विपिन चौधरी
रचनात्मक और जिज्ञासु संचेतना देर-सवेर अपनी भाषा विकसित कर लेती है. यह भाषा कवि की आत्मा की भाषा है. अपने भीतर के निर्वात को महसूस कर बाहरी संसार की अबूझता को बुझने वाली यह भाषा, कवि को सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है. इसी को साथ लेकर वह जीवन को जानने के संजीदा प्रयास में उत्पन्न अनुभूतियों के लिए रचनात्मक सृजन कर पाता है.
इसी तरह प्रकृति के पास भी अपनी एक भाषा है जिसके माने सार्वभौमिक होते हैं. इस भाषा के नज़दीक जीवन की निरर्थकता और अधिक घनी प्रतीत होती है क्योंकि प्रकृति की विराटता और मनुष्य की क्षुद्रता यहाँ अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.
कवि और आलोचक आशीष त्रिपाठी की कविताएँ प्रकृति की अनेकों भंगिमाओं से मनुष्यता के लिए जरूरी गुणों को सीखाती हैं. चूंकि प्रकृति में व्याप्त हरापन विकास का द्योतक है इसीलिए कवि ऐसे व्यवहार को बर्ताव में लाना चाहता है जिससे प्रकृति की हरियाली अगली पीढ़ी के लिए अक्षुण्ण रह सके,
जीना इस तरह
कि याद रहे हर पल
ये धरती छोड़ कर जाना है
बच्चों के लिए
कच्चे अमरूद की तरह
गोल और पुष्ट ( जीना)
‘एक धुन’ शीर्षक से लिखी कविता में कवि प्रकृति को साथ लेकर अपने अतीत और वर्तमान में डूबता उतरता है,
स्मृतियों के पेड़ के नीचे पसरी छाया
इस धुन की धीमी हवा से
नाच सी रही है मन की धरती पर
उत्तर भारत की सांस्कृतिक विरासत का सबसे विशाल केंद्र बनारस और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई आपस में इतने घुले-मिले हुए हैं कि इन्हें कभी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. उन्हीं को समर्पित कविता, ‘सच मानो’ में कवि सुरों को साधने वाले इस सरल व्यक्तित्व को पर्याप्त गरिमा प्रदान करते हुए कहता है,
जब तुम प्यार करते हो बच्चों को बच्चों की तरह
गले मिलते हो किसी अनजान को भाई मानकर
मुझे तुम्हारी देह
सच मानो
भगवान का सबसे पवित्र घर लगती है
उदारीकरण की नीतियों के कारण आर्थिक और सामाजिक दुष्परिणामों को झेलते इस क्रेता और विक्रेता प्रधान युग का यह दुर्भाग्य है कि भागते-दौड़ते मनुष्य को अपनी आत्मा के नज़दीक जाने का ठहराव विश्व भर में फैली कोरोना की महामारी के दिनों में ही मिला.
कवि भी कोरोना काल में स्वयं को अपने सबसे करीब पाता है,
आत्मा का कलुष निथर रहा है
समुंदर और नदियों की तरह
आत्मा के अंधेरे कोनों में (इन दिनों)
देश के तीन-चार बड़े उद्योगपतियों को देश की संपदा सौंपने की मुहिम चल रही है. गरीब-गुरबे को जीवन कठिन से कठिनतर होता जा रहा है. मध्यम वर्ग के सामने परेशानियों का पहाड़ बढ़ता जा रहा है. दूसरी ओर झूठे वादों और तिलिस्मी दिलासाओं में सतयुग के युग के आने जैसी छद्म बातें की जा रही हैं. इन्हीं विरोधाभासों को केंद्र में रख कर कवि ने ‘कलयुग’ और ‘मेरी नींद’ जैसी कविताएँ लिखी हैं.
