समकालीन जनमत
कविता

चित्रा पँवार की कविताएँ कातर स्त्री मन से बूंद-बूंद रिसती ध्वनियाँ हैं

अणु शक्ति सिंह


मैं चित्रा पँवार की कविताएँ पढ़ रही थी। उन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार खयाल आया कि इन कविताओं का एक साम्य धरती से ज़रूर बैठता है। या, यों कहा जाए इन कविताओं में स्त्री ठीक धरती की तरह अपनी धुरी पर घूमते हुए, पूरे सौर मंडल का एक चक्कर लगा आती है। मैं यह पढ़ ही रही थी कि अचानक मेरी नज़र उनकी ग्यारहवीं कविता के दूसरे खंड में वर्णित हिस्से पर गई। वहाँ वे लिखती हैं, यकीनन पृथ्वी स्त्री ही है।

इन कविताओं से गुजरते हुए एक अनिर्वचनीय भाव बार-बार गोचर होता है। एक उत्कंठा लगातार सामने आती है। कहने की, कई बार बस कह देने की… एक गहन चुप्पी रही है अब तलक। दु:ख जो है, वह शिराओं में रक्त के साथ प्रवाहमय है। कविताएँ बारीक धार वाली औजार हैं जो इस सिद्धहस्तता से दु:ख पर चलती हैं कि वह बूंद-बूंद टपकने लगे। शरीर से अधिक मन से बाहर हो जाए।

अंग्रेज़ी की एक बेहद कमाल की फिल्म है, डेड पोएट्स सोसाइटी। इस फिल्म का युवा क्रांतिकारी शिक्षक कविता के विषय में कहता है, हम कविता इसलिए नहीं लिखते और पढ़ते हैं कि यह बहुत प्यारी चीज़ है। हम कविता इसलिए पढ़ते और लिखते हैं कि हम मनुष्य हैं। मनुष्य होना जुनून से भर उठना है। चिकित्सा, कानून, व्यापार, तकनीक, ये सब के सब शानदार काम हैं और जीवन जीने के लिए ज़रूरी हैं पर कविता, सौन्दर्य, इश्क़ और प्रेम वे चीज़ें हैं, जिनके लिए हम जीवित हैं। चित्रा पँवार की कविताएँ इसी आख्यान की कविताएँ हैं। जीजीविषा पूर्ण उन कविताओं का आरंभ बुद्ध को की जा रही एक इल्तिजा से होता है।

यह बुद्ध की उस मूँदे नेत्र वाली शांत छवि से की गई एक प्रार्थना है, एक ज़िद है, मनुहार है… कहीं न कहीं दुहाई भी है उस मनुष्यता की खातिर जिसका आह्वान बुद्ध ने अपने सभी पिटक, अपने तमाम उद्धरणों में किया है। यह संकल्पना अपने आप में कितनी अनूठी है कि अहिंसा को जीवन-सिद्धांत मानने वाले बुद्ध से आँखें खोलने को कहा जा रहा है कि सभ्यता और मनुष्यता का रोज ह्रास हो रहा है फिर भी बुद्ध के चेहरे पर नीरव शांति है। प्रख्यात दक्षिण अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू का एक कथन है, “अगर नाइंसाफ़ी के वक़्त आप निष्पक्ष या संतुलनवादी होना चुनते हैं, तो आप दमनकर्ता की तरफ़ हैं।”

इस समय में जब सभी ओर घना अंधकार है, कवि बुद्ध से आह्वान करती है कि –

ये सोने का नहीं
धुआं–धुआं दुनिया को सुलगने से बचाने का समय है
डूबते सूरज को हथेली पर रखकर
अंधेरों से लड़ने का समय है

टूटू कवि होते तो अपनी बात शायद ऐसे ही रखते। यह कविता एक स्त्री की है। स्त्री जिसे न्याय चाहिए केवल अपने लिए नहीं, अपनी पुरखिनों की खातिर भी। वह बुद्ध से यशोधरा के खिलाफ किए हुए अन्याय का पश्चाताप करने को कहती है। जागने को कहती है।

