श्रीधर करुणानिधि
सरलता का अपना सौंदर्य होता है। निश्छल हृदय की बातें और भोली उन्मुक्त हँसी बरबस ध्यान खींच लेती हैं। जब चारों ओर कोलाहल ही कोलाहल हो तो ऐसे बेचैन समय में सहजता ही सर्वाधिक आकर्षित करती हैं और इस कवितोन्मुखी समय में सच्ची कविता के लिए सुधि पाठक ठहरकर सोचने और देखने की जरूरत महसूस करने लगते हैं।
हर कवि का मिज़ाज उसके अनुभव जगत और समय की टकराहट से बनता है। समकालीन युग बोध के कई शेड्स से अपने अनुभव और संवेदना को मिलकर कविता का गढ़न होता है। यूँ तो विचार साहित्य की किसी भी विधा के लिए अनिवार्य तत्व है। बिना विचार के कुछ भी नहीं। लेकिन यह भी सच है कि कविता की रचना-प्रक्रिया में विचार और संवेदना की मात्रा की अनवरत बहस निरंतर जारी है और रहेगी….।
अरविंद पासवान हिन्दी के युवा कवि के रूप में अपना स्थान बना चुके हैं। इनका ‘मैं रोज लड़ता हूँ’ शीर्षक एक कविता संग्रह प्रकाशित है। इस कविता संग्रह की कविताओं से इन पंक्तियों के लेखक का गुजरना हुआ है। इस संग्रह की कविताओं के कंटेंट में संघर्ष और दलित, उत्पीड़ित समुदाय की आवाजें बिना किसी ‘लाउडनेश’ के महसूस की जा सकती हैं।
अक्सर दलित कविताओं में भोगने की तल्खी और उससे उपजा आक्रोश पाठक प्रत्यक्ष महसूस करने लगते हैं लेकिन इस संग्रह की कविताओं में बिना किसी उतावलेपन के गंभीरता और धैर्य के साथ बात कहने और उन्हें पाठकों तक संप्रेषित करने की जो कला कवि ने अर्जित की है यह उन्हें अलग और विशिष्ट बनाती हैं।
‘लड़ना’ एक सतत क्रिया है। यह मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष करने की क्षमता और यथास्थितिवाद से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। ‘लड़ाई’ खुद के भीतर भी होती है और सामाजिक जड़ताओं और उसको बरकरार रखने के विचारों से भी होती है। इस संग्रह के कवि की लड़ाई के वाकई कई आयाम हैं। ‘लड़ाई’ एक अपरिहार्य प्रक्रिया है जो जीवन को बेहतर बनाने के लिए, सुन्दर और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए जरूरी है-
‘‘मैं रोज लड़ता हूँ/इसलिए नहीं कि जीतूँ रोज
इसलिए कि लड़ना भूल न जाऊँ।’’
अरविंद की कविताएँ अपनी संवदेना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से सहज भले प्रतीत होती हैं लेकिन वे भली-भांति जानते हैं कि सहजता प्राप्त करने के रास्ते में खतरे भी बहुत हैं। एक खतरा है कविताओं के सपाट हो जाने का। कवि इस खतरे से बहुत दृढ़तापूर्वक मुकाबला करते हुए कविता को इस संकट से उबार लेता है।
कवि की कविता का फलक व्यापक है। कविताएँ कभी समकालीन दौर के संकटग्रस्त युद्धक्षेत्र तक पहुंचती हैं कभी उनके कारणों की तलाश में इस लोभ-लाभ की दुनिया को बनाने और गढ़ने में पूंजीवाद की करतूतों तक पहुँच कर उसकी शल्य-क्रिया करती है। कभी इसके बरक्स श्रम की संस्कृति के महत्व को प्रतिपादित करती हुई उसके सौंदर्यबोध से पाठकों को आत्मीय बना लेती है।
‘दुनिया की नदियाँ/बच्चों के खून से लाल हैं
