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सहज काव्‍य‍कथाओं सी हैं अदनान की कविताएँ

( अदनान की कविताओं से गुजरना अपने समय के लोक से  गुज़रना और उसकी त्रासदियों को जानते हुए उसकी लाचारी को अपनी लाचारी में बदलते देखना है। ये सहज काव्‍य‍कथाओं सी हैं जिनमें काव्‍य में विमर्श की परंपरा आगे  बढ़ती है। उनकी ‘किबला’ कविता को  पढ़ते अपनी माँ , चाचियाँ याद आयीं। ‘माँ कभी मस्जिद नहीं गयी’ को मैंने ‘मां कभी मठिया नहीं गयी’ की तरह पढ़ा।

‘माँ के लिए दुनिया में क्यों नहीं लिखा गया अब तक कोई मर्सिया, कोई नौहा ?

मेरी माँ का ख़ुदा इतना निर्दयी क्यूँ है ? ‘

ये सवाल हमारी सभ्‍यता की तरह चिरंतन हैं और यह चिरंतनता उसके अस्तित्‍व पर ही सवाल की तरह है कि यह चिरंतनता है या जड़ता।

इस बीच शहरी समाज बदला है और अगर वहाँ कुछ माताएँ  बहनें परंपरा की धमन भट्ठी से बाहर आकर तमाम भूमिकाएँ निभा रही हैं तो उसमें इस कविता परंपरा की भी भूमिका है।

पर हमारे गाँव -जवार के सीवानों तक जाने के पहले खुलेपन की यह दुनिया दम तोड़ देती है। इसीलिए ये कविताएँ हैं और इनकी ज़रूरत है और रहेगी।

लोकभाषा के तमाम शब्‍दों में संभव होती अदनान की ये कविताएँ हिंदी कविता में एक आशा की तरह हैं।

प्रचलित मुहावरों से बाहर ये कविता को वह जमीन मुहैया रही हैं जो कल को एक बड़ी जमात को कविता से जोड़ने  का माध्‍यम बनेगी।

केदारनाथ सिंह की चमक लेकर कविता की दुनिया में चमकने वाले कई मिल जाएंगे पर उनकी जमीन को अदनान की तरह तोड़कर  अपने बीज डालने वाले कहाँ हैं आज!  –कुमार  मुकुल )

 

अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ की कविताएँ –

 

एक प्राचीन दुर्ग की सैर

प्राचीनता ही दरअसल इसकी सुंदरता है
समय दुर्ग की दीवारों, गुम्बदों, बुर्जों और स्तंभों पर
गाढ़े ख़ून की मानिंद जम चुका है
सैलानियों की आवाजाही से आक्रांत
लेकिन उजाड़
फिर भी उजाड़.
मैं अवाक् खड़ा देख रहा हूँ
सूर्य को
गुम्बदों से टकराकर
नींव में छिटककर गिरते हुए
पसीने से लथपथ बादलों को
भय से थरथर काँपते हुए।
लो !
तेज़ बारिश शुरू हो गयी
मैं झरोखे की ओट से देख रहा हूँ
बारिश की हर बूँद के साथ
एक सैलानी को
कम होते हुए
थोड़ी देर बाद
दुर्ग में मैं बिलकुल अकेला हूँ।
दुर्ग की मज़बूत दीवारों से पानी
तेज़ी से फिसल रहा है
और धीरे-धीरे नींव की शिनाख़्त में मशगूल हो रहा है
जहाँ पत्थर चटक रहे हैं और उनसे रक्त रिस रहा है
सब कुछ भीग रहा है
घुल रहा है
आकार ग्रहण कर रहा है
समय का पहिया पीछे की तरफ़ घूम चुका है
दुर्ग के खँडहर सुगबुगा रहे हैं
और धूल झाड़ते हुए
अपनी अनन्त नींद से अब जाग रहे हैं
मैं पसीने से थरथर काँप रहा हूँ
उफ़्फ़ !
कितना शोर है यहाँ
कितनी ख़ामोशी
कितनी रंगीनी
कितना वैभव
कितनी विलासिता
कितनी ईर्ष्या
कितनी-कितनी यातनाएँ !
(रचनाकाल: 2017)
(वागर्थ, सितंबर 2017)

बरसात और गाँव/ अदनान कफ़ील दरवेश

आज रात भर होगी बारिश
आज रात भर होगी बारिश
आज रात भर होगी बारिश
और मेरी स्मृति में कोई छप्परनुमा मकान टपकेगा
टप्-टप्-टप्
हम मुक्कियों में ईंट के टुकड़े भरेंगे
और खिड़कियों पर पीली पन्नियाँ कस-कस के बाँधेंगे
बारिश का पानी हमें रात भर भयभीत करेगा
बिजली की कड़कती आवाज़ से हम रात भर काँपेंगे
और उकडूं बैठे रहेंगे
इस तरह ठिठुरते और सिकुड़ते हुए पूरी रात कटेगी
और हम सोचेंगे कि अगली बरसात तक
इस कमरे को
किस तरह रहने लायक बना दें…

 

घर

ये मेरा घर है
जहाँ रात के ढाई बजे मैं
खिड़की के क़रीब
लैंप की नीम रौशनी में बैठा
कविता लिख रहा हूँ
जहाँ पड़ोस में लछन बो
अपने बच्चों को पीट कर सो रही है
और रामचनर अब बँसखट पर ओठंग चुका है
अपनी मेहरारू-पतोहू को
दिन भर दुवार पर उकड़ूँ बैठकर
भद्दी गालियाँ देने के बाद…

जहाँ बाँस के सूखे पत्तों की खड़-खड़ आवाज़ें आ रही हैं
जहाँ एक कुतिया के फेंकरने की आवाज़
दूर से आती सुनाई पड़ रही है
जहाँ पड़ोस के
खँडहर मकान से
भकसावन-सी गंध उठ रही है
जहाँ अनार के झाड़ में फँसी पन्नी के फड़फड़ाने की आवाज़
रह-रह कर सुनाई दे रही है
जहाँ पुवाल के बोझों में कुछ-कुछ हिलने का आभास हो रहा है
जहाँ बैलों के गले में बँधी घंटियाँ
धीमे-धीमे स्वर में बज रही हैं
जहाँ बकरियों के पेशाब की खराइन गंध आ रही है
जहाँ अब्बा के तेज़ खर्राटे
रात की निविड़ता में ख़लल पैदा कर रहे हैं
जहाँ माँ
उबले आलू की तरह
खटिया पर सुस्ता रही है
जहाँ बहनें
सुन्दर शहज़ादों के स्वप्न देख रही हैं।
अचानक यह क्या ?
चुटकियों में पूरा दृश्य बदल गया !
मेरे पेट में तेज़ मरोड़ उठ रहा है
और मेरी आँखें तेज़ रौशनी से चुँधिया रही है
तोपों की गरजती आवाज़ों से मेरे घर की दीवारें थर्रा रही हैं
और मेरे कान से ख़ून बह रहा है
अब मेरा घर
किसी फिलिस्तीन और सीरिया और ईराक़
और अफ़ग़ानिस्तान का कोई चौराहा बन चुका है
जहाँ हर मिनट एक बम फूट रहा है
और सट्टेबाजों का गिरोह नफ़ीस शराब की चुस्कियाँ ले रहा है।
अब आसमान से राख झड़ रही है
दृश्य बदल चुका है
लोहबान की तेज़ गंध आ रही है
अब मेरा घर
उन उदास-उदास बहनों की डहकती आवाज़ों और सिसकियों से भर चुका है
जिनके बेरोज़गार भाई पिछले दंगों में मार दिए गए।
मैं अपनी कुर्सी में धँसा देख रहा हूँ दृश्य को फिर बदलते हुए
क्या आप यक़ीन करेंगे ?
जंगलों से घिरा गाँव
जहाँ स्वप्न और मीठी नींद को मज़बूत बूटों ने
हमेशा के लिए कुचल दिया है
जहाँ बलात्कृत स्त्रियों की चीख़ें भरी पड़ी हैं
जिन्हें भयानक जंगलों या बीहड़ वीरानों में नहीं
बल्कि पुलिस स्टेशनों में नंगा किया गया।
मेरा यक़ीन कीजिये
दृश्य फिर बदल चुका है
आइये मेरे बगल में खड़े होकर देखिये
उस पेड़ से एक किसान की लाश लटक रही है
जो क़र्ज़ में गले तक डूब चुका था
उसके पाँव में पिछली सदी की धूल अब तक चिपकी है
जिसे साफ़ देखा जा सकता है
बिना मोटे चश्मों के।
मेरा यक़ीन कीजिये
हर क्षण एक नया दृश्य उपस्थित हो रहा है
और मेरे आस-पास का भूगोल तेज़ी से बदल रहा है
जिसके बीच
मैं बस अपना घर ढूँढ रहा हूँ…

 

