नाज़िश अंसारी
पत्नी पर बेहिसाब चुटकुले बनने के बाद जिस विषय का सबसे ज़्यादा मज़ाक़ उड़ाया गया/ जाता है, वो है कविता। मुक्त कविता (आप इंटरमार कविता भी कह सकते हैं) के दौर में हर दूसरा व्यक्ति अपनी खलिहरी को सृजनात्मकता का चोला पहनाते हुए, छपास की अभिलाषा से भरा हुआ जब कुछ नहीं कर पाता तब कविता करता है। ये इस समय का सच है। लेकिन ठीक इसी समय हमारे पास वो लोग भी हैं जो नितांत एकांत में जीवन के, विशेषकर प्रेम के तमाम रंगों को, भावनाओं के कैनवस पर शब्दों की तूलिका से सजाते हैं और किसी को पता ही नहीं चलता।
उन्हीं कम नामों में से एक नाम हैं–कायनात शाहिदा। जिनके पास ठीक अपने नाम की ही तरह ढेर शीरीं लफ़्ज़ों की छोटी सी दुनिया है।
यहाँ लफ़्ज़ बरतने का जो सलीक़ा है वो इतना क्लासिक है कि कई बार शक होता है क्या वाकई बीत रहा समय 2024 है?
उनकी नज़्मों से गुज़रते हुए मैं मजाज़, कैफ़ी, साहिर, फ़ैज़, अहमद फ़राज़ जैसे शो’राओं के उस सुनहरे दौर में जा पहुँचती हूँ जब नज़्मों से ख़ुशबू आती थी। राग का ज़ायक़ा मिलता था।
कायनात के लिखे में लयात्मकता का आग्रह है और ऐसा है कि नज़्में ख़ुद बताती हैं कि आपको उन्हें पढ़ना कैसे है..
मुझे मत कहो फूल बाग़-ए-इरम का
कि फूलों के हिस्से अज़ीयत बहुत है
शमा भी न कहना
कि जलना भले ही ख़ुशी का सबब हो,
किसी को जलाने में तोहमत बहुत है
मुझे रंग-ओ-निकहत से यकसानियत की भी चाहत नहीं है
नज़ाकत का पैकर कहे जाने की भी मेरे क़ल्ब-ए-वीरां को हाजत नहीं है
न है मुझको अरमां कि मेरी सताइश में दुनिया के सब इस्तिआरों को हारो
हवाले से मेरे
लबों पर तुम्हारे
लक़ब और कोई भी जँचता नहीं है
सो गर हो सके तो मेरे ग़म-शनासा
मुझे तुम मेरे नाम से ही पुकारो।
क्लासिकल क्राफ्ट की इस नज़्म को पढ़ते हुए मुझे गुलजा़र याद आते हैं–
नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होंटों पर
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादा काग़ज़ पे लिख के नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इस से बेहतर भी नज़्म क्या होगी
उपमाओं की, रूपकों की, बिम्ब की सुंदरता के एक नहीं कई कई उदाहरण हैं –
उनकी नायिका के परेशानी के आलम में आँखों के नीचे गहरे हल्के़ (डार्क सर्किल) पड़ते हैं, तब (चेहरे की) ज़र्द (पीली) रंगत की मिलान “बीमार सी” लगने से नहीं की गई। वहाँ हल्दी महकाई गई। इन स्थितियों में होंठ को पपड़ियाना चाहिए। कवयित्री ने होंठ के लिए उघाड़ने शब्द का इस्तेमाल किया है।
अच्छा लगता है उनकी नायिका नायक के नज़र-ए-क़रम को तरस नहीं रही। वो आगे बढ़कर, लगभग चढ़कर उसका ध्यानाकर्षण करती है–
मैं उसे सुनाई पड़ने की सब कोशिशें करती
बहुत शोर करने वाले जूते पहनती
सबसे ज़्यादा खनकने वाली चूड़ियों से कलाई दुखाती
और तो और उसे सुनाने को सपनों में काँच चबाती
उस तक कुछ नहीं पहुँचता
ये वे दिन थे जब मैं ध्वनि से शब्दों को छानने की कोशिश में ज़ुबान पर राख मलती थी.
