शालिनी सिंह
एक कवि होना इतना भर तो नहीं कि उसकी रचनाएँ हर महत्वपूर्ण जगह प्रकाशित होने की लालसा से भरी हों.. न ही मानवीय मूल्यों को ताक पर रख शब्दों की कलाबाज़ियों का गुर साध लेने भर की योग्यता से भरी। कविताएँ लिखना तो एक ऐसी दुरूह यात्रा पर निकलना है, जहाँ पाने का मोह नहीं बल्कि बहुत कुछ छूट जाने की पीड़ा है..बहुत कुछ ऐसा देख लेने वाली दृष्टि भी है जिससे आँख बचाकर आप सुख की नींद ले भी लें पर आत्मा से आँख बचाना मुश्किल हो जाए। ज्ञान जी हमारे समय के एक ऐसे ही चितेरे कवि हैं, जिन्होंने काँटे चुन चुन अपना रास्ता आप बनाया है। कम उम्र से ही अपने अनुभव संसार से यथार्थ और आदर्शवाद के अंतर को पहचानना सीख लिया।
ज्ञान जी एक कवि होने की फक्कड़ता में जीते हैं, जो हिन्दी संसार में सबसे पीछे रहकर भी अग्रिम पंक्ति में बैठने की सामर्थ्य रखते हैं। बावजूद इसके यह अनोखा कवि अपनी कविताओं के प्रकाशन को लेकर इतना निरपेक्ष और उदासीन रहता है। जिस कवि के पास अपने जीवनानुभव के ताप से जन्मी कविताएँ हों, जो आम जनमानस की बोली बानी में कविता लिखने में सिद्ध हो तो फिर ऐसे कवि को अपनी कविताओं को अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाने में परहेज़ नहीं करना चाहिए..
“कबूतर के साथ
मर रहा है शहर
और सड़क के पार
वॉटर एटीएम का बोर्ड
बता रहा है
पानी की कीमत”
कबूतर कविता को पढ़ते हुए आप का हृदय वेदना से भर उठता है, यकबयक संसार के समस्त पक्षियों की प्यास से आपका कंठ सूखने लगता है।
ज्ञान जी को लोकधर्मी कवि भी कहा जा सकता है कि उनकी कविताओं में लोक अपने पूरे लालित्य और टटके रूप में उपस्थित है। उन्हें पढ़ते हुए पता चलता है कि विस्मृतियों के उजाड़ समय में एक कवि गाँव से शहर तो चला आया है लेकिन गाँव को भूला नहीं है। जब भी वह गाँव को याद करता है। गाँव जवार की स्मृतियाँ, वहाँ की समस्याएँ उनकी कविताओं में अपनी पूरी संवेदनाओं के साथ मुँह बाए खड़ी हो जाती हैं..
“सर पर बचा हैं
कुछ कर्ज
मेहनत के हिस्से में
किसानी फर्ज
बचा है कुछ उधार
आदमी होने के साथ “
ज्ञान जी को साधारणता में असाधारण बात कहने का गुण आता है, चाहें विषय कोई भी हो वे कविता के उस मर्म पर हाथ रख देते हैं, जहाँ मन पर पड़ी सारी धुँध छँट जाती है, हाँ कविता इन्ही अर्थों/अभिप्रायों के लिए ही तो जन्मी है..
“सबके हिस्से से बना था देश
देश नहीं था सबके हिस्से में
हिस्से की लड़ाइयों के बीच
जिनके लिए देश था
वे मर रहे थे”
अभी अभी चुनाव बीता है, ज्ञान जी की एक कविता मतदान देखिए-सरल, सहज अभिव्यक्ति में संप्रेषित होने वाली कविता कितना बड़ा फ़लक बनाती है कि जीवन से बड़ा भी कुछ है क्या !
“मैं प्रधानमंत्री नहीं
सभी के लिए
जीवन चुनना चाहता हूँ”
सभी के लिए जीवन जीने का चुनाव एक कवि के लिए कितनी बड़ी चिंता है
ज्ञान प्रकाश जी का काव्य शिल्प बेहद परिष्कृत है. बिम्बों का चेतस प्रयोग, भाषा का सुंदर वैभव, मितकथन, संवादधर्मिता आदि अनेक पहलू हैं जिनसे ज्ञान जी का काव्य संसार आकार लेता है.
