संजीव कौशल
जिस तरह पेड़ साल भर सारे मौसम सोखकर अगले साल फूल और फल देता है, कविता भी उसी तरह न जाने कितना जीवन सोखकर फूटती है। अगर आप जगतारजीत साहब को जानते हैं उनके जीवन के किसी हिस्से से गुजरे हैं तब यह तथ्य कविता की तरह आपके सामने खुलता है। हम दोनों पड़ोसी हैं।
हमारे मोहल्ले में जो पार्क है उसके तमाम पेड़ जगतारजीत साहब ने लगाए हैं। पेड़ लगाना दरअसल आसान होता है उन्हें पालना बहुत मुश्किल। इन्होंने उन्हें पाल कर बड़ा किया है। इनकी पहली छवि जो मेरी स्मृति में अंकित है वह यह है कि एक आदमी अकेला चुपचाप कैन में पानी भरकर हर छोटे पौधे को सुबह-शाम सींच रहा है।
यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था कि कोई व्यक्ति छोटे-छोटे पौधों से इतना लगाव रखे, उनका इस तरह ख्याल रखे। यही प्रेम इनकी कविताओं में है। यह कहना आसान होगा कि आप प्रकृति प्रेमी हैं और प्रकृति के कवि हैं मगर ऐसा है नहीं।
प्रकृति आपकी कविताओं में दिन के उजाले की तरह उपस्थित होती है मगर जिस तरह हम उस दिन और उजाले को ही नहीं देखते रहते अपने काम भी करते हैं उसी तरह जगतारजीत साहब प्रकृति के उजाले में सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियां देखते और समझते हैं।
दरअसल आप बहुत गहरे सामाजिक राजनीतिक विचार के साथ कविताओं में आते हैं। फिर भी कविताओं को बयान या भाषण नहीं होने देते। इनके यहां बयान किसी डाली से फूटी हुई कली की तरह खुद को प्रस्तुत करता है
इस भागमभाग भरे जीवन में बहुत कुछ हमसे खो गया है।
हमारी गति ने जीवन को ठहर कर देखने महसूस करने की सलाहियत ही हमसे मानो छीन ली है। न हमें बारिश की बूंदों का गिरना दिखता है और न हीं आंसुओं का। अपने सिर्फ तब तक अपने रहते हैं जब तक वह हमारे काम आते हैं। रिश्ता जैसे एक मोलभाव है, खरीद-फरोख्त।
बाजार बहुत गहरे उतर गया है हमारे भीतर। ऐसे में जगतारजीत साहब की कविताओं को पढ़ना किसी मौन में जीवन की साधना करना है। बूंद बूंद जमीन में नमीं बन कर उतरना है। इनकी कोई भी कविता एक बार में पूरी तरह पकड़ में नहीं आती। उसे समझने के लिए आपको उसे दोहराना होता है, उसके पास बैठकर किसी मूर्ति की तरह है उसे निहारना होता है और फिर जैसे अचानक मूर्ति मुस्कुराने लगती है कुछ ऐसे ही कविता की पंक्तियां खिलखिलाने लगती हैं। उम्मीद है आप इन कविताओं को अपना स्नेह देंगे।
जगतारजीत सिंह की कविताएँ
1. सच
पानी भरे थाल में
उतर आए
चांद तारे आसमान
दोनों के बीच खड़ा मैं
किसी को नहीं छू सकता
सच का प्रतिबिंब
मेरे लिए
सच जितना ही दूर है।
2. बोगनबेलिया
चिड़िया अपनी चहक
अपने साथ लेकर उड़ गई
पीछे छोड़ गई
सुर्ख़ फूलों से लदी
बोगनबेलिया की टहनी
कांपती रही वह देर तक
गिराती रही लहू के आंसू
धरती पर
उसकी आवाज़ को याद कर।
3 आजकल इसी तरह
खुले आसमान के नीचे
घर की औरत
टब में से धोये हुए कपड़े उठाकर
टांग रही है तार पर
तार पर टांगते समय
उसके मन में साकार होता है
वह रूप, जिसने गंदे कपड़े