ये वे दिन थे जब ध्वनियों का आखेटक मौन-देस में विचरता ध्वनियों का स्वाद भूल गया था.
स्त्री के रोमांटिक एंगल को सबसे सोफिस्टिकेटेड तरह से कहने का सहरा पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर के सर पे बंधा है। जिनकी ग़ज़लों, नज़्मों में प्रेम के तमाम रंगों की मौजूदगी में से सबसे चटख रंग इंतजा़र का है। कायनात के यहाँ इंतज़ार है लेकिन बेबसी नहीं है। ज़माना नया है। तेवर नया है और ये आक्रामक है–
है कोई यां जो
मुझी को मेरे बदन के दोज़ख़ से आ निकाले
है कोई यां जो मेरी चटख़ती नफ़स का हर तार तोड़ डाले
ये आँखें जो अब जहां में फैले तमाम रंगों से थक के गोर ए सियह में सोने की मुंतज़िर हैं,
है कोई यां जो बुझा दे इनको
और इनकी बाक़ी बची तजल्ली से अपने घर का दिया जलाए
है कोई गर तो बताए मुझको
झिझक न बरते क़रीब आए
मैं पूरे होश ओ ख़िरद में उससे ये कह रही हूं ये क़त्ल उसपे मुआफ़ होगा
स्त्री की दैहिक कामनाओं को कहते हुए अश्लीलता का ख़तरा लगातार बना रहता है। लेकिन कायनात यहाँ भी पूरी ख़ूबसूरती से प्रेम में पगी शारीरिक चाहनाओं को सुंदरतम शब्दों से ढालती हैं। अश्लीलता का लेबल नहीं लगने देतीं।
तुम्हारे खूँ की तलब मुझे अब
जहन्नुमों में जला रही है
और इस तलब की तपिश
ज़बर की हदों को कमतर बता रही है
तुम्हीं बताओ क्या है इजाज़त
कि मैं ही आगे क़दम बढ़ाकर
तुम्हारी पलकों पे बोसा दे दूँ?
तुम्हारी नज़रों का अर्क़ पी लूँ?
या कि तुम्हारे लहू उगलते
शरार होंठों पे होंठ रख दूँ?
(शजर नवाज़िश)
कायनात के लिखे की ख़ूबसूरती यही है कि नज़्में अगर क्लासिकल उर्दू साहित्य के नज़दीक़ ले आती हैं तो कविताएँ हिंदी के पंत , प्रसाद, निराला, वर्मा के छायावाद के स्वर्णिम दौर की याद दिलाती हैं।
एक स्त्री को पत्थर तोड़ते देखकर “निराला” ने जो कविता लिखी थी, क्या आपने सोचा उसके बाद क्या हुआ होगा। आगे का कायनात सोचती हैं, लिखती हैं–
“सब जानना चाहते थे
उसका परिचय
श्रमिक ने अपने घाव से दृष्टि हटाई
एक लंबी सांस ली और कहा
“मेरी माँ थी वो स्त्री
देखा था जिसे ‘निराला’ ने
तोड़ते हुए पत्थर
इलाहाबाद के पथ पर”
“ताप” को पढ़ते हुए यूँ तो कृष्ण की प्रेम में जोगन बन गई मीरा याद आनी चाहिए लेकिन मुझे तन पर भभूत मले, माथे पे त्रिपुंड सजाए अर्धनारीश्वर का रूप धरे शिव याद आते हैं जो दरअसल इस वक्त पार्वती के प्रेम में मलंग हुए जाते हैं–
भाग्य की रेखा जलने को है
सुख की सांझ पिघलने को है
बिखर रही श्वासों की माला
प्रेम, काल में ढलने को है
धूल हुई कंचन काया और ऐसे क्षण में
नाम तुम्हारा मृत्युंजय का जाप लगे है
रात का सपना प्रात खिलेगा, बुझ जाएगा
किसे पता है?
पथ से भटका, लौटेगा तो घर आएगा
किसे पता है?