पिता कविता में परिवार के उस पुरुष की बात होती है, जिसके पास पुरुष होते हुए भी बेटी के लिए सबसे अधिक जगह है। वह ज़िंदगी की किल्लत में भी बेटी के लिए सुखद भविष्य की कल्पना करता है। मायका शब्द की उत्पत्ति में भले ही ‘माँ’ लफ़्ज़ हो, मायका होता पिता की उपस्थिति से है।

पिता को याद करती वही बेटी जब जंगल की लड़की से मिलती है तो एक रश्क में डूबती है। मीठी जलन, जिसमें उसका प्रेमचंद के बड़े घर की बेटी की तरह खुद का बंध जाना है। जंगल की बेधड़क, बेखौफ़ लड़की को देखते हुए वह सहज ही उष्ण हो जाती। उसे तौलती है अपने जीवन से और सराहना की एक ध्वनि से…

“वह ध्वनि जो उस औरत की कलप में बदल जाती है जिसे स्त्री होने का सबसे स्याह पक्ष देखना पड़ता है।”

मर्दों के लिए वह रात का चमकीला रंग और दिन की कालिख थी
सभ्यता की सबसे शरीफ़ बस्ती में वह अकेली बदचलन औरत और
दूसरों के पाप धोकर मलिन हुई गंगा थी
सरकारी ज़मीन थी वह, जिसपर कब्जा जमाने की होड़ में मानवता नित शर्मसार होती रहती..

ज़मीन और जोरू को एक तौल में रखने वाले समाज में एक स्त्री की नियति ही इतनी कठिन हो सकती है कि वह रात में पुरुषों की वासना झेले और दिन में उनकी कोसनाएँ

चित्रा पँवार की कविताएँ स्त्री के पक्षों को जुदा अंदाज़ में देखती और परखती हैं। उन्हें जस का तस पाठकों के समक्ष रखती है पर यह भाषा की कलात्मकता है कि पाठक दृश्यतामक रूप से उन कविताओं से बंध जाता है।

 

चित्रा पँवार की कविताएँ

1. कुशीनगर के बुद्ध

सो रहे हो बुद्ध!

जब दुनिया में मची पड़ी है हाहाकार
गाजर–मूली से काटे जा रहे हैं इन्सान
बम धमाकों से दहल रही है धरती
चारों ओर फैला है हिंसक नारों का शोर
जाने कैसे सो रहे हो बुद्ध!!

अब भय से रोते, चीखते नहीं बल्कि
सिसकियां दबा रहे हैं बच्चे
गोली की आवाज़ पर कोई बुरा सपना देख
रात को चौंक–चौंक उठती हैं माँएं
काम खत्म कर दफ्तर से निकले आदमी
जब नहीं पहुंचते अगली सुबह तक घर
तब तुम्हारी नींद पर
प्रश्न उठना लाज़मी है बुद्ध..!!

कैसी शांति है मुखमंडल पर
जो मरती हुई सभ्यता पर भी अटल है
जो रुदन से भी द्रवित नहीं होती
ध्यान मुद्रा से बाहर आओ बुद्ध
बचा सकते हो तो
अहिंसा परमो धर्म: को
हिंसा के हाथों मरने से बचा लो बुद्ध!

हे बुद्ध!
ये सोने का नहीं
धुआं–धुआं दुनिया को सुलगने से बचाने का समय है
डूबते सूरज को हथेली पर रखकर
अंधेरों से लड़ने का समय है
जागो बुद्ध!
तुम्हें पुकार रहे हैं अनगिनत राहुल
असंख्य यशोधराएं
यह जानते हुए भी
कि तुम छोड़ आए थे पत्नी और पुत्र को सोते हुए
उठ बैठो बुद्ध, शरणागत की रक्षा करो
कि पश्चाताप का
सबसे सही समय यही है…!