उतार कर रख दिए थे धोने के लिए
वह हाथों से उठाती है
धुला हुआ कपड़ा, और
आंखों से देखते देखते
हवाले कर देती है तार के
क्षणों में
उसने सारा परिवार
एक दूसरे के पास पास
एक जगह इकट्ठा कर दिया
परिवारी-जन
आजकल इसी तरह
हफ्ते में एकाध बार
अपने अपने कमरे से निकल कर
एक दूसरे से मिलते हैं
फिर तह होकर
टिक जाते हैं अपनी अपनी जगह
अगली मुलाकात तक।
4. आह
फर्श पर
टिप टिप करती बूंदें
टूटतीं
टूटकर अनेक धारण कर
हिलोरा लेतीं
अशक्त हो गिरतीं
फिर एकाकार हो
झीनी सी आह बन
बह जातीं ढलान की ओर।
5. बदली
बाहर रिमझिम है
सावन के बादलों की गर्जन है
बिजली का सुतवां दंगल है
हवा में झूलती बूँदों का नर्तन है
बाहर ऋतु है
रंग है
रास है
आंख देखती है
मन सोचता है
शीशे के इस ओर
सुरक्षित तन
महसूसता है
अंग पर गिरी कोई बूंद
रोम रोम में उतरती है
उसका गीलापन
उसकी ठंडक नाड़ियों को झनझना देती है
अपने स्थान से नीचे हल्का
निशान बनाती
धीरे-धीरे
देह जितनी तक जाती है
अब महसूस होती है
शीशे के इसको ओर
उड़ती हुई
बूँद से बनी बदली।
6. श्रद्धांजलि
मैं उसकी श्रद्धांजलि सुन
दरवाज़े से बाहर निकल आया
जो बिछुड़ गया
मेरा क्या लगता था?
दुआ सलाम होने से पहले
पल दो पल के लिए
चेहरे पर तनी हुई मुस्कुराहट छोड़
हम कभी भी गहरे नहीं उतरे
एक दूसरे के दुख के अंधे कुएं में
भीड़ में आदमी से मिलने का
यह भी एक सलीका है
कि जो नहीं है
वही हाजिर है
हर बोलने वाले के पास बैठा है
वह शब्दों से
परचम बनाकर
हमारे सामने लहराता है
भरे इकट्ठ में
किसी को याद करने का
यह भी एक तरीका है।
7. रावी बह रही है
रावी बह रही है
अपने पानी के साथ
पहले पहल
पानी बहा होगा इधर-उधर
ऊपर से नीचे होता हुआ
नाम तो किसी और ने दिया होगा
बहुत बाद में
हर नदी अपने घर से
इसी तरह चली होगी
अपनी राह बनाती
पानी के लिए
नदी तो
पानी से पहचानी जाती है
नाम से नहीं
और पानी का नाम
नदी ने नहीं रखा।
8. रेत पर नाव
रेत पर पड़ी नाव
इंतजार में है
नदी पानी से भर जाए
उसकी देह फिर महसूस करे
बहते पानी की नर्म छुवन को
वह फिर चले फिरे
शांत पानी की लहरों पर
चलती चलती जा मिले
दूसरे किनारे
या देखना चाहे
भंवर में फंसने पर
मल्लाह की मशक्कत को
रेत पर उल्टी पड़ी है
अपने बीते समय में खोयी
सोचती है
कहां जाए आश्रय लेने
मुझे और मछली को शाप है
पानी में जीने का
मल्लाह भी जानता है
बिन पानी कहां जाएगी यह
कौन ले जाएगा इसे
अपनी पीठ पर उठाकर
तो भी बांस-खूँटे से बाँधकर
उसकी गति यति को ठहरा दिया
नाव को खेते मल्लाह ने
तेज लू के थपेडों को सहा
दूर-दूर तक देखा
आंखों पर हाथ रख
हवा से ठहरी रेत के कमरों को
दूर तक बिखरे रेत कण
लश्कारते हैं सूर्य किरणों की आभा में
लगे जैसे मरीचिका नहीं
पानी की लहर चली आ रही है
आंखों को लगता है
बहते चले आ रहे पानी में नाव
लेने लगेगी सांस
नाव के आसपास उतर रहे रेत कण
बोलकर बताते हैं- जैसे
अब नदी में पानी नहीं उतरेगा
उदास नाव ने नदी से पूछा
नदी चुप है
इसलिए ही नाव को आस है।
9. मृग के पीछे गए राम
मृग के पीछे गए राम
