प्रियम अंकित
चंद्रभूषण की कविताएँ निरंतर जटिल होते समय में जनता के सहज सरोकारों के पक्ष में खड़ी होने वाली कविताएँ हैं।
आज जब एक कृत्रिम किस्म की नाटकीयता और असहजता तथाकथित पढ़े लिखे और सभ्य समझे जाने वाले समाज में चुपचाप स्वीकृत होती जा रही है, तब सहजता को कविता का उपकरण बनाकर समय की तल्ख़ सच्चाईयों और विद्रूपताओं को कुरेदती चंद्रभूषण की कविताएँ अपने पाठक के साथ सार्थक संवाद करती हैं। यह सहजता और संवादधर्मिता ही वह प्रमुख गुण हैं, जिनके चलते चंद्रभूषण की कविताएँ क्रूर और निर्लज्ज समय में हस्तक्षेप करती हैं।
पूँजी की बेलगाम सत्ता और बढ़ती संवेदनहीनता और भागमभाग के बीच, मनुष्यों की महत्वाकांक्षाओं के लगातार बढ़ते दायरों के भीतर, संबंधों में आती दरारों और टूटते रिश्तों की हक़ीकत को चंद्रभूषण की ये पंक्तियाँ बखूबी व्यक्त करती हैं –
“मगर बोलो तो सुनाई दे और पूछो तो जवाब आए
ऐसी बातचीत हो पाई बीस या शायद पचीस साल बाद
दुनिया की लय अभी कुछ ऐसी है
कि दोस्तियाँ टूटती नहीं, झीनी पड़कर फ़ौत हो जाती हैं।“
दुनिया की ऐसी लय के बीच संवादधर्मी होना कितना कठिन है, इस अनुभव की रौशनी में नैयरा नूर की गाई हुई यह पंक्ति जब चंद्रभूषण की कविता में बजती है, तो व्यंजना के साथ व्यंग्य भी मुखर हो उठता है –
‘अगली ही गली में रहता है और मिलने तक नहीं आता है
कहता है तकल्लुफ़ क्या करना, हम-तुममें तो प्यार का नाता है’
व्यवस्था का मकड़जाल आम आदमी को उलझाने के लिए नए नए प्रपंच रच रहा है। रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजेहद में उलझे आम आदमी के लिए सुकून के कुछ पल क्या, जीने का अवकाश लगातार कम होता जा रहा है। यूँ तो ख़बरें चिल्लाता हमारा मीडिया सूचना के अंबार से पटा पड़ा है, लेकिन आम आदमी का संघर्ष वहाँ से गायब है। सत्ता की गोदी में बैठा मीडिया आज चंद सफल लोगों की दास्तान बाँचने में व्यस्त बना हुआ है। इन सफल लोगों ने सफलता का जो नुस्ख़ा आज़माया है, वह इसी व्यवस्था द्वारा प्रदत है। यह मायामृग है, जो इस व्यवस्था ने रचा है। चंद्रभूषण की कविता ‘मायामृग’ सफलता की ऐसी काया की निःसारता को अभिव्यक्त करती है।
सफलता की चमक में फटती असफलता की दरारें इस कविता में दिखती हैं। सफलता जब यांत्रिकता और जायज़-नाजायज़ नुस्खों की मोहताज़ हो जाए तो –
‘ लक्ष्य चूकने का कोई भय नहीं था
वह तो जैसे खुद ही हज़ार सुरों में बोल रहा था –
मुझे मारों, मेरा संधान करो, वध करो मेरा
चाहे जैसे भी मुझे स्थिर करो, अपने घर ले जाओ वीर’
कान तक नुस्खों की प्रत्यंचा ताने चले तो सफलता रूपी सुनहरे मृग का लक्ष्य बिधता है –
‘ किसी ने व्हार्टन मारा, किसी ने कैंब्रिज का संधान किया
कोई जापान की तरफ निकला, मरीन
