समकालीन जनमत
कविता

अनुराधा अनन्या की कविताएँ आधी आबादी के पूरे सच को उजागर करती हैं

निरंजन श्रोत्रिय


 

युवा कवयित्री अनुराधा अनन्या की कविताओं में स्त्री-विमर्श किन्हीं सिद्धान्तों या भारी भरकम वैचारिक जुगाली के बजाय एक व्यावहारिक और यथार्थ रूप में आता है। यह यथार्थ कटु हो सकता है लेकिन यथार्थ तो है।

तमाम बहसों और वैचारिक उद्विग्नताओं के बावजूद यदि स्त्री समाज में अपनी यथास्थिति से नहीं उबर पा रही है तो यह हमारी सामाजिक संरचना के उथलेपन की निशानी है।

अनुराधा इसी उथलेपन और व्याप्त दोमुँहेपन को लेकर अपनी कविताओं में विक्षुब्ध होती हैं, तंज कसती हैं और औरत की असली आजादी के लिए संघर्षशील रहती हैं।

‘आधी दुनिया-आधा जीवन’ कविता में वे संसार की आधी आबादी के पूरा होने के ‘वहम’ बल्कि आधी दुनिया के पूरे सच को उजागर करती हैं। इस ठोस यथार्थ की पूर्णत्व जब कथित ईश्वर के चरणों में विसर्जित होता है तब इसी स्त्री-जीवन की सच्चाई हमारे सम्मुख होती है।

‘एक औरत’ कविता में भी स्त्री की इसी विवशता को विस्तार दिया गया है। उसके तमाम स्वप्नों और आकांक्षाओं को जीवित रखने और उन्हें पोसने के लिए कोई भी सामाजिक पारिस्थितिकी मुकम्मल नहीं है- न बाबुल, न पिया न ही नौनिहाल!

‘इसी वक़्त में’ कविता में समय के वितान को ‘वक़्त’ शब्द की आवृत्ति के साथ खूबसूरत और प्रभावी रूप में चित्रित किया गया है। अनेक विरोधी पदों के बिम्बों को कविता में इस तरह पिरोया गया है कि वे एक समय में न सिर्फ कई समयों को समेटते हैं बल्कि समय की अर्थवत्ता को एक नवीन तेवर भी प्रदान करते हैं।

‘इच्छा’ कविता निजी अनुभवों और एक तरह से सर्जक के भीतरी दुनिया की कविता है। मन की गुत्थियों और उसके भीतर प्रवाहमान विचारसरणियों को कवयित्री ने अंडरटोन रूप से रखा है।

‘छूटी हुई जगह’ में वापसी की कसक है। अपने गाँव, शहर, परिवेश के प्रति एक सहज नाॅस्टैल्जिया है। इस कसक को हालांकि वर्तमान ने धुंधला ज़रूर कर दिया है लेकिन कवयित्री इसी धुंधलेपन से अपना स्मृति-कोलाज रच लेती है। कविता के चित्रों में जीवन के चित्रों की यह घट-बढ़ देखना दिलचस्प है।

‘कहना-सुनना’ एक बहुत छोटी कविता है जिसमें कहने-सुनने की दो क्रियाओं के माध्यम से पुरूष दंभ को एक ‘विट’ के रूप में दर्शाया गया है। यही तंज उनकी ‘भाषा का अंतर’ कविता में और मुखर हो उठता है। यह कविता भले छोटी है लेकिन शब्दों की मितव्ययिता और गहरे अर्थ ने ‘भाषा’ शब्द को मानो नई भाषा दे दी है। शब्दों से बनी भाषा हमारे जीवन में किस तरह इकहरी और अभ्यस्त होकर इशारों की भाषा बन जाती है, कविता इसी मर्म का बखान है।

‘कविता और मैं’ एक सर्जक की आंतरिक बेचैनी की कविता है। एक सर्जक किसी सर्जना के लिए अपनी कितनी रातें, कितना चैन-सुकून दाँव पर लगाता है, यह एक छोटा-सा चित्र है।

‘जीना-मरना’ एक और महत्वपूर्ण कविता है जो समकालीन निष्ठुर समय में अपने अस्तित्व के खत्म होते जाने की प्रक्रिया का विवश साक्ष्य है। समूचा सिस्टम हमें मृतप्राय कर देने के बावजूद कोई ‘डेथ सर्टिफिकेट’ नहीं देता। ऐसा मृत्युमय जीवन जीना किस कदर त्रासद है- यही भाव इस कविता का मर्म है। ‘प्रेम के अर्थ और गुण’ कविता में युवा कवयित्री अनुराधा अनन्या ने प्रेम के मूल स्वरूप को खंगाला है। एक अनिर्वचनीय अनुभूति को वे उसके प्राकृतिक और सहज रूप में तलाशती हैं। भाषा-परिभाषा की मजबूरी किसी भी संवेदन के समक्ष बौनी है-

