समकालीन जनमत
कविता

लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की कविताएँ देशकाल की पड़ताल और प्रतिगामी शक्तियों की शिनाख़्त करती हैं।

अरुण आदित्य


लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की कविता देशकाल की पड़ताल और प्रतिगामी शक्तियों के प्रतिरोध की कविता है। यहाँ हाशिए के लोग हैं, उनका श्रम है, संघर्ष है और उनके स्वप्न हैं। वे उन दीवारों की भी पड़ताल करते हैं जो मनुष्य और मनुष्य के बीच अलगाव-भेदभाव पैदा करती हैं। उनकी कविता में उन शक्तियों की शिनाख़्त भी है, जो घड़ी के कांटे उल्टे घुमाकर वर्तमान को अतीत बना देना चाहती हैं, जो गड़े मुर्दे उखाड़ कर जिंदा लोगों को लड़ाना चाहती हैं। इन कविताओं में भाषा की तीनों शक्तियां लक्षणा, व्यंजना और अभिधा अत्यंत प्रभावी रूप में देखने को मिलती हैं।

इन दस कविताओं में दो कविताएँ शहरों के बारे में हैं। एक कोरबा और दूसरा पानीपत। लक्ष्मण प्रसाद जब शहर को याद करते हैं तो सिर्फ उस शहर के इतिहास भूगोल को याद नहीं करते, बल्कि उस वक्त देश दुनिया के बदल रहे इतिहास, भूगोल और अर्थशास्त्र को भी याद करते हैं। ‘एक शहर जो मेरे भीतर तक धंसा हुआ’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं-
वह शहर
तब मेरी चेतना में कुछ जोड़ रहा था
जब दुनिया का एक शक्तिशाली राष्ट्र टूट रहा था
या कहूं कि तोड़ा जा रहा था
एक बेचैन करने वाली शताब्दी
इतिहास में दाखिल होने वाली थी
और बाज़ार को कील की तरह
दुनिया के पाँव में ठोके जाने की तैयारी चल रही थी।

‘पानीपत’ कविता में कवि की दृष्टि वर्तमान से होते हुए इतिहास और वहाँ से भी आगे पौराणिक आख्यानों तक जाती है। प्रतिगामी राह पर चलते हुए हुए पानीपत को खुद में कभी कारगिल का युद्ध नजर आता है तो कभी पानीपत के ऐतिहासिक युद्ध। उल्टे घूमते घड़ी के काँटे पानीपत को महाभारत काल तक पहुंचाकर दम लेते हैं-

उस बरस शहर तप रहा था
सूरज की गर्मी से नहीं
तोप के गोलों से
ये बीसवीं शताब्दी के आख़िरी दिन थे
अब पानीपत नहीं था
पानीपत में
वह कारगिल में जा बसा था
भूगोल में
पानीपत ठीक वहीं था
जहाँ मेरे नंगे पाँव।

इतिहास के प्रेत प्रश्न कवि को सपने में भी परेशान करते हैं। पानीपत कविता में ही वे आगे लिखते हैं-

मैं अक्सर रात में
अपने बिस्तर पर पड़े हुए
कभी उस सारथी को ढूँढ़ता
जिसने हत्या को वाज़िब ठहराया
कभी बाबर के पीछे-पीछे जाता
यह पता करते हुए कि वह अपनी मुट्ठी में
कितनी मिट्टी ले गया यहाँ से
कभी अक़बर से पूछने का साहस करता
तुम कहाँ-कहाँ ले गये थे
पानीपत को अपनी पीठ पर लादकर ।

लक्ष्मण प्रसाद की कविताओं में हाशिए के लोगों के जीवन संघर्ष और उनके स्वप्नों को लेकर गहन संवेदना और विशिष्‍ट सौंदर्य दृष्टि भी नज़र आती है। ‘कभी मिलो उससे जिसे किसान कहते हैं’ कविता की ये पंक्तियाँ देखिए –

जिसकी आँखों में नींद की जगह
फ़सल विश्राम लेती हो
और जिसके जागने-सोने की घड़ियाँ
मौसम और मिट्टी तय करते हों
जिसने अपना सारा सौंदर्य
दाने को सौंप दिया हो।

इस कविता में वे सिर्फ कवि के श्रम-सौंदर्य का ज़िक़्र करके ही नहीं रह जाते बल्कि किसान आंदोलन में सड़क पर अड़े अन्नदाता के प्रति देश को संवेदित करने का प्रयास भी करते हैं-

सपनों में डूबे हुए देश
मुझे, तुमसे
इतना ही कहना है
अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर
जो लोग अड़े हैं सड़कों पर
उनकी कतारों से होकर
जो रस्ता खेतों तक जाता है
कभी उस रस्ते पर निकल जाओ
कभी मिलो उससे
जिसे किसान कहते हैं!

पानीपत’ शीर्षक कविता में वे कपड़ा रंगने वाले रंगरेजों के श्रम और स्वप्न को कुछ इस तरह दर्ज करते हैं-

इस वक़्त कोई दुपट्टा रंग रहा था
कोई भाँति-भाँति के धागें
जिनके पास रंगने को कुछ नहीं था
वह अपने ख़्वाब ही रंग रहे थे।

नर्तकी पुतली बाई के नाम पर बने पुतलीघर पर कविता लिखते हुए वे पाठक को स्त्री-विमर्श में शामिल कर लेते हैं-

प्रेम में न पड़ी स्त्रियों के हिस्से आते थे सारे अधिकार
वे चाहरदीवारी में क़ैद होते ही
वसीयत में दर्ज़ हो जाती थीं
जो जितनी चुप्पी से गुज़ार लेती ज़िंदगी
या कि खड़ी होतीं
अपने पुरुष के बगल में
समाज में उतना ही आदर पातीं

इसके ठीक उलट
प्रेम में पड़ी वे स्त्रियाँ
जिनके पास खानदानी होने का
कोई वैध तर्क नहीं होता
जो जन्म से अपनी ललाट पर
एक कोरा कागज़ लिये फिरतीं
जिस पर कोई भी रसूखदार
ठोक देता अपनी मुहर।

‘दीवारें’ शीर्षक कविता शृंखला में भी स्त्री-विमर्श बार-बार आता है। इस शृंखला की एक कविता की ये पंक्तियाँ देखिए –

किसी स्त्री से पूछो
वह बतायेगी दीवारों का
ठीक-ठीक अर्थ ।

‘पाँव हो कि समय की सुई पलटने से बचता हूँ ‘ शीर्षक कविता प्रतिगामिता के खतरों से आगाह करती है –

किसी के लौटने पर कहाँ यह संभव है कि
प्रेम लौटे, नफ़रत छूट जाये
आकर्षण लौटे, घृणा छूट जाये
उजाला लौटे, अंधेरा न लौटे
समय जो कि इतिहास हो चला है
जब भी लौटेगा
अपनी संपूर्ण विद्रूपताओं के साथ लौटेगा।

लक्ष्मण की इन दस कविताओं में जीवन के विविध रंग हैं। यहाँ संवेदना के आकाश में उड़ते पखेरू हैं, तो बच्चे की कल्पना भी है। पिता को जानना है, तो बच्चे का खिलौना भी है। उम्मीद है कि ये बहुवर्णी, बहुस्तरीय कविताएँ पाठकों को कुछ देर अपने साथ रखेंगी।

 

 

लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की कविताएँ

1. एक शहर जो मेरे भीतर तक धँसा हुआ है

जिस शहर में
मुझे अक्षर-ज्ञान मिला
उसकी वजह से
वह शहर मेरी रगों में नहीं दौड़ता
न ही मेरी स्मृतियों में लौटता है
वह शहर मेरे भीतर तक धँसा हुआ है
उसकी वजह इतनी है
उसने मेरे पाँव में घिरनी बाँधकर
मुझे अपने होने का एहसास कराया

नायक और खलनायक से पटी पड़ी दुनिया को
मेरी आँखों के समक्ष रखा
मेरी काया के गाँठों के धागे खोल दिए
रात पानी पर काटी जा सकती है
दिन महज एक समोसा पर
सोने के लिए खड़ी ट्रक की सीट बहुत है
और जागने के लिए
किसी फ़िल्म की पटकथा
यह उस शहर के मानिंद ही समझ पाया

उस शहर ने ही मुझे सिखाया
ज़िंदगी में सबसे ज़रूरी
गणित की किताबें नहीं होतीं
अफ़सानों की गलियाँ होती हैं
जहाँ भटकते हुए ही
अपने हिस्से का सूरज मिलता है

उस शहर में मिठास
चाय की चुस्कियों के साथ नहीं उतरता था
शहतूत की शक्ल में
ज़ुबान पर चढ़ता था
जिसे चखने के बाद
हसदेव का पानी
दो रंगी हो जाता था
मैंने वहीं जाना
सौंदर्य तट का नहीं
मझधार का होता है

उस शहर में
ऊपर से सबकुछ
जितना स्याह था
अंतःस्थल से
उतना ही उज्ज्वल
जैसे डंपरों के पहिये स्याह थे,
लेकिन, ड्राइवरों की ज़रूरतें उजली
जैसे मिट्टी के नीचे दबे कोयले स्याह थे,
लेकिन, सड़कों पर बिखरे हुए प्रकाश उजले
जैसे यथार्थ का रंग बिल्कुल स्याह था,
लेकिन, ख़्वाब उजले-उजले
मैं, वहीं सीख पाया
स्याह और उजलेपन का ठीक-ठीक अर्थ

उस शहर के लोग
हर सुबह घर से निकलते
साइकिल पर सवार होकर
और साँझ ढले लौटते
बुझी हुई शक्ल लिए
कभी कभार यूँ भी होता
कि साइकिलें लौटतीं
बग़ैर अपने चालकों के
और मैं बुझी आँखों से देखता
धरती को पानी में तब्दील होते
धरती का स्थायित्व मिट्टी नहीं
जल होता है
यह पाठ
उस शहर ने ही पढ़ाया

वह शहर
तब मेरी चेतना में कुछ जोड़ रहा था
जब दुनिया का एक शक्तिशाली राष्ट्र
टूट रहा था
या कहूँ कि तोड़ा जा रहा था
एक बेचैन करनेवाली शताब्दी
इतिहास में दाख़िल होनेवाली थी
और बाज़ार को कील की तरह
दुनिया के पाँव में
ठोके जाने की तैयारी चल रही थी

आप ज़रूर जानना चाहेंगे
उस शहर का नाम
लेकिन, मैं यह भी जानता हूँ
आप कभी जाना नहीं चाहेंगे
उस शहर की ओर
जिसे ‘कोरबा’ कहते हैं !

 

2. पानीपत

जैसे हमारा इतिहास
पानीपत के बग़ैर अधूरा होगा
वैसे ही मेरी ज़िंदगी
इसकी चर्चा के बग़ैर अधूरी

इस शहर में
ठूँसे हुए बोगियों वाली ट्रेन में
अपनी चप्पलें गँवाने के बाद
नंगे पाँव दाख़िल हुआ था
उस बरस शहर तप रहा था
सूरज की गर्मी से नहीं
तोप के गोलों से
ये बीसवीं शताब्दी के आख़िरी दिन थे
अब पानीपत नहीं था
पानीपत में
वह कारगिल में जा बसा था
भूगोल में
पानीपत ठीक वहीं था
जहाँ मेरे नंगे पाँव

मेरे गाँव के कुछ लोग
कोरे कपड़ों में आये
इस शहर में और
देखते-देखते रंगरेज़ हो गये
यदि वे किसी और सदी में आते तो
तलवारें बना रहे होते
या कि बंदूकों में गोली भरने का काम करते
इस वक़्त कोई दुपट्टा रंग रहा था
कोई भाँति-भाँति के धागें
जिनके पास रंगने को कुछ नहीं था
वह अपने ख़्वाब ही रंग रहे थे

मेरे जैसे नवागंतुकों के लिए
यहाँ काम की कमी नहीं थी
वैसे भी शहर अपना सारा बोझ
हम जैसे के सिर पर ही रखता है
मेरे सिर पर भी धागों का बंडल रखते हुए
उसने कहा कि सीढ़ियाँ चढ़ो
जहाँ तक ख़त्म नहीं होती
चढ़ते ही जाओ
उतरने की शर्त बस इतनी है
कि तुम्हें ढलते सूरज के साथ ही उतरना है
मैंने पहली बार जाना
उस लड़ते हुए सिपाही का दर्द
जो सूरज डूबने के बाद ही
अपने शिविर में लौटता रहा होगा

मैं अक्सर रात में
अपने बिस्तर पर पड़े हुए
कभी उस सारथी को ढूँढ़ता
जिसने हत्या को वाज़िब ठहराया
कभी बाबर के पीछे-पीछे जाता
यह पता करते हुए कि वह अपनी मुट्ठी में
कितनी मिट्टी ले गया यहाँ से
कभी अक़बर से पूछने का साहस करता
तुम कहाँ-कहाँ ले गये थे
पानीपत को अपनी पीठ पर लादकर
कोई कुछ नहीं बोलता
सभी ठहाके लगा रहे होते
मेरी नींद खुल जाती

वैसे तो मेरा जन्म
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में हुआ था
लेकिन, मुझे यह लगने लगा था
यह सच नहीं है
अभी वर्तमान उसी पानीपत में अटका हुआ है
जिसे भूगोल में कभी नहीं ढूँढ़ा जा सकता
इस समय का ठीक समय भी किसे कहूँ?
इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक को
या कि पानीपत हो चुके वर्तमान को
फिलहाल, मैं पानीपत में नहीं हूँ,
लेकिन, मेरे चारों ओर पानीपत है !

 

3. पाँव हो कि समय की सुई पलटने से बचता हूँ

मैंने घड़ी को देखकर
नहीं कहा कि तुम उल्टी दिशा में चलो
नदी से तो कह ही नहीं सकता था
कि बहो उल्टी धारा में
आसमान को देखकर
कभी सोचा ही नहीं
कि वह पलट जाये अपनी जगह से
ख़ुद उल्टे पाँव चलने की कोशिश
एक उम्र के बाद कभी की ही नहीं
मुझे मालूम था ऐसा करना
बिल्कुल भी मुनासिब नहीं
किसी के हक़ में

एक शायर ने कहा था,
“मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ”
अब सोचता हूँ
न लौटना वक़्त की मजबूरी नहीं
उसका समझदारी से लिया गया फ़ैसला है
अगर वह लौट आये फिर फिर तो
सबकुछ वैसा ही नहीं होगा
जैसा हम सोचते हैं
सिर्फ़ वही वही नहीं लौटेगा
जो हम चाहते हैं
वह सब आयेगा साथ उसके
जो हमें रत्ती भर भी पसंद नहीं
किसी के लौटने पर कहाँ यह संभव है कि
प्रेम लौटे, नफ़रत छूट जाये
आकर्षण लौटे, घृणा छूट जाये
उजाला लौटे, अंधेरा न लौटे
समय जो कि इतिहास हो चला है
जब भी लौटेगा
अपनी संपूर्ण विद्रूपताओं के साथ लौटेगा
सिर्फ़ सौंदर्य के साथ लौटे
यह चाह ही छलावा है
अपने आप से

कवियों और शायरों को अच्छी तरह पता था
किसी के लौटने का दुःख
इसीलिए नहीं की कभी ऐसी चाह
इतिहासकार लौटने और न लौटने के बीच में
अक्सर झूलते रहे
अब जब अपने दायें-बायें देखता हूँ तो
सर पकड़कर बैठ जाता हूँ
चारों ओर से सबकुछ के पलटे जाने की आवाज़ें
आ रही हैं
लौटा लाने के नारे बुलंद हो रहे हैं
पिता चाहते हैं
लौट आये उनका युग
माँ चाहती है
परदेश से लौट आये बेटा
प्रेमी चाहते हैं फिर फिर लौट आये
खोया हुआ प्रेम
नेता चाहते हैं
बार बार लौटकर आती रहे कुर्सियाँ
धर्मगुरु चाहते हैं
धर्म लौटे अपने पुराने कलेवर में
बग़ैर यह सोचे हुए
कि सबके लौटने से वे सारी विसंगतियाँ भी लौटेंगी
जिन्हें पार करते हुए यहाँ तक आये हैं हम
मुझे अच्छी तरह याद है
एक कहानी में नायिका तीन सदी पीछे जाती है
एक कहानी में नायक तीन सदी आगे
और दोनों ही स्थितियों में
सबकुछ गडमड हो जाता है
दोनों वापस आना चाहते हैं
अपने अपने वास्तविक समय में
आप कहेंगे, साहब यह कहानी की बात है
हम असल में सब ठीक ठाक कर लेंगे
दरअसल असल कुछ होता नहीं
और ठीक ठाक करते हुए हम अक्सर
बेठीक ही कर रहे होते हैं !

 

4. पखेरू जो मारे जायेंगे

हवा में गंध है
गंध में घुटन
घुटन एक क्रिया है
जिसकी तकलीफ़
कभी बताई नहीं जा सकती
मतलब साफ़ है
कोई भी प्रतिक्रिया
इस वक़्त घटित नहीं हो सकती
साँस के ख़िलाफ़ हो जाने पर
मुट्ठियों का तनाव ढीला पड़ जाता है
पंजों का सारा बल
घुटनों में सिकुड़कर बैठ जाता है
आँख जैसे कोई बंद कर दिया गया कुँआ
जहाँ काले धब्बों के सिवाय कुछ भी नहीं
ऐसे में मृत्यु कोई यातना नहीं
मुक्तिपर्व हो जैसे!

हवा में गंध
उस देह की नहीं,
जिस देह में घुटन है
गंधवाली देह धरती और आकाश की नियंता है
उसने ताल-तलैया
नदी-पर्वत
जंगल-समुद्र
हर ओर मुनादी पिटवाई है
हवा में उठ रही गंध
हवा को अपने पंखों में संभाले
पखेरूओं के परों की है
वे ही गंध के कारक और प्रचारक दोनों हैं
जब बंद हैं आवाजाही के सारे रास्ते
जब सरहदों पर बढ़ा दी गई है गश्त
जब नदियों पर लगाम कसे जा रहे हैं
जब हवा को बाँध रहे टरबाइन
जब कुछ भी बोलना वर्जित है
ये पखेरू सबकी धज्जियाँ उड़ा रहे
इन सभी क्रियाओं की प्रतिक्रिया ज़रूरी है
बेहद ज़रूरी है मृत्युदंड
प्रजा के हित में
वे यानी गंधवाली देह
सबकुछ खोकर भी
बचाना चाहती हैं प्रजा को
गंध की तड़प से !