2. प्रेम का गणित

लड़का गणित का छात्र था
उसने प्रेम में भी गणित ढूंढा
संबंध जोड़ते समय लाभ हानि के प्रतिशत का गणित
लड़की के प्रेम आग्रह को स्वीकार करने से पूर्व वह
आश्वस्त हो जाना चाहता था
अच्छे बुरे की तमाम प्रायिकताओं के प्रति
लड़का गणित के प्रश्न कागज पर नहीं
लड़की की देह पर उसके आंसुओं की स्याही से सरल करता
वह उसे तब तक तोड़ता
जब तक की वह छोटे से छोटे अभाज्य गुणनखंडो में विभाजित न हो जाती
लंबाई, चौड़ाई, क्षेत्रफल, परिमाप, परिधि का ज्ञान
उसने कक्षा में नहीं
उसकी देह पर ही सीखा था
जब आकृतियों को पढ़ने का जी चाहता
वह उसे आड़ी तिरछी रेखाओं में तोड़ मरोड़ कर
त्रिभुज, चतुर्भुज जो चाहे बना लेता
प्रेम में नित समझोतें करती लड़की की पीठ
आए दिन झुक रही थी गोलाकार
इसलिए उसे वृत्त के सवाल हल करना सबसे सरल लगता
लड़की में रूप और गुण की कोई कमी न थी
किन्तु उसके लिए वह मात्र औसत ही रही
वैल्यू निकालते समय वह एक्स की जगह
लड़की का नाम लिखता
और बहुत कम आँकता
लड़की उसके जटिल प्रश्न से प्रेम के
बड़े, मझले फिर छोटे कोष्ठक में बंद उस बंधन को प्रेम समझती रही
लड़की ने पढ़ा था
बिहारी को
प्रेम हरी को रूप है
वह रैदास को पढ़ कर जानी थी
ढाई आखर का पांडित्य
मीरा का प्रेम के लिए विषपान
वह उर्मिला, यशोधरा की तरह प्रेम में जलना
पद्मावत की तरह मरना जानती थी
वह गणित भी जानती थी केवल प्रेम का गणित
प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तें दूसरो आँक नहीं
उसके लिए गोल का अर्थ था अपरिमित, अनंत, अपार
जिसका कोई अंत ना हो अर्थात सब कुछ
लड़के के लिए गोल की
परिभाषा थी शून्य
मतलब ‘कुछ नहीं’ …

3. पिता

बिदाई के समय
रोती सुबकती नवब्याहता को समझाती
स्त्रियां कह रही हैं
मायके की ओट पहाड़ जैसी होती है
जब भी मन करें चली आना
रोती क्यों हो !!
जबकि जानती हैं वो सब
ओट मायके की नहीं
पिता की थी
बेटी और उसके दुखो के बीच
पिता अपनी बूढ़ी कमर को इतनी सख्ती से
साधे खड़े रहे
कि एक दिन पहाड़ बन गए
उसके सारे दुखों को अपनी काया में समेटते पिता
बार–बार यही दोहराते
न पहाड़ रोता है, न पुरुष रोते हैं
मगर वह भूल जाते
बेटियों का पिता मात्र पुरुष और पहाड़ नहीं होता
उनकी चिंता में घुलता, पिघलता
तरल हृदय भी होता है
गले तक दुख से भरे
पहाड़ पिता
एक दिन नदी बन कर फूटे
और धराशाई हो गए
संयुक्त हिचकियों के स्वर से गमगीन मंडप में
धीरज बंधाती बड़ी मां
भरी आँखों से याद कर रही हैं
पिता के चिता पर गिरते ही
कैसे भरभरा कर गिरा था उनके मायके का पहाड़
चाची को याद आ रही है
ले जाने का जवाब लेकर आई भईया की चिट्ठी
अब वहीं रहो, वही तुम्हारा घर है,
छोटी–छोटी बातों पर यूं तुनकना छोड़ दो,
अब तुम बच्ची नहीं रहीं
दादी मुंह में पल्लू दबाए
याद कर रही हैं पिता की अनदेखी छवि को
वो होते तो साठ साल के बूढ़े के साथ
बारह बरस की बेटी को कभी ना बांधते
मां जिनकी धूमधाम से शादी करने का ख़्वाब
साथ लेकर ही नाना स्वर्ग सिधार गए
उनकी अलमारी से अच्छी खासी रकम, जेवर और एक चिट्ठी भी मिली
जिसमें लिखा था
मेरी बावली बिटिया की शादी के लिए
मां के कानों में आज भी पिघले सीसे की तरह तैरते हैं
भाइयों के कहे शब्द
इसे राजाओं के घर ब्याहने के लिए
अपने बच्चों को क्या भिखारी बना दें !!
मिश्रानी चाची को याद आ रहा है
मायके जाते ही
दलान में हुक्का गुड़गुड़ाते पिता का चहक कर पूछना
आ गई तू!!
और लौटते समय दूर तक छोड़ने आना
नजरों से ओझल होने तक निहारना
अपनी बिदाई, अपने पिता
अपने पहाड़ को याद करती स्त्रियां
मन ही मन आशीष रही हैं उसे
कभी ना छूटे तुम्हारा मायका
सलामत रहे तुम्हारा पहाड़
सलामत रहें तुम्हारे पिता…