‘संभवतः भाषा की खोज ने ही/ गढ़ डाले हैं अर्थ प्रेम के/ किसी खिसियानी सत्ता ने ही/ रच दी हैं परिभाषाएँ एक खास दायरे में।’

‘विमर्श और यथार्थ में स्त्रियाँ’ कविता एकबारगी लाउड अवश्य लगती है लेकिन यह स्त्री-विमर्श का वही सच है जिसका ज़िक्र टिप्पणी के आरम्भ में किया था। विमर्श में दिए गए उदाहरणों से इतर भी कुछ ज्वलंत सवाल हैं जिनसे यह युवा कवयित्री बेख़ौफ़ टकराना चाहती है।

‘स्त्री-पुरूष समीकरण’ सृष्टि के दोनों अवयवों की परस्पर निर्भरता की कविता है जिसे आमतौर पर उपेक्षित छोड़ दिया जाता है क्योंकि यह ‘विमर्श के खांचे’ में फिट नहीं बैठता।

यहाँ कवयित्री की आकांक्षा वर्चस्व के बजाए साहचर्य की अधिक है। ‘भागी हुई लड़कियों के घर’ विद्रोही स्त्री को लेकर प्रचलित धारणा और उससे उबरकर निजी भूमिका की कविता है जो अंततः सामाजिक भूमिका में भी तब्दील होती है।

‘एकांत की कविता’ कवि की निजी रचना-प्रक्रिया की कविता है जिसमें सर्जक के एकान्त की अनिवार्यता को रेखांकित किया गया है। यह एक ‘पोटेन्शियल एनर्जी’ के ‘काइनेटिक एनर्जी’ में रूपान्तरण की संभावना की कविता है। ‘पढ़ी लिखी लड़कियाँ’ और ‘अँधेरे से उजाले की ओर’ कविताएँ स्त्री के प्रति तमाम अकादमिक चिन्ताओं के बावजूद स्त्री का वह समकालीन यथार्थ है जो किसी कथित मिशन को कामयाब बनाने के बजाए उसके समकाल को बदलने में अधिक रूचि रखती हैं। इस समकाल को बदलने की प्रक्रिया को ‘यात्रा’ कविता में अनुराधा ने सेलिब्रेट किया है।

युवा कवयित्री अनुराधा अनन्या स्त्रियों की दशा के विश्लेषण और उसे बदलने के लिए बेहद फ़िक्रमंद और प्रतिभाशाली रचनाकार हैं।

 

 

अनुराधा अनन्या की कविताएँ

1. आधी दुनिया आधा जीवन

सालों बाद सहेलियों से बात हुई

सहेलियाँ जो बचपन में जीती थीं

अधूरा जीवन

आधी दुनिया में

ये आधी दुनिया जो उनके पिताओं-परिजनों की थी

सहेलियाँ बड़ी हुईं आधी दुनिया के इंतज़ार में

जो मिलनी थी उन्हें पतियों के पास

मैंने उन्हें रंग ओढ़ते देखा

ख्याल बुनते देखा

जो किसी सन्दूक से निकालती थी

और रख देती थी बड़ी हिफ़ाज़त से

अपनी आधी दुनिया के सफर के लिए

कितनी ही इच्छाएँ

कितनी ही आशाएँ

स्थगित कर दी थी उन्होंने

आधी दुनिया की कल्पना में

पूरा होने के वहम के साथ

आज फिर बात हुई

उन्हीं सहेलियों से

जो ज़िन्दा हैं अभी भी, आधी दुनिया में ही

अधूरी-सी

बताती हैं अपने पतियों

और बच्चों के इर्द-गिर्द के जीवन को पूरा-पूरा

तलाश करती है मरने तक

बाकी की आधी दुनिया का

ईश्वर के चरणों में

और इस तरह छिपा रहता है

आधी दुनिया, आधे जीवन का पूरा सच।

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2. एक औरत

एक औरत जो चुप रहती है

एक औरत जो कोसती रहती है

एक औरत जो सोचती भी है

आधी दुनिया के बीच

उनके कोसने

चुप रहने, सोचने में दिखती हैं

यात्राएँ, योजनाएँ, आशाएँ

आधे जीवन के सफर की

जो खटकर जिया जा चुका है पूरा-पूरा

फिर भी खोजती हैं बाकी आधी दुनिया

अधूरे जीवन को पूरा करने की अधूरी आस लिए

अधूरी आस

जो ना फल सकी

पिता की दुनिया में

पति की दुनिया में

अधूरी ही रही जो

बच्चों की दुनिया में भी।

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3. इसी वक़्त में

इस वक़्त में खिली है काली रात

इसी वक़्त में हाज़िर है प्यारा चाँद

यही वक़्त है जब लिखे जा रहे हैं मुहब्बतों के गीत

यही वक़्त है जब उकता रही है जवानियाँ

मुहब्बतों के बाद

इसी वक़्त इश्क परवान पर है

इसी वक़्त बेचैन कर रही है किसी की याद

यही वक़्त है आसमानों का

यही वक़्त है लहू का भी

इसी वक़्त में टहल रही नींद कहीं

इसी वक़्त में हो रहा है लम्बा इंतज़ार

इसी वक़्त में बेचैन होंगे फ़नकार कई

इसी वक़्त में उठेगी खौफ़ज़दा कलम कहीं

यही वक़्त है गीतों का

यही वक़्त है नारों का

इसी वक़्त में सहमी होगी कोई लड़की

इसी वक़्त में निकली होंगी टोलियाँ

इसी वक़्त में ऊँघ रहे होंगे बच्चे भी

यही वक़्त है जब कुचला जाएगा फूल कोई

यही वक़्त है जब दहशत गश्त लगाएगी

यही वक़्त है जब अफवाहें जाग जाएँगी

इसी वक़्त में लिखे जाएँगे भड़काऊ भाषण

इसी वक़्त में बातें होंगी सम्भावित क्रान्ति की

इसी वक़्त में पहने जाएँगे खूनी चोले

इसी वक़्त में गढ़े जाएँगे सियासती बयान

यही वक़्त है जब उबल पड़ेगा जवान लहू

यही वक़्त है हथियारों का

यही वक़्त है हत्यारों का

इसी वक़्त की जाएँगी वारदात

इसी वक़्त में होंगी घटनाएँ सारी एक साथ

इसी वक़्त में ही लिखा जाएगा सम्भावित घटनाओं का सच

इसी वक़्त में रची जाएँगी उस वक़्त की मुकम्मल कविता

इसी वक़्त में मिटाई जाएगी किसी वक़्त की याद

यही वक़्त रहेगा अधूरा पूरे प्रक्रम के बाद।

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4. इच्छा

मैं चाहती हूँ

एक ऐसी रात

जिसमें कोरी हो मेरी आँखें

सपनों के बिना

दिमाग बेजान हो जाए

सारी बातें, यादें बेघर हो जाएँ

मन के घरों से

सिर्फ़ एक रात

थकान, थकान-सी ना हो

नींद, नींद-सी ना हो

बस एक चमकता

बिम्ब बन जाए

मैली आत्मा

जो धीरे-धीरे

अपनी रोशनी से घटती जाए

और शून्य हो जाए

या फिर

ओझल जो जाए टूटते तारे की तरह

उस रात में।

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5. छूटी हुई जगह

मेरे ज़ेहन में आती हैं तस्वीरें

कुछ जगहों की जिनमें दिखते

कुछ खाली मैदान

एक मंदिर

चलता-फिरता मोहल्ला

ज़िन्दा शहर

पड़ोसी गाँव

मेरे ज़ेहन में तस्वीरें बदलती भी हैं

उन्हीं जगहों की

कुछ कच्चे रास्ते

कुछ चोर गलियाँ

और उम्मीद पर टिकी हुई

सम्भावित मकानों की नींव

मैं देखती हूँ

तस्वीर के धुंधलेपन को भी

और याद करती हूँ

बोलियों को, चेहरों को

खुशियों को, उदासियों को

घरौंदो को, पेड़ों को, बुजुर्गों को

पेड़, बुजुर्ग और घरौंदे

जिनमें से कुछ घट गए

और कुछ बच गए

यादों में आते हैं

पूरा आसमान, छोटी धरती

आधी रात, अधूरा चाँद

भागती घड़ियाँ, बदलते मौसम

हालांकि ये जगहें अब छूट ही गई हैं

मगर तस्वीरें अभी भी चस्पा हैं

ज़ेहन में

तमाम छूटी हुई जगहों की।

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6. कहना-सुनना

उसने कहा

तुम पागल हो

और निपट भी

मैं पागल हूँ…….