हम पानी की जगह /रक्त पी रहे हैं
खाने की थाली में अचानक/दुधमुंहे का सिर आ गिरता है….(फिलिस्तीन-इजरायल के बच्चे शीर्षक कविता)
पूंजी ने पूरी दुनिया को कई हिस्सों में बाँट दिया है। बाँट कर देखना ही उसका समाजशास्त्रीय कर्म है। पूंजीवाद ने धर्म के साथ जो गठजोड़ किया है उसका कुत्सित दुष्परिणाम आज भारत सहित विश्व के अत्य हिस्से में दिखता है-
‘‘जब भी चाहा खेला-खाया/खोदा सब संसार
हम दुनिया के बहुसंख्यक/बंटे हुए हैं टुकड़ों में लाचार
दुम दबाके, पूंछ हिलाक/करते जय जयकार….(पूंजी शीर्षक कविता)
दलित कविताओं में विचार के सबसे महत्वपूर्ण प्रेरणा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर रहे हैं कवि की कविता में अंबेडकर की उपस्थिति रही है। अरविंद पासवान अंबेडकर के योगदान को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-
‘‘हमें सूरज के होने का अहसास
तुम्हारे आने के बाद हुआ।’’(भारत रत्न बाबा साहेब शीर्षक कविता)
कवि अंबेडर के दर्शन और सिद्धांत के आधार पर देवत्व की अवधारणा का खंडन करते हुए मनुष्य की मुक्ति के संघर्ष को रेखांकित करते हुए किसी देवता की जरूरत नहीं इंसान की जरूरत को प्राथमिकता देते हैं। वे कर्म और संघर्ष की अहमियत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-
‘‘आदमी के ही घृणा की ताप पर पका हुआ
एक आदमी/जो सदियों के सताये हुए
मनुष्यों के दुखों को जान गया था
मान गया था/ईश्वर नहीं
आदमी ही आदमी के मुक्ति का मार्ग है…’’(अंबेडकर शीर्षक कविता)
अरविंद की कविता में श्रम के महत्व को रेखांकित किया गया है। दलित समुदाय के प्रति हुई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा के विरुद्ध इन कविताओं में घृणा के बदले एक शांत प्रतिरोध है। कवि संघर्ष और प्रतिरोध की आवाज के उन पूर्वज नायकों को नहीं भूलता जिन्होंने शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध जिजीविषा को रचा है और अपनी अगली पीढ़ी को प्रेरणा प्रदान करने के साथ-साथ गर्व करने का अवसर प्रदान किया है। राजा-महाराजाओं के कारनामों और उनके संरक्षण में विकसित हुई कलाकृतियों और आलिशान इमारतों की प्रशस्ति से संपूर्ण इतिहास भरा पड़ा है लेकिन उन इमारतों के निर्माण में गुमनाम श्रमिकों की पहचान दबी रह जाती है –
‘‘लेकिन हमारे वंशधर वसंत के पत्ते नहीं/वंशज थे दूब के
वे सच और संघर्ष की मिट्टी में जीना चाहते थे/दूब बनकर…
इसी श्रम की संस्कृति, प्रेम और जिजीविषा के महत्वपूर्ण नायक हैं ‘माउंटने मैन’ के नाम से विख्यात दशरथ मांझी। कवि ने उनकी तुलना मुगल बादशाह शाहजहां की है।
‘‘ प्रेम में केवल/फर्श, दीवार और गुंबद ही नहीं
रास्ते भी बनाए जात सकते हैं/हो सकता है कोई जुनूनी दशरथ मांझी
अपनी काया बिछाकर/दूरी दुनिया को जोड़ दे
प्रेम की डगर से…(शाहजहां: दशरत मांझी)