4. जादूगरनी दिल्ली

अल्हड़, हंसोड़, बेफिक्र
गांव के बेरोजगार लड़के
पीठ पर उम्मीदों का भारी बोझ उठाए
सपनों की पोटली लिए
उतरते हैं कश्मीरी गेट
अपनी जवानी गिरवी रख
आधा पेट रोटी कमा
उदासी ओढ़े, बीमारी की पगडंडी थामे
झुकी कमर, थके पांव, खाली हाथ
अजनबी बन
लौटते हैं अपने गांव
जादूगरनी दिल्ली
सुख का तिलिस्मी महल दिखा
छीन लेती है
गरीब से
जिन्दगी के सारे असली रंग …!

5. जंगल की बेटी

घने एकांत वनों में
फिरती हो बेखौफ
कितनी सहजता से!
ऊंचे पेड़ों पर गुलाटी मार चढ़, उतर जाती हो
खाला का घर समझ
उछलती कूदती घूम आती हो पहाड़ की चोटी तक
नदी की तेज धारा से खेलती हो
शेर की दहाड़ पर बांस में हवा फूंक संगीत की मधुर धुन बनाती हो
बुलंद आवाज़ में वन देवी का कोई गीत गाती हो
हवा के बवंडर में गोल–गोल गुड़िया सी नाचती हो
हाथी की सूंड पर झूला झूलती तो कभी सांपों के हार बनाती हो
ओ जंगल की बेटी !
क्या तुम्हें डर नहीं लगता?
मैं कभी जंगल नहीं गई
वहां के जानवरों को नहीं देखा
पहाड़ नहीं चढ़ी
मां कहती है भले घर की लड़कियों को नाचना, गाना शोभा नहीं देता
घर से अकेले निकलना तो कतई नहीं…
फिर ऐसा क्या है
जो तुम्हें निडर और मुझे डरपोक बनाता है?
आखिर क्यों?
बंद घर में कैद रहकर भी
मेरे भीतर का डर नहीं जाता !
और एक तुम हो कि
खुले आसमान की चादर तान
धरती के कलेजे पर
बेधड़क सोती हो!