 

5. कभी मिलो उससे जिसे किसान कहते हैं

जिसने पूस-माघ की रात काटी हो
नंगे पाँव दौड़ते हुए
छप्-छप्-छपाक के बीचोंबीच
पानी को अँजुरी में समेटकर
जड़ों तक पहुँचाया हो

जिसने हर कलेवा के पहले
जी भर निहारा हो फ़सलों को
उसे बढ़ते हुए देखकर
आसमान को दिया हो धन्यवाद

जिसने हसुँए से काटी हो फ़सल
और जिसके सर पर हमेशा ही लदी हो
सर और धड़ के वजन से कहीं ज़्यादा भार

जिसने जेठ के ढेलों को
अपनी मुट्ठियों और हथेलियों से
भुरभुरा किया हो ताकि मिट्टी बनी रहे मिट्टी
उसकी साँस में न जम जाये रक्त
उसकी अतड़ियों तक पहुँच सके पानी

जिसने बैल की पीठ सहलाई हो
उसके लिए भादों में जुटाया हो चारा
अपने हिस्से के खाने में
हमेशा शामिल किया हो
उसका भी हिस्सा
वो कवर भर ही क्यों न हो

जिसकी आँखों में नींद की जगह
फ़सल विश्राम लेती हो
और जिसके जागने-सोने की घड़ियाँ
मौसम और मिट्टी तय करते हों

जिसने अपना सारा सौंदर्य
दाने को सौंप दिया हो
सौंप दी हो पूरी कमाई खेतों को
जिसने संतानें ही नहीं दीं
अपने अनदेखे सपने भी दिये हों

दानों का स्वाद लेनेवाले
अपनी चर्बी का बोझ ढोते हुए
हर साँस के साथ हाँफनेवाले
सपनों में डूबे हुए देश
मुझे, तुमसे
इतना ही कहना है
अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर
जो लोग अड़े हैं सड़कों पर
उनकी कतारों से होकर
जो रस्ता खेतों तक जाता है
कभी उस रस्ते पर निकल जाओ
कभी मिलो उससे
जिसे किसान कहते हैं!

 

6.दीवारें

(एक)

दीवारों के
उठने से पहले का
इतिहास है दीवारों का
इतिहास के आने से बहुत पहले ही
उठ चुकी थीं दीवारें
किसी रोज़ देखा एक शायर ने
दीवारें देखती हैं वह सब
जो हम नहीं देख पाते
किसी दिन सुना एक कवि ने
दीवारें सुनती हैं वह सब
जो हम नहीं कह पाते
एक रात की बात है
जब एक नन्हें बच्चे ने
दीवारों से बात की
उस दिन से दुनिया को पता चला
दीवारें बोलती भी हैं
दीवारें आदमी नहीं होतीं
लेकिन, आदमी हो जाते हैं दीवारें !

(दो)

मेरी सदी के लोग
घिरते जा रहे हैं दीवारों से
पिछली सदी तक
दीवारें बहुत थोड़ी थीं
ज़मीन पसरी थी आँखों के आगे
आदमी नींद में दूर निकल जाता
लौटता वैसे ही जैसे गया होता
कोई दीवार नहीं आती बीच में
अब नींद में चलने का अर्थ है
दीवारों से टकराना
ज़मीन कम
ज़्यादा हैं दीवारें
ज़रा-सा उछलो तो रोकती हैं दीवारें
थोड़ा-सा पसरो तो समेटती हैं दीवारें
करवट बदलो तो टोकती हैं दीवारें
आँखें खुलीं तो सामने हैं दीवारें
दीवारों का घर है
गौर से देखो तो घर हैं दीवारें
दीवारों पर टिकी हैं दीवारें
मेरी सदी में
दीवारें ही दीवारें हैं
आदमी दीवारों का पहरेदार !

(तीन)

कौन-सी सभ्यता में
शामिल नहीं हैं दीवारें
कौन-सी सभ्यता दीवारों के बग़ैर
पहचानी गईं हैं अब तक
जिनके नहीं मिलते निशान
उनकी भी बुनियाद में थीं दीवारें
दीवारों के सहारे पनपी सभ्यताएँ
दीवारों के ढहते ही
ढह गईं सभ्यताएँ
कुछ दीवारें आज भी आँखें गड़ाये
देखती हैं अपनी परिधि में
मनुष्य को दीवारों में तब्दील होते
कुछ दीवारें टूटीं
और देखते ही देखते
मनुष्य की देह में समा गईं
तभी से चक्कर काट रही हैं दीवारें
दुनिया के चक्कर काटते मनुष्य के साथ
हमें लगता है
स्वभाव से नाचती है पृथ्वी
जबकि सच यह है
सदियों से पृथ्वी को नचाती हैं दीवारें !

(चार)

दीवारों के उस ओर जो रहते हैं
इस ओर के रहनेवाले जैसे ही होते हैं
दोनों एक ही जैसे हैं उन्हें यह
मुद्दतों बाद पता चलता है
इन वक़्तों में
एक नदी सूख चुकी होती है
बूढ़ा हो चुका होता है
घर के बाहर लगा हुआ नीम
बदल चुका होता है
किसी चिड़िया का रंग
झुक चुका होता है
सदियों से खड़े पहाड़ का माथा
एक आदमी जन्म लेकर
मृत्यु की गोद में समा चुका होता है
आँगन में खिलखिलाती हुई बेटी
परदेश की हो चुकी होती है
दीवारें दीर्घायु होती हैं
यदि वे कछुओं की तरह होतीं तो
कहीं कोई मसला ही नहीं होता
वे होती हैं मरे हुए चट्टान की तरह
जिनसे सर टकराते हुए
लहू ही टपकता है
कोई मुराद पूरी नहीं होती !

(पाँच)

इतिहास में पहली दीवार
दिशाओं की थी
जिसे अँगुलियों के सहारे
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम
कहते हुए उठाया गया
जिसका साक्ष्य सभ्य समाज
आज भी बचाये हुए है
वे पश्चिम के लोग
हम पूरब के लोग
उधर उत्तर टोला
इधर दक्खिन टोला

दूसरी दीवार
नदियों के नाम रही
जिसे आँखों के विस्तार ने जना
उस पार के तुम
इस पार के हम
हमारे पूर्वज हज़ार शताब्दियों से
धकेलते रहे पानी को
यह सोचकर कि किसी दिन वह
पसर जायेगा दोनों ओर
उस-इस को अपने में समेटते हुए
लेकिन, हमने कसे बाँध

तीसरी दीवार
उठाई गई ज़मीन के बीचोंबीच
हथेलियों में भरते हुए मिट्टी
कहते हुए अपने सहोदर से
तुम्हारी ज़मीन
मेरी ज़मीन
बारिश ने बहुत चाहा
कि वह कोई निशान न छोड़े
मगर, समय के साथ मेड़ होती रही मजबूत

चौथी दीवार
उठाने के लिए
मनुष्य को बौना करना पड़ा अपना क़द
उसने हज़ार बाहों के सहारे
उठाई अपने सिर से ऊँची दीवार
और भूल गया छलांग लगाने का फ़न
वह लगातार कोशिश करता है
किसी दिन हो जायेगा उस पार
या कि इस पार ही
जबकि उसके घुटनों ने
दे दिया है जवाब

पाँचवीं दीवार ने
आकाश को ही छू लिया
आकाश मानुष के अंतर्मन में था
जहाँ पत्तियों ने हवा को उछाल दिया
भटकते हुए उसने पाया
इस एक दीवार के भीतर
रहती हैं अनगिन दीवारें।

(छः)

किसी स्त्री से पूछो
वह बतायेगी दीवारों का
ठीक-ठीक अर्थ
वह साक्षी है
जन्म से मृत्यु तक
बंधन से मुक्ति तक
हज़ार-हज़ार दीवारों से घिरे होने का
दीवारों को तोड़ती हुई स्त्री
कभी अच्छी नहीं लगी
नफ़रत करती हुई स्त्री
दीवार के बरक्स
एक दीवार थी
प्रेम करती हुई स्त्री भी
दीवार के बरक्स
एक दीवार थी
दीवारों के सामूहिक प्रयास से
वह दीवारों में चुनवाई गई
दीवार बनी स्त्री ने
सबसे मजबूत दीवार को चुनौती दी
दीवार भरभराकर नदी में जा गिरी
तभी से वह स्त्री
मछली बनकर पानी में तैर रही है
एक मल्लाह जाल लिए
उसे पकड़ने की ज़िद्द पे अड़ा है !

(सात)

दीवारें
हमेशा दिखाई दें
यह ज़रूरी नहीं
बहुत-सी दीवारें
होती हैं मगर नज़र नहीं आती
आप टकराकर ही उन्हें महसूस करते हैं
हमारे समय में
हर चौराहे पर
खड़ी की जा रही हैं
बेशक़ीमती
चमचमाती हुई दीवारें

सड़क के उस पार खड़ा आदमी
देख तो सकता है दीवारों को
मगर छू नहीं सकता
इस समय वैसे भी
सड़क पार करना ख़तरे से खाली नहीं
उसे डर है कहीं रौंद न दे
तेज़ रफ़्तार की गाड़ी….

एक बच्ची झाँकती है बाहर से
कि तभी माँ लपककर गोद में उठा लेती है
वह जल्दी-जल्दी में
अपना पता भूल जाती है

अंदर से आदमी की शक्ल में
एक भेड़िया गुर्रा रहा है
जो उसके रंग का नहीं है
हर उस शख़्स पर !

 

7. पिता को जानना

जानना एक प्रक्रिया है
जानने से पहले
कुछ भी तय नहीं किया जा सकता
जानने के बाद
तय करते हुए
कुछ छूट जाने का अंदेशा बना रहता है

जल को जानते हैं हम
देखते हुए नहीं
प्यासे कंठ में उतारते हुए
फिर भी जानने का दावा अधूरा है

बादल को जानना
जल को जानने से
कहीं अधिक मुश्किल है
उसके लिए शरीर से नहीं
आत्मा से बनना पड़ता है कालिदास
जो मेरे लिए मुमकिन नहीं
ऐसे में बादल को जानता हूँ मैं
यह नींद में भी नहीं कह सकता

पिता को जानना
जल को जानने से
अधिक दुष्कर है
कुछ-कुछ बादल जैसा
बचपन में हम सभी
जानते हैं पिता को
जैसे जानते हैं जल को

जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है हमारी
पिता बादल होने लगते हैं
पिता की उम्र में आकर
हम दावा नहीं कर सकते
पिता को ठीक-ठीक जानने का !

 

8.खिलौना

खिलौनों की
एक उम्र होती है
एक उम्र के लिए
होते हैं खिलौनें

सिर्फ़ घटनाएँ ही
तब्दील नहीं होतीं
तारीख़ में
लोग भी हो जाते हैं

चीज़ें तो आँखें हैं
जिनसे झाँकती हैं
उम्रें तारीख़ की
बहुत-सी सभ्यताओं के साक्षी
रहे हैं खिलौनें
बहुत-सी सभ्यताएँ
गिरी किसी अनाम हथेली से
और देखते ही देखते मिट्टी हो गईं
किसी खिलौनें की मानिंद

अब माँ या मौसी नहीं बनातीं कोई सुग्गा
पीपल पर बैठे सुग्गे की तरह
कुम्हार के चाक पर बना हाथी
जब हमारे हाथों से गिरकर टूटा
तबसे उसने भी इन्हें बनाना छोड़ दिया
सुना है काठ के घोड़े पर एक दिन
कोई सयाना बैठा और उसे ले उड़ा
उस दिन से बढ़ई सिर्फ़ कुर्सियाँ बनाता है
अब कोई सुग्गा, हाथी, घोड़ा नहीं बनाता
सभी ने बदल लिए अपने व्यवसाय
फिर हमें ऐसा
क्यों लगता है कि ईश्वर
अब भी बनाता है आदमी !

 

9. एक उदास बच्चे की कल्पना है क्रिसमस

जैसे ज़रूरी है
साँस के लिए हवा
प्यास के लिए पानी
भूख के लिए रोटी
जीवन के लिए प्रेम
कुछ वैसे ही ज़रूरी है
दुनिया के लिए
आशीष देती हुईं हथेलियाँ

हर व्यक्ति के अंदर अंतिम दिनों तक
बचा होता है शिशु मन
हर व्यक्ति अंतिम दिनों तक
चाहता है बची रहें
सँभालने वाली हथेलियाँ
जहाँ ख़त्म हो जाती हैं ऐसी चाह
वहाँ ख़त्म हो जाता है जीवन

क्रिसमस कुछ और नहीं
एक सान्निध्य की कल्पना है
उस उदास बच्चे की
जिसकी दुनिया से
लगातार ग़ायब हो रहे हैं बुज़ुर्ग

बड़े होते लोग
निरंतर दूर होते जा रहे हैं
नन्हीं दुनियाओं से
जबकि थकी हुई उम्रें
हमेशा पास आना चाहती हैं
नई उम्रों के
कल्पनाओं से भरा मन
चाहता है रंग दे सभी कोरे चेहरों को
कोरे हो चुके चेहरे चाहते हैं
थामना हर रंग को !

 

10. पुतलीघर

आज की तारीख़ में
सराय घर है यह
जहाँ कोई भी ठहर नहीं सकता
ठहरने वालों का रसूख मायने रखता है
यहाँ ठहरते हैं जिला कलेक्टर
पुलिस के आला अधिकारी
बड़े ओहदों पर बैठे
बिरला के कर्मचारी
कभी कभार हम जैसे पढ़ने-पढ़ानेवाले….

बढ़ी आबादी के बाद भी
शहर का विस्तार अभी बहुत दूर है इससे
हाँ, बगल से गुज़रती ट्रेन की आवाज़
पहुँचती है इसके अहाते में
पहुँच जाता है रात में
हाइवे से निकलती गाड़ियों का हार्न
कभी यहाँ सिर्फ़ सन्नाटा पहुँचता रहा होगा
और यहाँ से जाती रही होगी वो आवाज़
जिसके पीछे लगे रहते होंगे
शहर भर के कान

पुतलीबाई की आवाज़ में लय रही होगी
जिसकी संगत पाकर बज उठे होंगे घुँघरू
उसने आँखों से बाँधा होगा
उस अंग्रेज़ को
जो जानता रहा होगा कोड़े बरसाना
या कि बंदूकें चलाना
तनकर खड़े उस अंग्रेज़ में
कुछ तो लचक आई होगी
चूमते हुए पुतलीबाई के पाँव को
प्रेम में सबसे अच्छी बात यही तो है
वह हर किसी को झुका देता है
चाहे कोई कितना भी तना क्यों न हो !

कितनी अजीब बात है न
प्रेम में न पड़ी स्त्रियों के हिस्से आते थे सारे अधिकार
वे चाहरदीवारी में क़ैद होते ही
वसीयत में दर्ज़ हो जाती थीं
जो जितनी चुप्पी से गुज़ार लेती ज़िंदगी
या कि खड़ी होतीं
अपने पुरुष के बगल में
समाज में उतना ही आदर पातीं
इसके ठीक उलट
प्रेम में पड़ी वे स्त्रियाँ
जिनके पास खानदानी होने का
कोई वैध तर्क नहीं होता
जो जन्म से अपनी ललाट पर
एक कोरा कागज़ लिये फिरतीं
जिस पर कोई भी रसूखदार ठोक देता
अपनी मुहर
और वे आजन्म उसकी हो जातीं

वैसे वे जानती थीं
आकर्षण का अर्थ
वे ले सकती थीं
प्यार के बदले प्यार
उन्हें वसीयत में नाम नहीं चाहिए था
न अपनी औलादों के लिए कोई क़िला
अव्वल तो यह कि उनकी औलादों का
कोई इतिहास नहीं
जाने कहाँ बिलाते रहें वे
या कि उनके लिए
कोख और कब्र में नहीं किया गया
कोई भी अंतर
उनकी माताओं को
प्रेम में हमेशा जवान रहना था
जवान रहते हुए ही मर जाना था

कौन कहता है कि
महारानियों, रानियों, पटरानियों के हिस्से
आया असली सुख
सुख तो उन स्त्रियों की चौखट पर
बैठा रहा हमेशा
और वे दुनिया की परवाह किये बग़ैर
अपनी तरह से जीती रहीं
आज शताब्दियों बाद
कोई हिसाब लगाये तो अचंभा हो
कितनों के ही दुःख में
उन्होंने घोल दिया अपना सुख
कितनों के ही दर्द की
हमदर्द बनीं वे
जब रियासतों के पास कुछ भी नहीं बचा
नहीं बची आवाम के पास
ज़रूरत भर की चीज़ें
उन्होंने अपनी संदूकें खोल दीं
इतना सबकुछ करके भी
वे कहलाईं रखैल ही
और उसके प्रेमी अय्याश

इस वक़्त
उसी जगह बैठा हूँ मैं
साँसें ले रहा हूँ
मेरे पोर-पोर की थकान
दीवारें सोख रही हैं
जिस जगह
पुतलीबाई नाचती रही बरसों !

 


 

कवि लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता, जन्म : 03 जनवरी 1983, पूर्वी चंपारण, बिहार
शिक्षा : एम.ए.(हिंदी), पी-एच.डी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
प्रकाशन : ‘जिसे वे बचा देखना चाहते हैं’ (2015), ‘तीसरी नदी’ (2022) – काव्य-संग्रह। संप्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज – 211002

संपर्क : एफ – 403, सनशाइन रॉयल रेसिडेंसी,
प्रीतम नगर, धूमनगंज, प्रयागराज, उ.प्र.
211011
मो: 6306659027
ई-मेल : lakshman.ahasas@gmail.com

 

दुष्यन्त पुरस्कार, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, बेकल उत्साही सम्मान, आयाम सम्मान से सम्मानित कवि अरुण आदित्य. जन्म – 02 मार्च 1965 (प्रतापगढ़ )

प्रकाशित कृतियाँ: रोज ही होता था यह सब, धरा का स्वप्न हरा है (कविता संग्रह), उत्तर वनवास (उपन्यास) कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।

असद जैदी द्वारा संपादित ‘दस बरस’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित ‘समय की आवाज़’ में कविताएँ संकलित़। कुछ कविताएँ पंजाबी मराठी और अंग्रेज़ी में अनूदित़। सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी़।

सम्पर्क: 9873413078
मेल: adityarun@gmail.com

 

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