भरत प्रसाद
बोधिसत्व की पहचान 90 के दशक के प्रमुख कवि के तौर पर बनी, जो आजतक कायम है। हम जो नदियों का संगम हैं-2002 और दुखतंत्र-2004 कवि की आरंभिक उठान के पुख्ता प्रमाण हैं। सन् 1999 ई. में बोधिसत्व को चर्चित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार हासिल हुआ।आपकी काव्य शृंखला-‘कमलादासी’ विशेष महत्व की मानी जा सकती है। जिसको लोकार्पित कर बोधिसत्व ने अपनी स्पष्ट, अलग पहचान कायम की। ‘अक्षत’ कवि की उल्लेखनीय कविता है, जिसकी चंद पंक्तियाँ :
कभी मैं एक विकसा हुआ फूल थी
एक पंखुड़ी अक्षत अजीर्ण
पत्थर हूं अब
पपड़ी झरती है
हर संध्या को,रात को,प्रात को
एक कट्टा, कोहली स्टूडियो, नया खेल, खोना चाहता हूँ और त्रिलोचन नये आस्वाद, रंग और रुख की कविताएँ हैं।इन पांचों कविताओं का तेवर अलग भाव भंगिमा अलहदा और शब्द कौशल सधा हुआ। ‘एक कट्टा’ बहुत कुछ प्रेम कविता का छिपा इजहार है, ज़रा छिपकर, संकोच के साथ, शर्म सहित। इसमें मांसल प्रेम की साहसिक ललक जीवंत है परन्तु उसे सीधे-सपाट रख देने के बजाय, कलात्मक ढंग से चटक करना है, यहीं पर कवि के हुनर की कठिन परीक्षा होती है, जिसमें बोधिसत्व आगे निकल गये हैं। प्रेम कविताओं की नैसर्गिक साहसिकता से रिक्त होती समकालीन कविता के लिए ऐसी कविताओं की अपनी अहमियत है। ‘कोहली स्टूडियो’ शीर्षक कविता में कवि ने बिल्कुल नया, व्यापक और रोचक विषय को उठाया है।आज के मध्यवर्गीय समाज में विवाह परम्परा और फैशनपरस्ती के बीच झूलकर रह गया है। कुंडली का मिलान करना, फोटो देखना और दिखाना, लड़की के घर-परिवार का पूरा जीवन परिचय मंगवाना और कम से कम दो घंटे के लिए ही सही, मिलाप करा देना जरूरी फार्मेलिटी हो गयी है। इस कविता में बोधिसत्व ने और भी अनछुए पहलुओं को साधने की शिद्दत से कोशिश की है।
कोहबर में दोनों ने
एक दूसरे को फोटो से कम सुंदर पाया
दोनों को बहुत सुंदर दिखना था
दोनों ने कोहली स्टूडियो से फोटो खिंचवाया
दोनों को कोहली स्टूडियो ने सुंदर दिखाया
ब्लैक एंड ह्वाइट फोटो से।
समसामयिक विषयों पर गतिशील, पारखी निगाह बोधिसत्व की हमेशा बनी रही, खासतौर पर जो सार्वजनिक महत्व के हों, सामाजिक हों या राजनीति के गलियारों से उठे हुए। आज की, अभी की, दिन प्रतिदिन की जीवन-भाषा में कविता रचना बोधिसत्व की विशिष्ट पहचान है। उनके विषय दुर्लभ नहीं, बल्कि उनके प्रति दृष्टि बरतने का कौशल अलग है। समकालीन हिन्दी कविता में बोधिसत्व का उभार उस दौर की गवाही है, जब केदारनाथ सिंह समूचे परिदृश्य में प्रतिष्ठित होकर एक पीढ़ी का निर्माण करने में लगे हुए थे। रघुवीर सहाय, धूमिल, कुमार विकल के बाद एक ऐसी पीढ़ी, जो इन सशक्त कवियों की छाया, दबाव, प्रभाव से मुक्त पहचानी जाए। कहना जरूरी है, कि केदारनाथ सिंह न सिर्फ़ स्वयं सफल हुए अपनी राह निर्मित करने में, बल्कि अपने बाद की पीढ़ी को भी एक साहस, एक शिल्प, कौशल और भाषा दी, नयी पहचान कायम करने में।
एक सजग, संवेदनशील और यथार्थ का कवि सदैव विपरीत से खेलने का कौशल पालता है। प्रगतिशील चेतना उसे निरंतर लड़ने, अड़ने, प्रतिरोध करने की एक समर्थ भाषा देती है, इसीलिए जो कवि संघर्षों में तपा है, प्रतिकूलता में बड़ा हुआ है, और आलोचना के बीच इंच दर इंच विकसित हुआ है उसके भीतर से नैसर्गिक रचनाशीलता कभी सूख ही नहीं सकती। बोधिसत्व की काव्य उर्जा लोगों के बीच और बाहर है, उनके सृजन का कुंआ गांव, गिराव, बस्ती, जनपद, अंचल में लबालब है। वहीं से पानी उठाते हैं, शब्दों को सींचते हैं, और साहित्य की दुनिया में हरियर चमक का एहसास देते हैं।
बोधिसत्व की कविताएँ
1. एक बछड़े और आठ आदमियों का खेल!