मनुष्य की अंधी होड जब खत्म होती है तब उसे सुकून के पुराने दिन याद आते हैं. वह फिर कोविड तालाबंदी के दौरान के शांत दिनों की हसरत करता है,
इन दिनों प्यार छलकता है हर पल
प्यार के लिए
आत्मा को चाहिए
ऐसा ही पुनर्जीवन
ऐसी ही निर्लिप्तता
ऐसी ही प्रतीक्षा ( इन दिनों )
आशीष त्रिपाठी की कविताओं में उम्मीद, स्मृतियाँ, प्रकृति और वर्तमान जैसे विषय प्राथमिक तौर पर सामने आते हैं. अभिव्यक्ति की सहज रवानगी के अलावा एक कवि-आलोचक होने के विस्तृत ज्ञान का दुरूह भार उनकी कविताओं पर हावी नहीं होता इस कसौटी पर उनकी कविताएँ खरी उतरती हैं.
आशीष त्रिपाठी की कविताएँ
1. कलयुग
यह उस युग की बात है
जब भाषा से
सौम्यता,उदारता और विनम्रता जैसे शब्दों का लोप हो गया था
सहनशीलता और सहिष्णुता – बस राजनैतिक अनुष्ठानों में बाकी थे
हर आदमी के हाथ में
एक पुरातन लोकनायक का धनुष था,
जिसकी प्रत्यंचा तनी हुई थी
‘भय से उपजती है प्रीत‘ – समाज का
आदर्श वाक्य था
प्रेम पर नैतिक पाबंदियां थीं
सहनशीलता कमज़ोरी का लक्षण
रौद्र और वीर सबसे प्रमुख रस
शृंगार छिछोरेपन का सूचक
उदारता दोमुंहेपन का लक्षण मान ली गयी थी
सिर्फ पुरस्कार के लिए
कवितायेँ लिखने वाले कवि राजकवि थे
फिर भी ‘कविता‘ पर संदेह किया जाता था
क्योंकि उसमें भाषा के गुणों का उपयोग करने की शक्ति शेष थी
कलावंतों में सिर्फ संगीतज्ञ थे जो चांदी काटते थे
जनता की भाषाओँ को मार देने की ख़ुफ़िया परियोजनाएं जारी थीं
लोकतंत्र में संख्याबल ही एकमात्र कसौटी था
राजनीति पारिवारिक जायदाद
जाति और धर्म
मरी हुई खाल पर चिपके आभूषण
प्रवचन उद्योग सबसे बड़ा उद्योग
कुछ खास संगठनों की सदस्यता देश प्रेम
कुछ खास कंपनियों का सामान खरीदना नागरिक ज़िम्मेदारी
जनता को मुफ्तखोर बनाने के लिए
लखमुखी योजनाएं
यह उस युग की बात थी
जब अपराधी का साथ सुरक्षा की गारंटी था
हत्यारे नायक माने जा रहे थे
सामूहिक नरसंहार के रचयिताओं ने
इतिहास से महानायकों को बेदखल कर दिया था
इस बखान से कहीं आप
फिक्रमंद तो नहीं हो गए
चिंता मत कीजे हुज़ूर
वह कलयुग बीते सदियां बीत गयीं हैं
अभी तो सतयुग चल रहा है
2. मेरी नींद
अभी मेरी नींद का रंग है
गहरा स्लेटी
काले की ओर झुकता धीरे- धीरे
मेरी नींद की देहरी पर खड़ा है
जुनैद का हमशक्ल
जलती भट्टी की दीवार सा है उसका रंग
उसकी आँखों में करुण अंगारी धधक है
नींद की देहरी के भीतर मैं उसे छूने बढ़ता हूँ
कि उसके चेहरे से
झांकने लगता है
अयूब का सख़्त कर्मठ चेहरा
और पार्श्व से गूंजती है
जुनैद की महतारी के रुदन को ओवरलैप करती अयूब की बहन की आवाज़
मेरी नींद हामिद के साथ
जुनैद के गांव के ईदगाह में भटकती है
ईदगाह आया हर बच्चा डरा हुआ है
नमाज़ के बाद किसी ने
दूसरे को मुबारकबाद नहीं दी है
मेरी नींद में कहीं गहरे अंधेरे से आती है
नज़ीर की आवाज़
कि अचानक
नींद में दौड़ती आती हैं पहलू खान की गायें
बंबाती हुई
उनमें से एक की शकल
मतवारी से मिलती है हूबहू
बचपन में मेरे घर की सबसे दुधारू गाय
नींद का रंग कालिख हुआ जाता है
एक बड़ी सैकड़ों दरवाजों वाली बड़ी हवेली में
भटकती है नींद
जिसका हर दरवाज़ा बाहर से बंद है
हवेली के भीतर
दुनिया का सबसे बड़ा रेगिस्तान
धूप में तप रहा है
भयानक लू के बीच
भीतर एक कमरे में बंटते हैं हत्यारे कर्ज़
आत्महत्या कर चुके सभी किसान खड़े हैं सामने
पर सामने कर्ज़ लेने के लिए
लगी है लंबी लाइनें
जिनके भाइयों ने आत्महत्या की
वे किसान भी खड़े हैं
जिनके पिताओं ने फांसी लगाई ,उनके बेटे
खड़े हैं पंक्ति में चुपचाप
उनकी आंखों में पसरी है
भयानक ठंडी राख ठंडी चिता की
मेरी नींद का रंग
गीले कत्थे सा था अभी
नींद में लाखों दृश्य
एक दूसरे को ठेंलते चले आते हैं
कि अचानक चारो ओर छा जाती है महचुप्पी
पीछे की सब आवाज़ें चुप हैं
और बेआवाज़ रुदन का महाकोरस
दृश्य में चलता है
मेरी नींद
लाखों आंखों में राख सी उड़ती है
बिना तेल की बाती सी भभकती है
जलती है अंधी
मेरी नींद
3. समय
गड़ासे सा तना है समय मेरी गर्दन पर
सनातन सिर्फ़ संस्था का नाम नहीं है
हत्यारे मानुष से ख़तरनाक हैं
हत्यारे विचार
अहिंसा मानने का भरम देने वालों के दिमागों में
चलती रहती हैं
नरसंहार की योजनाएं
वीरता के नाम पर
वे हिंसा के कारखाने चलाते हैं
समन्वय की मीठी गोली देने वाले
घूमते हैं त्रिशूल लेकर
उनके भगवान के प्रत्येक भाले पर है
एक विरोधी का कटा हुआ सर
4. जीना
जीना इस तरह
कि डूब सको
बच्चों की हंसी के समंदर में
स्वाद उतरे आत्मा तक
कुतरे हुए कच्चे आम का
लौटो घर
तो दरवाजा उत्सुकता से
निहारे तुम्हारा चेहरा
और देहरी चूमे पैर
जीना इस तरह
कि याद कर सको दोस्तों को
और माफ़ कर सको
उन सबको
जिन्होंने व्यवहार किया
दुश्मन की तरह
जीना इस तरह
कि याद रहे हर पल
ये धरती छोड़ कर जाना है
बच्चों के लिए
कच्चे अमरूद की तरह
गोल और पुष्ट
5. ज़िंदगी फिर
ज़िंदगी फिर अपने पंख फैला रही है
अपने मुलायम पंखों से छू रही है मेरी आत्मा को
मेरे वर्तमान को दे रही है अपना सबसे कोमल स्पर्श
मेरे अतीत पर फैला रही है शरद की नर्म धूप
ज़िंदगी फिर अपने पंख फैला रही है
कितनी सुहानी लगती हैं फ़ैली हुई सब्जियां
पालक, लौकी, भिन्डी और नेनुआ की हरियाली
सोख लेती है आत्मा का कलुष
टमाटर की ललाई खींचकर सुला देती है सब उलझनों को
और ये कत्थई सिंघाड़ा सारी तेजाई को बदल देता है सुस्ती में
इस विलंबित लय में
कितना सुन्दर है सब कुछ
न कहीं जाने की हड़बड़ी है न कुछ खोने का भय
भटियार की किसी पुरानी बंदिश सी
ज़िन्दगी धीरे धीरे सीझती है मेरे भीतर
ज़िंदगी फिर अपने पंख फैला रही है
6. उदासियाँ
पुराने घड़ों के बासी पानी की तरह
उदासियाँ मेरी बातों में बसाती हैं
वे न अपने आने की वजह बताती हैं
न ठहरने का पता, न जाने का रास्ता
वे एक पुराने दोस्त की तरह
यूँ ही चली आती हैं
मेरी आत्मा का इतिहास
भरा है उनके घातों से
उनके हमलों के घाव
समय की धूल तले
अभी भी जीते हैं
7. याद
भरे थनों वाली दुधारू गाय सी
वह एक जानलेवा
दोपहर
मेरे सामने दौड़ी चली आती है।
पराजित
अभी !
