निरंजन श्रोत्रिय
युवा और चर्चित कवि अनिल करमेले की कविताओं से गुजरना अपने समकालीन समय-समाज की विद्रूपताओं की शिनाख्त करना है।
यह दुष्कर कवि-कर्म वे एक प्रतिबद्ध कवि की मूल प्रतिज्ञा की तरह करते हैं जहाँ कोई सायास काव्य-प्रविधि नहीं बल्कि जन-जन की आवाज़ उसी की भाषा बल्कि बोली में है।
अनिल की काव्य भाषा उनके संवेदनों की तरह ही सघन है। उनके बिम्ब अनूठे तो हैं ही लेकिन कविता में अलंकरण की तरह नहीं बल्कि एक चेतस दृष्टि के साथ कारगर हथियार की तरह आते हैं- यह समय है/ जब झूठ के हैलोजन और नियाॅन रोशनी का टाॅर्च/ मारा जा रहा है सूरज के चेहरे पर। अपने समय की विसंगतियों से जूझते और उन्हें अभिव्यक्त करते हुए भी अनिल की कविता निराशा से भरी नहीं है।
एक जीवट किस्म की जीवंतता उनकी कविता में एक जिजीविषा की तरह छितरी हुई है जहाँ वे धरती के प्रसव की वेदना भी महसूस पाते हैं और अपने अस्तित्व को एक ऊष्मायित भाव से संजोते भी हैं- मैं इस तरह रहूँ/ कि मेरे रहने का अर्थ रहे/ मैं गर्भ की तरह रहूँ/ और रहे पूरी दुनिया/ मेरे आसपास माँ की तरह।
कहना न होगा कि प्रकृति और इन्सानी रिश्तों की यह बारीक बुनावट अनिल के यहाँ बहुत सहज रूप से आती हैं गोया इन्हीं के जरिये वह तमाम दुर्दृृश्यों का एक प्रतिसंसार रचना चाह रहा हो।
यही वैशिष्ट्य इस कवि को तमाम बनावटी कवियों से पृथक करता है जो लगातार एक फार्मूले के तहत कविताएँ बना रहे हैं।
वे गोरे रंग को फ़कत एक रंग न मानकर उसे सत्ता, वैशिष्ट्य और प्रभु वर्ग का प्रतीक मानते हैं जिसके सामने दबे हुए रंग मर्सिया पढ़ते हैं।
कवि को पता है कि इस भूकंप का एपीसेंटर कहाँ है। यह सजग कवि जानता है कि भाषा का अभिजात्य किसी बदनीयती को किस तरह छुपा लेता है लेकिन इसके साथ ही वह यथार्थ/ नियति को भी जानता है क्योंकि अंततः और कायरों की तरह/ अपनी भाषा की तमीज में/ लौट आते हैं ।
अपनी स्थानीयता से जुड़े रहने का अर्थ यह नहीं है कि कवि को वैश्विक प्रसंगों की चिंता न हो। कोई भी सच्चा कवि इससे अनभिज्ञ कैसे रह सकता है क्योंकि संवेदनों की ज़द में निज और वैश्विक दोनों ही आते हैं- उधर फिलिस्तीन में नवजात शिशु/ मर रहे होंगे इस्रायली बमों से/ अफगानी स्त्रियाँ घास की रोटी खाकर/ अपने सूखे स्तनों से बच्चों को चिपकाए/ सुन रही होंगी अमरीकी बूटों की आवाज़।
‘टेलीग्राम’ जैसी ताकतवर कविता में वे केवल एक नाॅस्टेल्जिया नहीं रचते बल्कि आधुनिक संचार युग में मनुष्य के व्यर्थता बोध को भी रेखांकित करते हैं।
वे ‘ग्लोबल’ हो जाने और सूचनाओं की भीड़ से भरे आदमी का आंतरिक सच भी कविता में उजागर करते हैं।
अनिल की कविता में यदि राजनीतिक चेतना बहुत स्पष्ट पक्ष और तेवर के साथ विद्यमान है तो वह इसीलिए क्योंकि कवि के भीतर एक चैकन्ना और सजग मगर संवेदित मनुष्य लगातार आँखें खोले हुए है- अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए/ अंततः हर तानाशाह/ संस्कृृति के ही पास आता है।
अनिल की कविताओं में प्रेम एक झीनी चादर की तरह तना हुआ है। यह झीनी चादर कोई रोमेंटिक और वायवीय संसार न रचकर एक यथार्थबोध से सराबोर है जिसके आर-पार देखा जा सकता है- मैं सपनों की नहीं/ हकीकत की दुनिया चाहता था/ इस हकीकत की दुनिया में/ नहीं चाहता था/ सपनों की लड़कियाँ।
अनिल करमेले बहुत बुरे दिनों में अच्छे दिनों की उम्मीद में सबसे अच्छी कविताएँ लिखने का स्वप्न देखने वाले कवि हैं। इस स्वप्न में भीमा का घन भी है और स्त्री के आँसुओं से नम तकिया भी, किसान, माँ, पिता और धरती भी हैं और उनके दुःख भी लेकिन साथ ही इन दुखों को हँसिये के एक ही वार से काट देने का एक दूसरा स्वप्न भी है। यही दूसरा स्वप्न इन कविताओं की ताकत है।
अनिल करमेले की कविताएँ –
1.यह समय
मनुष्य होने की शर्म से बहुत दूर
यह खुलकर की जा रही नीचताओं का समय है
इस लड़के की तस्वीर को गौर से देखिए
इसे अगस्त 2011 में एक बनिये के अखबार ने छापी है
लड़के के चेहरे पर दर्प है
और चेहरा इस कदर भरा हुआ
कि समाए हुए हैं जहान के तमाम सुख
एक दूसरे से होड़ लगाते
वह कहता है
रहती है उसके जिस्म पर डेढ़ लाख की एसेसरीज़
नहीं… सोना नहीं,
बस जूते कपड़े और अन्तर्वस्त्र
यह वही समय है
जब डेढ़ पसली का अदना-सा आदमी
राजधानी के रामलीला मैदान में है
बंधक बनी व्यवस्था की मुक्ति के स्वप्न देखता
दोगलों और धंधेबाज़ों से लड़ता हुआ
यह वही समय है
जब करोड़ों भूखे नंगों के हिस्से का लाखों टन अनाज
देश में सड़ता हुआ है छोटी-सी खबर में
और खबरों की खबर यह है कि
सदी के महानायक की बहू
बहुत जल्दी जन्मने वाली है एक महान शख्सियत
यह वही समय है
जब अपने जिस्मों का शोकेस सजाती कॉलगर्लों
और नीराओं राजाओं अंबानियों में
कोई फ़र्क नहीं बचा है
सबके अपने एंटेलिया हैं
और उनमे हमारे रक्त लहू से भरे रक्तकुंड
जिनमें नहाकर चमकती चमड़ी लिए
वे प्रेतों की तरह डोलते रहते हैं
इस महादेश की आत्मा पर
और मैं इसे
कविता कहने की गुस्ताखी कर रहा हूँ
यह वही समय है
जब झूठ के हैलोजन और नियान रोशनी का टार्च
मारा जा रहा है सूरज के चेहरे पर
और उभर रहा है एक घृणित अट्टहास
कि सच के सूरज का मुँह
हो गया है काला स्याह राख
* * *
2. मुझे तो आना ही था
(अजन्मी बेटियों के लिए)
मैंने रात के तीसरे पहर
जैसे ही भीतर की कोमल मुलायम और खामोश दुनिया से
बाहर की शोर भरी दुनिया में
डरते-डरते अपने कदम रखे
देखा वहाँ एक गहरी ख़ामोशी थी
और मेरे रोने की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं था
भीतर की दुनिया से यह ख़ामोशी
इस मायने में अलहदा थी
कि यहाँ कुछ निरीह कुछ आक्रामक चुप्पियाँ
और हल्की फुसफुसाहटें
बोझिल हवा में तैर रही थीं
मैं नीम अँधेरे से जीवन के उजाले की दुनिया में आई
मगर माँ की आँखों में अँधेरा भर गया था
मैंने भीतर जिन हाथों से
महसूस की थीं मखमली थपकियाँ
उन्ही हाथों में अब नागफनी उग आई थी
मैं जानती थी पूरा कुनबा कुलदीपक के इन्तज़ार में खड़ा है
मगर मुझे तो आना ही था
मैं सुन रही हूं माँ की कातर कराह
और देख रही हूं कोने में खड़े उस आदमी को
जो मेरा पिता कहलाता है
उसे देखकर लगता है
जैसे वह अंतिम लड़ाई भी हार चुका है
मैं जानती हूँ इस आदमी को
इसने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा
कभी किसी जायज़ विरोध में नहीं हुआ खड़ा
कभी अपमान के ख़िलाफ़ ओंठ नहीं खोले
कभी किसी के सामने तनकर खड़ा नहीं हो पाया
बस अपने तुच्छ लाभ के फेर में
चालाकी चापलूसी और मक्कारियों में उलझा रहा
यह उसके लिए घोर पीड़ा का समय है
आख़िर यह कुल की इज्ज़त का सवाल है
और उससे भी आगे पौरुष का सवाल है
जो सदियों से इनके कर्मों की बजाय
स्त्रियों के कंधों पर टिका रहा
उसे नहीं चाहिए बेटी
वह चाहता है
अपनी ही तरह का एक और आदमी.
* * *
3. यह धरती के आराम करने का समय है
*(एक)*
कहीं कोई आवाज़ नहीं है
जैसे मैं शून्य में प्रवेश कर रहा हूँ
जैसे नवजात शिशु के रूदन स्वर से
दुनिया के तमाम संगीत
आश्चर्य के साथ थम गए हैं
मेरी देह का संतुलन बिगड़ गया है
और वह लगातार कांपती हुई
पहली बारिश में अठखेलियाँ करती
चिड़ियों की तरह लग रही है
मैं चाहता हूँ इस वक़्त
दुनिया के सारे काम रोक दिए जाएँ
यह धरती के आराम करने का समय है
न जाने कितनी जन्मों की
प्रतीक्षा के बाद
अनंत कालों को लाँघता हुआ
मुझ तक पहुँचा है यह
मैं इसके शब्दों को
छू कर महसूस करना चाहता हूँ
*(दो)*
तीनों लोकों में फैल गया है घोर आश्चर्य
सारे देवता हैरान परेशान
दांतो में उंगली दबाए भाव से व्याकुल
मजबूती से थामे अपनी अपनी प्रिया का हाथ
निहार रहे हैं पृथ्वी की ओर
कि जब संग संग मारे जा रहे हैं प्रेमी
लगाया जा रहा है सम्मान पर पैबंद
प्रेम करती हुई स्त्री की खाल से
पुरूष कर रहे हैं पलायन
उनकी कोख में छोड़कर बीज
और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास
फैला है प्रेम के चहुंओर
कैसे संभव हुआ एक स्त्री के लिए
इस पृथ्वी पर प्रेम
*(तीन)*
एक अफवाह है जो फैलने को है
एक हादसा है जिसे घट ही जाना है
एक राह है जिस पर
अंगारे बिछाने की तैयारी है
एक घृणित कार्रवाई
बनने को तत्पर है संस्कार
कलंक है एक भारी
जिसे धो देने को व्याकुल है सारा संसार
एक चैन की नींद
उस स्त्री की मृत्यु में शामिल है
जो इन दिनों मुझसे कर रही है प्रेम
वे मेरे प्रेमपत्र पढ़ने से पहले
उस स्त्री की मृत्यु चाहते हैं।
* * *
4. वह समय
यह वो समय था
जब निकलता था सूरज पूरब से
और उसकी आँख में डूब जाता था
हवाएँ बताती नहीं थीं
मगर आती रही होंगी उसी को छू कर
और इधर
उतर आता था वसंत
घड़ियाँ हार जाती थीं
समय बता-बता कर
जिनसे पहुँचा जा सकता था
अपने-अपने घर
रास्ते वे रूठ जाते थे
अंधेरे में
ठीक उसी समय
स्ट्रीट लाइट जलाने वाला
ले रहा होता था
अपनी प्रेयसी का आखिरी चुंबन
यह वो समय था
जब नींद
उसकी गली में चहलकदमी करती थी
और वह
किताबों दरो-दीवारों
रोटियों में
उस समय पिता हिटलर लगते थे
माँ पृथ्वी पर उपस्थित माँओं की तरह
बहन थी सबसे विश्वस्त मित्र
उस समय कुछ ही मित्र
मुगले आज़म के सलीम थे
बाकी हो गए थे श्रवण कुमार
यह वो समय था
जब लगती थी दुनिया
बेहद खूबसूरत
और हर आदमी को चाहने को
जी चाहता था.
* * *
5. मैं इस तरह रहूं
मैं इस तरह रहूं
जैसे बची रहती है
आख़िरी उम्मीद
मैं स्वाद की तरह रहूँ
लोगों की यादों में
रहूँ ज़रूरत बनकर
नमक की तरह
अग्नि की तरह जला सकूँ
क्रोध
उठा सकूँ भार पृथ्वी की तरह
पानी की तरह
मिल जाऊँ घुल जाऊँ
दुखों के बाद हो सकूँ
सावन का आकाश
लगा सकूँ ठहाका
सब की खुशी
और अपनी उदासी में भी
रो सकूँ दूसरों के दुखों में
ज़ार-ज़ार
मैं इस तरह रहूँ
कि मेरे रहने का अर्थ रहे
मैं गर्भ की तरह रहूँ
और रहे पूरी दुनिया
मेरे आसपास माँ की तरह.
* * *
6. कस्बे की माधुरी
सितंबर की तेज़ धूप में
सुबह के साढ़े ग्यारह बज रहे थे
वह दाखिल हुई सहमती हुई
पूरा चेहरा ढँका था स्कार्फ से
बस झाँक रही थीं दो गोल गोल आँखें
यह जिला मुख्यालय का एक होटल था
रेस्टॉरेंट और रहने की व्यवस्था वाला
झुकी-झुकी आँखों से
इधर उधर हिरनी की तरह देखती वह
पहली मंजिल पर थी रेस्टॉरेंट में
अपने प्रेमी के साथ
टेबल पर आमने-सामने बैठने का चलन
इन दिनों गायब था शहरों में
यह उसे पता नहीं था शायद
फिर भी वह बैठी थी
बीस बरस के लड़के के साथ सटकर
किसी बंद मगर औरों की उपस्थिति वाली जगह में
यह उसकी पहली आमद थी
लड़के की आँखों में वैसी ही चमक थी
जैसे शिकार को देखकर सॉंप की आँखों में होती है
और लड़की की आँखें चौंधिया गई थीं
सितंबर की तेज़ धूप में बारह बज रहे थे
जब वे दाखिए हुए होटल के कमरे में
रेस्टॉरेंट के आधे घंटे में
कितनी ही फिल्मों के चित्र
कोलाज़ की शक्ल में चलते रहे लड़की के दिमाग़ में
दिल की बढ़ी हुई धड़कनों के बीच
भरोसा उम्मीद और हौसले की
कितनी ही लहरें उठती-गिरती रहीं दोनों के दिमाग़ में
मगर लड़के के दृश्य में बार-बार
स्थिर हो जाती माधुरी की खुली पीठ
जहाँ एक रंगीन डोरी की डेढ़ गठान खुलने को थी आतुर
आखिर समय के हौसले के पंजे में दबी
वह कमरे में थी भरभरा कर गिरती हुई दीवार की तरह
अपने उम्र जितनी होटल की सत्रह सीढ़ियाँ
चढ़ पायी थी वह कितनी मुश्किल या आसानी से
कहना मुश्किल है
ग्लोबल बाज़ार की चिकनी सतह पर
चमड़ी के दलालों की भीड़ में
उसके कदम लड़खड़ाए होंगे
चेहरे से लगता तो नहीं।
* * *
7. गोरे रंग का मर्सिया
सौन्दर्य की भारतीय परिभाषा में
लगभग प्रमुखता से समाया हुआ है गोरा रंग
देवताओं से लेकर देसी रजवाड़ों के राजकुमार तक
सदियों से मोहित होते रहे इस शफ्फ़ाफ रंग पर
कुछ तो इतने आसक्त हुए
कि राजपाठ तक दाँव पर लगा डाला
अपने इस रंग को बचाने के लिए
बादाम के तेल से लेकर
गधी के दूध तक से नहाती रहीं सुंदरियाँ
हल्दी चंदन और मुल्तानी मिट्टी को घिस-घिस कर
अपनी त्वचा का रंग बदलने को आतुर रहीं
हर उम्र की स्त्रियाँ
कथित असुंदरता के खिलाफ़
एक अदद जंग जीतने के लिए
जंग जीतने के लिए राजाओं ने
ऐसी ही स्त्रियों को अपना अस्त्र बना डाला
साधन संपन्न पुरूष अक्सर
सफल हुए गोरी चमड़ी को भोगने में
कुछ पुरूष अंधे हो गए इस गोरेपन से
कुछ हो गए हमेशा के लिए नपुंसक
और कुछ ने तो इसकी दलाली से
पा लिया जीवन भर का राजपाठ
गोरे रंग के सहारे क़ामयाबी की कई दास्तानें लिखी गईं
पूरी दुनियां में अक्सर मिलते रहे ऐसे उदाहरण
जब चरित्र पर गोरा रंग भारी पड़ता रहा
इसी गोरेपन से
किसी लंपट के प्रेम में पड़कर
असमय इस दुनिया से विदा हो गई कई लड़कियाँ
दरअसल गोरेपन को पाकीज़गी मान लेना
हर समय में दूसरे रंगों के साथ
अत्याचार साबित हुआ
उजली और रेशमी काया से उत्पन्न
उत्तेजना के एवज़ में
अक्सर मर्सिया दबे हुए रंगों को पढ़ना पड़ा है
आखिर गोरा रंग हमेशा फ़कत रंग ही तो नहीं रहा।
* * *
8. उनकी भाषा
वे एक ऐसी भाषा का उपयोग करते हैं
कि हम अक्सर
असमर्थ हो जाते हैं
उनकी नीयत का पता लगाने में
हम भरोसे में रहते हैं
और भरोसा धीरे-धीरे भ्रम में बदलता जाता है
जब छँटता है दिमाग से कोहरा
नींद छूटती है सपनों के आगोश से
आंखें जलने लगती हैं सामने की तस्वीरें देखकर
लेकिन हमारी मुट्ठियाँ तनें
और उबाल आए बरसों से जमे हुए लहू में
उससे पहले
आते हैं हम में से ही कुछ
बन कर उनके बिचौलिए
डालते हैं खौफनाक तस्वीरों पर परदा
और लगा देते हैं हमारे गुस्से में सेंध
अपने लाभ और लोभ में घूमते हुए
हम भटकते रहते हैं इधर से उधर
और कायरों की तरह
अपनी भाषा की तमीज़ में
लौट आते हैं…
* * *
9. आदि नागरिक
दुनिया की चलती फिरती फिल्म में उनकी जगह
बाएं हाथ की पहली उंगली के
पांच साला काले निशान में थी
उनकी खुशियां इतनी छोटी थीं
कि खरीदी नहीं जा सकती थीं
उनके दुःख थे इतने विराट
कि दुखों के बाज़ार में उनकी कीमत असंभव थी
सभ्य समाज की मंडी में वे कभी नहीं हुए शामिल
उनके फेफड़ों ने टी. बी. की फुफकार कभी नहीं सुनी
मोतियाबिंद घायल पड़ा रहा
उनके जंगलों से कोसों दूर
सरकारी खैराती अस्पतालों में
रक्त इस कदर लय में रहता
कि थिरकने लगते सातों सुर होकर भावविभोर
अपने जीवन की निराई-गोड़ाई करती उनकी देह
जमाने के ओलों और तड़कती हुई धूप से
भरभरा गई थी
मगर फिर भी वे ही थे
कि मस्ती उनकी जेठ-फागुन एक सी रही
चावल के मांड़ और ताजे मठे से महकती सांसें
जब महुए की उछाल पर होतीं
दुनिया के सुख उनके पैर दबाते
और तमाम सत्ताओं को बर्खास्त करते हुए
दसों दिशाओं में होता उनका साम्राज्य
उनके पास गाय का भोलापन था और चील की निगाह
उनके पास कुत्ते की नींद भी और चीते की निगाह
वे काली सफेद सच्चाइयों से परे थे
जीवन को लांघन की शक्ल में जीते हुए।
10. रात के तीन बजे
गहरे सन्नाटे की आवाज़ है लगातार
और घड़ी की टिक टिक
यह दिसंबर की रात है और
कुत्ते अपने काम से थककर ऊंघ रहे हैं
गली के किसी मकान में उठ-उठ के कराहता कोई
दूर कोई स्त्री कर रही है विलाप
पता नहीं किस बीमारी से उसका बच्चा नहीं रहा
या आधी रात होते उखड़ गई पति की सांसे
हो सकता है अपने पहले और आखिरी प्रेम को
कर रही हो याद
टीवी के समाचार चैनलों पर
रात एक बजे के कैसेट चल रहे हैं समाचारों को दोहराते
दिन भर के आराम के बाद
हथियार तेज़ करके निकले हत्यारे
व्यस्त होंगे अपने शिकार में
उधर फिलिस्तीन में नवजात शिशु
मर रहे होंगे इस्त्रायली बमों से
अफगानी स्त्रियां घास की रोटियों खाकर
अपने सूखे स्तनों से बच्चों को चिपकाए
सुन रही होंगी अमरीकी फौजी बूटों की आवाज़
सीमा पर अभी-अभी कोई सैनिक
दुश्मन की गोली से हुआ होगा शहीद
ज़िद इच्छाशक्ति और सूखे से परास्त होकर
कोई किसान आत्महत्या कर रहा होगा
देश की ज़रूरतों और अपने अपने एजेंडों पर
पेशाब करने के बाद
मीठी नींद में होंगे नेतागण
शेयर दलालों के सपनों में चढ़ रहा होगा सूचकांक
सप्ताहांत की पार्टियों से नशे की खुमारी में
अभी-अभी लौटे होंगे नौकरशाह
महामहिम अभी अभी सोये होंगे
कल के बयान की तैयारी के बाद
घंटाघर ने अभी अभी तीन बजाए हैं
आतताइयों के सिवाय किसी को नहीं मालूम
इस बीच क्या बुरा घट गया है दुनिया में.
11. बिना शीर्षक
मैं नींद में हूं या सपने में
ये कौन सी काली छायाएं हैं डोलतीं
मेरी आँखों के सामने लगातार करतीं चीत्कार
नाचती हैं जुनून में भरकर
ओर बैठ जाती हैं मेरे कंधों पर
मेरी पीठ पर घूंसे पड़ते हैं
मैं भी शामिल हो जाता हूं उस नृत्य में
वे सब लंबी दूरी की दौड़ में शामिल
हर क्षण चेहरा ओर शरीर बदलते
निकल रहे छलांग मारते
बेसुरे बेताल बेअदब मरे हुए
गैर ज़रूरी इस दुनिया के लिए
उनके अपने रास्ते हैं और अपने निशान
ख़तरों की तरह मैं बस मैं हूं उनके सामने
मैं तीसरी दुनिया का
एक निम्नवर्गीय मिडिलक्लास सूअर
वे मेरी आँखों के सामने
रौंद रहे मेरे उजले सपनों को
वे लुढ़कते जा रहे मेरी नींदों में
मेरे भोजन में और मेरे बाथरूम में वे हैं
वे हैं यहां तक कि मेरे संभोग के बीच उपस्थित
तिलचट्टों की तरह हर कोने में हर जगह
मेरे जीवन की सलवटों और तड़कती हुई सिलाइयों में
हर गैर जरूरी चीज़ को उम्दा और ज़रूरी बताते
पगडंडियों को आसान बनाती
कंदील की टिमटिमाती रोशनी पर
जादू का रक्तिम उजाला मारते
मांसपिण्डों की उछाल पर बरगलाते
और मैं कहता हूँ
हां यही… यही तो चाहिए
कहीं ऐसा तो नहीं मित्रो
कि चीज़ें मेरी गिरफ्त में नहीं आ रही हैं
जहान के दुखों की गेंद के टप्पे
मेरी कविताओं से बाहर होते जा रहे निरंतर
मैं स्वीकार करता हूं
मैं शामिल हूं पूरी तरह इस बाज़ारू खेल में
रोने के सामान हंसते हुए भर रहा हूं घर में
अपने ही शब्दों से डरते मुंह चुराते
नई दुनिया के प्रेतों के सम्मोहन में
पहली ही फुर्सत में पाया जाता हूं भुगतान करते.
* * *
12. टेलिग्राम
15 जुलाई 2013 को
तुम हिन्दुस्तान से विदा हो गए
अच्छा ही हुआ
इंडिया बनते जा रहे इस देश में
वैसे भी तुम करते भी क्या
ई मेल एसएमएस और फेस बुक की दुनिया में
तुम्हारी कूव्वत ही कितनी बची थी
बस तुम सरकारी काम के ही रह गए थे
लंबे समय से नौकरी से गायब
किसी सरकारी नौकर के घर जाने के लिए
यह कहने कि यह आखि़री मौका है
आ जाओ वरना
कर दिए जाओगे नौकरी से बर्खास्त
अच्छा ही हुआ तुम चले गए
मॉल के सामने से गोबर की झोंपड़ी की तरह
वरना सच में
स्मार्टफोन के मुहल्ले में तुम्हारा
लतियाए जाने का तमाशा बनता
एक वह भी तुम्हारे जीवन का वसंत था
जब संवेदना से भरे तुम्हारे कदम
किसी नीम के पेड़ वाले घर तक पहुँचते थे
और तुम्हारी कहन को ध्यान में रखते हुए
डाकिया मुनासिब वज़न से
दरवाज़े की सांकल बजाता था
तुम्हारी कहन से खुशियाँ
नई पनिहारिन की गागर जैसे छलकती थी
और हफ्ते दस दिन तक घर की रसोई से
पकवानों की खुशबू पूरे मुहल्ले में तैरती फिरती
पर तुम भी
बड़ी ठसक वाले थे महाराज
बड़ी मनुहार के बाद भी
ऐसी कहन कम ही लेकर आते थे
अक्सर तुम भरे-पूरे घर में आहिस्ता से घुस कर
मुखिया के कान में लगभग फुसफुसाते हुए
चार-छह शब्द भर कहते
मुखिया कुछ सँभालते अपने आप को
और फिर लगभग बुदबुदाते हुए
तुम्हारे शब्दों को अपनी भर्राई आवाज़ दे देते
देखते ही देखते पूरे घर में छा जाता सन्नाटा
इस सन्नाटे में गिरकर टूटती कॉंसे की थाली
फिर रसोई के पीछे वाले कमरे से रूदन फूटता
और उसमें से झरता हुआ दु:ख
पूरे गाँव पर छा जाता
तुम्हें अक्सर अफसोस भी होता यह सब कहते
लेकिन तुम करते भी क्या
तुम्हारा तो काम ही था
श्मशान में मुरदा जलाने की तरह
राजा हो या गरीब
तुम्हें इससे कभी कोई फ़र्क नहीं पड़ा
तुम बहुत दिन जी लिए तार मियाँ
इक्कीसवीं सदी की भागती हुई दुनिया में
तुम्हारी कोई गति ही नहीं थी
बहुत पहले से तय था
तुम्हारी यही गति होनी थी
तुम सरकार पर बोझ बन गए थे
जैसे रंगीन जि़न्दगी जीते परिवार में बूढ़े माता-पिता
सिगरेट कोयला गिट्टी मिट्टी
चारा ताबूत मकान पानी
नहरें तसले सड़क सेतु
दवाई दारू खेल तरंगें बेच कर
चांदी काट रही सरकारों में
तुम्हारी औक़ात निखट्टू की तरह थी
अब वे साँकल बजाने वाले घर नहीं रहे
उनके साथ नीम के पेड़ भी चले गए
शुक्र है कि हम जानते हैं तुम्हारी अहमियत
गो कि अभी भी बचे हुए हैं हमारे बीच
तुम्हारे क़िस्से सुनाने वाले
पल पल बदलती भावनाओं के बहते समय में
बहुत बुरा समय देखने से पहले
तुम चले गए सब छोड़छाड़ कर
मगर गए भी तो जाने की तरह
ये अच्छा हुआ।
* * *
13. अच्छे दिनों की उम्मीद
अल्हड़ और मस्ती भरे दिन
अभी भी मचलते है डायरी में
मौका तलाशते हैं निकल भागने का
इसमें बार-बार बनता रहा
पढ़ने का टाइमटेबल
लोग कहते
घड़ी की टिक-टिक के साथ
शब्द उतरते ज़हन में
तो नहीं लिख रहे होते कविताएँ आज
पर अच्छा ही हुआ
मैं दुनियादार होने से बच गया
छोटे होटलों धर्मशालाओं और रिश्तेदारों के पते
प्रेम दिनों के गुलाबी मुलायम वाक्य
और दुखी दिनों के उदास पैराग्राफ
बरसों इसी में जगह बनाते रहे
कई तारीखें इसी में दर्ज़ हुईं लाल स्याही से
वे महत्वपूर्ण थीं साक्षात्कारों के लिए
मगर एक अदद नौकरी तक नहीं पहुंचा पाई
अपनी इच्छा के विपरीत
नब्बे फीसदी लोगों की तरह
मैं भी गलत जगह पर पहुँचा
कितनी ही प्रेम कविताएँ
लिखी गईं इसी डायरी में काट छाँट कर
मगर अभी भी मुकम्मल नहीं हुईं
इसी में शामिल हुए नए रिश्ते
वे मौसम के हिसाब से बदलते रहे
और कुछ तो असमय मृत्यु को प्राप्त हुए
शायद उन्हें कुछ और बेहतर की दरकार थी
इसी में चुकाया गया
बनियों दूधवालों और दवाइयों का हिसाब
और इसी हिसाब किताब के चक्कर में
दो एक बार सुसाइड नोट भी इसी में लिखे गए
बहुत बुरे-बुरे दिनों में इसी में लिखी गईं
सबसे अच्छी कविताएँ
अच्छे दिनों की उम्मीद में.
* * *
14. मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूँ
जेठ की घाम में
बन रही होती मिट्टी बोवाई के लिए
तपे ढेले टूटते लय में
उसी लय में भीमा लुहार की सांसें
फड़कती फिसलती हाथों की मछलियां
भट्टी में तपते फाल की रंगत लिए
गांव में इकलौता लुहार था भीमा
और घर में अकेला मरद
धरती में बीज डालने के औज़ारों का अकेला निर्माता
गांव का पूरा लोहा
उतरते जेठ रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती उसके घन की धमक
साथ ही तेज सांसों का हुंकारा
धम…हः…धम…हः….धम….हः
पूरा गांव सुनता धमक उठता नींद से गाफिल
आते असाढ़ में वैसे भी किरसान को नींद कहां
लोग उठते और फारिग हो ले पहुंचते
अपना अपना लोहा
दहकते अंगारों से भीमा की भट्टी
खिलखिला उठती धरती की उर्वर कोख हरियाने
भट्टी के लाल उजाले में
देवदूत की तरह चमकता भीमा का चेहरा
घन उठता और हज़ार घोड़ों की ताकत से
तपते लोहे पर गिरता
लाल किरचियां बिखरतीं टूटते तारों की मानिंद
गिरते पसीने से छन-छन करता पकता लोहा
भीमा घन चलाता
उसकी पत्नी पकड़ती संड़सी से लोहे का फाल
घन गिरता और पत्नी के स्तन
धरती की तरह कांप जाते
जैसे बीजों के लिए उनमें भी उतरता दूध
लगते असाढ़
जितनी भीड़ खेतों में होती
उतनी ही भीमा की भट्टी पर
धौंकनी चलती तपता लोहा बनते फाल
क्वांरी धरती पर पहली बारिश में
बीज उतरते करते फालों को सलाम
भीमा की तड़कती देह
फिर अगहन की तैयारी में जुटती
बरस भर लोहा उतरता उसके भीतर
बिन लोहा अन्न और बिन भीमा लोहा
अब भी संभव नहीं है
मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूं।
* * *
15. बाकी बचे कुछ लोग
सब कुछ पा कर भी
उसका मन बेचैन रहता है
हर तरफ अपनी जयघोष के बावज़ूद
वह जानता है
कुछ लोगों को अभी तक
जीता नहीं जा सका
कुछ लोग अभी भी
सिर उठाए उसके सामने खड़े हैं
कुछ लोग अभी भी रखते हैं
उसकी आँखों में आँखें डाल कर बात करने का हौसला
उसके झूठ को झूठ कहने की ताकत
उसके अंदर के जानवर को
शीशा दिखाने का कलेजा
वह जानता है
बाकी बचे कुछ लोगों के बिना
अधूरी है उसकी जीत
और यह सोच कर
और गहरी हो जाती है उसके चेहरे की कालिख
वह नींद में करवट बदलता है
और उठ जाता है चौंक कर
देखता है चेहरे को छू- छू कर
उसकी हथेलियाँ खून से सन जाती हैं
गले में फँस जाती हैं
हज़ारों चीखें और कराहें
वह समझ नहीं पाता
दिन की कालिख रातों में
चेहरे पर लहू बन कर क्यों उतर जाती है
वह उसे नृत्य संगीत रंगों और शब्दों के सहारे