कैसा तो समय है कि जिन दिनों पानी और हवा की बहसें तेज़ होनी चाहिए, हम उस बहस को नज़रअंदाज़ करते हुए धर्म की पैलगी करने में अपनी पूरी सामर्थ्य लगा रहे हैं. जब कि हमारे देखते-देखते जीवन सूख रहा है, हमारी आँखों के आगे बहुत कुछ उजाड़ होता जाता है, और हम यह सब भोगने के लिए जिंदा हैं।
ज्ञान जी की कविताएँ बड़े मार्मिक ढंग से हमारी सुप्त अनुभूतियों को झकझोरती हैं। उनकी कविताएँ हमारी लगभग शून्य हो चुकी संवेदनाओं में हलचल पैदा करती हैं, जो कि कविता में कहे जा रहे कथ्य के प्रति पाठकों के मन में भरोसा जगाती हैं। यह भरोसा ही तो हमारे पुरखे लेखकों से हमें विरासत में मिला है।
एक कवि जो उम्मीदों और सपनों का एक प्रतिसंसार अपनी कविताओं में बनाता है, ऐसे कवि के लिखे का बहुत अर्थ है हिन्दी साहित्य संसार में और ऐसे ही कवियों की रौशनी से हिन्दी संसार का आकाश जगमगाता है।
ज्ञान प्रकाश की कविताएँ
1. मतदान
देश नहीं
पृथ्वी के बरक्स
मैं लोकतंत्र की
महत्वपूर्ण स्थापना में
अपना मत
पानी के पक्ष में
चाहता हूँ देना
हवा या चिड़िया भी
अच्छे उम्मीदवार हो सकते हैं
हो सकता है एक हरा पेड़
सभी के लिए निष्पक्ष नेता
मैं प्रधानमंत्री नहीं
सभी के लिए
जीवन चुनना चाहता हूँ
2. थोड़ा-सा खिसक जाएँ
थोड़ा-सा खिसक जाएँ
एक खरगोश के उछलने की जगह भर
जितने में सिमट जाए
किसी याद का कोई छोटा-सा टुकड़ा
इतना कि गुब्बारे भर हवा समा सके
यह जरूरी है एक थके आदमी के लिए
जो पूरी थकान से लदा-फँदा लौटा है
पृथ्वी पर जीने लायक थोड़ी जगह बनाकर
आप देख सकते हैं बिना मशक्कत के
सूरज को बीच आसमान में
टाँकने की थकान है उसके चेहरे पर
परेशान मत हों आप
थके पाँव भर की जगह ही तो चाहिए उसे
आखिरकार ब्राह्माण्ड ने दी ही है
पृथ्वी को उसके घूमने भर की जगह
नदी ने मछलियों को तैरने के लिए
आसमान ने तो कैसे कैसों को
सौंपी है उड़ने भर की जगह
आपके आराम में नहीं होगी खलल
सबका आराम लेने ही तो निकला था वह
पिछली सदी की किसी ठिठुरती सुबह में
बच्चे के छुपने भर की यह जगह
वैसे भी उसने ही छोड़ी थी जनाब
उम्र के अन्तिम मुहाने पर जाने से पहले
वही तो छोड़ गया था
अपनी बूढ़ी थकान के लिए
अपने बैठने भर की यह अमूल्य जगह
सही है कि सभी जगहें भरती जा रही हैं
तब भी इतना तो खिसक ही जाएँ
कि वो भी खिसक सके किसी के लिए
जब जगह की बहुत कमी हो
किसी के लिए बोया जा सके थोड़ा आराम
3. आखिरी लोकल
लौट रही है आखिरी लोकल
पूरी उम्मीद के साथ
पटरियों पर फिसलते हुए समय के बीच
थके हुए दिन का बोझ उठाये
दरवाजे से लटका है एक आदमी
और बोगियों में पसरी है
अपने ठिकाने की घनी प्रतीक्षा
चूल्हे पर पकाते हुए भूख
बुदबुदाती है बटुली
बच्चा नींद में लेता है पिता का नाम
प्रतीक्षा की झाड़ियों के बीच से
पुकारती है लौट आने की सीटी
सो रहे जीवन के बीच
जगाते हुए गुजरती है आखिरी लोकल
4. कथा एक देश की
कोई एक देश था जिसमें रहते थे कई
देश के लोग
एक एक लोग में कई कई देश थे
कुछ एक की इच्छाओं के विरुद्ध
कुछ एक रहते थे साथ साथ
साथ रहने से ही वह देश था
देश के कारण वे साथ साथ नहीं थे
देश के बाहर कई दूसरे देश थे
लोग दूसरे नहीं थे
देश और लोगों के बीच सुख अलग अलग थे
दुख नहीं
सबके हिस्से से बना था देश
देश नहीं था सबके हिस्से में
हिस्से की लड़ाइयों के बीच
जिनके लिए देश था
वे मर रहे थे
और जिन्हें देश नहीं लोगों से काम था
वे पढ़ा रहे थे देशभक्ति के साथ देश का इतिहास
देश के कुछ हिस्से में जादुई अंधेरा था
बदलते हुए भेष और भय के साथ
जादूगर था अंधेरे के क़िले में
जादूगर के पास कलाएँ थीं
भाषा का सम्मोहन था
चमत्कार थे चोंगे में छिपे हुए
देश के लोगों के पास क़िस्से थे जादूगर के ढेरों
मशहूर थी उसकी जादूई शक्तियाँ
देश के कई हिस्सों में पूजनीय था वह
अपनी इच्छाओं को बदलते हुए लोगों की इच्छाओं में
अपने तरह की चाहता था दुनिया लोगों की दुनिया में
अंधेरे क़िले की राह में कुछ जगे हुए लोग थे
लोगों के पास जलती मशाल थी
मंत्र थे गीतों में ढले हुए
उम्मीद और साहस के घोड़े पर सच की धारदार तलवार लिए बढ़ रहे थे
लोग थे वे देश के ही लोग थे
वे जो लोग थे कुछ लौटे थे युद्ध से अभी अभी
कुछ गेहूँ की फसल रात भर काटकर
कुछ वादा करके लौटे थे
कमाधमा कर लौटेंगे ज़्यादा इस बार
कुछ और जो किताबें घर छोड़ आए थे
स्त्रियाँ थीं बच्चों के भविष्य का वजन उठाए
कवि कलाकार थे अपनी कलाओं से रचे हुए
सही रास्ते की पहचान का संकेत
कुछ और भी थे जो कहीं दर्ज नही थे
यह जो कोई देश था
जिसमें रहते थे कई देश के लोग
उनका एक ही देश था
तो तय था झूठे जादूगर के सम्मोहन का अंत
ढहना अंधेरे के क़िले का
कथा का सुखद अंत तय था मेरे दोस्त
5. मैं रोटी चाँद और सूरज
बचपने के दिनों में दिन जैसे भी थे अपने थे
आधे तिहे या पूरे
उनमें पूरी रोटी थी पूरा चाँद
और लाल चमकता हुआ सूरज भी
जिसे रोज़ घर जाने की बड़ी जल्दी थी
रोटियों के जले हुए धब्बे काजल के पवित्र टीके थे
जो बचाते थे बुरी नज़रों से हमारी भूख और हमारी ताक़त के पहाड़
जब कि चाँद पर सूत कातती बुढ़िया देखने के कुछ देर बाद ही
एक झुके हुए बरगद के पेड़ में बदल जाती थी
जिसके कंधों पर आदमी के होने न होने के सवाल लदे होते
सूरज हमारी नींद का हत्यारा था