कवि की कविताओं के कई शेड्स हैं। जहाँ कवि अंतराष्ट्रीय युद्धक्षेत्र में बच्चों के खून से रंगी नदियों के पानी से आक्रांत हैं वहीं रंग, नस्ल, जाति, धर्म के खांचे में विभाजित मनुष्यता की मानिसक गुलामी से दुखी है। कवि पूंजीवादी लोभ-लाभ की संस्कृति में पर्यावरण के विनाश को एक सस्कृति के नष्ट होने की तरह देखता है। हमारी नदियाँ हमारी गंगा-जमुनी तहजीब का सबसे बड़ा आईना है। हाल के दिनों मिली जुली संस्कृति पर सबसे अधिक हमले हुए हैं। इस सांप्रदायिकता ने हमारी संस्कृति के गढ़न पर संकट पैदा कर दिया है। कवि नदी सिरीज की कविताओं में इन सारे आयामों पर सहजता और बेबाकी से अपने काव्य-कौशल के साथ उपस्थित है। यहाँ कवि की कविता का सौंदर्य-बोध, स्मृतियाँ, प्रकृति-चित्रण, पर्यावरण-बोध, इतिहास-बोध एक साथ दिलखाई पड़ते हैं-
‘‘लेकिन आज और इस समय भी/शहर किशनगंज के बीचोबीच
बह रही है एक नदी रमजान….(रमजान शीर्षक कविता)
कवि की नजर से जहाँ नदियों के बहाने सांप्रदायिक होते समय और सामूहिक संस्कृति के विनाश की बात ओझल नहीं हैं वहीं नदी विषयक अन्य कविताओं में बचपन की स्मृतियों का गझिन कोलाज है जो कहीं तो नानी के गांव की ‘बाया’ नदी के जीवन के हर पहलू का संपूर्णता से उद्भेदन करती हुई अंततः श्रम की संस्कृति पर केन्द्रित हो जाती हैं…क्योंकि नदियों को श्रमिकों ने, दलित और आदिम-समूहों ने नष्ट नहीं किया उन्हें हमेशा सहजीवी की तरह देखा है…
‘‘जिंदा रहे मांझी/नाव और पतवार के साथ
नदी की उम्मीद पर/इस तरह
बाया ने बनाया है इतिहास/लोगों के दिलों की जमीन पर…
…………………………
बाया के बारे में कहती थी मौसी /हमारे लंबे काले घने बालों को
और घना और काला करती है/बाया के गोद की काली मिट्टी….
………………………….
हमारे नन्हे पांव के गहरे निशान/ दमकते हैं आज भी नदी के तट पर
काली जलोढ़ मिट्टी में……(बाया शीर्षक कविता)
अरविंद पासवास की कविताओं के कई रूप-रंग है। जहाँ उनके पास एक राजनीतिक-बोध है, व्यंग्यधर्मी भाषा है, सहजता है, वहीं संवेदनाओं की सांद्रता भी है। विचार-कविता भी है, सघन सौंदर्यबोध की कविताएँ भी हैं मझोले कद की कविताओं से चंद पंक्तियों की छोटी परंतु मारक कविताएँ भी हैं, पुरानी छंद परंपरा की लययुक्त कविताएँ भी हैं। जहाँ गांधी मैदान में गिरा रावण’ शीर्षक कविता में व्यंग्यधर्मिता पाठकों के भीतर तक सहज उतर जाती है वहीं ‘सोया शहर’ शीर्षक छोटी सी कविता भीतर तक भेद देती है….
चैन से सोया शहर रात भर/बंद था/कुत्तों का भौंकना
उन्हें/मिल गई थी लाश/एक कुंवारी कन्या की।
हिन्दी में छंद की कविताओं का दौर तो खत्म हो चुका है लेकिन कविता के सपाटपन से बचने की कोशिशों के लिहाज से पुराने छंदों का पुनर्सृजन भी नए भाव-बोध के साथ हो रहा है। इस दृष्टि से युवा कवि राकेश रंजन की कविताओं को बतौर उदाहरण लिया जा सकता है। अरविंद की ‘माई’ शीर्षक कविता भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय है-
‘‘मइया की ममता में, भूखे-प्यासे रहते भी,
दिन खिल उठता था, रात मुस्काती थी।
भात-तरकारी-रोटी, दाल रहे या न रहे,
सुखन-सुधा के सब व्यंजन खिलाती थी।।