किसे पता है, समय-पार क्या खेल रचा है
किसे पता है, चाल जीत कर कौन बचा है
समय-पार का समझा-देखा तुम ही जानो
जीवन का सब जोखा-लेखा तुम ही जानो
तुम ही जानो पुण्य चढ़े कि पाप लगे है
मैं अनजानी प्रेम-दिवानी बस ये जानूँ
मेरे गिरधर, मुझे तुम्हारा ताप लगे है!
इससे पहले कि कायनात को सिर्फ प्रेम कवियित्री से लेबल किया जाता वो “कंडीशनिंग” कविता लिखकर चूल्हा–चौकी, बर्तन–बासन में दिन–रात खट रही किसी चाची, किसी काकी के हिस्से का सच लिख देती हैं–
चाची घर भर के लिये रोटियाँ सेंकती है नर्म-मुलायम
और कोई रोटी अगर जल जाए तो चाची ही के हिस्से आती है
चाची की पक्की रसोई में और एक रोटी सेंकने भर गुंधा आटा है
चाची के अहाते की घड़ी में और एक रोटी सेंकने लायक़ वक़्त है
चाची के मज़बूत हाथों में और एक रोटी सेंकने की सकत है
चाची के पास एक रोटी जला देने भर के अपराधबोध से मुक्त हो जाने की सुविधा नहीं है इस अपराधबोध को रोटी समझ गले उतारने या चारा समझ भैंस के सामने डालने की दुविधा है
बहुत लफ़्फ़ाज़ी जान पड़ती है न ये सब
सच है मगर
हर टोले-गांव-पिंड-जवार होती हैं ऐसी चाचियाँ
कि जिनके लिए बाइस दिवस चुभने वाली शूल है
वो
जो
तुम्हारे-मेरे लिए
अल्हड़ सी भूल है
सन 1936 में प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन का गठन हुआ। मीटिंग में उस वक्त के सारे मशहूर शायरों से ये अपील करते हुए पूछा गया कि वे कब तक अपनी ग़ज़लों, नज़्मों में इश्क़–आशिक़–महबूब की बातें करते रहेंगे। देश, जो लगातार आज़ादी के लिए संघर्षरत है, उसकी असल सूरत नज़्मों /कविताओं में क्यों नहीं नज़र आती है? लेखक अपनी कलम को तलवार क्यों नहीं बनाता? बनाना चाहिए।
यही सवाल/विमर्श मैं कायनात शाहिदा से भी करना चाहूंगी।
उनके पास इस वक्त प्रेम को सबसे पारंपरिक, सुगठित, सुंदर कविताएँ है, लेकिन राजनैतिक स्तर पर पूरी विपन्नता क्यूँ ?
सामाजिक, राजनैतिक और आम जन जीवन से जुड़ी सरोकारी कविताएँ अभिधा/ लक्षणा/ व्यंजना किसी भी माध्यम में कही जा सकती हैं।
उनके पास शब्द साधने की कला है। अपना कंफर्ट जोन छोड़कर या दायरा बढ़ाते उन्हें कविता के लिए विविध विषय चुनने चाहिए।
अकविता, नारों–उक्तियों–सूक्तियों वाली कविता के ख़ुरदुरे दौर में हमारे जैसे पाठक उन्हें आशा भरी नज़रों से देखते हैं और उम्मीद करते हैं भविष्य में उनकी कविताओं/नज़्मों के और भी रूप– रंग देखने को मिलेंगे।
कायनात शाहिदा की कविताएँ
1.
मैं मुहब्बत की देवी हूँ
मेरा कहीं कोई मंदिर नहीं
इस जहाँ वालों को मेरी मौजूदगी की ख़बर ही नहीं
मैं जिधर को चली हसरतें जग गईं
पतझड़ों को बहारों की लत लग गई
मैंने माँओं के सीनों को अमृत किया
और बापों को शफ़क़त की दौलत भी दी
मैंने यारों को यारी पे क़ुरबां किया
आशिक़ों के दिलों पे हकूमत भी की
मैंने बच्चों के नन्हें दिलों को ज़माने की अय्यारियों से बचा कर रखा
और परिंदों को शीरीं चहक बख़्श दी
जिस को सुन कर के शब भर से जागे हुए एक बीमार ने
यक ब यक नींद का ज़ायक़ा चख लिया
मैंने मरते हुए हर इक फ़रहाद को वह्म में ही सही
उसकी शीरीं के रुख़ का नज़ारा दिया
मैंने ज़ुल्मत ज़दा ज़ीस्त को सुब्ह की रौशनी फूटने का इशारा दिया
मैंने नाज़ुक-तबीयत हसीनाओं को सौ तरह मुस्कुराने की तालीम दी
और फिर जां-फिशां उनकी मुस्कान पर, सख़्त-जां नौजवानों की साँसे लुटाती गई
मैंने बेचैन रूहों को उनके सितमगर से बचकर निकलने की हिम्मत भी दी
और मैं ही उन्हें आतिश ए इश्क़ में फिर से जाकर सुलगने के सब रास्ते भी दिखाती गई
मैं मुहब्बत की देवी हूँ, मैं हर घड़ी
नफ़रतों से उलझने में मशगूल हूँ
मेरे पांवों में ज़ख़्मों की ज़ंजीर है
मैं मुहब्बत की देवी हूँ, मेरी जबीं पर पड़ी हर नयी ज़र्ब ही मेरी शमशीर है
जिसके हर वार से मैंने नफ़रत की लय पर बहकते हुए इस जहाँ को मुहब्बत की तौफ़ीक़ दी
मैं मुहब्बत की देवी हूँ मेरा नगर हर मुसाफ़िर की आमद पे सरशार है,
उनकी आहट तलक से मुझे प्यार है
वो अलग बात है, फ़िक्र में मुब्तला अब किसी का भी दिल मेरी ख़ातिर नहीं
मैं मुहब्बत की देवी हूँ
मेरा कहीं कोई मंदिर नहीं
2.
मुझे मत कहो फूल बाग़-ए-इरम का
कि फूलों के हिस्से अज़ीयत बहुत है
शमा भी न कहना
कि जलना भले ही ख़ुशी का सबब हो,
किसी को जलाने में तोहमत बहुत है
मुझे रंग-ओ-निकहत से यकसानियत की भी चाहत नहीं है
नज़ाकत का पैकर कहे जाने की भी मेरे क़ल्ब-ए-वीरां को हाजत नहीं है
न है मुझको अरमां कि मेरी सताइश में दुनिया के सब इस्तिआरों को हारो
हवाले से मेरे
लबों पर तुम्हारे
लक़ब और कोई भी जँचता नहीं है
सो गर हो सके तो मेरे ग़म-शनासा
मुझे तुम मेरे नाम से ही पुकारो
3.
इक भले से लड़के ने
मुझको ख़त में लिक्खा है
“आप क्यों परीशां हैं?”
मैंने झुक के टेबल से
आईना उठाया है
देखती हूँ आँखों के
गिर्द गहरे हल्क़े हैं
ज़र्द-ज़र्द रंगत में
हल्दियां महकती हैं
होंट उधड़े- उधड़े हैं
गेसू उलझे-उलझे हैं
और फिर इसी लम्हे
मुझको ध्यान आया है
उससे मेरा रिश्ता तो
बस ख़तों की हद तक है
ना’रसाई का सहरा
दरमियान पसरा है
सो सवाल पर उस के
मुझको फ़िक्र लाहक़ है
किस तरह हुआ यह सब
जो कभी न हो पाया
किस तरह ख़बर मेरी
उसके दिल को जा पहुँची
मेरे दिल ने चुपके से
मुझको कुछ बताया है
मैंने एक काग़ज़ को
राज़दां बनाया है
और उसको लिक्खा है
“क्या ख़तों की दुनिया में
बिन कहे भी धड़कन की
दस्तकें पहुँचती हैं?
क्या ख़तों की दुनिया भी
चाहतों पे मबनी है?
क्या ख़तों के दामन में
लिपटा इश्क़ सच्चा है?
या कोई गुमां भर है
या कि दिल का धोका है?”
अब मुझे फ़क़त उसके
ख़त की इन्तज़ारी है
इज़्तेराब तारी है!
4.
जिस भले से लड़के ने
मुझको ख़त में लिक्खा था
‘आप क्यों परेशां हैं’
इन दिनों उसे मेरी
सौ परेशां रातों का
इक ज़रा सा क़िस्सा भी
हद गिरां गुज़रता है
मेरा हाल ए दिल कहना
ग़म छिपा के न रहना
उसको अपने जीवन पे
ज़ुल्म जान पड़ता है
उसकी चुभती आँखों में
बदगुमानियाँ हैं और
उसके तुर्श लहजे में
सौ तरह के शिकवे हैं
“अब वो पहले के जैसी
शिद्दतें नहीं हैं क्यों
जान ओ दिल लुटाने की
चाहतें नहीं हैं क्यों”
“आप अब वो पहले सी
बातें क्यों नहीं करतीं
संग हमेशा रहने के
वादे क्यों नहीं करतीं”
“दरम्यां हमारे क्यों
इतनी ज़्यादा दूरी है
दूरियाँ बरतना क्या
इस क़दर ज़रूरी है”
ऐसे ही सवालों पर
बात बढ़ती जाती है
औ’ मैं कुछ कहे बिन ही
फ़ोन काट देती हूँ
बीच में ही दोनों की
बात टूट जाती है
फिर सुबह तो होती है
पर सुबह में जाने क्यों
बीती तल्ख़ियों वाली
रात छूट जाती है
रात छूट जाने से
बात टूट जाने से
फिर सुबह का आना तो
मुल्तवी नहीं होता
अब भी दिल की चौखट पे
फ़ोनकॉल की सूरत
आहटें तो होती हैं
हाँ मगर मेरी आँखें
जिसकी राह तकती हैं
वो पुरानी रुत वाला
ख़त कहीं नहीं होता!
5. कंडीशनिंग
6.
तुम्हें मुझ से मुहब्बत हो
और इस दर्जा मुहब्बत हो
कि मेरे बिन तुम्हारी ज़िंदगानी दर्द हो जाये
ज़रा जो रो पडूँ मैं तो
तुम्हारे क़हक़हों का रंग धुलकर ज़र्द हो जाए
तुम्हें मुझ से मुहब्बत हो
और इस हद तक मुहब्बत हो
कि मेरे नाम की ख़ुशबू तुम्हारी बेसुकूँ नींदों का घर आबाद करती हो
औ’ मेरी याद की चादर लिपट कर तुमसे , तुमको
ज़ीस्त के बेज़ार’कुन मामूल से आज़ाद करती हो
तुम्हें मुझसे मुहब्बत हो
और इस तरह मुहब्बत हो
तुम्हारे गिर्द
तुम को हर घड़ी मैं ही दिखाई दूँ
तुम्हारा आईना मैं हूँ
तुम्हारा वक़्त भी मैं हूँ
कोई आवाज़ गूँजे
साज़ गूँजे या कोई सरगम
तुम्हें हर इक
नवा-ए-नौ में
बस मैं ही सुनाई दूँ
तुम्हें मुझसे मुहब्बत हो
मुहब्बत ही मुहब्बत हो
ये कहना चाहती हूँ मैं
मगर फिर ख़ौफ़ आता है
कि गर जो पूछ बैठे तुम
कि मुझको भी तो तुम से ठीक ऐसी ही मुहब्बत होनी चहिये न
मेरे दिल को भी तुमसे बे’तहाशा चाह-ओ-रग़बत होनी चहिये न
तो इसपे क्या कहूंगी मैं
कोई बेरब्त सा जुमला
कोई उलझा हुआ फ़िक़रा
नहीं, कुछ भी नहीं, इसपर
जवाबन चुप रहूँगी मैं
कि मेरी जान कुछ जज़्बे
ज़ुबाँ का साथ चाहे बिन
फ़क़त भीगी हुई आँखों से झलकें तो ही बेहतर है
और आँसू ना’रसाई के
ज़माने की नज़र से दूर तन्हा
अँधेरी रात की बाँहों में छलकें तो ही बेहतर है
7. ध्वनियों का आखेटक
8.