बॉयलॉजिस्ट बनकर लौटा
तो कोई पुलिस कमिश्नर बना, वर्दी पर टाँचे वही
सुनहरापन’
संवेदनाओं की बड़ी कीमत वसूलती है सफलता की यह मरीचिका। ‘कान तक प्रत्यंचा ताने’ रहकर ‘लहर सी डोलती एक सुनहरी छाया’ का शिकार करने में सफल होना भीतर के बड़े मानवीय हिस्से को खो देना है –
‘मृग के मरने की भी सबकी अलग-अलग कथाएं थीं
सभी का मानना था कि मरने से पहले वह कुछ बोला था
शायद ‘माँ’, शायद ’पापा’, शायद – ‘ अरे ओ मेरी प्रियतमा’
या शायद ‘समथिंग ब्रोकेन, समथिंग रॉटेन’ “
कविता इस मार्मिक टीस को स्वर देती हैं कि मायामृग के सफल शिकार का अंतिम हासिल है रिश्तों के ताप और मानवीय ऊष्मा के तेवर से वंचित एक अदद बंद कोठरी जिसकी विडंबना यह है कि –
‘…. जो हमेशा बंद ही रह गई
और खुली भी तो ऐसे समय
जब उसकी अंतर्कथा जानने के लिए
पुरानी परिचित बंद कोठरियाँ ही सामने रह गई थीं।’
आज हमारा लोकतंत्र समय की क्रूर करवटों का साक्षी बन रहा है। लोकतंत्र के भीतर लोक को एक बेचेहरा भीड़ में तब्दील करने उपक्रम में सत्ता से लेकर मीडिया तक गहरी साजिशों में लिप्त हैं। भरपूर कोशिश की जा रही है भी भीड़ में शामिल हर चेहरे पर सत्ता का मुखौटा हो। मुखौटों का बाज़ार गर्म है। चंद्रभूषण की कविता ‘भीड़ में दुःस्वप्न’ न सिर्फ इन अनुभवों को दुःस्वप्न के रूप में रचती है, बल्कि इस दुःस्वप्न के बीच जीती स्त्री के त्रासद अनुभवों को गह्न संवेदना के साथ लक्षित करती है –
“रात उतर रही है
तुम चौराहे पर पहुंच चुकी हो
और तुम्हें पता है कि
जिसे देखने वे सभी आ रहे हैं
वह तुम हो
जाने क्या सोचकर
तुम नज़रें झुकाती हो
और पाती हो कि
एक भी सूत तुम पर नहीं है
दोनों हाथों से खुद को ढकती हुई
बीच चौराहे तुम बैठ जाती हो
…. यह धरती ऐसे मौकों पर
कभी नहीं फटती”
चंद्रभूषण की कविताएँ हमारे समय की संवेदनहीन सच्चाईयों से रूबरू होती हैं और आम आदमी के जीवन की जो इबारते ताक़तवर लोगों द्वारा रची जा रही हैं, उनके त्रासद हिज्जों को बड़ी बारीकी से टटोलती हैं। उनके यहाँ आम आदमी के संदर्भ में त्रासदी, भय, शंका और व्यर्थता के बिंब के साथ-साथ संघर्ष के बिंब भी प्रमुखता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। अगर उनकी कविताओं में ट्रेनें है जिनका ‘रास्ता आपके रास्ते को काटता हुआ गुज़र रहा होता है’, तो ‘खैनी फटकते माँझी’ भी हैं। इसीलिए उनकी कविताएँ बड़ी शिद्दत से यह अभिव्यक्त करती हैं कि कुछ न होगा तो भी कुछ होगा –
“सूरज डूब जाएगा
तो कुछ ही देर में चाँद निकल आएगा
और नहीं हुआ चाँद
तो आसमान में तारे होंगे
अपनी दूधिया रौशनी बिखेरते हुए
और रात अंधियारी हुई बादलों भरी
तो भी हाथ-पैर की उंगलियों से टटोलते हुए
धीरे-धीरे हम रास्ता तलाश लेंगे”