वो यह भी नहीं कह पाई

पागल नहीं हूँ

न कह पाने की तरह

वह अभ्यस्त है

सिर्फ सुनने की

मगर कोशिश करती है

कहने की भी

मगर वो न कभी अभ्यस्त ही रहा

सुनने का

न कोशिश ही की कभी।

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7. भाषा का अन्तर

मेरी भाषा को पता है

कब क्या कहना है

तुम्हारी भाषा को पता है

कब क्या कहलवाना है

इस कदर अभ्यस्त हैं

इस संवाद में हम

कि तुम सिर्फ इशारा भी करते हो

मैं मशीन-सी चालू हो जाती हूँ।

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8. कविता और मैं

 

रात के दो बजे

दिमाग तस्वीरें बदलता है

कैमरे की तरह

करवट दर करवट

बिस्तर पर भटकती मैं

हजारों शब्द उफन रहे हैं

मेरी बेचैनियों की आंच पर

और मैं

पन्ने पर उभर रही हूँ

हर्फों में, दृश्यों में

मारक कविता-सी

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9. जीना-मरना

कभी-कभी आदमी मरता है ऐसे भी

पूरे होशो-हवास में

ज़िंदा लोगों के बीच

हँसते हुए, किसी रास्ते पर जाते हुए

छिपा लेता है अपनी ही मौत को

दैनिक व्यवहार में

बड़ी सफाई से

एकान्त के साथी

जो जीवित संवाद करते हैं

बेजान मकान, लम्बी काली सड़कें और कुछ सामान

यही होते हैं गवाह उस मौत के

मौत ऐसी कि जिसमें सांसें न रूके

नाड़ी किसी रेल-सी सरपट दौड़े

जीवन की पटरी पर

ज़िंदा लाशें अपने ही बदन पर ढेर

खोजती रहती हैं थोड़ी-सी जगह

खुद को ठिकाने लगाने के लिए

कभी अलमारी में, कभी दफ्तर में

कभी गुसलखाने में, कभी सफ़र में।

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10. प्रेम के अर्थ और गुण

प्रेम यूँ भी तो होता होगा

पृथ्वी के अलग-अलग छोरों पर

बिना किसी परिभाषा के बिना अर्थ के

बिना देह के, बिना भाषा के

जैसे हुआ होगा प्रकृति की प्रारंभिक परिस्थितियों में

यूँ ही, पूर्णतः प्राकृतिक रूप में

किसी प्राकृतिक गुणकी तरह तमाम जीवों में

बिना किसी संदेह के

बिना किसी शर्त के

बिना किसी प्रमाण के

बिना किसी सौगात के

बिना किसी इज़हार के

सम्भवतः भाषा की खोज ने ही

गढ़ डाले हैं अर्थ प्रेम के

किसी खिसियानी सत्ता ने ही

रच दी हैं परिभाषाएँ एक खास दायरे में

अपनी-अपनी सहूलियत के आधार पर

संवाद तो पहले भी होता होगा प्रेम में

मगर शब्दों ने ही रच डाली प्रेम कविताएँ

और इसी तरह बनी प्रेम कथाएँ भी

इस तरह बहुत व्यवस्थित और व्यावहारिक हुआ होगा प्रेम

अपने अर्थों का दावा करता हुआ

अपनी परिभाषाओं का प्रदर्शन करता हुआ।

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11. विमर्श और यथार्थ में स्त्रियाँ

कभी-कभी सोचती हूँ

बाहर निकलें औरतें

तथाकथित स्त्री विमर्श से

संभ्रांत दयालु लोग

ऊबे हुए दानिशमंदों की दिमागी कसरत से

निकला हुआ स्त्री-विमर्श

बच्चे संभालती, भेड़ चराती औरतों के

किसी काम का नहीं है

ऐसा स्त्री विमर्श जिसमें नहीं हैं स्त्रियाँ

हाड़-माँस के जीवित रूप में

जिनके बदन केवल चित्रों तक ही हैं सीमित

जिनके रूदन बटोर रहे सिर्फ सहानुभूति

जिनके रंग किसी और की रचना में खोजे जाते

ऐसे विमर्श के शास्त्रों में

पोथियों में सहेजे विमर्श की चिंताएँ और चिन्तन

नहीं पहुँच पा रहे

मछली पकड़ने वाली औरतों तक

विकास का पैमाना और आंकड़े मिथ्या है

भुखमरी से मरने वाली औरतों के लिए

मजदूरों में मजदूर औरतें

किसान औरतें जो किसान नहीं मानी गईं

स्थापित सशक्त औरतें

सभी एक दल की तरह आएँ

और झटके से तोड़ें विमर्श के मकड़जाल को

अपनी आपबीती कहें, सच-सच

विमर्श में दिए गए उदाहरणों के अलावा।

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12. एकान्त की कल्पना

(वर्जीनिया वुल्फ को याद करते हुए)

