समकालीन जनमत
कविता

आँशी अग्निहोत्री की कविताएँ एक अंतर्मुखी प्रकृति प्रेमी स्त्री की स्वतंत्रता का आख्यान हैं

देवेश पथ सारिया


युवा कवयित्री आँशी अग्निहोत्री की कविताएँ पढ़ते हुए तीन मुख्य बिंदु रेखांकित किए जा सकते हैं—

(i) यह युवा कवयित्री अंतर्मुखी है जो कविता को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाती है-

“मैं, औंधे मुँह गिरी किसी बासी कसम के टूटने से निकली आह का एक कतरा हूं
मैं, वीरानियों के आंचल में लिपटी रही
देखती रही, उनके आंखों के अंधेरे जो उनकी हथेलियों के द्वारा रंगे जाते रहे”

(ii) ‘चिड़िया और जंगल’ जैसी कविता लिखने वाली यह कवयित्री प्रकृति से अपनी गर्भनाल से जुड़ी हुई है। चांद और धरती से संबंधित कुछ सुंदर पंक्तियाँ देखिए-

“चांद रोए खूब रोए
और धरा पर ओस बोए
ओस जो मेरे करों से अब लिपट कर
थोड़ा सिमट कर
भोर को प्यासे नयन से देखती है”

(iii) यह एक आज़ाद ख़याल स्त्री है जो अपने रास्ते में आने वाले बंधनों को तोड़ डालना चाहती है-

“हम भाग जाएंगे उन्हीं सूरजमुखी के खेतों से होते हुए
बारिश और कीचड़ को रौंदते हुए,
इस पागल दुनिया से बहुत दूर”

‘ऑपरेशन’ शीर्षक कविता में कवयित्री मनुष्य की काया से बेहतर एक कविता को मानती है क्योंकि उसमें आजादी की अनंत संभावना है; रचनात्मक स्वतंत्रता का विस्तृत संसार है।

हिंदी समाज की स्वाभाविक अपेक्षा युवा कवियों से अपने परिवेश के संघर्ष को व्यक्त करने की रहती है। स्त्री विमर्श हिंदी कविता का एक महत्वपूर्ण वितान है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर चोट करते हुए आँशी लिखती हैं-

“सिलबिल, पिता ने तुम पर हाथ उठाया!
जो हाथ सिर पर होने चाहिए वो गालों और पीठ पर बजे?”

आँशी अग्निहोत्री अपनी कविताओं में अमूर्तन का बारीकी से उपयोग करती हैं। लयात्मकता भी उनकी कविताओं में नज़र आती है। यदि आँशी अमूर्तन के आधिक्य से बचकर उसका सही और संतुलित उपयोग कर पाती हैं तो यह कविता संसार में उनके सुनहरे भविष्य को सुनिश्चित करेगा।

आँशी अग्निहोत्री की कविताएँ

1.सिलबिल – (मुझे चांद चाहिए)

सिलबिल, पिता ने किताबें ऊंचाई में रखीं हैं?
किताबें, जो तुम्हें नहीं पढ़नी चाहिए।

समाज कहता है पिता से, पिता कहते हैं तुमसे
पिता समाज हैं, पिता नहीं रहे

सिलबिल, ऊंचाई में रखी किताबे कैसे पाओगी ?
समाज ने कहा ज्यादा पढ़ना मर्यादा लांघना है
पिता ने मर्यादा तुम्हारे कमरे में ला रखी है।
मर्यादा को सहारा बनाओ
ऊपर चढ़ो
किताबें ले लो।

तुमने मर्यादा की पटरी में चढ़कर किताबें लीं,
पटरी कमजोर थी, टूट गई।

सिलबिल, पिता ने तुम पर हाथ उठाया!
जो हाथ सिर पर होने चाहिए वो गालों और पीठ पर बजे?

मां चुप, समाज चुप, पिता चुप
पिता समाज हैं, पिता नहीं रहे।

सिलबिल,
“हां, अब मैं सिलबिल नहीं वर्षा हूॅं।”
पिता ने सीमा लांघी, मैंने डेहरी लांघ ली
पिता ने कहा लड़़की हाथ से निकल गई
लड़की हाथ से निकल कर कहां गई?

सिलबिल नहीं वर्षा
वर्षा आज अभिनेत्री है
अपने पैरों खड़ी है पिता के हाथों से निकलकर।

2.विदाई

तमाम साए भागते हैं
फाड़ते और फेंकते हैं
रेशमी आंचल बदन से खींचते हैं
चांद बस बचता बचाता भागता है
जाने कैसे रात काली काटता है
अंधेरे चांद के उजले बदन पर रीझते हैं
और सितारे रात भर जुगनू जला कर सेंकते हैं
चांद रोए खूब रोए
और धरा पर ओस बोए
ओस जो मेरे करों से अब लिपट कर
थोड़ा सिमट कर
भोर को प्यासे नयन से देखती है
अलविदा कह खुद को परे फिर फेंकती है
मैं जो तुम पर रात और दिन लिख रहा हूं
मैं नहीं तन्हा, मैं तन्हा दिख रहा हूं
तुम मेरे कमरे की खिड़की पर खड़ी हो
मेरा आंगन, बूंदें बनकर के झड़ी हो
जो मेरे बिस्तर पे बिखरी हैं किताबें
उन किताबों के बीच भी बिखरी पड़ी हो
मेज़ पर जलते दिए में तुम हो शामिल,
जो मेरे सीने पे चलती, तुम वो घड़ी हो
तेरी लटों से टूटते सावन लिखूं और क्या लिखूं मैं
तेरी छुअन से छूटते मौसम लिखूं और क्या लिखूं मैं
तेरी नजर के भीगते चितवन लिखूं और क्या लिखूं मैं
और तुम कहती तुमको न‌ लिखूं मैं
ना लिखूं तुझको बताओ क्या लिखूं मैं
और अब, हां, सांस मेरी थक रही है
जिंदगी कुछ आख़री पल चख रही है
मैं मेरी नज्मों में तुमसे हर पहर मिलता रहूंगा
मैं तुम्हारे बाग में फूल बन खिलता रहूंगा
आज फिर मुझको गले से तुम लगा लो
रोओ नहीं तुम साथ मेरे मुस्कुरा लो।

3.अंधेरा बोलता है

अंधेरा बोलता है।

रात भर मेरे कानों पर गिरती हैं आवाजें
तुम्हारी- “देखो और सब ठीक है पर अब मुझे बन्धन लगता है तुम्हारा होना।”
उनकी-“तुम इतनी सुन्दर तो हो, कोई भी मिल जाएगा तुम्हे।”
मेरी -” ……….(चुप)”
और एक चीख आकर धंस जाती है सीने में गहराई तक

चौंक जाती हूं मैं,
वो चीख मेरे आंखों में उतर कर सूंघ लेती है मेरे सपने भी

तुम्हारा रूप ले लेती है।
“देखो और सब ठीक है पर अब मुझे बन्धन लगता है तुम्हारा होना।”
तुम छोड़ देते हो मेरा हाथ धीरे से,
मैं खाई में किसी चीख की तरह गिरती हूं
और गिरती जाती हूं…
ये गहराई कभी खत्म नहीं होती है।

दम घुटने लगता है।
हांथ कांप रहे हैं लिखते हुए ये कविता

वो कहते हैं “क्या हुआ तुम ठीक नहीं लग रही?”
मैं अपनी रुलाई रोकते हुए एक निर्जीव हंसी हंसती हूं और कहती हूं
“कुछ नहीं बस थोड़ी थकान है।”

4. सपने

नन्हा-सा भाई है और बड़ी-सी मैं,

दोनों के अलग-अलग सपने हैं।

उसके सपने में पंखा बन जाता है मोर और बगुला,
मेरे सपने में बन जाता है इंसान।

उसके सपने में आते हैं मेढक, शेर और कछुए
मेरे सपने में आते हैं इंसान।

उसके बगुले शेर और कछुए रंग-बिरंगे होते हैं
मेरे सपने के इंसान होते हैं काले।

वह शेर से बचने को मां के पास छुपकर सोता है,
और मैं इंसानों से बचने के लिए उसके पास सो जाती हूं।
उसकी एक उंगली और मेरी एक उंगली,
अब रोज मेरे सपने के इंसान कछुआ, मेंढक और बगुला बने रहते हैं।
उसके सपनों के रंग मेरी उंगलियों से रिसते-रिसते मेरे सपने भी रंग देते हैं।
अब मैं रोज रंगीन सपने देखकर उठती हूं।

5.ऑपरेशन

मैं बर्थ पर लेटी हूॅं
मेरे ऊपर झुका हुआ है एक चेहरा
हाथ में लिए है एक सुई और कैंची
मेरा शरीर सुन्न और बेजान है
मैं चाहकर भी हिल नहीं सकती
चीख चिल्ला नहीं सकती

वह पहले काटता है मेरे पंख
फिर सिलता है मेरे होंठ
बांधता है मेरे हाथ और पैर

मुझे बैठा दिया जाता है एक व्हील चेयर पर

उन्हें लगता है,
कि उनकी आवश्यकताएं मेरी आवश्यकताएं हैं?
उनके होंठ कहते हैं मेरे मन की बात भी?