चंद्रभूषण की कविताएँ
1. मायामृग
हर किसी के पास अपनी-अपनी कहानियां थीं
सौंदर्य की, आकर्षण की, लगाव की, वासना की, स्खलन की
प्रणय की, संवाद की, टकराव की, संघर्ष की, युद्ध की
लेकिन तत्व उनका कमोबेश एक सा था
कान तक प्रत्यंचा ताने जब वे वन में घुसे
तो उनके सामने लहर सी डोलती एक सुनहरी छाया थी
और उनकी आंखें अपने तीर की नोक और लक्ष्य के बीच
बनने वाली निरंतर गतिशील रेखा पर थरथरा रही थीं
लक्ष्य चूकने का कोई भय नहीं था
वह तो जैसे खुद ही हजार सुरों में बोल रहा था-
मुझे मारो, मेरा संधान करो, वध करो मेरा
चाहे जैसे भी मुझे स्थिर करो, अपने घर ले जाओ वीर
उत्तेजना का दौर खत्म हुआ, वे सभी विजेता निकले
किसी ने व्हार्टन मारा, किसी ने कैंब्रिज का संधान किया
कोई जापान की तरफ निकला, मरीन बायलॉजिस्ट बनकर लौटा
तो कोई पुलिस कमिश्नर बना, वर्दी पर टांचे वही सुनहरापन
मृग के मरने की भी सबकी अलग-अलग कथाएं थीं
सभी का मानना था कि मरने से पहले वह कुछ बोला था
शायद ‘मां’, शायद ‘पापा’, शायद- ‘अरे ओ मेरी प्रियतमा’
या शायद ‘समथिंग ब्रोकेन, समथिंग रॉटेन’
शाम ढले दरबार उठा, विरुदावली पूरी हुई
तो कोई भी उनमें ऐसा न था
जिसके पास भीषण दुख की कोई कथा नहीं थी
एक अदद बंद कोठरी जो हमेशा बंद ही रह गई
और खुली भी तो ऐसे समय
जब उसकी अंतर्कथा जानने के लिए
पुरानी परिचित बंद कोठरियां ही सामने रह गई थीं
मायामृग की सुनहरी झाईं एक बार फिर उनके सामने थी
क्षितिज पर रात की सियाही उसे अपने घेरे में ले रही थी
2. अगली ही गली में रहता है
बुधिज्म पर बतियाते हुए आवाज में कुछ वैराग्य सा महका
न जाने क्यों किसी से उसका रिश्ता याद आया
क्या इसलिए कि उस रिश्ते में एक हिंदू था, एक मुसलमान?
लंबे वक्त तक उसका काम दिखता रहा
दो-चार लिखित शब्द इधर-उधर आते-जाते रहे
एकाध बार ठहरी हुई चुटपुटिया शक्ल भी नजर आई
मगर बोलो तो सुनाई दे और पूछो तो जवाब आए
ऐसी बातचीत हो पाई बीस या शायद पचीस साल बाद
दुनिया की लय अभी कुछ ऐसी है
कि दोस्तियाँ टूटती नहीं, झीनी पड़कर फ़ौत हो जाती हैं
जरूरी बातों के बीच इतना निजी प्रसंग क्यों छेड़ा जाए,
फिर भी पूछ लिया कि एक उदासी-सी सुनाई पड़ रही है
कुछ गड़बड़ी की सुनगुन तो मुझे मिली थी
हुआ क्या, कुछ जान नहीं पाया
जवाब- दो साल में शादी टूट गई,
लगता था, चल जाएगी लेकिन नहीं चली
बात सिर्फ इतनी कि अपना मुलुक तुम छोड़ नहीं सकतीं
और वहां आकर रहना मुझसे हो नहीं पाएगा
कोई झगड़ा नहीं, कोई झंझट नहीं
जैसे थोड़े दिन साथ रहते आए थे, वैसे ही अलग रहने लगे
एक सन्नाटा सा खिंच गया जो बात को बढ़ने नहीं देता था
ऐसे में अकेला रास्ता ज्ञान छांटने का ही बचता है
तो मैंने कहा- थोड़ा अंदाजा मुझे पहले से भी था
जवाब में डांट सुनी कि ‘कैसे?’
कहा, तुम घुमक्कड़ आंदोलनकारी, वह अमूर्त सिद्धांतकार!
जवाब- अभी तो मुझसे भी बड़ा घुमक्कड़ है, दुनिया घूमता है
न जाने कैसे नय्यरा नूर का गाया हुआ गाना मन में बजा-
‘अगली ही गली में रहता है और मिलने तक नहीं आता है
कहता है तक़ल्लुफ़ क्या करना, हम-तुममें तो प्यार का नाता है’
लांग डिस्टेंस कॉल में जरा देर की चुप्पी छाई रही
फिर वही बेलौस आवाज फोन पर दोबारा चलकर मुझतक पहुंची
‘सात साल पहले जब हिमालय में भयंकर भूकंप आया था
लाइनें ठप्प होने से पहले मेरे फोन पर एक रिंग बजी
‘हलो, मैं फलाने की वाइफ बोल रही, तुर्की से, आप ठीक तो हैं?
आपकी ख़ैरियत को लेकर हम लोग बहुत परेशान हैं’
उस भागमभागी में ज्यादा बात नहीं हो पाई
लेकिन सुनकर अच्छा लगा कि दुनिया में कोई मेरा हाल पूछता है’
जिस काम के लिए नंबर मिलाया था, उसे एक तरफ करके
अलग ही राह पर निकल गए इस अप्रत्याशित संवाद में
जंगली खरगोश से भी ज्यादा मुलायम और फुर्तीली
कोई ऐसी चीज मेरे सामने आ खड़ी हुई कि लगा,
आगे एक शब्द भी बोला तो वह हवा में खो जाएगी
फिर कोशिश करके कुछ और चीजों पर देर तक बात की
मगर यह किस्सा अब जितना उसका था, उतना मेरा भी था
लपटों में घिरा, मुस्कुराता हुआ, व्यक्तिगत, सुरक्षित और शांत
3. भीड़ में दुःस्वप्न
शाम का वक्त है
तुम चौराहे पर पहुंच रही हो
एक भीड़ वहां जमा हो रही है
तुरत-फुरत कुछ देख लेने के लिए
पंजों पर उचकते हुए लोग
तेजी से आगे बढ़ रहे हैं
पसीजे हुए उनके चेहरे
लैंप पोस्ट की रोशनी में
पीले नजर आ रहे हैं
रात उतर रही है
तुम चौराहे पर पहुंच चुकी हो
और तुम्हें पता है कि
जिसे देखने वे सभी आ रहे हैं
वह तुम हो
जाने क्या सोचकर
तुम नजरें झुकाती हो
और पाती हो कि
एक भी सूत तुमपर नहीं है
दोनों हाथों से खुद को ढकती हुई
बीच चौराहे तुम बैठ जाती हो
….यह धरती ऐसे मौकों पर
कभी नहीं फटती
भीड़ में तुम
कोई परिचित चेहरा ढूंढ रही हो
लेकिन ये सभी तुम्हारे परिचित हैं
तुम्हें ही देखने आए हैं
वक्त बीत रहा है
लोग धीरे-धीरे बिखर रहे हैं
देखने को अब ज्यादा कुछ बचा नहीं है
किसी रद्दी खिलौने सी
तुम दुबारा खड़ी होती हो
किसी से कहीं चले जाने का
रास्ता पूछती हो
चकित होती हो यह देखकर कि
वह अब भी कनखियों से
तुम्हें देख रहा है
इतने सब के बाद भी
कोई भय तुममें बाकी है
बाकी है कहीं गहरा यह बोध
कि यह अंत नहीं है
अंधेरा गहरा रहा है
और तुम्हें कहीं जाना है
तेज-तेज तुम रास्ता पार कर रही हो
पीछे सभी तेज-तेज हंस रहे हैं
क्या इस सपने का कोई अंत है-
उचटी हुई नींद में तुम मुझसे पूछती हो
जवाब कुछ नहीं सूझता
….बेवजह हँसता हूँ, सो जाता हूँ।
4. कुछ न होगा तो भी कुछ होगा
सूरज डूब जाएगा
तो कुछ ही देर में चांद निकल आएगा
और नहीं हुआ चांद
तो आसमान में तारे होंगे
अपनी दूधिया रोशनी बिखेरते हुए
और रात अंधियारी हुई बादलों भरी
तो भी हाथ-पैर की उंगलियों से टटोलते हुए
धीरे-धीरे हम रास्ता तलाश लेंगे
और टटोलने को कुछ न हुआ आसपास
तो आवाजों से एक-दूसरे की थाह लेते
एक ही दिशा में हम बढ़ते जाएंगे
और आवाज देने या सुनने वाला कोई न हुआ
तो अपने मन के मद्धिम उजास में चलेंगे
जो वापस फिर-फिर हमें राह पर लाएगा
और चलते-चलते जब इतने थक चुके होंगे कि
रास्ता रस्सी की तरह खुद को लपेटता दिखेगा-
आगे बढ़ना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा…
…तब कोई याद हमारे भीतर से उमड़ती हुई आएगी
और खोई खमोशियों में गुनगुनाती हुई
उंगली पकड़कर हमें मंजिल तक पहुंचा जाएगी
5. स्टेशन पर रात
रात नहीं नींद नहीं सपने भी नहीं
न जाने कब ख़त्म हुआ इन्तजार
ठण्डी बेंच पर बैठे अकेले यात्री के लिए एक सूचना
महोदय जिस ट्रेन का इन्तजार आप कर रहे हैं
वह रास्ता बदलकर कहीँ और जा चुकी है
हो जाता है, कभी-कभी ऐसा हो जाता है श्रीमान
तकलीफ की तो इसमे कोई बात नहीं
यहाँ तो ऐसा भी होता है कि
घंटों-घंटों राह देखने के बाद
आंख लग जाती है ठीक उसी वक्त
जब ट्रेन स्टेशन पर पहुँचने वाली होती है
सीटी की डूबती आवाज के साथ
एक अदभुत झरने का स्वप्न टूटता है
और आप गाड़ी का आखरी डिब्बा
सिग्नल पार करते देखते हैं
सोच कर देखिए ज़रा
ज्यादा दुखदायी यह रतजगा है
या कई रात जगाने वाली पांच मिनट की वह नींद
और वह भी छोड़िये
इसका क्या करें कि ट्रेनें ही ट्रेनें, वक्त ही वक्त
मगर न जाने को कोई जगह है ना रुकने की कोई वजह
ठण्डी बेंच पर बैठे अकेले यात्री के लिए एक सूचना
ट्रेनें इस तरफ या तो आती नहीं, या आती भी हैं तो
करीब से पटरी बदलकर कहीँ और चली जाती हैं
या आप का इन्तजार वे ठीक तब करती हैं
जब आप नींद में होते हैं
या सिर्फ इतना कि आपके लिए वे बनी नहीं होतीं
फकत उनका रास्ता
आपके रास्ते को काटता हुआ गुजर रहा होता है
6. सोन किनारे एक पल
बस एक पल
और सूरज ढलक जाएगा उस पार
सोन किनारे की सुनहरी रेत रक्तिम हो चली है
सोने और रक्त की आभा वाला सिर्फ एक पल
और सूरज ढलक जाएगा उस पार
सोने और रक्त की आभा वाली सत्ताएं
सदियों चमकती हैं, धुंधलाती हैं, अदृश्य हो जाती हैं
क्या तुम कभी सोन किनारे यूं खड़े हुए चंद्रगुप्त मौर्य?
देखा कभी रात में उपेक्षित स्वर्ण सी दमकती इस रेत को
धीरे-धीरे पच्छिम को जाती, पैबंद लगे मस्तूल वाली नाव पर
खैनी फटकते मांझी को देखा?
कितना खून, कितने आंसू, कितनी मोहब्बतें ख़ाक़ हुईं
देखते-देखते काले से सफेद हुए कितने बाल
कितनी कल्पनाएं, कितने सपने
कितनी बार झांका गया इतिहास के आर-पार
कितनी आहें, कितनी टूटन, कितने विभ्रम, कितने मोहभंग
घिसते-घिसते गुम हुए, कितने बचे रहे इस सर्द सन्नाटे में
कितनी बार अंधेरा हमें यूं ही समेटता नहीं गया,
कितनी बार ऐसे ही किसी पल में
पलटकर हमने चांद को घेरा, चांदनी के लिए
7. खुशी का समय
खुश रहो, खुशी का समय है
शाम को दफ्तर से घर लौटो तो
खुशी की कोई न कोई खबर
तुम्हारा इंतजार कर रही होती है।
तुम्हारे साढू ने बंगला डाल लिया
एनजीओ में काम कर रही तुम्हारी सलहज
रात की फ्लाइट से अमरीका निकल रही है
पड़ोस के पिंटू ने लाख रुपये में इन्फोसिस पकड़ ली
शर्मा जी को मिल गया इतना इन्क्रीमेंट
जितनी तुम्हारी कुल तनखा भी नहीं है।
बेहतर होगा, इसी खुशी में झूमते हुए उठो
और निकल लो किसी दोस्त के घर
वहां वह अपना कल ही जमाया गया
होम थियेटर रिमोट घुमा-घुमाकर दिखाता है
फिर महीना भर पहले ली हुई लंबी गाड़ी में
थोड़ी दूर घुमा लाने की पेशकश करता है
लौटकर उसके साथ चाय पीने बैठो
तो लगता है कृष्ण के दर पर बैठे सुदामा
तंडुल नहीं धान चबा रहे हैं।
छुट्टियों के नाम पर झिकझिक से बचने
किसी रिश्तेदारी में चले जाओ
तो लोगबाग हाल-चाल बाद में पगार पहले पूछते हैं
सही बताओं तो च्च..च्च करते हैं
बढ़ाकर बताओ तो ऐसे सोंठ हो जाते हैं
कि पल भर रुकने का दिल नहीं करता।
दरवाजे पर खड़े कार धुलवाते
मोहल्ले के किसी अनजान आदमी को भी
भूले से नमस्ते कर दो तो छूटते ही कहता है-
भाई साहब, अब आप भी ले ही डालो
थोड़ी अकड़ जुटाकर कहो कि क्यों खरीदूं कार
जब मेरा काम स्कूटर से चल जाता है
तो खुशी से मुस्कुराते हुए कहता है-
हां जी, हर काम औकात देखकर ही करना चाहिए।
…और औकात दिखाने के लिए
उतनी ही खुशी में ईंटा उठाकर
उसकी गाड़ी के अगले शीशे पर दे मारो
तो पहले थाने फिर पागलखाने
पहुंचने का इंतजाम पक्का।
खुशी का समय है
लेकिन तभी तक, जब तक अपनी खुशी का
न कुछ करो न कुछ कहो
मर्जी का कुछ भी निकल जाए मुंह से
तो लोग कहते हैं-
अच्छे-भले आदमी हो
खुशी के मौके पर
ऐसी सिड़ी बातें क्यों करते हो ?
8. मिलारेपा का सिंह
अयाल कभी मटमैले होते हैं
तो फिर साफ भी हो जाते हैं
अपने सुनहरे सिंह को कभी तो
घाटियों में उतरने दो मिलारेपा
ऊंची बर्फीली चोटियों पर
तनहाई उसे तरंगित न होने देगी
यह दुनिया मिट्टी से शुरू होकर
मिट्टी पर ही खत्म हो जाती है
कीचड़ में किलोलें करते हैं
इसके शुभ्रतम राजहंस
फिर अपनी धवलता के चित्र
किस्सों के लिए छोड़कर
हजार मील दूर चले जाते हैं
दहाड़ता हुआ सिंह तुम्हारा
हमारे भीतर भी उतरे मिलारेपा
हिमशिखरों के मोहताज नहीं हैं
चमकते हुए उसके सुंदर अयाल
मिट्टी में सनकर भी वे गंदे नहीं होंगे
उनके रंग से मिट्टी सुनहरी हो जाएगी
9. जब राज करेंगे हत्यारे
उम्मीद की चिड़िया
चोंच उठाए
ऊपर-ऊपर उड़ती थी
सब अच्छा-अच्छा कहती थी
किसी सुर्ख सुनहले गांओं में
कहीं नील गगन की छांओं में
जहां उजले दिन
और चांदनी रातें
शीतल खुशबू की बरसातें
होंगी…होंगी…होंगी…
हम धरती पर चलने वाले
यूं ठोस हकीकत के मारे
कुछ आड़ी-बेड़ी बात लिए
इक रस्ता अपने साथ लिए
किस देस-बदेस के बंजारे
कैसे समझाते
सतरंगी उस चिड़िया के
सम्मोहन में
भूले-बिसराए, नैन बिछाए
अपने ही
हमसायों को, हमअस्रों को
उनके हिस्से
इन भूलभुलैया दौरों में
क्या-क्या सौगातें होंगी…
उम्मीद के पंखों के नीचे
जब राज करेंगे हत्यारे
तब टीवी में, अखबारों में
खुशरंग महल-चौबारों में
बस फूल ही फूल खिलेंगे
लेकिन
रोज सबेरे
सांसों में सदमा होगा
कुछ हचका होगा आंतों में
कुछ हतक सुनाई देने की
कुछ खौफ दिखाई देने का
और धड़कन में अनजाने ही
हत्या की बातें
होंगी…होंगी…होंगी…
कवि चंद्रभूषण, जन्म- 18 मई 1964, आजमगढ़ के मनियारपुर गाँव में। शुरुआती पढ़ाई गाँव के ही आसपास और शिबली कॉलेज आजमगढ़ में। ऊँची पढ़ाई के लिए इलाहाबाद आकर वहीं छात्र राजनीति से जुड़ाव। लंबे समय तक सीपीआई एमएल का पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहने के बाद और कुछ साल समकालीन जनमत निकालने के बाद प्रोफेशनल पत्रकारिता से जुड़ाव। विभिन्न अखबारों में काम, फिर नवभारत टाइम्स के विचार संपादक के रूप में अवकाश ग्रहण। शिक्षा-एम एससी (गणित) इलाहाबाद विश्वविद्यालय। रुचियाँ- गणित से लेकर खेलकूद और घुमक्कड़ी तक बहुत सारी।
किताबें-‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’, ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’, ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास), ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’ और जैव विविधता पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों पर केंद्रित किताब ‘प्रलय का प्रतिपक्ष’। दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’। फिलहाल महाकवि अश्वघोष और उनके विलुप्त महाकाव्य ‘बुद्धचरित’ पर काम जारी।
सम्पर्क: 9811550016
टिप्पणीकार प्रियम अंकित । पैदाईश कानपुर की और पढ़ाई-लिखाई इलाहाबाद से । इलाहाबाद विश्विद्यालय से डी.फिल.।
हिंदी कहानियों पर, खास तौर पर युवा हिंदी कहानिकारों की कहानियों पर ‘पहल’, ‘तद्भव’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘वागर्थ’, ‘हँस’ इत्यादि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपे आलोचनात्मक लेख काफी चर्चित रहे । विभाजन पर केंद्रित उपन्यासों पर आलोचनात्मक लेखन को अत्यंत सराहा गया । विभाजन केंद्रित उपन्यासों की विषयवस्तु पर एक किताब शीघ्र प्रकाश्य । एक किताब ‘पूर्वाग्रहों के विरूद्ध’ आधार प्रकाशन से आ चुकी है । आलोचना के क्षेत्र में योगदान के लिये प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित । संप्रति आगरा कॉलेज, आगरा में अंग्रेज़ी विभाग में प्रोफेसर । अंग्रेज़ी में ‘इण्डियन ईस्थेटिक्स’ पर अनेक शोधपत्र अंग्रेज़ी की विख्यात शोधपत्रिकाओं में प्रकाशित । विभाजन केंद्रित उपन्यासों पर एक किताब अंग्रेज़ी में भी प्रस्तावित ।
सम्पर्क: 9359976161