घिस-घिस कर धो देना चाहता है
वह कोशिश करता है बाँसुरी बजाने की
मगर बाँसुरी से सुरों की जगह
बच्चों का रुदन फूट पड़ता है
वह मुनादी की शक्ल में ढोल बजाता है
और उसके भयानक शोर में
सिसकियाँ और चीत्कारें
दफ़्न हो जाती हैं
वह मरे हुए कबूतरों के पंखों को समेटता
किसी अदृश्य बिल्ली की ओर इशारा करता है
वह हर बार एक घटिया तर्कहीन बात के साथ
कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं
अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए
अंतत: हर तानाशाह
संस्कृति के ही पास आता है
बाकी बचे कुछ लोग यह जानते हैं.
* * *
16. हमारे यहाँ दु:ख
हमारे यहाँ दु:ख
नहीं आता चुपचाप
दहाड़ें मारता हुआ
शोकगीत की तरह बजता है
गाँव के हर घर-आंगन में
दु:ख के आने पर
घर की हर चीज़ दु:ख में
झुकी रहती हैं प्रार्थना में
कई दिनों तक चुप रहती है
मसाला पीसने वाली सिल
उदास पड़ी रहती है धान ओखली के आसपास
जड़ हो जाता है शोक से मूसल
दु:ख में खड़ी-खड़ी गाएँ
पूरा दूध पिला देती हैं बछड़ों को
बंधी-बंधी थान पर
स्थिर पुतलियों से घूरती रहती है मथानी
जनाना हाथों को
दु:ख में इकलौता आईना
धुंधला पड़ा रहता है
पूरे ग़मगीन घर का चेहरा देखता है दूर कहीं खोया हुआ
आते हैं आसपास के गांवों से नाते-रिश्तेदार रोटियां लेकर
मजूरी छोड़ कर आधे दिन की
चले जाते हैं तड़के उठ कर
दु:ख का कोहरा तोड़ कर
कोई नहीं जाता महीनों
पास वाले शहर
हर चीज़ जैसे पहले से
और धुंधली दिखाई देती है
हमारे यहां दु:ख नहीं आता चुपचाप
दहाड़ें मारता हुआ
शोकगीत की तरह बजता है
गाँव के हर घर-आंगन में
मगर नहीं रह पाता ज़्यादा दिन
पेट में उठती है भड़ांग
और काट देता है हंसिया दु:ख को
एक ही वार में.
* * *
17. ईश्वर के नाम पर
जहां जा कर
ख़त्म हो जाते हैं सारे कर्म
जहां जा कर भरपूर मेहनत
बदल जाती है वरदान में
जहां जा कर मुक्ति का संघर्ष
बदल जाता है दया की कातरता में
जहां जा कर
अपवित्र हो जाते हैं आत्मावलोकन
जहां जा कर
सीधा खड़ा नहीं हुआ जा सकता
जहां जा कर खून का रंग
नहीं रह पाता लाल
जहां जाने की बात
हो रही है ईश्वर के नाम पर
वहाँ सिर्फ पहुंचने का रास्ता पता है
वापसी का रास्ता
ईश्वर तक को नहीं मालूम.
* * *
18. सपनों की लड़कियाँ
मैंने प्यार किया उन लड़कियों से
जिनके नाखून लगातार बर्तन मांजने से काले पड़ गए थे
और काटने की उन्हें फुर्सत नहीं थी
जिनकी एड़ियां फटी हुई थीं
और वे बरसों एक ही चप्पल में कीलें ठुकवातीं
एक गिलास दूध के लिए वंचित थीं
मैंने प्यार किया उन लड़कियों से
जिनकी अंतिम इच्छा
किसी भी तरह
किसी की भी चादर बन जाना थी
जो जिस तरह चाहे ओढ़े-बिछाए
या रंग उतर जाने के बाद फाड़ कर हैसियत के अनुसार जूते या स्कूटर साफ करने में इस्तेमाल करे
मैंने उन लड़कियों से प्यार किया
जो अपनी प्रार्थना में
अपने हिस्से का आदमी सुरक्षित रखने की कामना लिए
सैकड़ों बरस गुज़ारती रहीं
मैं लगातार सपने झुठलाता रहा
और उनसे प्यार करता रहा
मैंने प्यार किया उन लड़कियों से
जो नहीं जानती थीं उत्तराखण्ड किस चिड़िया का नाम है
कि मस्ज़िद ढहाने का मतलब क्या होता है
उन्होंने कांपते हुए नयना साहनी का नाम ज़रूर सुना था
वे मोदी धागा जानती थीं ढाई लाख के मोदी सम्मान के बारे में कुछ नहीं जानती थीं
वे ज़्यादा से ज़्यादा भोपाल या पटना या लखनउ तक
नौकरी की परीक्षाएं देने जाती रहीं
और लौटती रहीं रात की पैसेंजर से
अपने बूढ़े पिताओं के साथ
वे फिल्मी पत्रिकाएं पढ़ती रहीं
और देखती रहीं ताज़ा फ़िल्मों के नायक का चेहरा बहुत देर तक
वे मांग कर लाई गई पत्रिकाओं से स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान करती रहीं
मेरे सपनों में आती रहीं आसमानी परियां ठक-ठक करतीं दफ़्तर जाती लड़कियां
शैंपू से धुले बाल और पहली तारीख़ को भरा-भरा पर्स
मैं सपनों की नहीं
हक़ीकत की दुनिया चाहता था
इस हक़ीकत की दुनिया में
नहीं चाहता था
सपनों की लड़कियाँ.