एक महुए के वन में
बहुत सारी पत्तियाँ
सूख कर गिरी हैं
उसी वन के अंधेरे में
एक ढाई तीन साल का बछड़ा
जिसे सात आठ लोग
रस्सियों से बांध रहे हैं
एक रस्सी गरदन में
एक रस्सी अगले दोनों पैरों में
एक पिछले दोनों पैरों में
एक और आदमी ऐंठ रहा है पूंछ
एक और दबोचे है नाथ को
एक रस्सी पेट और पीठ के बीचों बीच
बांध कर खींच रहे हैं दो लोग
हुंकारते लोग
गरजते लोग
ललकारते लोग
सब मिल कर
उस ढाई तीन साल के बछड़े को
गिरा रहे हैं
सूखे पत्तों से भरे उस वन में
बछड़े की होंकार
वन से गांव तक जा रही है
आठ लोग
लगातार एक बछड़े को गिराने में लगे हैं
देख रहे हैं कुछ बच्चे
थोड़ी दूर से
अब धराशायी होगा बछड़ा
अब गिरेगा बछड़ा
पत्तियाँ उड़ रहीं है
कुचल कर चूर हो रही हैं
खुरों के नोक खोंद रहे हैं धरती को
अंत तक गिरता है बछड़ा
धा धा करता
बां बां करता
और उसे गिरा रहे लोग
उत्तेजित हो
सफल हो
प्रमुदित हो
करते हैं
उसे बधिया
बछड़ा अभी भी होंकर रहा है
अभी चला रहा है पैर
अभी भी पटक रहा है पूंछ
अभी भी फटकार रहा है कान
अभी भी कर रहा है
बां बां
बाहर निकलने को हैं आँखें
उभर आई हैं
उन पर पड़ गया है
जल का पर्दा
पास के खेत में बैल
जुते हैं
पास के गौशाले में
एक गाय बंधी है
और सूखे पत्तों वाले महुए के वन में
एक बछड़ा आठ आदमियों से घिरा है
वह सूखी पत्तियों पर गिरा है
कुछ बच्चे
थरथराते बच्चे
आँसू बहाते बच्चे
देख रहे हैं
सूखे पत्तों से भरे महुए के वन में
एक बछड़े और आठ आदमियों का खेल।
2. निकल भाग निकल भाग
यात्रा में हूँ
निकला हूँ कहीं जा रहा हूँ
थोड़ा सा सामान हैं साथ।
बस रुकी है एक बहुत पुराने से
बाजार में।
आगे का रास्ता बंद है
ऐसा बता रहा है कंडक्टर
उधर हाइवे पर एक मरी गाय पड़ी है
उसकी रस्सी से बंधा है
एक आदमी का शव
बस आगे नहीं जा सकती।
लौटने का रास्ता
बहुत पीछे तक जाने को खुला है
हजारों साल पीछे लौट सकता हूँ
सब लौटने की सोच रहे हैं
आगे जाने के सभी रास्ते
जहाँ तहाँ जैसे तैसे बंद हैं
कोई पतली पगडंडी तक नहीं खुली
कोई नदी या किसी नहर के सहारे भी
आगे की ओर नहीं जा सकता।
पूछने पर कोई नहीं दे रहा साफ उत्तर
सत्ययुग त्रेता द्वापर
कहाँ और किस मारग जाऊँ लौट कर?
लोग कह रहे रास्ते तो पहले भी बंद होते थे
पीछे की ओर लौटने का तो इतिहास भरा पड़ा है
अभी कुछ तय नहीं
मैं आगे जाऊँगा कि लौट पड़ूँगा पीछे
बहुत पीछे युगों पीछे
पीछे लौटने को यात्रा मान लिया जाएगा क्या?
कहीं भी नहीं पहुँचने को भी
महान यात्रा के रूप में
जाना जाएगा क्या?
बस खड़ी है अभी भी
आगे रास्ते की आग बाजार तक आ पहुँची है
बस भी जलेगी कुछ देर में ऐसा अंदेशा है
कंडक्टर रोता हुआ कह रहा है अभी
कि जिधर से हम आए हैं उधर के
रास्ते में एक औरत को नंगा घुमाया जा रहा है
एक दूसरी औरत की हत्या हो गई है।
ड्राइवर यू टर्न के लिए कोशिश में है
लेकिन लग चुकी है बस में आग
बस सुनाई दे रही है एक आवाज
निकल भाग निकल भाग
भाग तो जाऊँ
लेकिन रास्ता कौन सा लूँ?
कोई बताने को नहीं है आस पास
बस इतना ही सुनाई दे रहा है
रास्ता बंद है
लगता है अब लौटना भी मुश्किल है।
3. एक गाय की यात्रा
एक गाय रास्ता पार कर रही है
भारी ट्रैफिक है
रोड पर!
बहुत अधिक शोर
शोर से भी अधिक
सबको जाने की उतावली है।
न आगे जंगल है न पीछे वन है
न दूर दूर कहीं खेत है न चरागाह न
खुले बाग हैं न उपवन है।
जो हरियाली है वह किसी के लॉन किसी दीवार के
बंधन में है!
उस हरियाली को देखा जा सकता है सिर्फ!
वह गाय अन्य पशुओं की
प्रतिनिधि सी अपना सरोवर अपना चरागाह अपने हिस्से की हरियाली अपने हिस्से की भूमि खोजती
रास्ता पार कर रही है!
अपने टूटे कटे सींग लिए
भिखारी के कटोरे सी आर्द्र आंख लिए
फकीर के कंबल की तरह अपना चमड़ा लिए
अपना मांस अपना दूध हीन थन लिए
कठोर क्रूर रास्तों पर
अपने खुरों के निशान छोड़ती
जहां तहां मुड़ती रुकती
लड़ती भिड़ती मार खाती
जाती जा रही है।
उसके पीछे हैं हड्डी व्यापारी
उसके पीछे हैं चमड़ा व्यापारी
उसके पीछे हैं मांस बेचने वाले
उसके पीछे हैं धर्म का धंधा करने वाले
लेकिन उसके साथ कोई नहीं है
उसके बछड़े भी नहीं।
लोकतंत्र की पंजिका में
वह अल्प संख्या में है या बहु संख्या में
यह न उसे पता है न उसे हंकालते हुए लोगों को!
अपनी गोशाले से खदेड़ी हुई
अपने जल से भगाई हुई
अलक्षित गंतव्य की ओर
बस जा रही है!
अभी रुकी अगला रास्ता पार करने के लिए
अभी किसी ने उसे फिर मारा!
लेकिन वह होंकड़ी नहीं चिल्लाई नहीं
किसी की ओर देखा नहीं!
मारने के लिए पलटी नहीं
बचे हुए टूटे सींग लिए चली गई!
4. साबरमती वाले रामनाथ की खुशी!
आज साबरमती के रामनाथ ने
रास्ते में ट्रैफिक जाम देख कर एक शराब पीए
बाइक वाले युवक से
बाइक हटाने के लिए कहा।
रामनाथ को उम्मीद थी वह युवक उनके कहने पर अपनी मोटर साईकिल हटा लेगा और रास्ता खुल जायेगा!
लेकिन हुआ उल्टा बौखलाए युवक ने बाइक रास्ते के बीचो बीच गिरा दी और
लपक कर घेर लिया रामनाथ को
और उनको और दूर दूर तक सबको सुना कर
देने लगा गालियां और मारने की धमकी!
यह सब मुंबई के गोरेगांव इलाके में हुआ
रात के नौ नहीं बजे थे।
भीड़ और गाली और उस युवक से घिरे रामनाथ
अकेले नहीं थे उस समय।
लोग थे वहां अनेक दुकानदार थे और खरीदार थे
और आते जाते परिवार थे कुछ बेवा औरतें थीं
और मुगफली बेच रहा एक बच्चा भी था।
लेकिन गाली देने वाले उस युवक के लिए कोई नहीं था वहां जो थे वे देखने के लिए थे रामनाथ को
केवल सुनने के लिए रामनाथ को दी जा रही गलियां!
पैसठ साल पार कर चुके रामनाथ जब साठ साल के थे तब भी एक बार एक युवक को खुले आम एक विद्यालय की दीवार पर पेशाब करने पर टोक दिया था
तब वह पेशाब कर रहा युवक रुका नहीं बल्कि उन्मत्त होकर रामनाथ के पैर पर पेशाब करने लगा निरंतर।
रामनाथ ने जब इस पर आपत्ति की तो
उनको मारा भी था उस खुले आम मूतने वाले युवक ने
कई थप्पड़ कई घूंसे और कई लात।
उसने पैंट की जेब से तेजाब की शीशी निकाल कर दिखाई रामनाथ को और बोला मूतने से समझ जा नहीं तो तेरा सिंगार कर दूंगा इससे!
पिछली बार जब मार खाए थे रामनाथ
तब भी अकेले नहीं थे
लोग थे लेकिन देखने के लिए या सिर्फ
जन गणना रजिस्टर
में नाम लिखने के लिए थे।
यह बात दिल्ली की है
दिन के दो बजे थे धूप बहुत थी उस दिन!
पहले भी और आज भी
अनेक लोगों ने रामनाथ को समझाया अपने काम से रखा करें काम
लेकिन वे भूल जाते हैं सारी सीख और अपमानित होकर भी टोका टाकी कर ही देते हैं!
उन्हें न पीछे मार खाने का दुःख है
न आज गाली खाने का
उनको दुःख है जब वे भीड़ से घिरे थे
तब उस मुगफली बेचने वाले बच्चे ने भी बाइक वाले युवक की तरफ से उन पर थूका
और ललकार कर बोला
“भैया से कोई नहीं लड़ सकता तुम तो एक थप्पड़ में लुढ़क जाओगे”
रामनाथ उस बच्चे का चेहरा तक नहीं देख पाए।
वह लगभग अंधेरे में था
बस उसकी आवाज आई उन तक।
फिर सकुचाई भीड़ हंसी निर्लज्ज
और मोटर साईकिल वाला वह युवक भी हंसा
थूकता हुआ
और दो दाना मुगफली लेकर बाइक पर सवार हो निकल गया।
रामनाथ खड़े तो नहीं रहे
लेकिन कहीं जाने का मन नहीं रहा फिर!
जब सब चले गए तो
रामनाथ को हल्की खुशी हुई कि सिर्फ
गाली देकर छोड़ दिया युवक ने
थूकने के साथ
वह मार भी तो सकता था!
साबरमती के रामनाथ को अब दी हुई गालियां फूल सी लगने लगीं और घृणा से देखने वाले लोग भी अपने से लगे!
आज की सीमित हिंसा ने
उनको असीमित खुशी से भर दिया!
यह कोई नौ सवा नौ की बात है
भारत की एक खुली सड़क पर!
5. रुलाई का अर्थ!
एक पागल सी औरत सांझ की सड़क पर
धाड़ मार कर रोती जा रही है।
यदि दूर से देखो तो भ्रम होता है
जैसे वह रो नहीं रही
बल्कि किसी के खिलाफ
नारा लगा रही है!
छाती पीटती बाल नोचती
अपने मुंह पर खुद थप्पड़ मारती!
कई बार देखे को फिर फिर देखना
समझना जरूरी रहता है
घाव के करीब जाना ही पड़ता है
रुई का फाहा रखने के लिए!
क्या तुमको नहीं लगता
कि संसार का कोई भी घाव तुम्हारा है
और हर पुकार तुम्हारे लिए एक नारा है!
तुम उसे पहचानते हो!
उसकी रुलाई की भाषा
तुम्हारी रुलाई वाली भाषा ही तो है!
और उसने तुम्हारी तरह ही तो आंसू पोछे हैं अभी
अंतिम बार जब देखा सड़क की दूसरी ओर
उधर जिधर सूरज निस्तेज हो रहा था!
ठीक से देखो तो
हर आंसू
एक विछोह है
ठीक से सुनो तो
हर विलाप
एक विद्रोह है!
6. लीची का रस!
(मुंबई के एक दिवंगत कवि लेखक की स्मृति में )
वे बीमार थे
मृत्यु के लिफाफे की ओर बढ़ते हुए
इतने अधिक जर्जर हो गए थे कि चेहरे के
अक्षर जैसे धुल गए हों!
ऐसी स्थिति में थे कि कोई अंतिम इच्छा पूछे तो सुखद लगे जीवन का वह काल!
रिटायर हुए थे चार पांच साल पहले
सरकारी नौकरी से!
दो बेटियों के पिता थे वे
बेटियां भी नौकरी करती थीं
घर सुविधाओं से भरा था!
मैं उनको देखने गया
उनकी पत्नी ने मुझे लीची का रस पीने को दिया
मेरे साथ जो थे उनको भी।
मरण शैया पर पड़े
उन्होंने भी लीची का रस पीने के लिए मांगा!
लगभग याचक की तरह सूनी आंखों से
गिड़गिड़ाहट से भर कर!
पत्नी ने लगभग घुड़क कर कहा
आपको तो नहीं दूंगी!
मैंने असमंजस में कहा
कि क्या डॉक्टर ने मना किया है
इनको लीची का रस पीने से?
उन्होंने और मुरझा कर उत्तर दिया नहीं
ऐसा कुछ माना नहीं है
पत्नी ने तड़क कर उत्तर दिया इनको नहीं दूंगी
लीची का रस!
आप पीजिए!
मैं रस का गिलास लिए आधे घंटे बैठा रहा
एक घूंट भी न पी पाया
साथ के लोग भी इधर उधर गिलास रख कर बैठे रहे
मरणासन्न कवि को देखते रहे बस!
फिर उनसे मिलना हुआ तब जब वे एक खैराती अस्पताल में पड़े थे
उनका समान पैक हो चुका था!
अंधेरी स्टेशन के सामने,
फूटी रोशनियों वाले अस्पताल में
उसके पास ही था उनका अपना घर!
उस अस्पताल में अंतिम समय भी वे डरे हुए थे
स्फुट सी बातें हुईं एक दो
एक दो शब्द ही बोल पाए वे कठिनाई से!
लगा लीची का रस पीना चाहते हैं!
हम दो तीन लोग थे उनको देखने गए
लेकिन हम उनको लीची का रस न पिला पाए
कुछ घंटे बाद वे तिक्त और मधु
स्नेह कटु की परिधि से परे चले गए!
एक छोटी सी शोक सभा में उनकी पत्नी ने भी शोक जताया!
बेटियां भी दुःखी दिखीं तनिक उदास भी।
वहां आए श्रद्धालुओं के लिए लीची का रस प्रस्तुत था!
उनकी पत्नी ने कहा इनको लीची का ज्यूस बहुत प्रिय था
सो हमने यहां सब के लिए रखवाया
ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले!
यह सब घटित हुए कई साल हुए
लीची या उसका जूस देखते ही एक उदासी घेर लेती है
कितनी ही दिवंगत छवियां लीची का रस मांगती खड़ी हो जाती हैं सामने!
हम असहाय उनसे आंख चुराते जीते रहते हैं!
यदा कदा अनिच्छा से लीची का रस पीते रहते हैं!
7. टूटा पुल
टूटा हुआ सेतु
किसी को पार नहीं कराता
वह पानी के मन पर एक भार है!
ऐसे को
पानी की छाती पर पैर रख कर
खड़े होने का क्या अधिकार है?
एक चिड़िया उसके ऊपर से
उड़ कर बोलती गई
धिक्कार है! धिक्कार है!
8. संदिग्ध समय में कवि
एक समय ऐसा आया कि
कुछ लिखने को बचा ही नहीं
कवियों और विचारकों का
पूरा आर्यावर्त ही संदिग्ध हो गया।
कविता बहु अर्थी हो गई थी
और कवि स्वार्थी।
किसी को किसी पर भरोसा न रहा
एक ही पता लोग कई लोगों से पूछते थे
और पहुँच जाने पर भी
यकीन नहीं होता था कि पहुँच गए।
वे सुरक्षित हैं और सोने के बाद
कोई उनका गला नहीं दबाएगा
यही बात उनके खुश होने के लिए बहुत थी
उनके खाने में विष नहीं था
इसी बात पर वे आभारी होते थे।
पत्तियों के आभारी होते थे पेड़ कि
वे अकाल उनका साथ नहीं छोड़ रहे
मिट्टी के आभारी थे पेड़ कि
वह जड़ो को नमी खींचने दे रही है
लकड़हारे आभारी थे पेड़ों के कि वे
अगले दिन भी कटने के लिए खड़े रहते हैं
पृथ्वी में पंजे धंसाए।
शासक को लोग झूठा मानते थे
उससे बढ़ कर कोई विदूषक न था
और वह वचन तोड़ता था कि अगला वचन दे सके
और लोग सारी बातों को संदिग्ध मान कर
भरोसा कर लेते थे।
राजधानियों में संदिग्ध परछाइयाँ
रातों को भटकती थीं
वे किसी के भी फोन में से डेटा और
मन के गोपन सपनें
चुरा लेतीं थी।
समय ऐसा था कि धोखे की सारी आशंका के बाद
भी एक स्त्री एक अपरिचित पुरुष से मिलने
अपरिचित ठिकाने जाती थी,
और धोखा खाने के बाद भी
वह इसलिए आभारी रहती थी कि
अपरिचित ने उसकी हत्या नहीं की।
कविता संदिग्ध हो गई थी
शब्द खो चुके थे अर्थ
फिर भी लोग कविता से
एक उम्मीद लगाए रहते थे
कि एक दिन वह सही सही अर्थ दे पाने में
शब्दों की मदद करेगी
कोई शब्द बिना अपना अर्थ पाए
अपमानित नहीं मरेगा।
9. अन्यथा विष्णु!
सोचिए जब हाथी को
मगर मच्छ ने पानी में घसीटना शुरू किया
तब करुण पुकार सुनकर भी
विष्णु कपड़े बदलने लगते!
गज डूबता रहता
ग्राह उसे मार डालता और
विष्णु सजते संवरते रहते
तो कौन मानता उनको देवता!
सहायता की करुण पुकार पर नंगे पैर
भागना ही उनको व्यापक विष्णु बनाता है!
अन्यथा देवता हो या राजा या मित्र
अवसर बीत जाने पर आना किसे सुहाता है?
10. गलती रावण की!
सारी गलती रावण की है
उसने कंस का वध क्यों किया?
इसलिए कि सिकंदर
पटना तक चला गया था
और गोरख कबीर के साथ पढ़ते थे
गुरु नानक से!
तुमको नहीं समझ में आया तो जाओ
भरत से वह ज्ञान लेकर आओ
जो रावण ने भरत को
लंका में मरने के पहले दिया!
चलो मिल गया सब कुछ!
काम बन गया
जीवन का उद्देश्य पूरा हुआ!
कुछ भी नहीं बिकेगा अब
न चाय न रेलवे स्टेशन
तुम आम खाओ!
देखो वही सिकंदर पटना से लौट रहा है
यूनान की ओर
उसके पास गुरु गोरख का सिंगा है!
बुद्ध का मिट्टी का खप्पर है!
क्या तुम तरकारी वाले चक्कू से काटोगे अपने पड़ोसी को?
निर्लज्ज! अब तक तुम्हारे पास पिस्तौल नहीं
वह पिस्तौल कहां है?
अरे वही नत्थूराम वाली
इतने साल से बिना इस्तेमाल हुए पड़ी है
देश की संपदा बरबाद कर रहे हो!
उसे फिर से बाजार में उतारो
धन कमाने के लिए गांधी का चश्मा और नत्थू की
पिस्तौल बेचो!
यह नया धंधा शुरू करो
नया रोजगार!
सरकार को शर्मिंदा होना चाहिए
उसकी बिक्री सूची में गांधी की हत्या करने वाले इस महान अस्त्र का नाम नहीं दर्ज है!
कोई पिस्तौल कभी भी लोड की जा सकती है
उसकी हत्या करने की क्षमता कभी खत्म नहीं होती
क्योंकि हत्या वह नहीं कारतूस भरने वाले
हाथ करते हैं!
सब्जी की छुरी से कितने लोग मारे जाएंगे
सबको दो पिस्तौल और हत्या का अधिकार!
देखो आरा बक्सर में बीर कुंवर सिंह से लड़ रहे हैं शंकराचार्य रसोई वाली छुरी से!
भगत सिंह को चंद्र शेखर आजाद ने गोली मारी थी
यह इतिहास आज ही रावण ने भरत को बताया है
लंका में मरने से पहले
बाकी सब माया है!
उसकी लंका तक जाने का पुल किसने तोड़ा
यह बता सकते हैं घर घर हत्या का उद्योग पहुंचाने वाले लोग!
उनके पास हर पुल तोड़ने की महारत है
चलो तोड़ो
और आम खाना नहीं भूलना!
जानते हो आम को
रसाल और अम्ब भी कहा जाता है?
जो जानकारी न मिले उसके लिए
रावण, कंस या चाणक्य है न!
मैं इनसे मिलने का पता छपवा कर
बांट देता हूं देश में
हर घर में इनका नंबर और पता होना चाहिए!
चलो मिलते हैं
पिस्तौल मिले तो दिखाना!
एक बार उसकी नली के अंधेरे में झांकना चाहता हूं!
बापू के हे राम वहीं अटके हैं शायद!
मसखरा रावण जानता है सब कुछ
लेकिन कुछ बोलता ही नहीं!
जब देखो भेस धारे
बेचता लंका की रत्ती पाई
बना बैठा है ठग रघुराई
घूमता रहता है राम के जीवन वृत्त में
हत्यारों को हृदय में बसाए!
गलती उसी की है!
उस कायर रावण की!
उसने मंदोदरी का हरण क्यों किया?
काठ की लंका क्यों बसाई?
11. देश बुद्ध और गांधी को क्षमा नहीं करेगा!
महात्मा बुद्ध को किसी ने गाली दी
उन्होंने उस व्यक्ति की गालियों को लौटा दिया
यह कह कर कि ये उनके काम की नहीं
वह अपने पास रखे!
महात्मा गांधी को किसी ने गालियों भरा पत्र लिखा
गांधी ने उस पत्र के कई पन्नों को
नत्थी करने वाले पिन को अपने पास रख लिया और
गाली वाली चिट्ठी उसे ही लौटा दी
कहा यह पिन काम की है!
और अच्छी पिन देने के लिए
आभार भी प्रकट किया गांधी ने।
गांधी और बुद्ध कितने नासमझ थे
घृणा का एक उर्वर उद्योग नहीं लगा कर
देश का भारी नुकसान किया है!
ऐसी नासमझ
व्यापार बुद्धि के लिए
देश बुद्ध और गांधी को क्षमा नहीं करेगा!
नहीं करेगा!!
12. होना!
अंधेरे में खड़ा
एक बहुत बड़ा पहाड़ नहीं दिखता!
लेकिन उसी अंधेरे में रखा
एक बहुत छोटा दीया
दिखता है!
जो जलता है वह अपना होना
लिखता है!
13. मूल्य निर्धारण!
बुद्ध ने आनंद से कहा कभी
जब वे आसन्न मरण थे!
भंते के वचन
आज कहे जाएं सबसे!
कहा उन्होंने
“बचो कीमत लगाने
भाव कूतने से बचो!
मूल्य निर्धारित करना ऐसे ही है
जैसे मनुष्य की हत्या करना!
दाम हिंसा है
किसी की बोली लगाना
वध करने के समान है!”
“यह वस्तु कीमती है और वह दो कौड़ी की है
यह अनमोल है और यह बेजोड़
यह सब कहते ही
आस पास बाजार उजागर हो जाता है स्वत:
और मोल भाव की आवाजें
बिना बोले ही गूंजने लगती हैं चतुर्दिक!”
बचो लाभ के लोभ से!
बचो क्षोभ से!
* यह कविता एक जातक कथा से प्रेरित है
14. व्यास का कथन धृतराष्ट्र से!
हे भारत! मैं देखता हूं कि
उदय और अस्त के समय
सूर्य को सिर हीन शव घेरे रहते हैं।
इतने कबंध कहां से आ जाते हैं
अकस्मात!
सोचना चाहिए तुमको!
तुम सम्राट हो!
सम्राट का कर्तव्य है
चिंतन अनु चिंतन
मनन सतत मनन!
सबेरे और संध्या के बीच में
काले काले और किनारों पर
सफेद लाल मंडल सूर्य को घेरे रहते हैं
सूर्य जैसे बंधन में हो अविराम!
वह बंधन में पड़े पड़े डूब जाता है!
उस पर भी उसके आस पास
अकाल बिजली चमक जाती है।
सूर्य चंद्र और नक्षत्र
दिन रात प्रज्जवलित रहते हैं
दिन और रात में अंतर नहीं दिखता।
भोर के आकाश में
असंख्य टिड्डियां दीख पड़ती हैं!
वे आकाश को मथ देती हैं!
नदियों का पानी लाल हो रहा है
सब नदियां उल्टी बहने लगी हैं
सूखे कुओं में फेन उतरा रहा है
उनका जल हवा में ऐसे उछलता है
जैसे बैल कूद रहे हों
लहू लुहान वृष!
संड वृष!
इन्द्र के वज्र समान प्रभा वाले तारे
घोर शब्द करके टूट टूट कर गिर रहे हैं
राख होकर झर रहे हैं!
तुम्हारे मुकुट और राज भवन के शिखरों पर भी
तुम्हारे स्वर्ण रथ और राज्य ध्वज
तिरोहित हो रहे हूं उस राख में!
भू कंप होता है और चारों
महासागर बढ़ कर अपनी हदें
छोड़े हुए उमड़ रहे हैं!
जैसे पृथ्वी को डूबो देंगे
कभी भी।
आंधी वृक्षों को तोड़ती हुई
और कंकड़ बरसाती हुई जोरों से चल रही है
वज्रपात से टूट टूट कर वृक्ष
देव मंदिरों गांवों और नगरों में गिर रहे हैं।
बिना धुएं वाली अग्नि शिखा निकलती है और
शिशुओं के स्वप्न को स्वाहा करती
खिल खिलाती है
राज पथ के चतुष्कोणों पर!
स्पर्श गंध और रस आदि में
विपरीत भाव पैदा हो गए हैं!
हे भारत! तुम देख नहीं सकते
किन्तु मैं देख रहा हूं
हे भारत! तुम तुम सुन सकते हो तो
सोच भी सकते हो!
हे भारत चिंतन नहीं कर सकते तो
राज्य को छोड़ दो!
हे भारत! यही सोचने का समय है!
तुम सोच तो सकते हो!
यदि तुम सुन सकते हो तो उत्तर दो
यही कहो कि तुमने मुझे सुना!
ओह! यदि तुमने सुना होता
तो मुझे पहले वाक्य के पश्चात
एक और वाक्य मुझे बोलना न पड़ता!
हे भारत!
यह कबंध है दुर्योधन का
तुम्हारे अन्य पुत्रों का
प्रजा का
सूत पुत्रों का!
ओह! विक्षिप्त मैं बोलता जा रहा हूं!
यह भूल कर कि
कौन आत्म लीन सम्राट सुनता है
व्यास भीष्म द्रोण कृप कृष्ण विदुर के वचन
उसके निकट फलते फूलते हैं
भावी कबंध शकुनि कर्ण दुर्योधन दु:शासन!
कवि बोधिसत्व, मूलनाम- अखिलेश कुमार मिश्र
जन्म- 11 दिसम्बर 1968 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के सुरियावाँ थाने के एक गाँव भिखारी रामपुर में जन्म।
शिक्षा- प्रारम्भिक शिक्षा गाँव भिखारी रामपुर की ही पाठशाला से । इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए. और वहीं से तार सप्तक के कवियों के काव्य सिद्धान्त पर डिलिट् की उपाधि ली। यूजीसी के रिसर्च फैलो रहे ।
प्रकाशन- सिर्फ कवि नहीं (1991), हम जो नदियों का संगम हैं (2000), दुख तंत्र ( 2004), खत्म नहीं होती बात(2010) ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं। लंबी कहानी वृषोत्सर्ग (2005) तारसप्तक कवियों के काव्य सिद्धांत ( शोध प्रबंध) ( 2016)
संपादन- गुरवै नम: (2002), भारत में अपहरण का इतिहास (2005) रचना समय के शमशेर जन्म शती विशेषांक का संपादन(2010)।
प्रकाशनाधीन- कविता का सत्संग (लेख,समीक्षा और व्याख्या) अब जान गया हूँ तो ( पांचवाँ कविता संग्रह)
महाभारत और रामायण पर अलग अलग किताबें।
अन्य लेखन- शिखर (2005), धर्म( 2006) जैसी फिल्मों और दर्जनों टीवी धारावाहिकों का लेखन। जिनमें आम्रपाली (2001), 1857 क्रांति(2002), महारथी कर्ण (2003), रेत ( 2005) कहानी हमारे महाभारत की (2008), देवों के देव महादेव (2011-14), जोधा अकबर ( 2013-15) चंद्र नंदिनी ( 2017) जैसे बड़े धारावाहिकों के शोध कर्ता और सलाहकार रहे। इन दिनों रामायण पर बन रही एक फिल्म के मुख्य सलाहकार और शोधकर्ता हैं। साथ ही ओटीटीटी प्लेट फार्म पर बन रहे एक बड़े पौराणिक धारावाहिक के मुख्य सलाहकार हैं।
सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान(1999), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान (2001), संस्कृति सम्मान (2001), हेमंत स्मृति सम्मान (2002), फिराक गोरखपुरी सम्मान (2013) और शमशेर सम्मान (2014) प्राप्त है जिसे वापस कर दिया।
अन्य- कुछ कविताएँ देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं। कुछ कविताएँ मास्को विश्वविद्यालय के स्नातक के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है। दो कविताएँ गोवा विश्व विद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल थीं।
फिलहाल- पिछले 22 साल से मुंबई में बसेरा है।
ईमेल पता- abodham@gmail.com
ब्लॉग का पता- http://vinay-patrika.blogspot.com/
मोबाइल-0-9820212573
टिप्पणीकार भरत प्रसाद, जन्म : 25 जनवरी, 1970 ई. ग्राम हरपुर ,संतकबीरनगर (उ.प्र.)
आलोचना : कविता की समकालीन संस्कृति,
बीहड़ चेतना का पथिक:मुक्तिबोध, प्रतिबद्धता की नयी जमीन, बीच बाजार में साहित्य, सृजन की 21वीं सदी, देसी पहाड़ परदेसी लोग (पुरस्कृत ), नयी कलम : इतिहास रचने की चुनौती , चिंतन की कसौटी पर गद्य कविता।
पुस्तिका : भारत एक स्वप्न (साहित्येतर वैचारिकी)
काव्य संग्रह: एक पेड़ की आत्मकथा (पुरस्कृत ), बूंद बूंद रोती नदी, पुकारता हूँ कबीर, समकाल की आवाज़ : भरत प्रसाद (चयनित कविताओं का संकलन)
कहानी संकलन: और फिर एक दिन (पुरस्कृत ), चौबीस किलो का भूत , विचार परक कृति: कहना जरूरी है।
सम्पादित पुस्तकें : बचपन की धरती: धरती का बचपन-2021 ई., प्रकृति के पहरेदार – 2021 ई., कहानी की नयी सदी-2021 ई.
पुरस्कार : मलखानसिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार : 2014 ई.,युवा शिखर सम्मान-2011(शिमला) अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार -२००८ ई. सहित पांच साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित।
हिंदी साहित्य लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताओं,लेखों और कथा साहित्य का निरंतर प्रकाशन| प्रधान संपादक : पूर्वांगन –ई-पत्रिका तथा सम्पादक : देशधारा : वार्षिक साहित्यिक पत्रिका।
सम्प्रति : प्रोफेसर, हिंदी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय ,शिलांग – 793022, (मेघालय)
मेल:deshdhar@gmail.com
मो.न. 09774125265
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