मैं कहती हूं सुनो
“तुम्हारे व्यक्तिगत अनुभव मेरे व्यक्तिगत अस्तित्व को विकलांग नहीं बना सकते,
कभी नहीं”

मैं मनुष्य की काया नहीं हूॅं।
मैं हूं एक कविता
जो समेटे है हर जायज़-नाजायज़ अनंत संभावनाएं अपने मन के भीतर
तुम्हारी हर संभव काट-छांट के बाद भी
मैं अपनी प्रकृति बदलूंगी
और अपनी ही टहनियों से उग पड़ूंगी हर बार।

6. चिड़िया और जंगल

जंगल बस घर ही नहीं है चिड़िया का

साथी भी है अपितु

जहां-जहां जाएगी चिड़िया, वहां-वहां एक जंगल कसमसा कर उठ खड़ा होगा
“तू मेरा हाथ पकड़े-पकड़े मुझे यहां भी ले आई !”
मुस्कुरा कर कहता है वह।

गांव घरों की छोटी बड़ी दरारों पर उग आते हैं बरगद के अंकुर,
जमुहाई लेता हुआ जाग जाता है चिड़िया का घर।

उसे मालूम है, विश्वास है
कि वह जितने चाहे आसमान नाप ले
कितनी ही दूर निकल जाएगी
भटकेगी नहीं,
कोई न कोई टहनी आ ही जाएगी उसके पंजों की पकड़ में
जंगल खोज निकालेगा उसे।

बड़ी भोली है चिड़िया
उसे सब हरा-हरा ही दिखाई पड़ता है

उसकी आदत थी, बड़ी दूर उड़ आई थी इस बार भी
इस बार जंगल की जगह पिंजरा आया
और कुछ बोल भी
“अब तू यहीं रहेगी
जंगल-वंगल नही जाने दिया जाएगा अब से तुझे”
पता नहीं इस बार वह आना कैसे भूल गया।

चिड़िया नींद में फड़फड़ा उठती है
पिंजरे के कांटे पत्ते बन जाते हैं अक्सर

बूंद-बूंद टूटता है उसका बदन
कहते हैं, जिंदगी के बाद एक समंदर आता है
वह जंगल से नहीं मिल सकी तो…
तो फिर रिसते हुए समंदर में जा मिलेगी वह।

7.चेतना

मैं, औंधे मुंह गिरी किसी बासी कसम के टूटने से निकली आह का एक कतरा हूं।
मैं वीरानियों के आंचल में लिपटी रही,
देखती रही उनके आंखों के अंधेरे जो उनकी हथेलियों के द्वारा रंगे जाते रहे।

उनकी कलाई में जंग खाई पुरानी जंजीरें,
जिससे खींच कर लोग बांध लेते हैं उन्हें अपने भीतरी हिस्से में।
वे मजबूर हैं,
वे उदासी निगलते हुए भी अपना मुंह नहीं खोलतीं
नहीं जानतीं तुम्हारा साथ उन्हें क्या देगा।

मैं नींद से उठती हूं
सपनों के शहर में कदम रखती हूं
ये‌ शहर मेरा अपना नहीं है, झूठ का है।
और मैं तुम्हें क्या बताऊं सहेली
ये जो बोलती-बतियाती, हंसती-रिझाती औरत देखती हो ना तुम
वो मुझसे बिल्कुल ही अजनबी है।

तुम कहती हो तुम मुझे ढूंढ लाओगी‌?
देखना, वो पता ठिकाना तो नहीं जानतीं मैं
पर पाओगी, सखी
किसी बिल्ली के मुंह में दबी
चूहों की जगह मैं हूं, मेरी चेतना।

8.देवता

हवा चीखती है, बारिश पूछती है
“तुम्हारा देवता कहां है?”
गरदन से टपकती लाल स्याही लिखेगी
“तुम्हारा देवता खो गया है।”

वो दूर पड़ी है,
अपने दुपट्टे से बहुत दूर
दुपट्टा फटा और भीगा है।
तमाम चप्पलों और जूतों के दाग
दाग, जो उसके सफेद दुपट्टे को रौंद गए हैं।
वो दाग हंस रहे हैं,
“तुम्हारा देवता मैला पड़ा है।”

उसकी चमड़ी में आसमान की दरारें हैं
स्याह और गहरी,
दरारों से लावा की बूंदें फूटती हैं।
बूंदें ठंडी हैं, जम रही हैं।
वो पूछती हैं
“तुम्हारा देवता कहां मर गया है?”

जिन हाथों ने उसकी गर्दन में चाकू उतारा,
देवता वहां नहीं दिखा।
जिन पैरों तले उसकी अस्मत रौंदी गई,
देवता वहां भी नहीं था ।
उसकी उसकी सूनी आंखों में एक पल को लगा,
देवता वहां था, कुछ देर पहले था।

9. सूरजमुखी

मैं हर रात तुम्हारा हाथ पकड़ कर दौड़ता हूं।

सूरजमुखी के खेतों के बीच से
बारिश के बाद,
तुम्हारे पैर कीचड़ में कमल की तरह उगते हैं
चमक उठते हैं मोती जहां तहां तुम्हारे चेहरे पर
“मैं थक गई हूं,
अब और नहीं”

अभी कुछ फंलाग बाकी हैं कि हम पार निकल जाएंगे
पर,
मैं ये जानता हूं कि इस बार भी
तुम मेरी गोद में सिर रखकर सो जाओगी।
इस बार भी,
मैं तुम्हारे चेहरे से लिपटी लटें हटाऊंगा
और तुम्हारे शांत चेहरे में खो जाऊंगा।
मुझे भी नींद आ जाएगी तब,

ये नींद मुझे तुमसे दूर ले जाती है।
रोज उठता हूं, बाहर दौड़ता हूं
“सूरजमुखी… सूरजमुखी…”
आवाज लगाता हूं।

वे मुझे पागल समझते हैं।
क्योंकि वे नंगे पैर तुम्हारे साथ कभी दौड़ें नहीं
वे चमकीले सपनों से खौफ खाते हैं।
और शायद मुझसे भी,

वे जब भी मेरी बेड़ियां खोलेंगे,
मैं इस जागती दुनिया में भी तुम्हें ढूंढने आऊंगा।
इस बार थकने नहीं दूंगा तुम्हें
तब वो कुछ फंलाग की दूरी भी हमें रोक नहीं पाएगी।

हम भाग जाएंगे उन्हीं सूरजमुखी के खेतों से होते हुए
बारिश और कीचड़ को रौंदते हुए,
इस पागल दुनिया से बहुत दूर।

10. गुलमोहर के फूल

खींच लिए हैं तुमने हाथ

भिंच गई हैं मुठ्ठियां ,
एक तेज़ हवा का झोंका आया,
फिर जैसे गुलमोहर से रिसने लगे लाल-लाल फूल,
ज़मीन पर एक-एक करके बिछने लगीं लाशें
फर्श पर दिखने लगा खून ही खून
मैंने कहा “मेरा सिर चकरा रहा है
मैं गुलमोहर श…!
शायद, गुलमोहर हो गई हूं मैं”

11. स्टेशन

ट्रेन की धड़-धड़ और हवा के दुपट्टे से फट रहे हैं
मैं निचली बर्थ पर लेटी हूं
सीधे, चुप एकदम चुप
ख़याल आता है कि कुछ इसी तरह रखी जाती हैं लाशें
बर्थ दर बर्थ
सीधे, चुप एकदम चुप
पर लाशों में विचार नहीं होते
यादें नहीं होतीं
दर्द और आंसू नहीं होते
मेरे मन मे विचार हैं
मैं जीवित हूं
और उन लाशों को सोच रही हूं
जिन्होंने धड़कनें अपनी गंवा दी होंगी कुछ और विचारों को खाने-बनाने में
मुझे डर लग रहा है
ना जाने क्यूं
लगता है अगर इस इंजिन के साथ मेरी धड़कन भी रुक गई।
तब ?
कि मैं कुछ ही दूरी में हूं
और स्टेशन पा ना सकूं।


कवयित्री आँशी अग्निहोत्री, जन्म 10 अक्टूबर 2003,  फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) की रहने वाली हैं। स्नातक इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरा किया है। उनकी कविताओं का प्रकाशन  कई पत्र-पत्रिकाओं में हो चुका है। वह वर्तमान में लाइब्रेरी साइंस का कोर्स कर रही हैं। संपर्क : anshiagnihotri123@gmail.com

टिप्पणीकार देवेश पथ सारिया युवा कवि-लेखक और अनुवादक हैं। देवेश को साहित्य अकादेमी, दिल्ली से प्रकाशित उनके कविता संकलन ‘नूह की नाव’ के लिए भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया गया है। संपर्क : deveshpath@gmail.com

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion