्टा करने वालों को नेपथ्य में डाल दिए जाने की अभिव्यक्ति करती हुई संकीर्णता एकता, गैर बराबरी और संतुलन कौशल इत्यादि के विविध मुहावरे निर्मित करती है, रसोई में मौजूद रहते हैं तमाम तरह के ज्वलनशील पदार्थ थोड़ी सी लापरवाही से कभी भी भड़क सकती है आग .रसोइए की कोशिश होनी चाहिए की आग पर काबू पाया जाए न कि उसमें घी डाल दिया जाए, हमारी वर्तमान समाज व्यवस्था के पहरुए आज आग में घी डालने का ही काम करते हैं न कि संतुलन बनाने का ’वहां कुएं के भीतर कुए” हैं .

’जो दवाएं भी बटुए के अनुसार खरीदती थी, ’उनकी डायरियों के इंतजार में,” उड़भाड़’, नहीं बदले” उसके पास पति नहीं है’ ’तुम्हारी तरह होना चाहता हूँ’ इत्यादि कविताएं स्त्री जीवन की विडंबना, उनके दुखों, जिम्मेदारियों और उनकी सहजता पर लिखी गई है. ’जो दवाएं भी बटुए के अनुसार खरीदती थी’ में हाशिये के भीतर भी हाशिए हैं जहाँ पर मौजूद स्त्री जिसका दुख -दर्द, बीमारी भी घर के भीतर हाशिए पर है. घर की दयनीय स्थिति को देखते हुए वह अपने लिए भी सबसे ज्यादा कटौती करती है. उसकी हर पीड़ा दूसरे की जरूरतों के लिए हाशिए पर चली जाती है.मृत्यु ही मुक्ति और पहली बार पति की सहानुभूति देती है-
“आज पहली बार
उसका पति भी उसके साथ था”

’उनकी डायरियों के इंतजार में’ कविता सदियों से पराधीन स्त्री के जीवन के इस पहलू पर प्रकाश डालती है -जहां उसका अपना कुछ नहीं है कोई स्पेस नहीं, कोई अपना कोना नहीं, अपने दुख -सुख को संभाल कर रखने ,अपनी स्मृतियों को संजोए रखने की कोई जगह नहीं. आखिर कब आएगा वह दिन जब पति के बगल में पत्नी की भी पुरानी चिट्ठियां पुरानी डायरिया सजी होंगी. उसकी नींद को भी अनुमति नहीं कि वह न या देर से आए या वक्त पर न खुल पाए क्योंकि पूरा घर उसकी जिम्मेदारी है. फिर भी जिसके रसोई और घर को संवारने वाले हाथों की सुघड़ता सब कुछ बदल जाने के बाद भी नहीं बदली है. ’उसके पास पति नहीं है ’ कविता आत्मनिर्भर स्त्री को देख अपने जीवन की विसंगतियों को महसूस करती स्त्रियों का आख्यान करती है. ’तुम्हारी तरह होना चाहता हूँ’ में कवि उस स्त्री की तरह होना चाहता है जिसकी सहजता उसे परिवेश से असंपृक्त नहीं रहने देती.

”माँ की बीमारी में कविता’ में मां की वृद्धावस्था और अस्वस्था जनित तकलीफ और अंकित है कवि कहना चाहता है कि हमारे द्वारा बोले गए शब्दों का मन पर कितना मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है कि ’शिबौ’ और ’उजा’ जैसे करुणा एवं सहानुभूति दर्शाने वाले शब्द मां की पीड़ा को और बढ़ा देते हैं. वही नयी सोच रखने वाली युवा स्त्रियों के प्रोत्साहन परक बोल उनकी जिजीविषा को बढ़ा देते हैं

संग्रह की एक बहुत मार्मिक कविता है  ’संतुलित आहार’ अध्यापक क्लास में संतुलित आहार के बारे में पढ़ा रहा होता है लेकिन सामने जो बच्चे होते हैं उनमें से कईयों को कई- कई दिन तक आहार नहीं मिलता. यहां संतुलित आहार मर्म पर चोट करने वाली एक मार्मिक विडंबना है’.

कवि कहता है उनके लिए छुपाना कविता है मेरे लिए उधारना दरअसल झगड़ा यहीं से शुरू होता है ’वह भाषा में रचनात्मकता चाहते हैं मैं जीवन में’ वह विकृतियों और विडंबनाओं को सामने लाकर उनकी कमियों को दूर करना चाहता है ना कि छुपाना’ ’उनके लिए छुपाना कविता है मेरे लिए उघाड़ना’ और यही कवि की खासियत है और यही उसकी सामर्थ्य है इसी के लिये वह अपने संग्रह में और जीवन में भी निरंतर संघर्षरत है.

 

 

महेश पुनेठा की कविताएँ

1. जेरूसलम

तुम एक नहीं
दो नहीं
तीन-तीन धर्मों की
पवित्र भूमि हो
फिर भी
इतनी नफ़रत!
इतनी अशांति!
इतना ख़ून!

हे दुनिया के प्राचीन शहर
क्या कभी तुम्हें लगता है
कि पवित्र भूमि की जगह तुम
काश! एक निर्जन भूमि होते।

 

2. नचिकेता

मैं सात-समुद्र पार की
बात नहीं कर रहा हूँ

एक तरफ थे-
हाथी-घोड़े
स्वर्ण मुद्राएं
सौ साल की उम्र
सुंदरियां
पृथ्वी पर राज
दूसरी तरफ थे-
प्रश्नों के उत्तर ।

नचिकेता!
तुमने चाहे
प्रश्नों के उत्तर
इसलिये तुम
हजारों साल बाद भी
जिन्दा हो
जब तक प्रश्न रहेंगे
तब तक तुम भी रहोगे।

 

3. अमर कहानी

न उस राजा के कारण
न पारदर्शी पोशाक के कारण
न उस पोशाक के दर्जी के कारण
न चापलूस मंत्रियों के कारण
न डरपोक दरबारियों के कारण

कहानी अमर हुई बस
उस बच्चे के कारण
जिसने कहा-राजा नंगा है।

 

4. गाँव में सड़क

ए सड़क! अब पहुंची हो
तुम गाँव
जब पूरा गाँव
शहर जा चुका है।
सड़क मुस्कराई
सचमुच कितने भोले हो भाई
पत्थर-लकड़ी और खड़िया
तो बची है न अभी !

 

5. छुपाना और उघाड़ना

उनके लिये
छुपाना कविता है
मेरे लिये
उघाड़ना
दरअसल झगड़ा
यहीं से शुरु होता है
वे भाषा में
रचनात्मकता चाहते हैं
मैं जीवन में ।

 

6-कुएं के भीतर कुएं

क्षेत्र का  कुआं
भाषा  का कुआं
धर्म का कुआं
जाति का कुआं
गोत्र का कुआं
रंग का कुआं
नस्ल का कुआं
लिंग का कुआं
कुएं के  भीतर कुएं बना डाले हैं तुमने
एक कुआं
उसके भीतर एक और कुआं
फिर एक और कुआं
ख़त्म ही नहीं होता है यह सिलसिला
सबसे भीतर वाले कुएं में
जाकर बैठ गए हो तुम
खुद को सिकोड़कर
जहाँ कुछ भी नहीं दिखाई देता है
मुझे शक है
कि तुम खुद को भी देख पाते हो या नहीं
लोग कहते हैं तुम जिन्दा हो
पर मुझे विश्वास नहीं होता है
एक जिन्दा आदमी
इतने संकीर्ण कुएं में
कैसे रह सकता है भला!

 

7. बकरी
(1)
अब आठवीं बकरी वध स्थल पर लायी गयी
पहली बकरियों की तरह
उसके सामने भी पूड़ी का टुकड़ा डाला गया
उसने देखा
लेकिन खाने की कोशिश नहीं की
हरी घास लायी गयी
उसने उसकी ओर देख भी नहीं दिया
वह चौकन्नी खड़ी रही
गर्दन एकदम सीधी
भाग निकलने की जगह तलाश करती हुई
मगर सुरक्षा घेरा कड़ा था
अंततः एक लंबे आदमी की टांगों के बीच से
भागने में सफल रही
सभी उसको पकड़ने दौड़ पड़े
बकरी ही थी बेचारी पकड़ी गई
फिर से वधस्थल पर लायी गयी
सींगों से पकड़कर उसकी गर्दन झुकायी गयी
मृत्यु को तो टाल न पायी
मगर
वधिकों का पसीना तो बहा ही गयी
जन्म और मृत्यु के अंतराल को कुछ बढ़ा ले गयी ।

(2)
खुद के पूजे जाने पर
गौरव महसूस करने वालों से यह सवाल
बकरी कब सोचती होगी
कि इस तरह
रोली-अक्षत चढ़ाते हुए
फूल-मालाएं पहनाते हुए
और
पूजा अर्चना करते हुए लोग
थोड़ी ही देर बाद
उसकी बलि चढ़ा देंगे।

(3)
यह तो कोई बात नहीं हुयी
उनका फेंका
पूड़ी का टुकड़ा तो तुम्हें दिख जाता है
जिसे खाने को झुका देती हो तुम
अपनी गर्दन
लेकिन सामने पड़ी दुसरे बकरी की
तड़फती देह
और
उनके हाथ में लहराता हथियार
क्यों नहीं दिखायी देता है तुम्हें ?

 

8. उनकी डायरियों के इंतजार में

पिताजी की पुरानी चिट्ठियाँ
पुरानी डायरियां
पुरानी नोटबुक
घर के ताख पर
आज भी मौजूद हैं पहले की तरह
लाल-पीले कपडे के टुकड़ों में बंधी
मेरी भी सजी हैं एक खुले रैक में
बेटे की बुकसेल्फ के सबसे निचले खाने में
समय-समय पर
साफ-सफाई और छंटनी होती रहती है इनकी
बसी हैं इनमें अनेकानेक स्मृतियां
इन्हें ओलटते-पलटते ताजी हो उठती हैं जो

याद नहीं  कि देखी हों कभी
माँ की पुरानी चिट्ठियाँ
या पुरानी डायरियां
मान लिया माँ बहुत कम पढ़ी-लिखी थी
पर पत्नी की भी तो नहीं देखीं
जबकि बात-बात पर
वे अपनी स्मृतियों में जाती रहती हैं
और अक्सर नम आंखों से लौटती हैं
कभी उनकी छंटनी भी नहीं करती हैं

आखिर कब आयेगा वह दिन
जब पति के बगल में
पत्नी की भी
पुरानी चिट्ठियाँ
पुरानी डायरियां सजी होंगी?

 

9. मानक

याद करो उन्हें
जिन्होंने हमारी भाषा को
असभ्य कहा
हमारी गीत-संगीत की
खिल्ली उड़ाई
जिन्होंने हमारे-
पहनावे
खान-पान और उसके तरीके की
हंसी उड़ाई
उसको असभ्य कहा
हमारी हर बात पर उन्हें
पिछड़ापन नजर आया

उन्होंने जो -जो कहा
हम उसे मानते गए
हमने खुद को असभ्य मान लिया
उन्होंने अपना मानक जारी किया
हम खुद को
उनके मानक से देखने लगे
पीढियां गुजरती गई
हम खुद को भी
अपनी नजर से देखना  भूल गए
हमने उनके मानकों को
अपने ही लोगों पर लागू कर
उनकी बोली-भाषा
रहन-सहन
खान-पान
चाल-ढाल को
असभ्य कहना शुरू कर दिया

और हमने खुद को सभ्य साबित किया।

 

10. संतुलित आहार

संतुलित आहार क्यों जरूरी है ?
यह समझाते हुए लड़खड़ा गई अचानक मेरी जुबान
जब मेरी कक्षा की
एक बालिका ने
बुझी- बुझी आवाज में
बताया-
कल स्कूल से लौटने के बाद से
नहीं खाया कुछ भी उसने
और देखने लगी
रसोई घर की ओर
भर आई आंखों से।