ठीक अभी !!
8. एक धुन
एक धुन
मेरे भीतर मचल रही है
बरसों पहले सुनी
इधर बिसर सी गयी
उस धुन को
गाते हुए
मेरे भीतर
ओस की तरह
गिर रही है
अतीत की एक फाँक
धीरे धीरे
एक दिन आधा बीता
आज लेकर आया है
अपने साथ
आधा अनबीता
उस आधे दिन
बातों बातों में
लगभग राख हो चुकी चाय
पी जा रही है आज
चुस्कियाँ लेकर
एक फूल का रंग
उस अनबीते से निकलकर
आज मेरे भीतर
ठंड की धूप की तरह गुनगुना रहा है
स्मृतियों के पेड़ के नीचे पसरी छाया
इस धुन की धीमी हवा से
नाच सी रही है मन की धरती पर
एक धुन मेरे भीतर मचल रही है
9. सच मानो
( उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को समर्पिंत )
सुरीली लगती है अज़ान
और मंदिरों की घंटियों की आवाज़
सुर की डगर है भगवान तक पहुँचने का रास्ता
और राग ख़ुदा का घर
बनारस मेरे लिए काबा है
तुम देवताओं के घरों के लिए लड़ते हो
पर क्या जानते हो कहाँ रहते हैं देवता
त्रिशूल, तलवार और गड़ासा लेकर
जब तुम निकलते हो सडक पर
खून के प्यासे होकर
मैं देख पाता हूँ तुम्हारी आत्मा से
कूच कर गया है तुम्हारा भगवान
प्रार्थना करता हूँ
वह लौट आये तुम्हारे भीतर
जब तुम प्यार करते हो बच्चों को बच्चों की तरह
गले मिलते हो किसी अनजान को भाई मानकर
मुझे तुम्हारी देह
सच मानो
भगवान का सबसे पवित्र घर लगती है
10. इन दिनों
( कोविड तालाबंदी में )
चिड़ियों की आवाज़ के साथ
हवाएं आहिस्ता छूती हैं देह को
जैसे वे छूना चाहती हों आहत आत्मा
आत्मा का कलुष निथर रहा है
समंदरों और नदियों की तरह
आत्मा के अंधेरे कोनों में
छुपती आईं इच्छाएं
शार्क मछलियों सी
अठखेलियां कर रही हैं किनारे आकर
इन दिनों प्यार छलकता है हर पल
प्यार के लिए
आत्मा को चाहिए
ऐसा ही पुनर्जीवन
ऐसी ही निर्लिप्तता
ऐसी ही प्रतीक्षा
11. पुराना घर
खड़ा हूँ बरसों पहले छूट गए
किराये के घर के सामने
घर, जिसने कई कठिन सालों में छांव दी
और साथी रहा अकेलेपन का
आज यहाँ धूप है
छाया का एक भी टुकड़ा नहीं है मेरे हिस्से
खुला नहीं है कोई दरवाजा मेरे लिए
अतीत की एक फाँक
छाते की तरह
तनी है मेरी आत्मा पर
देह धूप से तप रही है
12. तुम्हारी याद
सन्नाटा अभी
धरती पर गिरकर
दरक गया है
एक सितारा
अभी खिला है
देर रात
एक आंख
एकटक देख रही है
उसकी ओर
रूठी हुई है
यह रात
सन्नाटा अभी
धरती पर गिरकर
टूट गया है
कवि आशीष त्रिपाठी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं। जाने माने कवि और आलोचक हैं। सम्पर्क: 09450711824
टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.