लेकिन विज्ञान की स्थापनाओं की तरह उसके चेहरे पर धब्बे नहीं थे
सभ्यता के निर्माण में रोटियाँ पुरज़ोर शामिल थीं
हालाँकि गढ़ने वालों के हिस्से में कभी आधी कभी पूरी थी
जब कि चाँद सौंदर्य की परिभाषाओं में गिरफ़्त स्त्रियों का चेहरा ओढ़े
लगातार अंधेरी रात में बिखेरते हुए अपनी शांत निर्लिप्त उजास
नए सपने रच रहा था
और सूरज हमारे सीने में धँसा हुआ गढ़ रहा था भविष्य की लड़ाइयों के लिए तपती हुई लाल तलवारें
सभी अपनी यात्राओं पर थे
ग्रहों उपग्रहों के साथ क़दमताल करते हुए
ना ही समय रुक रहा था और ना ही चींटियाँ
जिन्हें अपनी ज़िंदगी के क्षणों को घंटों में बदलना था
रुका मैं भी नहीं था
ना ही मेरे साथ रोटी ,चाँद और सूरज
सभी लेफ्ट राइट ,लेफ्ट राइट करते हुए
समय की दीवार पर ठोकरें मार रहे थे
लेकिन धरती के सभी हिस्सों में
कोई भी एक साथ नहीं था
ना ही मैं ,न रोटी ,न ही चाँद और सूरज
एक मैं था जो दिन में बचे रहने की लड़ाई के बाद
अपनी खुली छत से चाँद को निहारते हुए सूरज तक जाने की कल्पना में लीन रहता था
जब कि मेरी पत्नी के उदास थके चेहरे पर
चाँदनी के एक टुकड़े का भी अकाल था
धप में चिटक चुके मेरे बच्चों के मन में
गर्म रोटी और ठंडे चाँद की कल्पना तक न थी
लेकिन सूरज का ताप उनकी त्वचा भरपूर पहचानती थी
हमारे हिस्से के जीवन में सूरज और भूख की आग ज़्यादा थी
चाँद हमारी नींद में भी नहीं था
जीवन की पथरीली पहाड़ियों पर जब भी चाँद की सूरत लिखने की कोशिश की
तमाम कोशिशों के बावजूद
आधे से ज़्यादा रोटी ही रहा
जब कि भूख की बढ़ती हुई अन्धेरी गुफा में
रोटी लिखते हुए एक इच्छा बार बार होती है
कि रोटी को रोटी लिखूँ
रोटी को चाँद लिखूँ
कि लिख डालूँ रोटी के सीने पर
आग या कि उसे पूरा का पूरा सूरज लिख डालूँ
6. कबूतर
जून की इस दुपहरी में
अभी अभी आ टपका है
मेरी छांव के नीचे एक कबूतर
मर रहे शरीर में
जीवित हैं उसकी आंखे
इन आंखों में शहर का आसमान
काला होता दिख रहा है
उसकी चोंच में फंसी है
एक पूरे सूरज की गर्मी
एक पूरे शहर की प्यास
पानी अब ढकी नालियों में है
लोहे के पाइपों में छुपा हुआ
चुपके से आते जाते घरों में
वह टोटियों को जानता है
चोंच नहीं पहचानता
कबूतर के साथ
मर रहा है शहर
और सड़क के पार
वॉटर एटीएम का बोर्ड
बता रहा है
पानी की कीमत
7. किसान -एक
थोड़े बचे हैं
हमारे खेत
हमारी डेहरी में
धान थोडे़
बची है थोड़ी उम्मीद
थोड़े बीज के साथ
आखिरी बचा है
अपना कंधा
जीवन हल में
एक ही बैल
बची है अकेली छत
अकेलेपन के साथ
सर पर बचा हैं
कुछ कर्ज
मेहनत के हिस्से में
किसानी फर्ज
बचा है कुछ उधार
आदमी होने के साथ
कुछ ही बचा है
तपता लोहा
उमर् की भट्ठी में
गलता हुआ
लेता हुआ आकार
तेज धार के साथ
8. खत्म हो रही है पृथ्वी
खत्म हो रहे हैं बाघ
साहस खत्म हो रहा है
गौरैया खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है
बच्चों का फुदकना
फूल खत्म हो रहे हैं
खत्म हो रही है रंगों की भाषा
नदी खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है धमनियों में लहू
जंगल खत्म हो रहा है
खत्म हो रही हैं सांसें
इस तरह
हमारी नींद के अन्धेरे में
खत्म हो रही है पृथ्वी
9. हवा से प्रार्थना
हवा बहो
बहती रहो लगातार
बिना रूके जैसे गांव की नदी
तुम दौड़ो
जैसे खून दौड़ता है
हमारी नसों में
रात के अन्धेरे मे
दौड़ते हैं बेशुमार सपने
हवा बहो
बहती हुई जाओ
मेरे गांव की गलियों तक
दे आओ हमारा सन्देश
दूर शाम ढले खेतों से लौटते
मां बाबूजी को
गांव की दहलीज पर
पूछना बूढे पाकड़ से उसका हालचाल
और नदी से कहना
मैं रोज करता हूं उसे याद
हवा घूमना
घूमकर मारना जरूर एक चक्कर
जहां हमने खेली कबड्डी लच्ची डांड़
और गोल चीके
गलियों में भी मारना
जरूर आ रही होगी
आइस पाइस की आवाज
देखना मां का चौका
जहां हमने छीनी एक दूसरे की रोटियां
और सब्जियों में बने साझेदार
हवा लौटना
और लौटती बेर ले आना
गांव गिरांव की चिट्ठी पतरी
मेरी प्रिया के लिए
हंसते पीले सरसों के फूल
ले आना गायों की ममता भरी आवाज
मां की रोटी की सोंधी सुगन्ध
बथुए का साग आम का आचार
खेत की मिट्टी से पसीने की बास भी
हवा चलना
और चलती बेर पूछ लेना
बड़े बूढ़ों से उनकी तबीयत
बूढ़़़ी अम्मा से ले आना
उनके पोपले मुंह का आशीर्वाद
टेकना माथा मेरी ओर से
गांव के सभी देवता पितरों को
और आखिर में जब लौटना
गांव की चौहद्दी को बोलना प्रणाम
हवा लौटना
और जल्दी लौटना
10. जंगल कथा
सूरज लाल है
लाल है हमारी आंखों में
बधें हुए बाजुओं की कीमत
कि हमारी सांसे
हमारे ही जंगल की
ज़रखरीद गुलाम बन चुकी है
हमारे पहाड़ हमारे नहीं रहे
नहीं रही उनके चेहरे पर
हमारे मांसल सीने की कसी हुई चमक
तेंदु के पत्तों से टपकता
हमारी औरतों का खून
हमारे भालों बरछों लाठियों पर चमकता हुआ
लाल सलाम
हमारी भूख
हमारी प्यास
रात के जंगली अन्धेरे में
बच्चों के गले से निकल कर
हमारी आत्मा की सन्तप्त गलियों में
आवारा बनी हुई
चीख रही है
उलगुलान उलगुलान
हमारे बाहों की मछलियों के गलफड़ो में
चमकती हुई हमारी लाल होती आँखें
महुए की तीखी गंध से सराबोर
उन्मत्त हवाओं की ताल पर
मादल की थिक-थिक-धा-धा……
धा-धा…धिक-धिक…धा के साथ
रेत बजरी के विशाल सीने पर
कोयले की कालिख में पुती
चीखती हैं
आओ हमारे सीनो और बहन बेटियों को रौंदने वालों