सदा सम रहती थी, हंस बस कहती थी,
सुख-दुख एक संग, साथ नहीं रहते।
उग जब आता रवि, रजनी है चली जाती,
ऐसे बोल सुनके अंधेरे हम सहते।।’’
अरविंद पासवान की कविताएँ
वह कोई
ईश्वर या भगवान नहीं था
कि हो जाता मन्दिरों में कैद
मूर्ति बनकर पत्थर सरीखा
न कोई दूत था वह
गॉड का भेजा हुआ
कि तरह-तरह की लीलाओं में
होता शामिल
वह कोई खुदा भी नहीं था निर्विकार
वह एक आदमी था
प्रज्ञा, करुणा और समता का भाव लिए
आदमी के हृदय से बना हुआ
आदमी के ही घृणा की ताप पर पका हुआ
एक आदमी
जो सदियों से सताये हुए
मनुष्यों के दुखों को जान गया था
मान गया था
ईश्वर नहीं
आदमी ही आदमी के
मुक्ति का मार्ग है
2. बच्चे
सिसकते बच्चे से पूछा मैंने-
क्यूँ रो रहे हो बेहिसाब
सिसकर ही बोला वह-
छोटी-छोटी बातों पर पीटते हैं पापा
रोने भी नहीं देते घर में जनाब
3. बयान मुश्किल है
इन आँखो में
अब कोई उम्मीद नहीं बची है
बुढ़ापे की लाठी
एक डण्डे से छीन ली गई
हमेशा के लिए
उदास आँखों में कोई आस नहीं है
निरख रहा है दूर बहुत कुछ
और हम लाश बने
शब्दों की उबासी फेंक रहे हैं
चारों ओर
उनकी तो उनकी
हमारी नींद में भी खलल पड़ रही है
अन्धकार और घना हो रहा है
अपलक आँखों की तेज़ का
बयान मुश्किल है
एक आदमी के लिए
4. हम दफ्न होना शेष हैं
किसी की निश्छल आँखें
उम्मीद भरी निगाहों से हमारी तरफ ताके
और हम नज़रें फेर लें
सदाएँ सुनाई दे
और हम नज़रअंदाज कर
आगे बढ़ जाएँ
किसी आवाज़ में पुकार हो
और हम बेखबर
आटा-आलू-तेल में ही लीन रहें
जब गैर ज़रूरी चीजें
हमारी आदतों में शामिल हो जाए
और हमें
हमारी गुलामी का पता भी न चले
रिश्ते पारिवारिक-सामाजिक नहीं
बचा रहे आर्थिक
हमारे वैचारिक रिश्तों को
दीमक अपना घर बना ले
तो बस इतना समझ लीजिए
हम दफ्न होना शेष हैं।
5. यह सच है
हम हिन्दू हैं
वे मुसलमान
इसी तरह सिक्ख ईसाई
बौद्ध जैन पारसी
और न जाने किन-किन धर्मों के साथ
जी रहे हैं धरती पर
दुनिया के लोग
काले और गोरे रंग वाले भी
जी रहे हैं साथ-साथ इसी दुनिया में
पर
यह भी सच है
सच के साथ हम कम ही जी रहे हैं
रंग, नस्ल, जाति और धर्म ने हमें
सदियों से गुलाम बना रखा है
6. पूँजी
आप अकेले अटल अमिट हैं
दुनिया में सरकार
जब जी चाहा खेला खाया
खोदा सब संसार
हम दुनिया के बहुसंख्यक
बँटे हुए हैं टुकड़ों में लाचार
दुम दबाके, पूंछ हिलाके
करते जय जयकार
प्रभुजी आपकी जय जयकार।
7. शाहजहां : दशरथ मांझी
लोग कहते हैं
प्रेम की निशानी है : ताजमहल
जिसे शहंशाह ने नहीं
मेहनतकश हाथों ने
शाहजहां के स्नेह मिश्रित शाही खजाने से
बनाया था
अब लोग ही कहते हैं
प्रेम में केवल
फर्श, दीवार और गुंबद ही नहीं
रास्ते भी बनाए जा सकते हैं
हो सकता है कोई जुनूनी दशरथ मांझी
अपनी काया बिछाकर
पूरी दुनिया को जोड़ दे
प्रेम की डगर से।
(दशरथ मांझी के निधन दिवस पर उन्हें याद करते हुए, जिन्होंने पत्नी फगुनिया के प्रेम में पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया, जिस पर आज चलते हैं असंग जन। श्रद्धांजलि!)
8. नदी घाट और प्रेम
हमारा प्रेम
नदी घाट की तरह है
ठीक आमने-सामने
स्तंभ बनकर
नदी पुल की
रोज बहती रहेंगी
प्रेम बनकर।
9. तुम्हारे होने से
तुम्हारे होने से कोमल अहसास होता है ‘माँ’
‘बहन’ के होने से उत्साह दोगुना
दोस्त; जो लड़कियों के नाम से शुरु होते हैं
होने से उनके
होते हैं हमारे भीतर शर्म-व-हया
उमंग और नैनों में लाज
एक ‘प्रेमिका’ के होने से
आँखों में पलते हैं सपने हजार
‘पत्नी’ के होने से
बना रहना बुद्धू अच्छा लगता है बार-बार
‘बेटी’ के होने से मिलती है जीवन में खुशियाँ अपार
10. गांधी मैदान में गिरा रावण
आज नवमी के दिन ही
जलने के पहले
जमीन पर गिर गया रावण
वह जल-जलकर
जड़वत
लम्बवत है सदियों से
आकाश की तरफ बढ़ते हुए
जितनी लम्बाई से वह जला
उससे सौ गुणा या इससे भी अधिक आकार से
छाता गया क्षितिज पर
क्या सोचकर गिरा होगा वह
अचानक ही गिर गया होगा
या जल-जलकर उगता गया होगा
सोचा होगा
इस लीला में मेरी जरूरत नहीं है
अब तो असंख्य लीलाधर मौजूद हैं धरती पर
जलने से बेहतर है
मिट्टी में फना हो जाओ
उनके सपने साकार होने दो
जिनके सपनों में मैं राख बनकर
सालों भर उड़ता रहता हूं
उधर रावण जलाओ कमेटी के अध्यक्ष की
नाक और मूंछ पर आ पड़ी है
इसलिए
संघ के सदस्यों ने फैसला लिया है
रावण को फिर से खड़ा किया जाएगा
घी के दीये के साथ
उसे धूम-धाम से जलाया जाएगा।
11. नदी विषयक रचनाएं
बाया
नानी के गांव में एक नदी बहती है बाया
चौड़ी कम
मगर गहरी अधिक
पार घाट इतना करीब
कि हम सांस भी लें इस पार
तो हमारी धड़कन उधर सुन ली जाती उस पार
नामालूम वह कबसे बहती आ रही है
पूछने पर बताती थी नानी
जिस साल नदी में पानी कम हो जाता
कम हो जाती मछलियां
उस बरस नहीं उगते थे फसल
नहीं दिखते थे प्रवासी सतरंगे पक्षियां
नीले आकाश में
कुरेदने पर कहानी सुनाने थे नाना
इतिहास में
बड़ी नदियों की तरह
नहीं कहीं दर्ज है बाया
पर बाया ने सिरजा है बहुत कुछ
सींचा का कई-कई बस्तियों और पीढ़ियों को
अपनी तरलता से
जिंदा रहे हैं मांझी
नाव और पतवार के साथ
नदी की उम्मीद पर
इस तरह
बाया ने बनाया है इतिहास
लोगों के दिल की जमीन पर
अंत में नाना यह जरूर जिक्र करते थे
नदी छोटी है
तट छोटा है
पर इसके समानता का तट बहुत बड़ा है
कोई मनुष्य उच्च वर्ण से हो या निम्न से
दागदार हो या चरित्र से साफ
हो ईमानदार या चोर
स्त्री हो या पुरुष
बाया का वात्सल्य
और नदी का घाट
सबके लिए समान था
पशु-पक्षी इसके हृदय में वास करते थे
जितना इसने मछुआरे को मछली दिया
उसी अनुपात में किसानों को उर्वरा भूमि और जल
बाया के बारे में कहती थी मौसी
हमारे लंबे काले घने बालों को
और घना और काला करती है
बाया के गोद की काली मिट्टी
मामा
बाया के जलतरंगों से अटखेलियां नहीं करते थे
दिन में दो बार जबतक
उन्हें कुछ कमी महसूस होती थी
अपने भीतर तबतक
वह
तैरते थे अक्सर जलधारा के विपरीत ही
तैरने की कला मामा ने ही सिखाया मुझे
नदी से
जन्म से गहरा रिश्ता है हमारा भी
इसलिए नहीं है अपरिचित वह आज भी
हमारे नन्हे पांव के गहरे निशान
दमकते हैं आज भी नदी के तट पर
काली जलोढ़ मिट्टी में
यादों को खुरचने से न जाने बहता है
भीतर ही भीतर कितना पानी
जबकि
अब बाया में पानी नहीं
बयान शेष है।
12. जिन्दा होने का प्रमाण
नदियों के नाम चाहे जो हों
गंगा, यमुना, रमजान, दजला फरात, राइन …
दुनिया के देशों में वह
जहां कहीं भी
जिस दिशा में बहती हों
रंग धारण करती हों तमाम
मगर
होता उसमें पानी ही है
दुनिया के लोग चाहे
जिस नाम से जाने जाएं
अरविंद, अहसान, एंडरसन…
पुष्पा, सलाम, सोफिया…
पहचाने जाएं वे जिस रंग से
वे
दिख जाते हैं एक दूसरे की आंखों में
आंखों की पानी में
पानी
नदियों में हो या आंखों में
जिन्दा होने और रहने का प्रमाण है।
13. नदियाँ
सोख जाएंगे नदियों का जल
हम ही
हम ही भर देंगे उन्हें कचरे के ढेर से
आनेवाली पीढ़ियों के लिए
छोड़ जायेंगे नदियों को चित्रों में।
14. रमजान
गंगा
गंडक
बूढ़ी गंडक
……………
……………
……………
देश की तमाम नदियां
जो परंपरा से बहती और ढोती आई हैं
अपने नाम के साथ
गंगा-यमुनी तहजीब
और अब इस तहजीब में
कितना शेष बचा है पानी
कहना मुश्किल है!
लेकिन आज और इस समय भी
शहर किशनगंज* के बीचोबीच
बह रही है एक नदी रमजान।
* रमजान = बिहार की एक नदी
* किशनगंज =पूर्व उत्तर में बिहार का एक शहर, जिसके बीचोबीच यह नदी बहती है।
15. पानी : 2
नदियां धरती पर
या कहीं बाहर बह रहीं हैं कम
अब वह बह रही हैं हमारे भीतर ज्यादा
जबकि पानी
न्यूनतम नहीं बचा है शेष
कहीं भी।
16. 100° फीवर
जब आप 100° फीवर में होते हैं तो ऐसा नहीं कि मन में केवल तकलीफदेह बातें ही उभरते हैं
कभी कभी अच्छी यादें भी अचानक प्रकट हो जाते हैं
जैसे कि
बचपन में बुखार के समय
मां का मधु और चूना की पट्टी आंख और कान के बीचोबीच चिपकाना
कड़वे दवा को मधु में घोलकर प्रेम से पिलाना
घर और पड़ोस के सदस्यों से सहानुभूति पाना
पिता का सर पे हाथ फेर देना
मानो बुखार का छू मंतर हो जाना है
कष्ट में दादी का आंचल और दादा के स्नेह से संबल मिलना
पढ़ना लिखना बिलकुल बंद
न गुरुजी के पिटाई का भय
न घर में डांट की चिंता
इस प्रेम को पाकर कभी कभी लगता
बुखार में ही जीवन कट जाए तो अच्छा
लेकिन यह केवल लगने जैसी बात थी
सच अपने जगह अडिग खड़ा होता
बरस बाद
वसंत में जब
यौवन के फूल खिलते
जीवन में
स्वत: शामिल होती
प्रेमिकाएं
अगर आप निराश और उदास भी हैं तो
उनकी कामनाएं काम कर जाती
उनके हालचाल ले लेने भर से फीवर गायब हो जाता
जीवन के रंग बदलते हैं
जीवन के तबील सफर में शामिल होती हैं
प्यारी पत्नी
अगर आपको जुकाम भी है
वह दिन रात एक कर देती है
दोस्तों और शुभचिंतकों के
स्नेह से ज्वर का तापमान ठंडा हो जाता है
कभी कभी शारीरिक कष्ट
प्रेम को
पुनर्जीवित करने जैसा होता है
और इस प्यार से उऋण होना मुश्किल है
अगर आप फीवर में हों
और अकेले हों
तो खास अनुभव से गुजर सकते हैं
अकेलेपन का अहसास अनुभूति दे सकता है
आप जीवन के अच्छी यादों को याद कर सकते हैं
अभी सुबह के चार बजे हैं
मैं कोई भजन नहीं सुन रहा
इस गीत को सुन रहा हूं जिसे
गायकों ने बहुविध तरीकों से गाया है
केसरिया बालम
आओ पधारो म्हारे देस रे…
अगर मुझसे मुहब्बत है
मुझे सब अपने गम दे दो…
जब जब भी चांद निकला
और तारे जगमगाए
मुझे तुम याद आए…
17. माई
(कवित्त की लय पर आधारित)
एक दिन बापू जब, हमसे बिछड़ गए,
दुनिया के सभी दुख, दारुण से भर गए।
लड़-भीड़ विपदा से, ठीक से उबर गए,
ऐसी महतारी पाके हम सब तर गए।।
मइया की ममता में, भूखे-प्यासे रहते भी,
दिन खिल उठता था, रात मुस्काती थी।
भात-तरकारी-रोटी, दाल रहे या न रहे,
सुखन-सुधा के सब व्यंजन खिलाती थी।।
सदा सम रहती थी, हंस बस कहती थी,
सुख-दुख एक संग, साथ नहीं रहते।
उग जब आता रवि, रजनी है चली जाती,
ऐसे बोल सुनके अंधेरे हम सहते।।
18. जब तुम मिली
जब तुम मिली
वह बारिश का पहला दिन था
तुम जब हुई दूर मुझसे
वह आखिरी दिन था बारिश का
बारिश
फिर कभी नहीं लौटी मेरे जीवन में।
19. सोया शहर
चैन से सोया शहर रात भर
बंद था
कुत्तों का भौंकना
उन्हे
मिल गई थी लाश
एक कुंवारी कन्या की।
20. एक दिन मैं भी चला जाऊंगा
बुद्ध आए
चले गए
संत ज्ञानी महात्मा बाबा आए
वे भी चले गए
एक-एक कर सब चले जाएंगे
एक दिन मैं भी चला जाऊंगा
लेकिन
जातिभेद, वर्णभेद और वर्गभेद रहेंगे
मनुष्य और मनुष्यता को गुलाम बनाकर।
कवि अरविन्द पासवान, जन्म : 18 फरवरी 1973, हाजीपुर, वैशाली। शिक्षा : बी. ए. ऑनर्स (एम. यू . गया)। पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, अस्मिता की आवाज़’ व ‘दूसरा शनिवार’ के ब्लॉग तथा कविता कोश पर कविताएँ प्रकाशित एवं प्रसारित। भारतीय भाषा केन्द्र, दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया द्वारा 2017 में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी (विषय :अस्मितामूलक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र) में सहभागिता।• गोष्ठियों में सक्रिय रूप से भागीदारी। डी डी बिहार से, ‘समकालीन हिन्दी साहित्य और बिहार का दलित लेखन’ विषय पर 2017 में चर्चा परिचर्चा में सहभागिता। रंगकर्म, गीत, गज़ल एवं संगीत में गहरी रुचि। वर्ष 2018 में प्रकाशित ‘बिहार झारखण्ड की चुनिन्दा दलित कविताएँ’ सामूहिक संग्रह के एक कवि। “मैं रोज़ लड़ता हूँ’ काव्य-संग्रह प्रकाशित।
संपर्क: 7352520586
ईमेल : paswanarvind73@gmail.com
टिप्पणीकार श्रीधर करुणानिधि
जन्म पूर्णिया ,बिहार के एक गाँव में
देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेब मेगजीन आदि में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-
1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार
2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
3. “पत्थर से निकलती कराह”(कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित)
4. ‘अँधेरा कुछ इस तरह दाखिल हुआ(कहानी-संग्रह), बोधि प्रकाशन से रामकुमार ओझा पांडुलिपि प्रकाशन योजना 2021 के तहत प्रकाशित
संप्रति-
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, गया कालेज, गया( मगध विश्वविद्यालय)
सम्पर्क: 09709719758, 7004945858
Email id- shreedhar0080@gmail.com