क़िबला

माँ कभी मस्जिद नहीं गई
कम से कम जब से मैं जानता हूँ माँ को
हालाँकि नमाज़ पढ़ने औरतें मस्जिदें नहीं जाया करतीं हमारे यहाँ
क्यूंकि मस्जिद ख़ुदा का घर है और सिर्फ़ मर्दों की इबादतगाह
लेकिन औरतें मिन्नतें-मुरादें मांगने और ताखा भरने मस्जिदें जा सकती थीं
लेकिन माँ कभी नहीं गई
शायद उसके पास मन्नत माँगने के लिए भी समय न रहा हो
या उसकी कोई मन्नत रही ही नहीं कभी
ये कह पाना मेरे लिए बड़ा मुश्किल है
यूँ तो माँ नइहर भी कम ही जा पाती
लेकिन रोज़ देखा है मैंने माँ को
पौ फटने के बाद से ही देर रात तक
उस अँधेरे-करियाये रसोईघर में काम करते हुए
सब कुछ करीने से सईंतते-सम्हारते-लीपते-बुहारते हुए
जहाँ उजाला भी जाने से ख़ासा कतराता था
माँ का रोज़ रसोईघर में काम करना
ठीक वैसा ही था जैसे सूरज का रोज़ निकलना
शायद किसी दिन थका-माँदा सूरज न भी निकलता
फिर भी माँ रसोईघर में सुबह-सुबह ही हाज़िरी लगाती.

रोज़ धुएँ के बीच अँगीठी-सी दिन-रात जलती थी माँ
जिसपर पकती थीं गरम रोटियाँ और हमें निवाला नसीब होता
माँ की दुनिया में चिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ
अख़बार और छुट्टियाँ बिलकुल नहीं थे
उसकी दुनिया में चौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरी और जाँता थे
जूठन से बजबजाती बाल्टी थी
जली उँगलियाँ थीं, फटी बिवाई थी
उसकी दुनिया में फूल और इत्र की ख़ुश्बू लगभग नदारद थे
बल्कि उसके पास कभी न सूखने वाला टप्-टप् चूता पसीना था
उसकी तेज़ गंध थी
जिससे मैं माँ को अक्सर पहचानता.
ख़ाली वक़्तों में माँ चावल बीनती
और गीत गुनगुनाती-
“..लेले अईहS बालम बजरिया से चुनरी”
और हम, “कुच्छु चाहीं, कुच्छु चाहीं…” रटते रहते
और माँ डिब्बे टटोलती
कभी खोवा, कभी गुड़, कभी मलीदा
कभी मेथऊरा, कभी तिलवा और कभी जनेरे की दरी लाकर देती.

एक दिन चावल बीनते-बीनते माँ की आँखें पथरा गयीं
ज़मीन पर देर तक काम करते-करते उसके पाँव में गठिया हो गया
माँ फिर भी एक टाँग पर खटती रही
बहनों की रोज़ बढ़ती उम्र से हलकान
दिन में पाँच बार सिर पटकती ख़ुदा के सामने.

माँ के लिए दुनिया में क्यों नहीं लिखा गया अब तक कोई मर्सिया, कोई नौहा ?
मेरी माँ का ख़ुदा इतना निर्दयी क्यूँ है ?
माँ के श्रम की क़ीमत कब मिलेगी आख़िर इस दुनिया में ?
मेरी माँ की उम्र क्या कोई सरकार, किसी मुल्क का आईन वापिस कर सकता है ?
मेरी माँ के खोये स्वप्न क्या कोई उसकी आँख में
ठीक उसी जगह फिर रख सकता है जहाँ वे थे ?

माँ यूँ तो कभी मक्का नहीं गई
वो जाना चाहती थी भी या नहीं
ये कभी मैं पूछ नहीं सका
लेकिन मैं इतना भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि
माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं
रसोईघर में था…

का कर लेबS

हाँ ! हाँ ! हाँ !
दस-दस छउना हैं हमरा,
का कर लेबS ?
हाँ हम ऊंच पजामा पहिरब,
का कर लेबS ?
हाँ हम गोस आ मछरी खाइब,
का कर लेबS ?
हाँ हमरी महतारी-बहिनी पर्दा करिहें,
का कर लेबS ?
हाँ हम छेदहा टोपी पहिरब
का कर लेबS ?
हाँ हम बकरा दाढ़ी राखब
का कर लेबS ?
हाँ हम चौथा ब्याह रचाइब
का कर लेबS ?
हाँ हम रोजे महजिद जाइब,
का कर लेबS ?
तोहरे कहे से ना बोलबै हम बन्दे-वंदे,
तोहरे कहे से ना चिल्लइबै भारत-वारत,
और इहें हम छवनी छाइब,
तोहरे भेजले कहीं न जाइब,
यहीं रहब तोहरी छाती पर,
देखत हईं तू का कर लेबS !
का कर लेबS
का कर लेबS
हाँ हो सरऊ का कर लेबS !
(रचनाकाल: 2017)

आइन्दा नस्लों के नाम/ अदनान कफ़ील दरवेश
ताखे पर वहाँ तुम्हारे लिए
कुछ शब्द छोड़े जा रहा हूँ
इन्हें बहुत ध्यान से उठाना मेरे बेटे
इनमें पूर्वजों की आत्मा
दाँत किटकिटाती है…

फ़जिर

ख़ामोशी इतनी
कि झींगुरों की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही है
चनरमा खटिया पर लेटे-लेटे
आसमान में मद्धिम पड़ चुके
कचबचिया की तरफ़ देख रहा है
और खखार रहा है
जोखू आधी नींद में ही
गोरुओं की नाद में चारा डाल रहा है
स्त्रियाँ टोलियाँ बना कर
नहर की तरफ़ बतकूचन करती जा रही हैं
गाँव के सिवान से ट्रकों के गुज़रने की आवाज़ें
उनके काफ़ी नज़दीक होने का भ्रम पैदा कर रही हैं
पुरुवा झुर-झुर बह रही है
मैं एक ज़ोर की अंगड़ाई लेता हूँ और देखता हूँ-
रसूलन बुआ
बधने में पानी भर कर वज़ू बनाने जा रही हैं
और अब्बा खटिया से पाँव लटकाए चप्पल टटोल रहे हैं
फजिर की आज़ान बस होने ही वाली है
और मैं सोच रहा हूँ कि ऐसा कब से है
और क्यूँ है कि
मेरे गाँव के तमाम-तमाम लोगों की घड़ियाँ
आज भी फ़जिर की आज़ान से ही शुरू होती हैं।

 

वो एक दुनिया थी

वो एक दुनिया थी
जिसमें हम थे, तुम थे
(और था बहुत कुछ)
एक फूटा गुम्बद, एक चाकू,
एक पान का पत्ता, एक ज़रा सी ओट,
एक नेमतख़ाना, एक बिंदी
एक चश्मा
और एक माचिस की डिबिया थी।
एक उदास धुन हुआ करती थी
हमारे भीतर
जिसे हम खटिया के पायों से लगकर सुनते..
रेडियो पर समाचार का वक़्त होता
लालटेन का शीशा चटका हुआ मिलता
हम नुजूमी की तरह
तारों से लगे होते
माँ रोटियाँ बनाती
सेन्ही में अचानक कूद जाती बिल्ली
माँ उसे चीख़ कर भगाती
उसकी चीख़ उसके अंदर देर तक गूँजती, काँपती
और ओझल हो जाती
(वो बाहर कम चीख़ पाती)।
बाँध की लूड़ी अचानक गिर कर खुल जाती
दूर तक भागती
(जिससे चारपाई बुनना होती)
हम उसे लपेटते
(मैं और बहन)
गेंहुवन की आँखें ओसारे में चमकतीं
अँधेरे से हम ख़ौफ़ खाते..
हम लूड़ी जल्दी-जल्दी बनाते
और चारपाई की ओड़चन कसते-कसते
अपनी कमर खोल बैठते
एक काग़ज़ की गेंद उछलती हुई आती
हमारे पास
हम उसे देखकर ख़ुश हो जाते
माँ रोटियाँ बनाती
मेरी फटी कमीज़ से एक गंध आती
मैं घबरा जाता!
चिड़िया की चोंच-सी
चुभन होती
सीने में
मैं घबरा जाता!
शमा की लौ गुल कर बैठता
माँ ग़ुस्सा करती
मैं घबरा जाता!
मैं फिर से हिसाब लगाने लगता
माँ मुस्कुराती
एक चमक होती उसकी आँखों में
शाम की स्लेटी चमक-सी
जिसमें धुआँ नहीं होता
अब्बा कहते-
भण्डारकोण से उठ गए हैं करिया बादल
दहाड़ते हुए वे आ ही जाते
और बरस पड़ते
सब कुछ धुल-पुँछ जाता।
वो एक दुनिया थी।
अब माँ की गोद में भी
माँ की बहुत याद आती है।

 

मज़ेदार काम

अँधेरे में खड़ा आदमी
हर बार अपराधी ही क्यूँ लगता है?
क्या कोई हर बार ठंड से ही काँपता है?
रोना एक मज़ेदार काम है
और उसे छुपाना
उससे भी मज़ेदार
मसलन :
एक आदमी गाकर छिपाता है अपना रोना
एक आदमी बातें बदल कर
एक आदमी सबसे सुरक्षित कोना खोजता है घर का
क्षण भर रोने को
वहीं एक दूसरा आदमी-
बोलता है
हँसता है
खाता है
पीता है
सबमें उठता बैठता है
लेकिन अपने भीतर
पछाड़ें खा-खा के रोता है
सिर पीट-पीट के विलाप करता है
बस कोई देख नहीं पाता
बस किसी को दिखाई नहीं देता।

(कवि अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली में  एम. ए. के छात्र हैं और इनकी कविताएँ  हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब ब्लॉग्स पर प्रकाशित एवं चर्चित हैं. टिप्पणीकार कुमार मुकुल चर्चित कवि और पत्रकार हैं )

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