6. एक थी डायन

उसके गांव में नहीं बहती थी कोई नदी
जिसमें डूबकर वह पार हो जाए अपने दुखों से
दर्द के खदबदाते अदहन में उबलती उसकी देह ने
कई बार चाहा
पहाड़ की चोटी से जरीब बन सतह को नाप लेना
उस गांव में पहाड़ बसता था थोड़ा–थोड़ा सबों में
इसलिए भूमि पहाड़ विहीन दूर तक समतल बिछी थी
भादो की एक रात वह भागी थी कुंए की ओर… मगर उपयोगविहीनता ने उस कुएं को भी कूड़े का संग्रहालय बना दिया था
मैदान की रेतीली जमीन पर वह कुछ क्षण मछली सी फड़फड़ाती
फिर बिछ जाती चुपचाप
जैसे–जैसे कुम्हार की मिट्टी सी रौंदी जाती उसकी देह
वह गाली देती अपने कुल, पिता, भगोड़े प्रेमी, मरे हुए पति,
यहां तक कि अपने आप को भी
धरती लबालब भरे समंदरों के थाल हंसते–हंसते उठा लेती
मगर उसकी देह पर पसरा बोझ पृथ्वी को डांवाडौल कर जाता
उस पर बोलने के लिए सारा गांव था मगर उसके लिए बोलने वाला कोई नहीं
वो अक्सर दिन के उजास में दर्पण में देर तक निहारा करती
अपनी स्तन, जंघा, कमर और होंठों को
हाथ, पैर, मुंह जैसे ही खाल, मांस से निर्मित इन अंगों पर इतनी क्रूरता!!
इतनी भूख…!
छी… उसका मन घृणा से भर उठता
घना अंधेरा उसे दबोच लेता हर रात
दिन उगने से पहले उसके माथे पर बढ़ जाता एक ओर काला धब्बा
मर्दों के लिए वह रात का चमकीला रंग और दिन की कालिख थी
सभ्यता की सबसे शरीफ़ बस्ती में वह अकेली बदचलन औरत और
दूसरों के पाप धोकर मलिन हुई गंगा थी
सरकारी ज़मीन थी वह, जिसपर कब्जा जमाने की होड़ में मानवता नित शर्मसार होती रहती
वह गिड़गिड़ाती रहम की भीख मांगती
चीख–चीख कर सुनाती तथाकथित संभ्रांतों की हैवानियत के किस्से
वे उपेक्षा से हंसते मगर भीतर ही भीतर डरते
नंगों को नंगा होने से डरता देख
यह हँस पड़ती करुण हँसी
बच्चे पगलिया कहकर दौड़ा लेते दूर जंगल तक
खेलने खाने वालों के पेट और मन जब ऊपर तक भर गए
नए मनोरंजन की खोज स्वरूप उसे नवाजा गया
डायन की उपाधि से
अब वह अनाप–शनाप बकती हुई घूमा करती यहां– वहां
डायन की बात पर कोई कान तक नहीं धरता
एक दिन पंच बैठे, लोग जुटे
डायन के कारण गांव, फसल, पशुओं पर आ रही विपत्तियों पर चर्चा हुई
मृत्युदंड पर सर्व सहमति के साथ पंचायत ने निर्णय सुनाया
डायन को आग के घेरे में खड़ी करके लाठी–डंडों, पत्थरों से मारा जाए
जीते जी मरी हुई जिन्दगी जीने वाली अभागन आज मर कर जी उठी थी
लोगों ने राहत की सांस ली
अब सुरक्षित था उनका गांव, सुरक्षित थी उनकी इज्जत।
सुरक्षित थी शायद वो भी…

7. हताशा

मुट्ठी से फिसलती रेत सी
क्षण–क्षण घटती
तुम्हारी यादों की स्मृति
मैं चांद को देखती हूं
वह भी बुझ रहा है
रोज़ थोड़ा–थोड़ा
सामने पहाड़ पर जमी बर्फ
पिघल रही है धीरे–धीरे
हरसिंगार की चोटी पर बचा एकमात्र फूल
क्रान्तिकारी झंडे की तरह लहरा रहा है
आइस्क्रीम के ठेले की बगल में खड़ा
छोटा बच्चा
खनका कर देखता है अपनी गुल्लक
नहीं लूंगा, बहुत कम बचे हैं
कहता हुआ, उदास आगे बढ़ जाता है
मैंने उस जाते हुए बच्चे का हाथ थाम कर
तुम्हारी यादों की रेजगारी उसकी हथेली पर रख दी है
चांद का सिक्का उछल कर
गिरा है ठीक उसके पैरो के बीच
बर्फ की सफेदी से चमक उठी हैं उसकी नम आंखें
अभी–अभी पेड़ की शाखा से टूटकर
हरसिंगार उसके होंठों पर हँसी बनकर बिखरा है
यादें, चांद की उजास, बर्फ का जमना
और हरसिंगार की क्रांति से ज्यादा जरूरी है
किसी बच्चे को हताश होने से बचाना।