रात के दो बजे

जब अपना कमरा भी न हो

ना ही हो किताबों से भरी हुई अलमारियाँ

और चाय का कप भी

भले ही कागज़-कलम भी न हो

और बार-बार लिख कर फाड़ी गई कविताओं के टुकड़े

भी न हों

यहाँ तक कि रोशनी भी नहीं

बस, एक सोचने वाला दिमाग

और रचनाशील इच्छाएँ

रचती हैं असंख्य कविताएँ

जो कभी दर्ज़ नहीं होंगी किसी पन्ने पर

पड़ी रहेंगी भीतर ही

फिजिक्स की भाषा में कहिए तो

‘पोटेन्शियल इनर्जी’ के रूप में।

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13. पढ़ी लिखी लड़कियाँ

लड़कियाँ पढ़ लिख गईं

तमाम सरकारी योजनाओं ने सफलता पाई

गैरसरकारी संस्थाओं के आँकड़े चमके

पिताओं ने पुण्य कमाया और

भाईयों ने बराबरी का दर्जा देने की संतुष्टि हासिल की

पढ़ी लिखी लड़कियाँ

चुका रही हैं कीमत अहसानों की

भुगत रही हैं शर्तें

जो पढ़ाई के एवज में रखी गई थी

आज़ादी के थोड़े से साल जो जिए थे हाॅस्टल में

ली छूट से उनको सहेजने की

जी तोड़ मेहनत की

उच्च शिक्षा ली ताकि कुछ कमाएँ धमाएँ

और शादी के एक दो साल और टल जाएँ

एक कमाऊ गुलाम के हासिल पर

इतराए रहे निकम्मे पूत

काम आ रही हैं

पढ़ी लिखी लड़कियाँ

बच्चों को पढ़ाने में

महफिलों को सजाने में

चमड़ी गलाकर दमड़ी कमाने में

भोग रहे हैं असली सुख उनके हुनर का

अलग-अलग भूमिकाओं के शासक

आजादी का चस्का क्या है

बता रही हैं अगली पीढ़ियों को

और तैयार कर रही हैं आज़ाद नस्लें

तमाम मुश्किलों के बावजूद

ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने पढ़ा है आजादी के आंदोलनों का इतिहास

वे जान रही हैं कि कैसे रची जाती हैं योजनाएँ संगठनों में

किसी मिशन को कामयाब बनाने के लिए।

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14. अँधेरे से उजाले की ओर

मुँह अँधेरे उठकर

घर के काम निपटाकर

विद्यालय जाती बच्चियाँ

विद्यालय जिसके दरवाजे पर लिखा है

‘अँधेरे से उजाले की ओर’

घर से पिट कर आई शिक्षिका

सूजे हुए हाथ से लिख रही है बोर्ड पर

मौलिक अधिकार

आठवीं कक्षा की गर्भवती लड़की

प्रश्नोत्तर रट रही है विज्ञान के ‘प्रजनन’ पाठ से

मंच से महिला पंच ने

घूंघट में ही भाषण दिया

महिला उत्थान का

तालियाँ बजी बहुत जोर से

सहमति और उल्लास के साथ

भाषण पर नहीं, सूचना पर

जो चिपक कर आई थी भाषण के साथ ही

सूचना जो करवाचैथ के अवसर पर आधे दिन की छुट्टी की थी

लौट रही हैं बच्चियाँ, गर्भवती लड़की पिटकर आई शिक्षिका

और घूँघट में महिला पंच

अपने-अपने घर वापस विद्यालय से

विद्यालय जिसके दरवाजे पर लिखा है

‘अँधेरे से उजाले की ओर’

लौट रही हैं सब एक साथ

अपना-अपना उजाला लिए।

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15. भागी हुई लड़कियों के घर

वो लड़कियाँ जिनके घर छूट गये
जिन्होंने घर छोड़ दिया
या जो लडकियाँ भाग गई
व्यवस्थाओं में ढलने के इनकार के साथ

ऐसी लड़कियों को सूँघ-सूँघ कर खोजा गया
पृथ्वी अंतिम छोर से भी
और दफ़न कर दिया
मिटटी में मिटटी की तरह

उनके भागने की वजह हर बार प्रेम ही
नहीं रहा
मगर हर बार बदनामी एक ही तरह की हुई
भागने में

ख़ैर जो लडकियाँ बच गई
हत्याओं और आत्महत्याओं के षडयंत्र के बावजूद
पृथ्वी की परतों में छिपी रहती है जीवित
अपनी खुद की ही जिम्मेदारी लिये
सुरक्षा सुनिश्चित करती हुई

उनके छूटे हुए घरों में
बिखरी पड़ी है उनकी जीवंत यादें
सभ्यताओं के अवशेषों की तरह
मगर घर के आंगन सूने हैं
उनके हाड-मासं के जीवन के बिना

घर की औरतें, चुपचाप छुपाती फिरती हैं
घर के सूनेपन को
अपने दिल की गहराइयों में
संहार की उफनती हुई भावनाओं के डर से

घर के पुरुष, बार-बार भुलाते हैं उनके द्वारा
प्यार से पुकारे हुए सम्बोधनों को
जो अभी भी घर किये हुए
मन के किसी कौने में
वे बनाए रखते हैं चट्टानों सा
अपने इंसानी दिलों को
झूठे सामूहिक प्रदर्शन के लिए

पड़ोसियों की चुगलियों में अभी भी ताज़ा हैं
उन जवान लडकीयों के शरीर,
उनके दुस्साहस,उनकी चुनोतियाँ
वे याद दिला देते हैं
अक्सर आंखों से ही
वो तमाम चेतावनियाँ
जो वो हर बार देते थे
लड़कियों के परिजनों को

पृथ्वी की परतों में जिंदा लडकियाँ
याद करती हैं छूटी हुई जगह को
उन जगहों में जिए जा चुके जीवन को
सम्हाले हुए अपने सुख-दुःख
धोके, प्रेम,पीड़ाएँ

ऐसे ही, जैसे सम्हालती हैं
औरतें कालान्तर से निरंतर
ज़िन्दा रहने के जोख़िम उठाते हुए

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16. यात्रा

एक औरत
एक बन्द कमरे में सोच रही है
कुछ ऐसा
जो सोचा नहीं गया अभी तक

सोचती हुई औरत
बंद कमरे में ऐसे है
जैसे उस कमरे में वो है ही नहीं

वो निकल पड़ती है कमरा छोड़
किसी सुदूर यात्रा पर

उसे जाते हुए किसी ने नहीं देखा
और वो निकल गई
सबके बीच से
बिना किसी को कुछ बताए
बिना किसी से कुछ पूछे
बिना कोई हिसाब-किताब लगाए

अपने पूरे साहस के साथ
बिल्कुल उन बहादुर जहाजियों की तरह
जो कहानियों में दुनियां के तमाम समुन्द्र लांघ गए
उन खोजी दस्तों की तरह
जिन्होंने पानी की तलाश में
नदियां खोजी,सभ्यताएं रची
और उन दुस्साहसी अंतरिक्ष यात्रियों की तरह भी
जो रोशनी का पीछा करते हुए अम्बर तक जा पहुंचें

और कमरे से निकल कर
औरत भी निकल चुकी है
पर्वतों, जंगलों, अंबरों और समुद्रों को लांघते हुए
एक यात्रा पर

यात्रा ऐसी जो इससे पहले कभी किसी नहीं की
बेशक, ये दुनिया की सबसे रोमांचक यात्रा होगी ।

और ये नज़ारा
यक़ीनन, दुनिया का सबसे सुंदर नज़ारा है

 

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(कवयित्री अनुराधा अनन्या, जन्मः 17 फरवरी 1988, हरियाणा के जिले जींद में। शिक्षाः महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, हरियाणा से पर्यावरण जैवतकनीकी में एम.एस-सी., बी.एड. वर्तमान में इग्नू से सामाजिक विज्ञान में स्नातकोत्तर अध्ययनरत।

सृजनः कहानियाँ, कविताएँ, यात्रा वृत्तांत, आलेख प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। थियेटर से जुड़ाव, बच्चों के साथ आर्ट एजूकेशन पर काम। हरियाणा की लोक गायन शैली ‘रागनी’ पर शोध कार्य।

ई-मेलः anuradha.ananya@gmail.com

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य हैं. संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com)

 

 

 

 

 

 

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