19. ज़रूरी बात
घनी गहरी और अकेली उदास शामें
चुटकुलों में नहीं मुस्करातीं
जबकि पड़ी रहती है अबूझ
काली अनंत धरती
चमकता है दोपहर का कोई टुकड़ा
किसी दफ़्तर की कैंटीन
ओंठ लरजते हैं
एक स्मित उछाल देते हैं मन की ओर
अपनी प्रवृत्तियों पर हँसने से मुश्किल
कोई और काम नहीं
और सबसे आसान
ईश्वर से दुआएं मांगना
आपको पता होना चाहिए
दुआओं का व्यापार चल रहा है
और ठीक इसी समय पर
अपनी हरकतों पर हंसना कितना ज़रूरी है.
20. तुम्हारी अनुपस्थिति
तुम्हारी अनुपस्थिति भी एक जादू है
कि दीवानावार
हर एक में तुम्हें खोजता हूँ
जैसे हर एक में तुम हो शामिल
मगर तुम्हारी देहगंध
जैसे चन्द्रमा से गिरा अमृत
मेरी देह में रक्त और पानी के बाद वही
और कितनी ही खुशबुएँ दम तोड़तीं…
* * *
21. तस्वीर
अख़बार के चौथे पेज़ पर
कितने दिनों से आ रही है यह तस्वीर
उठावने और तेरहवीं वाले संदेशों के बीच
इसी पेज पर नए मकानों के विज्ञापन हैं
नए रोज़गार के अवसरों के लुभावने प्रस्ताव
सरकारी कामों की निविदाएँ
पुलिस थानों के नंबरों सहित
फरार अपराधियों की तस्वीरें भी
इसी के आसपास हैं
पता नहीं वह किस काम से निकला था घर से
या बेकाम यूं ही टहलने
क्या पता किसी रोजगार का पता खोजने निकला
या नए घर के सपने के साथ
किसी मृतक की अंतिम यात्रा के लिए तो नहीं निकला..?.
कौन होगा उसके घर में राह देखता
अपने आँसू रिक्त कर चुकी उसकी पत्नी
या दरवाज़े से ताकती नन्हीं बेटियाँ
बूढ़े पिता घर के बाहर थके पैरों और
उम्मीदी आँखों से बेचैन टहलते हुए
माँ होगी तो वह भरोसा रखकर
उसकी पसंद का कुछ बचा कर रख रही होगी
पड़ोसी दिलासा देकर थक चुके होंगे
मित्र क्या कहें इसके सिवा कि कुछ नहीं होगा
वह लौट आएगा किसी दिन
भाई बहन होंगे तो कब से पड़े कामों को
अब धीरे धीरे सँभाल रहे होंगे
आखिर कब तक कोई रोता हुआ साथ रह सकता है
काम तो उसके भी रहे होंगे
नौकरी होगी तो पता नहीं उसका क्या हुआ
दूसरा रोज़गार तो कब का मिट गया होगा
कोई नहीं जानता वह कौन है
क्या पता वह कौन था
उसके होने और नहीं होने के बीच
रोज़ अखबार के चौथे पेज पर
छपी दिखती है यह तस्वीर
कई महीनों से आ रही
यह गुमशुदा की तस्वीर
अब बेचैन करने लगी है
अब तो मैं रोज़ अख़बार लेकर
सबसे पहले चौथा पेज़ देखता हूँ
उम्मीद करते हुए कि आज यह तस्वीर
नहीं होगी.
और वह गुमशुदा
अपने घर पहुँच गया होगा.
* *
22. तकिया
मेरी थकान उतारता
यह जो तकिया है नमी से भरा हुआ
इस पर आँसुओं के निशान हैं
इसमें टूटे स्वप्नों की किरचें धँसी हुई हैं
इसमें से रह रह कर
किसी स्त्री की सिसकियाँ सुनाई देती हैं.
०००
(दुष्यंत कुमार पुरस्कार से सम्मानित कवि अनिल करमेले सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ, लेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित चुकी हैं। ‘ईश्वर के नाम पर’ कविता की पहली किताब प्रकाशित. प्रलेस से संबद्ध एवं वाट्सएप पर “दस्तक” समूह का संचालन. संप्रति :भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) के अंतर्गत महलेखाकार लेखापरीक्षा कार्यालय भोपाल में सेवारत. टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य हैं.)
प्रस्तुति: उमा राग
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