जब लक्ष्मण संग लौटे
तो कुटिया खाली थी
अब राम के होठों से निकलता
सीता का नाम
गूंज रहा था
जंगल की अपनी आवाज के साथ साथ
घने पीपल तले बने चबूतरे पर
नाटक जारी था
विचलित राम बाहें फैला
दिशाओं से मांग रहे थे
हरण हो चुकी सीता को
सामने बैठे दर्शक
पहले से जानते थे
स्वर्ण मृग के पीछे जाने के बाद
सीता का हरण होगा तो भी
राम के दुख में दुखी हुए
देख रहे थे
नीर भरी आंखों से
राम का विलाप
विलाप के सताए पीपल से
गिरा एक पत्ता
आंसू की तरह राम के चरणों में
धरती से पत्ता टकराने की आवाज
ऊंची हो
फ़ैल गई चहुँ ओर
इसे सुन
मेरी आंखों से भी छलके
दो आंसू नन्हें-नन्हें
पीले पत्ते को सामने देख
द्रवित मन बह चला
क्या मैं भी
इस पत्ते की मानिंद
एक दिन झड़ जाऊंगा, और
खड़ाक भी न होगा कहीं
इस जगत में।
10. सूरज
बोगनबेलिया की टहनी पर बैठी
चिड़िया गा रही है
जैसे जैसे लगाती है
वैसे वैसे हिलती है टहनी
चिड़िया गीत और टहनी को
एक दूसरे से एकाकार देख
सुर्ख होता जा रहा है
सिरे पर खिला हुआ फूलों का स्तवक
लगता है जैसे
गमले में से सूरज उग रहा है-
11. स्वेटर
उंगलियों में सलाइयाँ संभाले
बुना जा रहा है स्वेटर
उसके लिए
जिसे अभी आना है
इस संसार में
एक चीख के साथ
स्वेटर के साथ-साथ
वह बुन रही है सपना
खुली आंखों से
सपने से गुजरते गुजरते
वह पहुंच गई सच तक
यहां पहुंचने तक उसे सालों साल लगने थे
स्वेटर और सपना
साथ-साथ बुने जा रहे हैं
होने वाले का अपना अभी कोई सपना नहीं
वह तो पहेली की तरह बंद पड़ा है
उसका रूप जब भी
मां के सपने में बदलता
सपनासाज का संसार भी बदल जाता है
जैसे-जैसे स्वेटर बढ़ रहा है
सपने की उम्र घटती जा रही है।
12. नदी
किस-किस जगह से गुज़र
खुद को टकरा
राह बनाई होगी
वो ही जानती है
कभी धरती ने पी लिया होगा
उसका सारा पानी
कभी मरा हुआ जान
घेर लिया होगा रेतीली ज़मीन ने
कभी पहाड़ की पीठ
आ खड़ी हुई होगी
उसकी धार कुंद करने
बहते पानी ने
ऐसे अटक-अटक कर
मरना नहीं सीखा होगा
उसने अपने बल से
खींची होगी लकीर
धरती के सीने पर
अपने को बचाए रखने के लिए
( कवि जगतारजीत सिंह का जन्म 1951 में पंजाब के गाँव राजा साहव का मज़ारा, बंगा में हुआ। जंगली सफर, रबाब पंजाबी में तथा अंधेरे में फूल जैसी सफेद हिंदी में प्रकाशित कविता संग्रह हैं। कला की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। भाषा विभाग पंजाब और पंजाबी अकादमी से पुरस्कृत। सम्पर्क: 98990 91186
वर्ष 2017 में कविता के लिए दिए जाने वाले प्रतिष्ठित मलखान सिंह सिसोदिया पुरस्कार से सम्मानित टिप्पणीकार संजीव कौशल, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में पी.एच.डी. 1998 से लगातार कविता लेखन। ‘उँगलियों में परछाइयाँ’ शीर्षक से पहला कविता संग्रह साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित।
देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविताएं, लेख तथा समीक्षाएं प्रकाशित। भारतीय और विश्व साहित्य के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित)