शुभम श्री
अखिल की कविताओं को कैसे पढ़ें
- सबसे पहले इन पाँच सौ शब्दों के चिट्ठे को नज़रअंदाज करें और तेज गति से स्क्रोल कर के कविताओं पर पहुँचे ।
- अब तक पढ़ी हुई सभी कविताओं को भूल जाएं और फिर कविता पढ़ें । एक-एक कर पढ़ते जाएँ । आप महसूस करेंगे कि अखिल, आपका दोस्त, आप के ही बगल में बैठा कविताएँ सुना रहा है ।
- शायद आपको यह भी लगे कि ये कविताएँ आपकी खुद की लिखी हुई ही हैं । ठीक यही बातें आपने भी सोची थी जो दुनिया के प्रपंचों में कहीं गायब हो गई थी ।
- आपको यह भी वहम हो सकता है कि आप कविता नहीं पढ़ रहे, कुछ सोच रहे हैं या अपने आप से बातें कर रहे हैं । घबराएँ नहीं । आप कविता को दोबारा भी पढ़ सकते हैं ।
- बीच-बीच में लैंगस्टन ह्यूज, आग़ा शाहिद अली, बर्टोल्ट ब्रेख्त और शिम्बोर्स्का के अनुवाद आएंगे । ध्यान रहे, अनुवाद मूल जैसा लग सकता है, इसलिए सजग रहें ।
- चूंकि आप कविताएँ पढ़ चुके हैं इसलिए अब हम अपनी राय साझा कर सकते हैं ।
- हालांकि आपको राय जानने से ज्यादा कवि के बारे में जानने की बेचैनी होगी, परेशान न हों, सेकेंड के अड़तालीसवें हिस्से में गूगल उनसठ हजार परिणाम देगा । पर्याप्त समय लें और दिल को तसल्ली दें ।
भूमिकाओं को इस तरह शुरू होना चाहिए – “अखिल कात्याल की कविताएँ वर्तमान समय का स्पष्ट प्रतिबिंब हैं”, “उनकी कविताएँ इस दौर का जरूरी दस्तावेज हैं”, “कविता का नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ रहे अखिल कात्याल” और फिर अद्भुत, अप्रतिम, आश्चर्यजनक, मार्मिक, सुंदर, विशेषण 1,2,3….∞
एक आदर्श भूमिका न लिख पाने के लिए संपादक मुझे क्षमा करें ।
अखिल की कविताएँ उस दोस्त की तरह हैं जिसके साथ आवारागर्दी की जा सकती है, हँसा जा सकता है, शरारत की जा सकती हैं, एक नीम अंधेरे में कमरे में धीमे बजती हुई गज़ल की तरह सुना जा सकता है, पीठ पर रखे हाथ की गर्माहट में छुप कर रोया जा सकता है । उनसे लुत्फ पाया है, उनसे नसों पर वार सहे हैं । उदासी को एक बेफिक्र हँसी में छुपाए हुए, वह अकेले में सामने आती है । यादों के लंबे सिलसिले से कोई टुकड़ा उठा कर सामने करती हुई । उसकी चहक जितनी प्यारी है, उसका गुस्सा उतना ही महीन । वैसे भी खंजर की धार दूर से पता नहीं चलती, हाथ लगाना पड़ता है । वह दुनिया भर के लबो-लहज़े में बात करती है और ऐसी बातें करती हैं जो पहले यूं बेधड़क नहीं की गई थीं । वह हिन्दी बोलते-बोलते रेख़्ता बोलने लगती है और रेख़्ता से अंग्रेजी में तब्दील हो जाती है। पुरानी दिल्ली से लखनऊ, लाहौर होते हुए, कोलंबिया और पेरिस के रास्ते अफ्रीका के किसी घने दरख़्त पर बैठ कर झूलती हुई । वह सन्नाटे भरी दोपहर में भटकने के लिए मिलती है या शाम को किसी पुल पर बैठ कर दुनिया जहान पर राय-मशविरे के लिए या कभी सुध-बुध खोकर नाचने के लिए । कभी मुट्ठियाँ लहराते हुए जंतर-मंतर पर, कभी रात के तकिए पर । झूठ की भीड़ के कोलाहल में, सच के खेमे में अकेले खड़ी होकर लड़ती हुई । सत्ता को बार-बार याद दिलाती हुई कि इंसानों को चुप जा कराया जा सकता है लेकिन शब्दों को अपना मानी बताने से मना नहीं किया जा सकता । उसने वहाँ रास्ते बनाए, जहाँ एक वीरान जंगल था । उसने वहाँ बहस खड़ी की जहाँ खामोशी ही आवाज़ थी। रास्ता बनाने वालों के हाथ से खून गिरता है, उन्हें चोट लगती है ।
इससे पहले कि यहाँ अखिल रचनावली के चार खंड पूरे हो जाएँ, आप उनकी कविता से खुद मिलें, अच्छा लगेगा। आपको एक दोस्त मिलेगी जो ज़ेहन में रौशनी भरेगी और भरोसा देगी। मिल कर देखिए ।
अखिल कात्याल की कविताएँ
1.अलग तो ठीक है
अलग तो ठीक है
ये धलग क्या है
कौन रहता है इसमें?
जब कोई पड़ोसी या रिश्तेदार कहता है
अरे कुछ तो खाओ-शाओ
उनके शाओ में
किस तरह की हिदायत होती है
दालमोठ को कैसे शाया जाता है
उधर
काम पर कोई
काम-शाम गिनाता है
काम ख़तम होते होते
शाम होती है
थका-हारा कोई वापस जाता है
थोड़ा लेट-वेट लेता है
ज़रा सो-वो लेता है
भाषा
के बीचों-बीच
कोई खींच देता है
मानो एक विकृत सा आइना
हर लफ्ज़ का
अपना एक अनूठा बिम्ब
बन जाता है
वह थोड़ा हल्का हो जाता है
शब्दों की ज़िम्मेदारी
थोड़ी कम भारी हो जाती है
लम्बा दिन
नरमा जाता है
दुनिया रहने के
ज़्यादा काबिल हो जाती है
शब्द आईने पर यूँ
अपनी भीनी सी भाप छोड़ते हैं
उनके कड़े मायने
छिटकते हैं
संजीदगी
सरलता में
सूत-सूत तब्दील होती है
भाषा सांस लेती है
जीने देती है
2. हमारे बीच
रातरानी की लड़ियाँ
कच्चे सोने की चादर
रसभरी की खटास
कांच का जंगला
हमारे बीच
फालसों की दोहर
चिकनी मिट्टी की दीवार
अनानास के कांटे
शाह जहाँ की गुहार
हमारे बीच
कुछ नहीं का पानी
अमृता की आस
बिजली का दस्तक
गिनती की बात
हमारे बीच
आखिर की रात
जमुना की कालिक
तिल की सीढ़ी
उल्का पात
3. उड़ गया
चला गया
फुर्र
शहर तुम्हें वापस सौंप गया
तुम्हारे हाथों में गिरा
धम्म से शहर का आकार
जैसे तकिये पर सर
वो उड़ गया
जैसे किसी विलुप्त-होते पक्षी की
आखिरी उड़ान
हर पंख उम्मीद
चोंच में दबाये एक नए आयाम
का नक्शा
कूद गया आसमान के उस पार
मिलीजुली हर चीज़ छोड़े
चला गया, अपना पूरा आकार
पूरा बदन ले कर
अपने आप को ले गया
तुम्हारे पास रूपक छोड़ गया
अब जाओ
शहर में चलो
हर चीज़ की
गोलाई, चौकोरपन
को देखो
चीज़ों के मायने जानो
कोई उड़ जाता है
तो ज़मीनी चीज़ों के मायने
बदल जाते हैं
चलते-चलते
इस शहर को भाषा
के कद्दूकस पर
आगे-पीछे सहलाओ
जो कुछ पाओ
अब सब तुम्हारा
4. हार्लेम
– लैंग्स्टन ह्यूज़
(लैंग्स्टन ह्यूज़ की कविता ‘हार्लेम’ से अनुदित, सुनीता कत्याल की मदद से)
एक अधूरे सपने का क्या होता है?
क्या वह सूख जाता है
धूप में किशमिश की तरह?
या किसी खुले घाव की तरह —
पस से भरा, पकता है?
क्या वो सड़े हुए मांस सा बदबदाता है?
या पपड़ी बन जाता है
पुरानी चाशनी की तरह?
शायद चुपचाप किसी भारी बोझ की तरह
वह सिर्फ लटकता है
या अचानक फटता है?
5. रात
तकिये से गिरी
खिड़की से लुढ़की
सड़क पर समतल
याद
सड़क से उठी
खिड़की से दाखिल
तकिये पर मलमल
6. आम लोगों की भाषा में आज भी
सत्ताधारी
कभी ‘सरकार’ कहलाते हैं
कभी ‘माई-बाप’
कभी ‘मालिक’ हो जाते हैं
कभी ‘महाराज’
लोकतंत्र है
फिर भी छोटा-बड़ा हर मंत्री चाहता है
ऐसी भाषा बनी रहे
क्यूंकि राजा से हक़ नहीं मांगे जाते
बिनती करी जाती है
और बिनतियाँ – हक़ों के विपरीत –
मन मुताबिक ठुकराई जाती हैं।
कितने साल बीत गए
दरबार अभी भी
संसद नहीं बन पा रहे हैं।
7. दिल्ली में घर ढूंढना
कितने लोग रहेंगे?
हम सिंगल लोगों को घर नहीं देते
सिर्फ फैमिलीज़ को
नहीं मकान-मालिक ज़्यादा रोक-टोक नहीं करता
बस नॉन-वेज और एलकोहॉल नहीं
जैन है न, इतना तो बनता है
अरे वो तो मुसलमानों का एरिया है, कंजस्टेड है
एक के ऊपर एक
आप मुस्लिम के घर रह लेंगे?
देखिये ग्राउंड फ्लोर आसानी से नहीं मिलता
यहाँ ठीक है, यहाँ सब पंजाबी हैं
पूरा वेंटिलेशन है
नहीं बैचलर लोग न्यूसेंस करते हैं न
नहीं आप नहीं
वैसे बोल रहा हूँ
आप कहाँ के हैं?
क्या करते हैं?
नाम?
नहीं, पूरा नाम?
8. ज़रा सी
हिम्मत अंदर
कहीं संजोये रखो
एक झील
के आस पास
पूरा शहर बस जाता है
9. स्टेशनरी
– आघा शाहिद अली
(आघा शाहिद अली की कविता ‘स्टेशनरी’ से अनुदित)
आज चाँद सूरज नहीं बना।
बस गिर सा गया वीराने पर
तह दर तह, जैसे चांदी के वर्क
तुम्हारे हाथों के पिसे हुए।
ये रात अब तुम्हारा ही कारखाना है,
दिन तुम्हारा ही मसरूफ़ बाज़ार।
दुनिया में काग़ज़ ही काग़ज़ है।
मुझे ख़त तो लिखो।
10. दुआ, इन दिनों
सोच में आज़ादी हो
प्लेट पर खाना हो
किस्म-किस्म के लोगों
का आना-जाना हो
बात-चीत हो बहस में
प्रेम हो, क्रोध हो, जिज्ञासा
हो हर रहस्य में, नाचना हो
गाना हो, पन्नों में लिपटा हर
ख़याल हो पुस्तकालय में
विश्व हो विश्वविद्यालय में
11. जनरल साहब
– बर्टोल्ट ब्रेष्ट
जनरल साहब,
आपका यह टैंक बड़ा ही शक्तिशाली है
जंगलों को रौंद देता है
सौ-सौ आदमियों को कुचल देता है
पर इसमें एक दोष है —
इसे एक ड्राइवर की जरूरत पड़ती है
जनरल साहब,
आपका यह बॉम्बर बड़ा ही शक्तिशाली है
हाथी जितना बोझ लिए भी तूफ़ान से तेज़ उड़ता है
पर इसमें भी एक दोष है —
इसे एक मैकेनिक की जरूरत पड़ती है
जनरल साहब,
इंसान बहुत काम की चीज़ है
वो उड़ सकता है, वो मार भी सकता है
पर उसमें एक दोष है —
वह सोच भी सकता है
12. सोने वाली घड़ी पहने
मिस्टर इंडिया
अपने क्लोक के अंदर
हैरी पॉटर
काम पर
जेबकतरे का हाथ
माइक्रोस्कोप के बिना
कोई भी वायरस
शीशे में
एक बी-ग्रेड भूत
पी.एम्. केयर्स फंड
का खाता
13. शुक्रिया कहना था
– विस्लावा ज़िम्बोर्सका
(जोहाना मारिआ ट्रीज़ीशिऐक के विस्लावा ज़िम्बोर्सका की पोलिश कविता के अंग्रेजी अनुवाद ‘A thank you note’ से अनुदित)
जिनसे इश्क़ नहीं है
उनकी काफी कर्ज़दार हूँ मैं।
यह जान के राहत है
कि किसी और के ज़्यादा करीब हैं वो।
ख़ुशी है कि
न वो भेड़ हैं, न मैं भेड़िया।
उनके संग चैन है
क्यूंकि उनके संग मैं आज़ाद हूँ
और यह आज़ादी, ना इश्क़ को देनी आती है
ना हि लेनी।
मैं उनका खिड़की से दरवाज़े तक
इंतज़ार नहीं किया करती।
मानो किसी सन-डायल जितना
धैर्य लिए,
वह समझ लेती हूँ
जो कभी इश्क़ नहीं समझ पाता।
वह सब माफ़ कर देती हूँ
जो इश्क़ कभी माफ़ नहीं कर सकता।
उनसे मुलाकात और पैगाम के बीच
मानो कोई अरसा नहीं बीतता,
सिर्फ कुछ दिन या हफ्ते बीतते हैं।
उनके साथ सैर पर जाती हूँ तो अच्छा समय बीतता है।
कॉन्सर्ट सुने जाते हैं।
कथीड्रल देखे जाते हैं।
सारे परिदृश्य अलग अलग नज़र आतें हैं।
और जब हमारे बीच
सात-सात नदियाँ और पहाड़ आ जाते हैं,
तो वो सात नदियाँ और पहाड़
किसी भी नक़्शे पर पाए जाने वाले होते हैं।
उन्हीं के बदौलत
मैं एक तीन आयामी दुनिया में रहती हूँ,
कविता के बाहर, शब्दों के बाहर वाली जगह में,
और क्षितिज अस्थिर रहता है, क्यूंकि यह असल वाला क्षितिज है।
उनको पता तक नहीं
के वह अपने खाली हाथों में क्या-क्या थामे हुए हैं।
“मैं कतई उनका कर्ज़दार नहीं”,
इश्क़ ने कहा होता
अगर उससे कोई पूछता।
14. तुमने दो मुट्ठियाँ आगे बढ़ाईं, बोला चुनो
मैंने बायां हाथ चुना। जो खुला तो देखा
एक रुपये का सिक्का, दो काले अंगूर,
तीन ताश के पत्ते, इक पान की दुक्की,
इक जोकर और इक हुकुम का इक्का,
फिर एक छुईमुई की छोटी सी डार, उस
के साथ बड़ा चमकीला सा तांबे का
गिलास, जैसे कोई बच्चों का खिलौना,
एक हाथ में इतना कुछ, मैं उठाये जाऊं,
वो ख़तम ही न हों, फिर एक आम की
लकड़ी का बिछौना, फिर चार नारंगी
फूल, फिर मेरी एक पुरानी गलती के
लिए माफ़ी, फिर सोबती का आखिरी
उपन्यास, फिर थोड़ी सी धूल, थोड़ी सी
झिझक और आखिर में एक पतला सा
टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता, जैसे क्षितिज में कहीं गुम।
मैं कहा “दूसरी मुट्ठी खोलो”,
दूसरी मुट्ठी में तुम।
15. वो
1948
में जन्मा,
मतलब पूरा
पाकिस्तानी, कोई
बंटवारे से पहले का
नहीं कि किसी भी तरह
उसको अपना बता लें। पर
दिक्कत ये है, कि उन सब रातों
को कैसे भुलाएं जब हम उनकी
आवाज़ में घुलते जाते थे, “आफ़रीं
-आफ़रीं” सुनके, तब नहीं पता था नुसरत
हैं उनके।
अखिल कत्याल कवि और अनुवादक हैं। वह दिल्ली में रहते हैं। ‘हाउ मैनी कंट्रीज़ डज़ द इंडस क्रॉस’ और ‘लाइक ब्लड ऑन द बिटेन टंग: डेल्ही पोयम्स” उनके कविता संग्रहों में से हैं।
सम्पर्क: akhilkatyal@gmail.com
टिप्पणीकार शुभम श्री बिहार के गया जिले में 24 अप्रैल 1991 को जन्म । स्कूली पढ़ाई बिहार के अलग-अलग शहरों से करने के बाद लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया । उसके बाद जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र से एम.ए. और एम.फिल किया । शुभम श्री इस दौर की युवा कविता का प्रमुख चेहरा हैं। कुछ समय बिहार के भागलपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाया । फिलहाल ओएनजीसी लिमिटेड में काम कर रही हैं ।
सम्पर्क: shubhamshree91@gmail.com