जंगल पहाड़ नदी के आँगन से
हमारे छप्परों का निशान मिटाने वालों
तुम्हारे दैत्याकार बुल्डोजरों मशीनों की विशालता
हमारे बच्चों की अन्तहीन चीखों से बड़ी नहीं
नहीं है तुम्हारे जेबों के कोटरों के बीच
हमारे छोटे सपनों का भरपूर नीला आसमान
और ना ही तुम्हारी आँखों में अपनेपन का कोई अंखुआ
पूर्वजों के हथेलियों से गढे
हमारे तपे हुए सीने की कथा
तुम्हारे विकास की गाथाओं से परे
रची गयी है
धरती के धूसर और पथरीली ज़मीन पर
जंगलो के हरे केसरिया रंगों से
जिनमें हमारे शरीर का नमक चमकता हुआ
तुम्हारे सूरज का मात देता है
सुनो सुनो सुनो
जंगलवासियों सुनो
खत्म हो रहा है
हमारे सोने का समय
आ रही है पूरब से
जंगल के जले हुए सीने की चीख
आ रही है चिडि़यों के जले हुए शरीर से
मानुख की गंध
हो रहा है खत्म
मदमस्त करने वाली थापों पर नाचने का समय
आ रहा है धुएं के बादलों के पीछे से
हमारे वक्त का अधूरा सूरज
जिसकी अधूरी रोशनी में
हमारा गुमेठा हुआ भविष्य
हुंकारता है
बढ़ो बढ़ो आगे बढ़ो
और कहो कि समय का पहाड़
हमारे बुलन्द हौंसलों से ज्यादा ऊंचा नहीं
ना ही हमारे निगाहों के ताब से ऊंचा है तुम्हारा कद
11. माँ बाबूजी
कोई चेहरा नहीं है
बाबूजी के साथ खडी
माँ की तस्वीर में
पूरा घर है
खिडकियों और दरवाजों के साथ
और बाबूजी
दिवारों से दिख रहें हैं
धोती के आखिरी छोर को पकड़े हुए
चुप शान्त
माँ उम्मीद है
चूल्हे में जलती हुई भूख के बीच
बाबूजी लकडियां
लकडियां जितनी जलतीं
आग उतनी देर बची रहती
हमारी भूख के साथ
बाबूजी के पढ़ाये पाठों में
“क” से कबूतर नहीं
काम होता है
कभी-कभी
माँ किवाड़ दिखती है
बाबूजी सांकल से लटकते हुए
हमारी आवाज पर
किवाड़ खुलता
बाबूजी नहीं खुलते कभी
बजते हैं बेसुरे आवाज के साथ
जब माँ मायके होती
या किसी रिश्तेदार के यहाँ
बाबूजी संभालते घर
इस बीच इतनी दिवारें उग आतीं
बाबूजी हमारे बीच
कि खेलने की हर जगह गुम हो जाती
और छुपने की जगह पर
बाबूजी छुपे मिलते
दिन में नमक बढ़ जाता
रात में मिठास पहले जैसी नहीं होती
घर का हर सामान अपना पता भूल जाता
और माँ लौटने पर पूछती
क्या हाल कर रखा है घर का
बनाने में काफी समय खर्च होगा
बाबूजी किनारे हो देखते
घर को घर की जगह लौटते हुए
कई वर्षो से दिवार पर टंगी तस्वीर
महज एक तस्वीर नहीं है
उपस्थिति है माँ बाबूजी की
धोती के कोर को पकड़े बाबूजी से
अक्सर माँ कहती है
छोडों न धोती को
मुनुआ की उंगली पकड़ो
अभी भी संभल नहीं पाता है
गिर जायेगा तब
पहाड़ से लौटते हुए
12. पहाड़ से लौटते हुए
हम सोचते हैं पहाड़ को
क्या पहाड़ सोचता होगा हमारे बारे में ?
पहाड़ पर चढ़ते हुए
हम पहाड़ नहीं चढ़ते
उतरता है पहाड़ हमारे अंदर
एक एक कदम रखते हुए
पहाड़ का आदमी उतरता है
कंधे पर चाय बगान लादे हुए
पहाड़ पर बीनते हुए जीवन के हिस्से
गाती है पहाड़ी औरत
पहाड़ के बचे रहने की उम्मीद
पहाड़ बजाता है बांसुरी संग साथ
पीछे छोड़ते हुए पहाड़
हम पहाड़ नहीं छोड़ते
अपना चौड़ा सीना छोड़ आते हैं
छोड़ आते हैं अपने ऊँचें होने का विश्वास
पहाड़ हम तुम्हें नहीं छोड़ते
अपना ऊँचा मस्तक छोड़ आते हैं
पहाड़ से लौटते हुए
आदमी सोचता है पहाड़ को
और पहाड़ को लौटता हुआ आदमी
अपने परिवार की भूख को
बार बार करता है याद
13. समय
समय कुछ नहीं कहेगा
हर लेगा तुम्हारे दुख
तुम्हारी हार को
बदल देगा जीत में
निशान तो छोड़ेगा
लेकिन भर देगा तुम्हारे घाव
वह आएगा चुपके पाँव
और सरक जाएगा
तुम्हारी बन्द मुट्ठियों के बीच होता हुआ
तुम झूठ बोलोगे
समय सच कह देगा
तुम कहीं भी कुछ भी छुपाओगे
वह ढूँढ ही लेगा
वह छोड़ देगा तुम्हारे हर अपराध का सबूत
समय माफ नहीं करेगा
वह तो हिसाब करेगा
एक एक पाई का
कमाने का गंवाने का
पूरा और पक्का हिसाब
समय तुम्हें याद रखेगा
यदि रखोगे तुम उसे याद
नहीं तो उससे बड़ा भुलक्कड़
पूरी जवार में कोई नहीं
लेकिन जब तुम भूल जाओगे
अपनी यात्रा के बीते हुए पड़ाव
पार की हुई नदियों गुफाओं की याद
उन तमाम जिन्दगी के हिस्सों को
जिससे गुजरते हुए तुम पहुँचे यहाँ
वह लगाएगा पुकार तुम्हारी
तुम्हारी पूरी पहचान के साथ
समय अपनी बात कहेगा
तुम सुनो या न सुनो
जब भरोगे आसमान से उँची उड़ान
वह रखेगा तुम्हारे कंधे पर हाथ
जब भी उतरोगे अंधकार की गहन गुफाओं में
वह थाम लेगा तुम्हें
रोशनी के बनाते हुए पुल
करायेगा पार
इस पार से उस पार
समय कुछ नहीं कहेगा
उठेगा झाड़ेगा अपनी तुम्हारी गर्द
चल देगा तुम्हारे साथ चुपचाप
हर बार गिरने के बाद
14. कवि
पहले लिखा
जीवन
फिर लिखा
कठिन
दुबारा लिखा
जीवन
फिर लिखा
दुःख
तिबारा लिखा
जीवन
फिर लिखा
मृत्यु
चैबारा लिखा
जीवन
फिर लिखा
सुबह
…………………………….
और अन्त में लिखी
कविता
15. पृथ्वी
उसने पूछा
क्या लिखते हो
मैंने कहा तुम्हारा नाम
नाम में क्या रखा है
उसने सोचते हुए कहा
हरी गोल पृथ्वी
मैंने बिना सोचे कहा
हरी गोल पृथ्वी
उसने मुझे देखा
मैंने उसे बाहों में लिया
चूमा
वह हरी होकर
गोल पृथ्वी में बदल गई
कवि ज्ञान प्रकाश, जन्मः बलिया, (उत्तर प्रदेश) शिक्षाः एम. ए. (हिन्दी साहित्य), बी. एड. (विशिष्ट शिक्षा), पीएच. डी. (हिन्दी साहित्य) प्रकाशनः नाटककार भिखारी ठाकुर की सामाजिक दृष्टि (आलोचना)। प्रेम को बचाते हुए (कविता संग्रह)। वागार्थ, कादम्बिनी, समकालीन भारतीय साहित्य, परिकथा, कल के लिए, अनहद, प्रगतिशील आकल्प आदि पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। सम्मानः वागार्थ, कादम्बिनी, कल के लिए, प्रगतिशील आकल्प आदि पत्रिकाओं द्वारा कविताएं सम्मानित। प्रेम को बचाते हुए (कविता संग्रह ) पर मलखान सिहं सिसौदिया कविता पुरस्कार। संप्रतिः संपादक (कविता केन्द्रित पत्रिका ‘कविता बिहान)।
सम्पर्क: 08303022033
टिप्पणीकार शालिनी सिंह, जन्म स्थान-लखनऊ
शिक्षा-एम ए,एम फ़िल,पी एच डी (हिन्दी)
प्रकाशन-विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन
लखनऊ से साहित्यिक संस्था सुख़न चौखट का संचालन
सम्पर्क: ईमेल: Satyshalini@gmail.com
फ़ोन: 9453849860