है कोई यां जो
मुझी को मेरे बदन के दोज़ख़ से आ निकाले
है कोई यां जो मेरी चटख़ती नफ़स का हर तार तोड़ डाले
ये आँखें जो अब जहां में फैले तमाम रंगों से थक के गोर ए सियह में सोने की मुंतज़िर हैं,
है कोई यां जो बुझा दे इनको
और इनकी बाक़ी बची तजल्ली से अपने घर का दिया जलाए
ये लफ़्ज़ सारे जो अब ख़मोशी के गहरे जंगल में जा निकलने की आरज़ू में तड़प रहे हैं
ज़ुबा से मेरी खुरच ले इनको
और इनके दम से कही थीं मैंने जो सारी नज़्में
जो सारे क़िस्से
उन्हें मेरे ज़ेह्न ही से मिटा दे
मुझे मिरा हर सितम भुला दे
मुझे मेरा हर करम भुला दे
हर एक सुख हर अलम भुला दे
है कोई यां जो
मेरी सिसकती तरसती चाहों को मेरे दिल से रिहा करा दे
है कोई गर तो बताए मुझको
झिझक न बरते क़रीब आए
मैं पूरे होश ओ ख़िरद में उससे ये कह रही हूं ये क़त्ल उसपे मुआफ़ होगा
9.
शजर नवाज़िश -1
शजर नवाज़िश!
मेरे लबों को तुम्हारे खूँ की तलब लगी है
तुम्हारा खूँ जो रगों से ताल्लुक़ भुला के इस पल
नज़र के कूज़े में आ टिका है
वही लहू जो ब-सूरत-ए-चुप
तुम्हारे ख़ामोश-ओ-बे-शिकायत
शरार होंटो से छन रहा है
तुम्हारे खूँ की तलब मुझे अब
जहन्नुमों में जला रही है
और इस तलब की तपिश
ज़बर की हदों को कमतर बता रही है
शजर नवाज़िश!
बताओ तुम ही कि किस तरह से
इस इक तलब को क़रार आये सुकून आये
तुम्हीं बताओ क्या है इजाज़त
कि मैं ही आगे क़दम बढ़ाकर
तुम्हारी पलकों पे बोसा दे दूँ?
तुम्हारी नज़रों का अर्क़ पी लूँ?
या कि तुम्हारे लहू उगलते
शरार होंठों पे होंठ रख दूँ?
10.
शजर नवाज़िश 2
शजर नवाज़िश!
नजात-ए-ख़ाहिश बहुत कठिन है
कि सह्ल है कब
जिगर में रिसती
अज़ीयतों से फ़रार पाना
लहू-लहू हो चले बदन पर
नफ़स के नश्तर चलाये जाना
उधड़ चुकी सब रगों पे हर दम
रफ़ू के फंदे चढ़ाये जाना
तुम्हारी कुर्बत की सारी यादें
समय की मिट्टी में दफ़्न करना
अज़ाब-ए-जाँ है
इनायतों को सितम की सूरत में याद रखना
सरल कहां है
लबों पे हरदम पनाह पाती
ये ख़ुदफ़रेबी सी खिलखिलाहट
समाअतों को सज़ाएँ देती
करख़्त धुन है
नजात-ए-ख़ाहिश नहीं है आसां
तबाहकुन है
और इस तबाही की ज़द में आ कर
फ़सील-ए-दिल की तमाम ईंटें बिखर रही हैं
इन्हें सम्हालो
शजर नवाज़िश
मिरे मुहाफ़िज़
मुझे बचा लो!
11.
शजर नवाज़िश-3
शजर नवाज़िश
समय की गर्दिश पे रक़्स करती
सुलगती सुब्हों पे फ़ाहा रखने को
रात कम है
तुम्हारे बख़्शे सितम उठाने को
अब नफ़स में सबात कम है
अज़ीयतों का तवील अरसा गुज़र चुका है, मुझे पता है
उमीद ए नौ ने भी ज़ेह्न ओ दिल पे असर किया है, मुझे पता है
मगर ये साज़िश, समय की साज़िश
तमाम वहशत की वज्ह है और
हुसूल-ए-वहशत की रह में देखो
अज़ल से लेकर अबद को फैली बिसात-ए-ग़म है
शजर नवाज़िश, मैं किसको पूछूँ
मिरी बुनी सब कहानियों से
तुम्हारा हर इक निशाँ मिटाने में
मुझको कितने जनम लगेंगे?
मैं किसको बोलूँ कि ज़ख़्म सारे
जो हैं तुम्हारे, किसी भी सूरत न भर सकेंगे
ये ज़ख़्म सारे वो नक़्श हैं कि
जिन्हें छुपाने को इस जहाँ की और उस जहाँ की
तमाम ऐश-ओ-निशात कम है
शजर नवाज़िश, तुम्हें भुलाने को मेरी सारी हयात कम है
12.
अपने दिल को समझने से क़ासिर हूँ मैं
कोई मंतर पढ़ो
फूँक दो इस्म कोई मेरी ज़ात पर
मुझको मुझसे बचाने का जंतर गढ़ो
कोई मंतर पढ़ो
मेरे मुँह पर कोई कालिखें मल गया
फिर मेरी काली आहों से ख़ुद जल गया
मैं तो डायन हुई
काली नागन हुई
मेरा घर लुट गया
आलता छुट गया
आसमां ने कहा- “मैं तेरी छत नहीं”
और ज़मीं ने कहा- “कोई चौखट नहीं”
मैं ज़मीं से परे
आसमां से अलग
सब गंवा आई हूँ
दिल बुझा आई हूँ
जिस्म ही है वो शै जो बचा पाई हूँ
इसको मट्टी करो
इसको कंकर करो
इस क़दर न हो बेताब मेरे लिये
अपनी दुनिया बसा लो, न मुझपे मरो
जब भी देखो मुझे
फेर लो तुम नज़र
ख़ुद को मुझ से बचाने का मंतर पढ़ो
कोई जंतर गढ़ो
13.
जनवरी की खुनक दोपहर के तले
लग गए ऐसे इक-दूसरे के गले
जैसे हम तो अज़ल से ही मानूस थे
तुम तो हालांकि थोड़े गुरेज़ां भी थे
सो हुई मैं भी इक पल पशेमाँ ज़रा
लेकिन अगले ही पल
दिल को सम्हाल कर
मैंने सारे तकल्लुफ़ परे रख दिये
और फिर हम दीवानों की तरह हँसे
बात बे-बात पर, अपने हालात पर
हम हँसे हर नफ़ी पर
हर असबात पर
हम परिंदों की मीठी चहक पर हँसे
हम गुलाबों की भीनी महक पर हँसे
हम हँसे खंडहर से गुज़रते हुए
हम गुज़रती हुई हर सड़क पर हँसे
और हँसे ऐसे बेदर्द लम्हों पे भी
जिनको दिल से लगाते तो रो देते हम
जिनकी लज़्ज़त को अश्कों से मनसूब कर
जो ज़रा सा बहकते तो खो देते हम
इस लिये रंज ओ राहत की हद को भुला
हमने रोने में हँसने को शामिल किया
कब से वीरानियों में भटकते हुए
इक अधूरे फ़साने को कामिल किया
और फिर अपने रस्ते बदलते हुए
हम उदासी के पैकर में ढलते हुए
थोड़े ख़ामोश थे, थोड़े मायूस थे
हम विदा की घड़ी यूँ हुए ग़मज़दा
ऐसे जैसे अज़ल से ही मानूस थे
14.
तुम्हारी क़ुरबत में बीता वक़्फ़ा
ख़ुमार बनकर मेरे तनफ़्फ़ुस में बे’तहाशा महक रहा है
तुम्हारी सादा-दिली ने दिल की तमाम दुनिया पे हश्र बरपा किया हुआ है
किसी भी जानिब नज़र उठाऊँ
तुम्हारी गहरी-चमकती आँखों का अक्स
मेरी उदास आँखों में कौंधता है
ये अक्स सच भी है, ख़ाब भी है
ये अक्स मिस्ल-ए-सराब भी है
मैं इस तमाशे से तंग आकर जो अपनी पलकों पे हाथ रख लूँ तो देखती हूँ
कि लम्स अब तक तुम्हारे हाथों का मेरे हाथों की उंगलियों से गुथा हुआ है
ये लम्स आतिश है, आब भी है
ये लम्स मिस्ल-ए-अज़ाब भी है
मुझे ख़बर है कि मेरी वहशत हक़ और बातिल की ऐन सरहद पे आ रुकी है
मिरी मुहब्बत के पाक दामन पे दाग़ लगने में बस एक नुक़्ते की ही कमी है
और ऐसी नाज़ुक घड़ी में जब कि घड़ी की साँसे भी
अपना रस्ता भटक रही हैं, मुझे पता है
कि मैं जो भटकी रह-ए-वफ़ा से
तो फिर जहाँ में सिवा फ़रेबों के क्या बचेगा
कहाँ बचेगी कोई सदाक़त
कोई भरोसा कहाँ बचेगा
सो चाहती हूँ
ये सारा वक़्फ़ा जो मुझको ख़ाबों सा लग रहा है, वो ख़ाब ही हो
ये सारा वक़्फ़ा कि जिस पे सच का गुमां है मुझको, सराब ही हो
15.
मैं इश्क़-जज़ीरे की जानिब
इक और दफ़ा आ निकली हूँ
उस पार किसी साहिर की नज़र
मेरे दिल पर ज़र्ब लगाती है
मैं अपनी शिकस्ता क़िस्मत से
डर कर के पलटना चाहूँ तो
इस डर लिपटे सन्नाटे में
इक इक लम्हे के वक़्फे पर
आवाज़ उभरती है कोई
मुझे अपने पास बुलाती है
मैंने अंगारा रातों में जो ख़्वाब सुनहरे जलाए थे
वो ख़ाब जो थे अरमानों के
वो ख़ाब जो थे इमकानों के
वो हुमा परिंदे की सूरत जलकर फिर अपनी मट्टी से दोबारा जवां होने को हैं
और मुहब्बत का इन में इक दरिया रवां होने को है
इन ख़ाबों मे जो दरिया है वो मुझको नगर से न जाने किस ओर बहा ले आया है
मैं जागती हूँ तो देखती हूँ
मिरी ख़ामोशी की चीखें सुन
उस इश्क़-जज़ीरे का साहिर
अपने जीवन की फिक्र भुला
मेरी जान बचाने आया है
यकबयक ही मंज़र बदला है
उस दरिया में एक कश्ती है
कश्ती में सिमटती-घबराती
मैं नज़र झुकाए बैठी हूँ
और इश्क़-जज़ीरे का साहिर वक़्फे-वक़्फे से कुछ पढ़कर
मुझ पर दम करता जाता है
मंतर उसके मेरी साँसों में उल्फ़त के गुलाब खिलाते हैं
उसकी कुर्बत के लम्हे मुझे ख़ुद मेरे मुक़ाबिल लाते हैं
रात आधे सफ़र को पहुंची है
अब चाँद खिला है अम्बर पर
साहिर ने कहा है हौले से
“इस पुर-असरार फ़ज़ा में ही
इक दुनिया बना ली जाए क्या
ये रात बुझा दी जाए क्या
ये कश्ती डुबा दी जाए क्या”
दरिया दम भर को साकित है
और चाँद सहम कर पलटा है
ज़ेह्न में अम्बर के इस पल
बस एक सवाल उबलता है
इन सरकश आदमज़ादों को
भीगे दोज़ख़ से बचाने की
तदबीर भला क्या की जाये
इन सब ख़दशों से बेपरवा
अगले लम्हे ही मैं ख़ुद को
साहिर के सुलगते होंटों पर
अपने दहकते होंटों की
एक मुहर लगाने से पहले
ये कहते हुए सुनती हूँ कि
ये रात बुझा ही दी जाए
ये कश्ती डुबा ही दी जाये
कवयित्री कायनात शाहिदा, उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले में जन्म।लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में परास्नातक।
वर्तमान में राजकीय बालिका इंटर कॉलेज गुरघुट्टा, बहराइच (उ० प्र०) में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत।
रेख्ता पर कुछ नज़्में प्रकाशित।
संपर्क: kaynaatekhwaab@gmail.com
टिप्पणीकार नाजि़श अंसारी, जन्म स्थान –गोण्डा। निवास स्थान– लखनऊ। शिक्षा– मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर
कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
दर्ज़न भर पत्रिकाओं में विभिन्न कवियों, लेखकों पर लेख प्रकाशित।
पहली कहानी “हराम” को हंस कथा 2023 सम्मान।