8. बाबुल मैं तेरे खूँटें की गईया

पिता के पास गाय थी
गाय जैसी बेटियां थीं
गाय के गले में रस्सी बंधी रहती
बेटियों के हाथ, पैर, गले के साथ–साथ
मुंह और आंखों पर भी रस्सी बंधी थी
गाय खूंटे के इर्द–गिर्द अर्धचंद्राकार घेरे में
घूम फिर सकती थी
बेटियां आंगन, चौबारे और दहलीज के भीतर तक
गाय खाने के बदले दूध देती, बछिया, बछड़ा देती
बेटियां बस खाती और दिन पर दिन बांस सी बढ़ती जातीं
घर के बाहर तथाकथित दुलारी थीं
सो गाहे बगाहे दहेज की झुंझलाहट भी झेलतीं
खिड़की से बाहर झांकती बेटियां
मन ही मन ललचातीं
कितना अच्छा हो अगर पिता दहेज ना देकर
उन्हें उनका आसमान दे दें
गाय भी आज़ादी के लिए कसमसाती, बेटियां भी
एक दिन गाय खूंटा तोड़ कर भाग निकली
मगर कुछ दूरी पर ही पकड़ ली गई
दो चार लाठी मार पड़ी
थोड़ी देर बाद सहलाहट के साथ चारा भी मिल गया
उसके अपराध से बड़ी उसकी उपादेयता थी
बेटियों को आसमान बुलाता
आओ मेरे पास,
तुम नहीं जानती कि तुम उड़ सकती हो
बाज से भी ऊंचा
वे जानती थीं
पिता की हैसियत कितनी भी ऊंची क्यों न हो
वह दहेज दे सकते थे आसमान नहीं
बेटी ललचाई
साहस बटोर कर बोली
मैं आ रही हूं मेरे आकाश मेरी राह देखना!
हाथ पैर के बंधन खोल कर उड़ने ही वाली थी
मगर इतने में खींचकर धर दबोच ली गई
गले की रस्सी के शिरों पर
विपरीत दिशा में एक जोरदार खिंचाव
और अगले ही पल
गाय सी देह जमीन पर पड़ी थी
उसके मन की आज़ाद चिड़िया
पिंजरा तोड़ आसमान में उड़ रही थी
बेखौफ ।

9. किताबें

जिसके पास किताबें हैं
उसी के पास है जंगल
व्यथा है, संवेदना है
सच्चा मित्र है
गुरु है
माता–पिता हैं
मिट्टी की सुगंध और
पानी की सरलता है
इतिहास के सबक
भूगोल के रहस्य हैं
भाषा का स्नेह है
पहले प्रेम का चश्मदीद गवाह और
प्रेम पत्र रखने की सबसे महफूज जगह है
जिसके पास किताबें हैं
वही है दुनिया का सबसे
सुखी, अमीर, विद्वान आदमी
सबसे अधिक ईर्ष्या का पात्र भी वही है …

10.  मरीचिका
इन टिमटिमाते तारों को देख रहे हो?
ऐसे ही जलती बुझती है
मेरे सीने में उम्मीद की लौ
आधी रात दूर जंगल में हुल्लड़ मचाते सियार
भय पैदा करते हैं तो अगले ही पल
महक उठती है तुम्हारी आंखों की रात रानी
तुम देख रहे हो नदी के उथले किनारे
और मैं देख रही हूं बीच का भंवर
तुम खुश हो दूर क्षितिज में जमीन–आसमान को मिलते देख

मैं उदास आंखों से देखती हूं उनके बीच कभी न मिटने वाला अंतराल
यूं तो हम दोनों के शहर की छत पर रोज आता है चांद
मगर कितनी अलग हैं हमारे हिस्से की रातें
पूर्णिमा का गोल दूधिया चांद उतरता है तुम्हारे स्वप्न थाल में
और मैं तीज की बारीक हंसिया ले काटने लगती हूं अपना पाथर दुःख
सच कहूं तो मुझे अपनी नाउम्मीदी से नहीं
तुम्हारी उम्मीदों से डर लगता है
दिन दहाड़े ठगे जाओगे किसी दिन
प्रिये!
प्रेम में सुख पतझड़ी पेड़ की पत्तियों सरीखा होता है
इतना भरोसा ठीक नहीं
जिस वक्त खबरों के केंद्र में हो युद्ध, प्रशंसा के केंद्र में हत्यारे
वणिक मस्तिष्क बन बैठा हो हृदय की हरित भूमि का स्वामी
उस समय में प्रेम के जीवित बचे रहने की कितनी उम्मीद है?
अभी भी समय है
उतर जाओ कल्पना के स्वर्ण रथ से नीचे
प्रेम को सुला आओ जमीन की कोख में कहीं गहरे
अभी अनुकूल नहीं है मौसम
जो प्रेम किया जाए
अभी नथुनों में भरती है बारूद और खून की मिलीजुली गंध
कान के परदों में अनवरत चुभ रही है
चीख पुकार की नुकीली सुई
दृश्य ऐसे की दृष्टि खो देने का जी चाहे
पहले रंगमंच पर खेला जा रहा नफरत का मंचन रोको
गिरा दो परदा !!
फूल, नदी, पहाड़, चिड़िया के चित्र लगाओ
अंधेरा समेट कर रख आओ किसी निर्जन गुफा में
आशाओं का दीप जलाओ
आपदाओं के अभेद चक्रव्यूह में उतरो
खंड खंड होती दुनिया में एक होने के लिए लड़ो
हारोगे या जीत जाओगे
कहा नहीं जा सकता
प्रेम में कुछ भी निश्चित नहीं सिवाय दुख के…

11. स्त्री पृथ्वी है

(लंबी कविता)

1)
आसान कहाँ
किसी सूरज के प्रेम में
पृथ्वी हो जाना
ना चुम्बन, ना आलिंगन
ना धड़कनों पर कान धर
सांसों का प्रेम गीत सुन पाना
बस दूर से निहारना
और घूमते रहना
निरंतर
मिलन की प्रतीक्षा लिए
उसी दुखो भरे
विरह पथ पर

2)
यकीनन पृथ्वी स्त्री ही है
जो घूमती रहती है उम्रभर
किसी के प्रेम में पड़कर
उसके घर, परिवार
बच्चों को संभालती
चकरघिन्नी बनी
समेट लेती है अपनी दुनिया
अपना सारा वजूद
बस उस एक के इर्दगिर्द

3)
स्त्री अगर किसी से प्रेम करती है
तो कभी
उसका साथ नहीं छोड़ती
फिर भले ही उसे
लाख तपिश क्यों न सहनी पड़े
झुलस ही क्यों ना जाए
सूरज के प्रेम में पड़ी
पृथ्वी की तरह

4)
पृथ्वी गोल है
बिलकुल सपाट
बहुत कठोर!
यह भ्रम है
कोरा भ्रम
कभी ध्यान से देखना उसकी गहरी आंखों में
मिल जाएंगी तुम्हें
पलकों के नीचे जमी नमकीन झीलें
प्रेम से छूना उसकी सपाट काया को
अनगिनत खरोंचों से भरी उसकी देह
तुम्हारा अंगुली के पोरों को
लहूलुहान कर देगी
धीरे से खोलना उसके मन की गिरहों को
बहुत रीती और पिघली हुई मिलेगी भीतर से
बिलकुल एक स्त्री की तरह

5)
जब दोनों हाथों से
लूटी खसौटी जाओ
दबा दी जाओ
अनगिनत जिम्मेदारियों के तले
तुम्हारे किए को उपकार नहीं
अधिकार समझा जाने लगे
तब हे स्त्री
डौल जाया करो न!
तुम भी
अपनी धुरी से
पृथ्वी की तरह॥

6)
कोरी कल्पना
और किस्से कहानी
से अधिक कुछ भी नहीं
ये सारी बातें
की पृथ्वी
टिकी है
गाय के सींग पर
शेषनाग के फन,
सूर्य की शक्ति
या फिर
लटकी है अंतरिक्ष के बीचों–बीच
गुरुत्वाकर्षण के बल पर
सच तो यह है
कि अपनी करुणा, प्रेम, सृजन और जुनून
के बल पर
स्त्रियाँ लादे
घूम रही हैं
पृथ्वी का बोझा
अपनी पीठ पर
युगों–युगों से

7)
स्त्री देखती है
नींद में ख्वाब
ख्वाब में घर के काम
दूध वाले, सब्जी वाले का हिसाब
बच्चों का होमवर्क
खोजती हैं पति का रूमाल, मोजा, टाई
दोहराती है सास ससुर के रूटीन हेल्थ चेकअप की डेट
इसी बीच
झांक आती है पल भर को
मायके का आंगन
निरंतर घूमती रहती है एक औरत
अपने कर्तव्य पथ पर
क्योंकि जानती हैं वो
पृथ्वी के रुक जाने का अर्थ
सम्पूर्ण सृष्टि का रुक जाना है

12. अधूरी इच्छाएं

जो अधूरी इच्छाएं
गांठ बनकर
रह जाती हैं
मन के किसी कौने में
गहरे दबी हुई
वही जन्मती हैं एक दिन
मां की कोख से बेटी बनकर।

13. दिसंबर

खिड़की से झांकती
दिसंबर की धूप
मेरे नाउम्मीद कानों में
जैसे अचानक आकर
कहा हो तुमने
लो मैं आ गया

दिसंबर की
ठंडी हवाओं ने
सोख ली है
माथे की नमी
जरूरत है
एक अदद चुंबन की

सड़क किनारे
पेट में घुटने
और घुटनों में हाथ फसाए
सोने की नाकामयाब कोशिश में
लेटा
गठरीनुमा भिखारी
इस नतीजे पर पहुंचा
जून से अधिक
बेरहम है दिसम्बर

जीने के लिए क्या चाहिए
रोटी और प्रेम
दिसंबर दोनों देता है
गेहूं बोए जा रहे हैं
तुम याद आ रहे हो

जब से छोड़े हैं पहनने
मां के हाथ से बुने
डिजाइनदार स्वेटर
अब कोई स्त्री नहीं रोकती
बीच राह में
बहुत याद आता है
बचपन वाला वीआईपी दिसंबर

दिसंबर का भाग्य
जैसे गरीब की जिंदगी
धुंध ही धुंध
कोहरा ही कोहरा
दिन छोटा
काली घनी लंबी रात
उजाले की दूर दूर तक
कोई गुंजाइश नहीं

दिसंबर आ गया
वो नहीं आए !!
प्रतीक्षा में हैं
गुड़, मूंगफली
और तिल के लड्डू जैसी
बे सिर पैर की
मेरी बातें

14. वापसी

आदमी ने कहा
बच्चे बड़े होकर
एक बार दूर चले जाएं
फिर वापस नहीं लौटते
माँ-बाप के पास
पृथ्वी बोली बिलकुल नहीं!
पेड़ तो
बार–बार आते हैं मुझ तक
पत्तियों, शाखाओं के सहारे॥


कवयित्री चित्रा पंवार, पता– गांव– गोटका, मेरठ, उत्तर प्रदेश।
संप्रति– अध्यापन ।
साहित्यिक यात्रा – अनेक पत्र पत्रिकाओं तथा कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित ।
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की प्रकाशन योजना के अंतर्गत ‘दो औरतें ’ नाम से कविता संग्रह प्रकाशित।
संपर्क सूत्र:– chitra.panwar20892@gmail.com
7068629236
टिप्पणीकार अणु शक्ति सिंह, विद्यापति पुरस्कार 2019 से पुरस्कृत हैं।  जन्मः 19 अगस्त 1985, सहरसा (बिहार)शिक्षाः माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता स्नातकप्रकाशन – दो उपन्यास शर्मिष्ठा और स्टापू , भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। सम्पर्क: singh.shaktianu19@gmail.com

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