समकालीन जनमत
कविता

अरविंद पासवान की कविताएँ साफगोई का सौंदर्य हैं

श्रीधर करुणानिधि


सरलता का अपना सौंदर्य होता है। निश्छल हृदय की बातें और भोली उन्मुक्त हँसी बरबस ध्यान खींच लेती हैं। जब चारों ओर कोलाहल ही कोलाहल हो तो ऐसे बेचैन समय में सहजता ही सर्वाधिक आकर्षित करती हैं और इस कवितोन्मुखी समय में सच्ची कविता के लिए सुधि पाठक ठहरकर सोचने और देखने की जरूरत महसूस करने लगते हैं।

हर कवि का मिज़ाज उसके अनुभव जगत और समय की टकराहट से बनता है। समकालीन युग बोध के कई शेड्स से अपने अनुभव और संवेदना को मिलकर कविता का गढ़न होता है। यूँ तो विचार साहित्य की किसी भी विधा के लिए अनिवार्य तत्व है। बिना विचार के कुछ भी नहीं। लेकिन यह भी सच है कि कविता की रचना-प्रक्रिया में विचार और संवेदना की मात्रा की अनवरत बहस निरंतर जारी है और रहेगी….।

अरविंद पासवान हिन्दी के युवा कवि के रूप में अपना स्थान बना चुके हैं। इनका ‘मैं रोज लड़ता हूँ’ शीर्षक एक कविता संग्रह प्रकाशित है। इस कविता संग्रह की कविताओं से इन पंक्तियों के लेखक का गुजरना हुआ है। इस संग्रह की कविताओं के कंटेंट में संघर्ष और दलित, उत्पीड़ित समुदाय की आवाजें बिना किसी ‘लाउडनेश’ के महसूस की जा सकती हैं।

अक्सर दलित कविताओं में भोगने की तल्खी और उससे उपजा आक्रोश पाठक प्रत्यक्ष महसूस करने लगते हैं लेकिन इस संग्रह की कविताओं में बिना किसी उतावलेपन के गंभीरता और धैर्य के साथ बात कहने और उन्हें पाठकों तक संप्रेषित करने की जो कला कवि ने अर्जित की है यह उन्हें अलग और विशिष्ट बनाती हैं।

‘लड़ना’ एक सतत क्रिया है। यह मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष करने की क्षमता और यथास्थितिवाद से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। ‘लड़ाई’ खुद के भीतर भी होती है और सामाजिक जड़ताओं और उसको बरकरार रखने के विचारों से भी होती है। इस संग्रह के कवि की लड़ाई के वाकई कई आयाम हैं। ‘लड़ाई’ एक अपरिहार्य प्रक्रिया है जो जीवन को बेहतर बनाने के लिए, सुन्दर और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए जरूरी है-
‘‘मैं रोज लड़ता हूँ/इसलिए नहीं कि जीतूँ रोज
इसलिए कि लड़ना भूल न जाऊँ।’’

अरविंद की कविताएँ अपनी संवदेना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से सहज भले प्रतीत होती हैं लेकिन वे भली-भांति जानते हैं कि सहजता प्राप्त करने के रास्ते में खतरे भी बहुत हैं। एक खतरा है कविताओं के सपाट हो जाने का। कवि इस खतरे से बहुत दृढ़तापूर्वक मुकाबला करते हुए कविता को इस संकट से उबार लेता है।

कवि की कविता का फलक व्यापक है। कविताएँ कभी समकालीन दौर के संकटग्रस्त युद्धक्षेत्र तक पहुंचती हैं कभी उनके कारणों की तलाश में इस लोभ-लाभ की दुनिया को बनाने और गढ़ने में पूंजीवाद की करतूतों तक पहुँच कर उसकी शल्य-क्रिया करती है। कभी इसके बरक्स श्रम की संस्कृति के महत्व को प्रतिपादित करती हुई उसके सौंदर्यबोध से पाठकों को आत्मीय बना लेती है।
‘दुनिया की नदियाँ/बच्चों के खून से लाल हैं
हम पानी की जगह /रक्त पी रहे हैं
खाने की थाली में अचानक/दुधमुंहे का सिर आ गिरता है….(फिलिस्तीन-इजरायल के बच्चे शीर्षक कविता)

पूंजी ने पूरी दुनिया को कई हिस्सों में बाँट दिया है। बाँट कर देखना ही उसका समाजशास्त्रीय कर्म है। पूंजीवाद ने धर्म के साथ जो गठजोड़ किया है उसका कुत्सित दुष्परिणाम आज भारत सहित विश्व के अत्य हिस्से में दिखता है-
‘‘जब भी चाहा खेला-खाया/खोदा सब संसार
हम दुनिया के बहुसंख्यक/बंटे हुए हैं टुकड़ों में लाचार
दुम दबाके, पूंछ हिलाक/करते जय जयकार….(पूंजी शीर्षक कविता)

