समकालीन जनमत
कविता

अजय ‘दुर्ज्ञेय’ की कविताएँ जातिवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की मुखर आवाज़ बनकर उभरती हैं

जावेद आलम ख़ान


युवा कवियों में अजय ‘दुर्ज्ञेय’ प्रतिरोध की मुखर आवाज बनकर उभरे हैं। इनकी कविताओं में धर्म, सत्ता और पूंजी के गठजोड़ पर तीखा आक्रोश देखने को मिलता है। अजय सत्ता से सवाल करने में कभी झिझकते नहीं हैं। इनकी कविताओं की चुभती हुई भाषा और सपाटबयानी बिना किसी लाग लपेट सफेदपोश जातिवादियों के चेहरों को अनावृत्त करती है।

‘मैं इंकार करता हूँ तुम्हारी प्रजा होने से,
मैं इंकार करता हूँ तुम्हारे ख़ुदा होने से,
मैं ऐसे कृत्रिम और अमीबी जीवन का प्रार्थी नहीं,
मैं तुम्हारी नागरिकता का लाभार्थी नहीं। बिल्कुल नहीं।
मैं तुम्हारे आर्यावर्त से जाता हूँ।’

इधर अजय ने खूब लिखा है। इनकी कविताओं से गुजरते हुए एक बात स्पष्ट हो जाती है कि अजय के भीतर का आक्रोश उनकी लगभग हर कविता में उपस्थित है। प्रतिरोध में तो यह स्वाभाविक है, इनकी प्रेम कविताओं में भी यह आक्रोश विद्यमान है, एक अजीब सा कसैलापन है इनकी कविताओं में जो आपको भावनाओं में बहने नहीं देता बल्कि जगाए रखता है। जातिवाद की महीन परतें प्रेम में भी हो सकती हैं अजय की कविताएँ इसकी बानगी हैं।

देखो सोनरूपा!
मेरे पास न तो रूप है और न ही सोना…
मेरे पास तो प्यार है और प्यार तो खुद चमार है।
क्या है ना कि दिल्लगी अलग बात है मगर
सच तो यही है कि प्यार और चमार के साथ नहीं ब्याही जाती कोई सोनरूपा!

अजय की कविता प्रेम की वायवीय और सूक्ष्म भूलभलैया में नहीं भटकती वरन यथार्थ के धरातल पर उतरकर कठोर प्रश्न खड़े करती हैं। इन कविताओं की सफगोई प्रभावित करती है।

 

अजय की कविताएँ

1. झब्बू

क्या फ़र्क पड़ता है
कि राम फल खाते थे या माँस?
क्या ही मतलब है कि
राम ने मृग को कौतुक के लिया मारा
या भोजन के लिये?

मुझे तो बस याद आता है
बस-स्टेशन का बेघर और लंगड़ा झब्बू-
जो सुबह-सुबह तो हाथ फैलाता था मगर
सूरज के ढलते ही कचरे में कूद पड़ता था…
और तब जाकर उसे कहीं नसीब होते थे दो निवाले
इसलिए मेरे कवि! इतिहासकार! समीक्षक- सुन साले!
अपनी दुकान बंद कर,
शटर गिरा और
एक बार दुबारा बस-स्टैंड घूम आ।

और
फिर मुझे बताना
कि झब्बू क्या खाता था?
फल या माँस?
और यह भी बताना
कि तुम क्या खाते हो?
फल या माँस या झब्बू?

 

2. नृपों! सावधान!

मुझे नहीं पता कि
नींद मृत्यु का पूर्वाभ्यास है
या मृत्यु नींद की अंतिम परिणति

मुझे नहीं पता कि
मैं अभी जाग रहा हूँ या
सो रहा हूँ या जागने का स्वप्न देख रहा हूँ या
सोने की झूठी चेष्टा कर रहा हूँ

मुझे नहीं पता कि
मैं अभी कविता लिख रहा हूँ
या कविता में मुझे लिखा जा रहा है
या मुझमें कोई कविता घर कर रही है
या मैं किसी और की कविता में जबरन घुस रहा हूँ

मुझे नहीं पता कि
कोई इसे पढ़ रहा है
या कोई इसे पढ़ेगा भी। मैं उस पढ़ने वाले से
यह भी नहीं कहता कि-
मैं किसी नींद में सो गया हूँ- जगा दो,
मैं किसी मृत्यु में खो गया हूँ- उठा दो,
मैं किसी कविता में हो (कैद) गया हूँ- बचा लो

क्योंकि
मुझे नहीं पता कि
मैं अभी लिख रहा हूँ,
पढ़ रहा हूँ,
सो रहा हूँ या
जाग रहा हूँ? मैं तो बस इतना जानता हूँ कि
मैं कहीं खो गया हूँ और चूँकि इतना जानता हूँ तो
इसलिए मानता हूँ कि अभी पूरा नहीं खोया हूँ।

क्या हुआ कि जो मैं नहीं जानता कि
यह व्यूह किसकी रचना है?
इससे कब, कैसे और कहाँ- बचना है?
क्या हुआ कि जो यह समय नृप की बपौती है,
यह मृत्यु नृप की दासी है,
यह नींद नृप की शक्ति है।

मैं बस इतना जानता हूँ कि

जब तक मुझे यह भान है कि
मैं सोया हुआ हूँ,
खोया हुआ हूँ – तब तक
मैं कभी भी नींद से जाग सकता हूँ,
मृत्यु से उठ सकता हूँ,
कविता से निकल सकता हूँ,
यह व्यूह तोड़ सकता हूँ। मेरे सोने, रोने, खोने या
मरने को अपनी जीत समझने वाले नृपों! सुनो –
मैं अभिमन्यु नहीं हूँ… मैं यीशु हूँ।

 

3. निष्कासन से पहले

और एक दिन
जब झुक जाएंगे सारे सिर,
मंच बन जाएंगी रीढ़ की हड्डियाँ,
आवाज़ें रह जाएँगी अनुगामी नारे और
सारे हाथ एक यंत्र की तरह सिर्फ़ जुड़े रहेंगे

जब हवाएं उनके कहने से चलेंगी, रुकेंगी
सूरज उनके कहने से निकलेगा, डूबेगा
जल सिर्फ़ उनके चरण पखारेगा
और ईश्वर धृतराष्ट्र की तरह अंधा बना रहेगा

जब वह सबको हरा देगा,
जब सब हिन्दू हो जाएंगे/ रह जाएंगे,
जब अखंड भारत बन जाएगा,
जब वह एक अपराजेय अट्टहास करेगा
तब भी- हाँ तब भी – मुझे नहीं जीत पायेगा वह…

तब भी मेरे पास खुला रहेगा एक विकल्प,
तब भी मेरे पास बची रहेगी एक आख़िरी आस
जिसपर लिखा रहेगा कि-
‘मैं इंकार करता हूँ तुम्हारी प्रजा होने से,
मैं इंकार करता हूँ तुम्हारे ख़ुदा होने से,
मैं ऐसे कृत्रिम और अमीबी जीवन का प्रार्थी नहीं,
मैं तुम्हारी नागरिकता का लाभार्थी नहीं। बिल्कुल नहीं।
मैं तुम्हारे आर्यावर्त से जाता हूँ।’

 

4. ज़वाब

मैं नहीं आऊंगा-
किसी काँटे की तरह,
किसी तीर की तरह या
किसी गोली की तरह

मैं आऊंगा-
बस एक सवाल की तरह
जो तुम्हारे लिए-
काँटा भी हो सकता है,
तीर भी हो सकता है,
गोली भी हो सकती है।

 

5. गुलाम

उसने कहा-
जाओ सबसे अंतिम पायदान पर खड़े हो जाओ
मैं चुपचाप उठा और नियत स्थान पर खड़ा हो गया

उसने कहा-
तुम सेवाप्रदाता हो!सबकी सेवा करो
मैं चुपचाप उठा और सबके पैर दबाने लगा

उसने कहा-
तुम व्रात्य हो!यह कतार तुम्हारे लिए नहीं है…
मैं चुपचाप उठा और उस कतार से बाहर निकल आया

उसने कहा-
पठन तुम्हारा धर्म नहीं है…
मैंने अज्ञानता की भट्ठी में पीढ़ियाँ झोंक दीं

यही कोई तीन हजार(संभवतः उससे कहीं अधिक) वर्षों तक
सिर्फ़ सुनने के बाद एक दिन
मेरे ‘मैं’ से जब एक मैं खड़ा हुआ और बोला-सुनो!

इतना कहना था कि सृष्टि आक्रांत हो गई,
धर्म ख़तरे में पड़ गया,
देवता क्रुद्ध हो गए,
मठ-मंदिर हिल गए… और तब मैंने जाना
बोलना क्या कर सकता है?
बोलना हमें स्वयं से, अन्य से, सबसे आज़ाद करता है
बोलना हमें सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाता है।

क्या तुम भी डरते हो बोलने से?
क्या तुम जरूरी होने पर भी नहीं बोलते?
यदि हां! तो तुम अभी गुलाम हो
या फिर गुलाम बनने की प्रक्रिया में हो।

 

6. भीमा-कोरेगाँव

कमर में झाड़ू खोसे
(सफाई के लिए नहीं
वरन इसलिए ताकि उनके पदचिन्ह तुरंत मिटते चले जाएं
और उनके पैरों के निशान को छूकर
कोई सवर्ण, कोई ऊँचा अपवित्र न हो जाए)

गर्दन में मटका लटकाए कुछ लोग
(मटका इसीलिए ताकि उनके थूक से धरती मलिन न हो जाए,
उनके थूक से बह न जाए तथाकथित सर्वोच्चता
और उनका थूक, उनकी आवाज़ की तरह
हमेशा उनके हलक़ में ही रहे)

हाँ तो कमर में झाड़ू खोसे,
गर्दन में मटका लटकाए,
घर, चबूतरे, मठ, मंदिर, गुरुकुल
सेना, नौकरी, समाज से बहिष्कृत कुछ लोग
एकदिन उठ खड़े हुए…
और उनके उठते ही बैठ गए बड़े से बड़े पेशवा

सुनते हैं कि तथाकथित ईश्वर उस दिन उदास हो गया था।
उस दिन पैरों ने अपनी महत्ता बताने के लिए
और आगे चलने से इंकार कर दिया था।
ब्रम्हा का मुख मलिन हो गया,
छाती सिकुड़ कर हड्डी हो गई,
पेट और पीठ मिलकर एक हो गए,
दर्प में चूर रहने वाले भव्य से भव्य मस्तक झुक कर गिर पड़े
(सुनते हैं कि तथाकथित ब्रह्मा उस दिन के बाद कभी पूजे नहीं गए)

और इसीलिए
हर वह दलित, शोषित व्यक्ति जो
अपने दमन और शोषण के विरुद्ध उठ खड़ा होता है-
वह भीमा-कोरेगाँव का योद्धा और विजेता है।
क्योंकि जब-जब वह खड़ा होता है
तब-तब हारता है अन्याय और शोषण,
मन मसोस कर रह जाता है ईश्वर
और उखड़ जाते हैं झूठी और रोपी गई कृत्रिम सर्वोच्चता के पाँव।

 

7. बिंब के चिमटे से

उठाई जाती है कविता
लेकिन अक्सर ऐसा हुआ कि
जितनी देर में बिंब ढूँढ़े,
उतनी देर में भाव के तवे पर
जल गई कविता

अब जली कविता
जलाती है,
डराती है…
खाने से पहले
कवि को ख़ुद खाती है

और तुम?
तुम यह भी नहीं जानते
कविता का आटा कैसे सना है?
वह द्रव पानी है,आँसू है या लहू है?
मुझसे मत पूछो !
मुझे बताना मना है…

 

8.

जाति के विरोध में लिखते ही
सबसे पहले पूछी गई जाति। धर्म पर चोट करते ही
किसी ने ज़िहादी तो किसी ने काफ़िर कहा

हम पूछते हैं कि पृथ्वी के उदर पर आड़ी-टेढ़ी रेखाओं से
जाति, नस्ल, धर्म के आधार पर काटकर बनाये गए
इतने ढ़ेर सारे देशों में हमारा देश कौन सा है?
हमारा घर कहाँ है?
हम किस देश के नागरिक हैं?
आख़िर जाति/धर्म/नस्ल ने हमसे क्यों छीन लिया
हमारे मनुष्य होने का आइडेंटिटी-कार्ड ?
हम पूछते हैं कि हम कहाँ जायें?

यहूदियों को अपना लेता है इस्राइल,
मुस्लिमों पर आँच आते ही खड़े हो जाते है खाड़ी या धर्मनिपेक्ष राष्ट्र,
ईसाइयों को छूते ही बिफ़र पड़ता है यूरोप,
और हिंदुओं के लिए धड़कता है भारत का हृदय
मगर हम जो पूरी पृथ्वी को घर मानते हैं-
भला हमें कौन अपनाएगा?

यह कितना कठोर और वीभत्स सच है कि
हम मनुष्यों के निमित्त बनी इस पृथ्वी पर
सिर्फ़ हम मनुष्य ही बेघर हैं, बेसहारा हैं।

 

9. जूझते हुए

बहुतों के लिए मैं एक कवि हूँ
तो बहुतों के लिए शब्दजाल बुनने वाला एक भाषाविद

बहुतों के लिए मैं एक सिद्धांतवादी हूँ
तो बहुतों के लिए एक मझा हुआ अवसरवादी

बहुतों लिए मैं एक दार्शनिक हूँ
तो बहुतों के लिए एक जोकर या मसखरा जो
पल-पल गलतियां करता है और पछताता है

मगर मैं जब भी
इन बहुतों का समुच्चय करता हूँ
तो पाता हूँ कि मैं एक ‘आदमी’ हूँ।
एक ऐसा आदमी जो मनुष्य होने के लिए
अन्य से, आप से, समाज से- सभी से जूझ रहा है…

और इसीलिए तुम मुझे
एक भाषाविद, अवसरवादी या जोकर-
या कुछ भी कह सकते हो…मैं बस इतना जानता हूँ कि
मैं ख़ुद को पाने के लिए एक जूझता हुआ आदमी हूँ और
एक जूझते हुए आदमी का मज़ाक भला कौन नहीं बनाता?

 

10. और एकदिन

जब उन्होंने कहा कि
वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं
इसलिए सबसे ऊँचे हैं, श्रेष्ठ हैं और
हम ब्रह्मा के पैरों से जने – इसलिए उनसे छोटे हैं, निकृष्ट हैं
तो कहीं नहीं कड़की कोई बिजली,
नहीं डोला इंद्र का सिंहासन,
नहीं खुला शिव का त्रिनेत्र,
नहीं घूमा कृष्ण का चक्र। कहीं कुछ नहीं हुआ…

और तो और
वह ब्रह्मा भी नहीं काँपा-
जिसके अंगों को तराजू में तौला जा रहा था,
जिसके अंगों को बाँट बोला जा रहा था। और तब
उसकी चुप्पी से जन्मा भेद,
उसकी अकर्मण्यता से जन्मा अन्याय,
उसकी अवसरवादिता से जन्मी जाति-
कहो साथी!
तब कैसे मानूँ कि वह ईश्वर था,
कैसे मानूँ कि ईश्वर जैसा भी कुछ था?

और उसके बाद भी
हमें जब-जब ईश्वर की ज़रूरत पड़ी-
वह एकदम चुप रहा, निष्क्रिय रहा।
वह हमारी बस्ती कभी नहीं आया,
हमने उसे कभी नहीं देखा,
हमने बस उसका नाम सुना था, उसका भय देखा था।
हमें नहीं पता कि ईश्वर कौन था, किस मज़मे का था?
जानने वाले कहते हैं कि वह उनमें से था,उनके खेमे का था…
होगा! हमारा कौन सा सगा था।

 

11. सोनरुपा

तुम्हारी गली से गुजरा
मगर तुम्हारे घर की ओर नहीं देख पाया।
मैं जानता था तुम खिड़की से ताक रहे होगे मेरी राह
मगर अफसोस! मैं नहीं उठा पाया अपना चेहरा,
मेरी जलमग्न आँखें ताकती रहीं मेरे पैर। वही पैर,
जिनसे कहते हैं कि मेरा जन्म हुआ…

मेरा जन्म क्यों हुआ सोनरूपा?
मैं जानता हूँ कि कल तुम्हें पीटा गया है,
तुम्हारी आत्मा पर गालियों के नील हैं प्रिय।
गाँव के दक्षिणी छोर मेरे आँगन में भी सुनाई दे रही थी
तुम्हारे चाचा की गुस्से से काँपती आवाज-
“साली रंडी कुतिया छिनाल।चमरवा से इश्क़ करेगी”
(ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि
रात को दीवाल फाँद,
वे जिस फुलिया ताई के यहाँ रात बिताते हैं
वे भी एक चमार ही हैं)

मगर तुम बहादुर हो सोनरूपा!
इतनी यातना सहने के बाद आज फिर खिड़की पर आई हो
और मैं उतना ही कायर। कायर या समझदार?
कायर इसलिए कि अभी भी नीची है मेरी नजर और
समझदार इसलिए कि जो अभी उठा लूँ अपनी नजर तो
क्या खिड़की छोड़, देहरी फाँद आ सकोगी मेरे साथ?
एक चमार के साथ?

देखो सोनरूपा!
मेरे पास न तो रूप है और न ही सोना…
मेरे पास तो प्यार है और प्यार तो खुद चमार है।
क्या है ना कि दिल्लगी अलग बात है मगर
सच तो यही है कि प्यार और चमार के साथ नहीं ब्याही जाती कोई सोनरूपा!
सच तो यह भी है कि मैं नजर इसलिए भी नहीं उठाता
ताकि तुम्हें फिर से यह न सुनना पड़े-
“साली रंडी कुतिया छिनाल।चमरवा से इश्क करेगी”


 

कवि अजय ‘दुर्ज्ञेय’। कन्नौज (उत्तर-प्रदेश) के एक छोटे से गाँव सीहपुर में 21 जून 1998 को जन्म। जवाहर नवोदय विद्यालय से इंटर तक की पढ़ाई और तत्पश्चात काशी विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातक। वर्तमान में इग्नू से परास्नातक उत्तरार्ध के छात्र। बहुजन विचारधारा से जुड़ाव और बुद्ध-फुले-अम्बेडकर की त्रयी से प्रेरणा लेते हुए कविता-लेखन में सक्रिय।

सम्पर्क- 9119845665

 

टिप्पणीकार कवि जावेद आलम ख़ान, जन्म – 15 मार्च 1980, जन्मस्थान – जलालाबाद, जनपद- शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा – एम. ए. हिंदी , एम. एड, नेट(हिंदी)। सम्प्रति – शिक्षा निदेशालय दिल्ली के अधीन टी जी टी हिंदी

कविता संग्रह – स्याह वक़्त की इबारतें (बोधि प्रकाशन से दीपक अरोड़ा स्मृति योजना में चयनित)

कई पत्रिकाओं और ऑनलाइन पोर्टल आदि में रचनाएँ प्रकाशित

संपर्क  – javedalamkhan1980@gmail.com

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