 

 

कवि महेश चन्द्र पुनेठा, जन्म तिथि – 10  मार्च 1971. जन्म स्थान  – उत्तराखंड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ में. शैक्षिक योग्यता – एम. ए. राजनीति शास्त्र. प्रकाशित पुस्तकें – भय अतल में ( कविता संग्रह ), पंछी बनती मुक्ति की चाह (कविता संग्रह) ,अब पहुंची हो तुम(कविता संग्रह) समकाल की आवाज सीरीज के अंतर्गत पचास चयनित कविताओं के संग्रह 
दीवार पत्रिका और रचनात्मकता (शैक्षिक अनुभव)संयुक्त कविता संकलनों- स्वर एकादश , कवि द्वादश , स्त्री होकर सवाल करती है, लिखनी ही होगी एक कविता, में कविताएं संकलित।त्रैमासिक पत्रिका ‘संकेत’ का एक कविता केन्द्रित अंक।इसके अलावा हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में कविता, लघुकथा, समीक्षा तथा आलोचनात्मक आलेख प्रकाशित।
अन्य – शिक्षा पर केंद्रित पत्रिका ‘शैक्षिक दखल’ का संपादन।
शैक्षिक सरोकार तथा हिमाल प्रसंग के साहित्यिक अंकों का संपादन।
जनपदीय काव्य प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने के उद्देश्य से’काव्यांकुर’ नाम से एक कविता फोल्डर के संपादन एवं पप्रकाशन से सम्बद्ध।एस. सी. ई. आर. टी. उत्तराखंड द्वारा स्कूली शिक्षा हेतु तैयार करवाई जाने वाली पाठ्यपुस्तकों का लेखन एवं संपादन।बच्चों के लिए रोचक एवं भयमुक्त शिक्षा के वातावरण सृजन एवं वैज्ञानिक चेतना के विकास के उद्देश्य से गठित ‘रचनात्मक शिक्षक मण्डल’ ‘शैक्षिक नवाचार मंच’  ‘दृष्टिकोण’ ‘शैक्षिक दखल समिति’ आदि शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना हेतु पहलकदमी।बच्चों की रचनात्मकता को बढ़ाने और पढ़ने की आदत को विकसित करने के लिए ‘ दीवार पत्रिकाः एक अभियान’ का संचालन, जो आज देश भर में काफी लोकप्रिय हो रहा है।देश के लगभग एक हजार स्कूलों तक पहुंच चुका है। इसके चलते बच्चों में लेखन कौशल का काफी विकास देखा गया है।-पढ़ने की संस्कृति के विकास के लिए गांव- गांव पुस्तकालय खोलने का अभियान।
-गावों में लोककथा यात्रा के माध्यम से लोककथा चौपाल का आयोजन

संपर्क: 9760526429 

 

टिप्पणीकार कवयित्री कल्पना पन्त, अध्ययन- नैनीताल अध्यापन- वनस्थली विद्यापीठ राजस्थान में प्रवक्ता हिन्दी के पद पर एक वर्ष कार्य तदनन्तर लोक सेवा आयोग राजस्थान से चयनित होकर राजकीय महाविद्यालय धौलपुर तथा राजकीय कला महाविद्यालय अलवर में तीन वर्ष और 1999 में लोकसेवा आयोग उ० प्र० द्वारा चयन के उपरान्त बागेश्वर , गोपेश्वर एवं ऋषिकेश के रा०स्ना०मेंअध्यापन, मई 2020 से सितबंर 2021 तक रा० म० थत्यूड़ में प्राचार्य पद पर,वर्तमान में श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के त्रषिकेश परिसर में आचार्य
लेखन- पुस्तक-कुमाऊँ के ग्राम नाम-आधार सरंचना एवं भौगोलिक वितरण- पहाड प्रकाशन, 2004
कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख, समीक्षाएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित
यू ट्यूब चैनल-साहित्य यात्रा
ब्लाग- मन बंजारा, दृष्टि

सम्पर्क: 8279798510
ईमेल: kalpanapnt@gmail.com

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