दलित कविताओं में विचार के सबसे महत्वपूर्ण प्रेरणा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर रहे हैं कवि की कविता में अंबेडकर की उपस्थिति रही है। अरविंद पासवान अंबेडकर के योगदान को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-
‘‘हमें सूरज के होने का अहसास
तुम्हारे आने के बाद हुआ।’’(भारत रत्न बाबा साहेब शीर्षक कविता)

कवि अंबेडर के दर्शन और सिद्धांत के आधार पर देवत्व की अवधारणा का खंडन करते हुए मनुष्य की मुक्ति के संघर्ष को रेखांकित करते हुए किसी देवता की जरूरत नहीं इंसान की जरूरत को प्राथमिकता देते हैं। वे कर्म और संघर्ष की अहमियत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-
‘‘आदमी के ही घृणा की ताप पर पका हुआ
एक आदमी/जो सदियों के सताये हुए
मनुष्यों के दुखों को जान गया था
मान गया था/ईश्वर नहीं
आदमी ही आदमी के मुक्ति का मार्ग है…’’(अंबेडकर शीर्षक कविता)

अरविंद की कविता में श्रम के महत्व को रेखांकित किया गया है। दलित समुदाय के प्रति हुई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा के विरुद्ध इन कविताओं में घृणा के बदले एक शांत प्रतिरोध है। कवि संघर्ष और प्रतिरोध की आवाज के उन पूर्वज नायकों को नहीं भूलता जिन्होंने शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध जिजीविषा को रचा है और अपनी अगली पीढ़ी को प्रेरणा प्रदान करने के साथ-साथ गर्व करने का अवसर प्रदान किया है। राजा-महाराजाओं के कारनामों और उनके संरक्षण में विकसित हुई कलाकृतियों और आलिशान इमारतों की प्रशस्ति से संपूर्ण इतिहास भरा पड़ा है लेकिन उन इमारतों के निर्माण में गुमनाम श्रमिकों की पहचान दबी रह जाती है –
‘‘लेकिन हमारे वंशधर वसंत के पत्ते नहीं/वंशज थे दूब के
वे सच और संघर्ष की मिट्टी में जीना चाहते थे/दूब बनकर…
इसी श्रम की संस्कृति, प्रेम और जिजीविषा के महत्वपूर्ण नायक हैं ‘माउंटने मैन’ के नाम से विख्यात दशरथ मांझी। कवि ने उनकी तुलना मुगल बादशाह शाहजहां की है।
‘‘ प्रेम में केवल/फर्श, दीवार और गुंबद ही नहीं
रास्ते भी बनाए जात सकते हैं/हो सकता है कोई जुनूनी दशरथ मांझी
अपनी काया बिछाकर/दूरी दुनिया को जोड़ दे
प्रेम की डगर से…(शाहजहां: दशरत मांझी)

कवि की कविताओं के कई शेड्स हैं। जहाँ कवि अंतराष्ट्रीय युद्धक्षेत्र में बच्चों के खून से रंगी नदियों के पानी से आक्रांत हैं वहीं रंग, नस्ल, जाति, धर्म के खांचे में विभाजित मनुष्यता की मानिसक गुलामी से दुखी है। कवि पूंजीवादी लोभ-लाभ की संस्कृति में पर्यावरण के विनाश को एक सस्कृति के नष्ट होने की तरह देखता है। हमारी नदियाँ हमारी गंगा-जमुनी तहजीब का सबसे बड़ा आईना है। हाल के दिनों मिली जुली संस्कृति पर सबसे अधिक हमले हुए हैं। इस सांप्रदायिकता ने हमारी संस्कृति के गढ़न पर संकट पैदा कर दिया है। कवि नदी सिरीज की कविताओं में इन सारे आयामों पर सहजता और बेबाकी से अपने काव्य-कौशल के साथ उपस्थित है। यहाँ कवि की कविता का सौंदर्य-बोध, स्मृतियाँ, प्रकृति-चित्रण, पर्यावरण-बोध, इतिहास-बोध एक साथ दिलखाई पड़ते हैं-

‘‘लेकिन आज और इस समय भी/शहर किशनगंज के बीचोबीच
बह रही है एक नदी रमजान….(रमजान शीर्षक कविता)
कवि की नजर से जहाँ नदियों के बहाने सांप्रदायिक होते समय और सामूहिक संस्कृति के विनाश की बात ओझल नहीं हैं वहीं नदी विषयक अन्य कविताओं में बचपन की स्मृतियों का गझिन कोलाज है जो कहीं तो नानी के गांव की ‘बाया’ नदी के जीवन के हर पहलू का संपूर्णता से उद्भेदन करती हुई अंततः श्रम की संस्कृति पर केन्द्रित हो जाती हैं…क्योंकि नदियों को श्रमिकों ने, दलित और आदिम-समूहों ने नष्ट नहीं किया उन्हें हमेशा सहजीवी की तरह देखा है…
‘‘जिंदा रहे मांझी/नाव और पतवार के साथ
नदी की उम्मीद पर/इस तरह
बाया ने बनाया है इतिहास/लोगों के दिलों की जमीन पर…
…………………………
बाया के बारे में कहती थी मौसी /हमारे लंबे काले घने बालों को
और घना और काला करती है/बाया के गोद की काली मिट्टी….
………………………….
हमारे नन्हे पांव के गहरे निशान/ दमकते हैं आज भी नदी के तट पर
काली जलोढ़ मिट्टी में……(बाया शीर्षक कविता)

अरविंद पासवास की कविताओं के कई रूप-रंग है। जहाँ उनके पास एक राजनीतिक-बोध है, व्यंग्यधर्मी भाषा है, सहजता है, वहीं संवेदनाओं की सांद्रता भी है। विचार-कविता भी है, सघन सौंदर्यबोध की कविताएँ भी हैं मझोले कद की कविताओं से चंद पंक्तियों की छोटी परंतु मारक कविताएँ भी हैं, पुरानी छंद परंपरा की लययुक्त कविताएँ भी हैं। जहाँ गांधी मैदान में गिरा रावण’ शीर्षक कविता में व्यंग्यधर्मिता पाठकों के भीतर तक सहज उतर जाती है वहीं ‘सोया शहर’ शीर्षक छोटी सी कविता भीतर तक भेद देती है….
चैन से सोया शहर रात भर/बंद था/कुत्तों का भौंकना
उन्हें/मिल गई थी लाश/एक कुंवारी कन्या की।

हिन्दी में छंद की कविताओं का दौर तो खत्म हो चुका है लेकिन कविता के सपाटपन से बचने की कोशिशों के लिहाज से पुराने छंदों का पुनर्सृजन भी नए भाव-बोध के साथ हो रहा है। इस दृष्टि से युवा कवि राकेश रंजन की कविताओं को बतौर उदाहरण लिया जा सकता है। अरविंद की ‘माई’ शीर्षक कविता भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय है-
‘‘मइया की ममता में, भूखे-प्यासे रहते भी,
दिन खिल उठता था, रात मुस्काती थी।
भात-तरकारी-रोटी, दाल रहे या न रहे,
सुखन-सुधा के सब व्यंजन खिलाती थी।।

सदा सम रहती थी, हंस बस कहती थी,
सुख-दुख एक संग, साथ नहीं रहते।
उग जब आता रवि, रजनी है चली जाती,
ऐसे बोल सुनके अंधेरे हम सहते।।’’

 

 

अरविंद पासवान की कविताएँ

 

 

 

कवि अरविन्द पासवान, जन्म : 18 फरवरी 1973,    हाजीपुर, वैशाली। शिक्षा : बी. ए. ऑनर्स (एम.     यू . गया)। पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, अस्मिता की आवाज़’ व ‘दूसरा शनिवार’ के ब्लॉग तथा कविता कोश पर कविताएँ प्रकाशित एवं प्रसारित। भारतीय भाषा केन्द्र, दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया द्वारा 2017 में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी (विषय :अस्मितामूलक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र) में सहभागिता।• गोष्ठियों में सक्रिय रूप से भागीदारी। डी डी बिहार से, ‘समकालीन हिन्दी साहित्य और बिहार का दलित लेखन’ विषय पर 2017 में चर्चा परिचर्चा में सहभागिता। रंगकर्म, गीत, गज़ल एवं संगीत में गहरी रुचि। वर्ष 2018 में प्रकाशित ‘बिहार झारखण्ड की चुनिन्दा दलित कविताएँ’ सामूहिक संग्रह के एक कवि। “मैं रोज़ लड़ता हूँ’ काव्य-संग्रह प्रकाशित।

संपर्क: 7352520586

ईमेल : paswanarvind73@gmail.com

 

टिप्पणीकार श्रीधर करुणानिधि
जन्म पूर्णिया ,बिहार के एक गाँव में

देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेब मेगजीन आदि में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-
1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार

2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
3. “पत्थर से निकलती कराह”(कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित)
4. ‘अँधेरा कुछ इस तरह दाखिल हुआ(कहानी-संग्रह), बोधि प्रकाशन से रामकुमार ओझा पांडुलिपि प्रकाशन योजना 2021 के तहत प्रकाशित

संप्रति-
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, गया कालेज, गया( मगध विश्वविद्यालय)

सम्पर्क: 09709719758, 7004945858
Email id- shreedhar0080@gmail.com

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