समकालीन जनमत
कविता

आदित्य शुक्ल की कविताएँ सर्जनात्मकता की आँच में तप कर निखरी हैं

निरंजन श्रोत्रिय


विद्रूपताओं के प्रति हर गुस्सा यूँ तो जायज है लेकिन यदि उसे सर्जनात्मक आँच में और तपा दिया जाए तो फिर वह सार्थक प्रतिरोध हो उठता है।

युवा कवि आदित्य शुक्ल की कविताएँ इसी आँच में तपकर निखरी कविताएँ हैं। उन्हें समकाल की समझ और चिन्ता तो है ही, विषमताओं के प्रति एक नियंत्रित नाराज़ी भी। ‘नियंत्रित’ इसलिए कि वह गुस्से की भाप बनकर नारों में स्खलित होने के बजाए तप्त लू बन कर हमें एक बेचैन बुखार से भर देती है। कहना न होगा कि यह बेचैन ताप ही तमाम परिवर्तनों का बीज होता है।

पहली कविता ‘गवैयों का मौसम’ अपनी स्थानीय स्मृतियों, जड़ों और वापसी की कसक को लेकर लिखी गई कविता है-एक मंद और थिर तापमान वाली कविता। ‘कि हे जय जीवन प्राण/ इन वर्षों कहाँ-कहाँ भटका’ की पीड़ा कवि-मन के अन्तर्तम में अवस्थित विषाद और कलप को अभिव्यक्त करती है। यह निरा नॉस्टैल्जिया न होकर अपने स्थानीय पर्यावरण को धरोहर मान लेने का आत्मीय आग्रह है।

‘समीकरण’ एक छोटी कविता है लेकिन उतनी ही बड़ी राजनीतिक चेतना और समझ लिए! यहाँ जेनुइन और पाखण्डी सभी मनुष्यता के पतन का रोना रोते हैं-अपनी भाषा, अपने व्याकरण और अपनी सुविधा के अनुसार। संत, चोर, हत्यारे, बाबा, पण्डे, चाय-चौकीदार जैसे शब्दों का प्रयोग यहाँ एक प्रभावी अर्थ-व्यंजना रचता है जिसमें हमारे समय का क्लिष्ट समीकरण खुलता जाता है।

तीन छोटी कविताओं में युवा कवि आदित्य शुक्ल ने कुछ स्थितियाँ या यूँ कहें कि शब्द-चित्र प्रस्तुत किये हैं जो इस विघटित और जर्जर हो रही अवस्था का सूक्ष्म आकलन है। यह आकलन एक वस्तुनिष्ठ सत्य है। ‘किराए के लिए घर से लेकर जलने के लिए श्मशान’ के लिए अब एक नम्बर भर काफी है। जीवन स्थितियों और संवेदनों के इस तरह व्यवसायीकरण का कच्चा चिट्ठा बहुत बेबाकी से खोलती हैं ये तीन छोटी कविताएँ। इन छोटी कविताओं से बड़े अर्थ निकालने के लिए पत्ती और फूलों के गिरने के स्थान का फर्क और उनके हश्र का बीजगणित समझना आवश्यक है।

‘अभी इस जगह से कोई सिसक पड़ेगा’ छोटी और अंडरटोन कविता है जिसमें वेदना और दुःखों के संसार का एक दृश्य है। झिंगुर, साँप, छिपकलियाँ, मृतात्माएँ एक विषाद-संसार का फैण्टेसीनुमा दृश्य रचती हैं जहाँ रोने को हर कोई तैयार है लेकिन रोने का कोई ठिया नहीं।

‘एक अदद बंदूक की जरूरत’ इस दुनियावी भीड़ में अकेलापन झेल रहे मनुष्य की मनोदशा और मनोविज्ञान की कविता जो एक पागलपन, स्किजोफ्रेनिया या भयावह कल्पना संसार में जीने को अभिशप्त है। वह निराश भले न हो लेकिन इतना विवश अवश्य है कि उसे बीड़ी, गांजा या बंदूक कुछ भी ‘ऑफर’ किया जा सकता है इन मानसिक अवस्थितियों से जूझने के लिए! लेकिन ऐ भाई, ये सरेण्डर नहीं है।

‘नींद ही है कि सच है’ एक अलग शिल्प और आस्वाद की कविता है। इस कविता को आपको व्याकरण की बेड़ियों से निकालकर पढ़ना होगा। यहाँ अर्धविराम, पूर्णविराम न खोजिएगा क्योंकि इस बेचैन कविता में भी कहीं विराम नहीं है। एक पहाड़ी नदी की तरह एक शोर के साथ बहती जा रही कविता का वेग ही उसके भीतर के आक्रोश को अभिव्यक्त करता है। यहाँ भयावह सच्चाईयाँ भी हैं और एक फैण्टेसी भी जिन्हें बेहद खूबसूरती से आदित्य ने इस कविता में साधा है-‘तितलियाँ ही हैं कि न जाने कुछ और और स्वप्न में नींद का ऐसा खुमार है कि तितलियाँ जान पड़ती हैं वे।’

बस स्टैण्ड पर’ कविता में एक आम स्थल का जिक्र है जिसमें हरे पत्तों और कागज़ के टुकड़ों के माध्यम से एक दृश्य-बन्ध या कुछ दृश्य-बन्धों को रचा गया है। इस कविता में बहुत उतार-चढ़ाव नहीं है- यह ऐसी ही थिर कविता है जैसे कि किसी कस्बे का जीवन होता है। रेखांकित करने योग्य यह है कि यहाँ कवि ने कविता का विषय बस स्टैण्ड चुना है जो कि किसी भी ठहरे हुए कस्बे का सबसे गतिमान स्थल होता है। एक से दृश्यों का दोहराव..और पुनरावृत्ति इस कविता में अंर्तव्याप्त उदासी को खोलती है।

‘वे मेरे गाँव के कब्र’ भी एक अंडरटोन कविता है जिसमें अनुपस्थित और उपस्थित के बीच एक सम्बंध स्थापित किया गया है। फूलों की उपस्थिति और कब्र की अनुपस्थिति के बीच में वेदना भी है और दर्शन भी। यहाँ कवि को स्वयं की भी खोज है यहाँ तक कि अपनी असफलताओं की भी।

‘कुर्सी की आत्महत्या के बाद’ एक फैण्टैसी है। यह दरअसल एक समग्र राजनीतिक कविता है जो सत्तातंत्र की दुरभिसंधियों और क्रूरताओं का बयान है। कवि कुर्सी की आत्मा को लौटाना चाहता है ताकि ताबूत में मुर्दा या जिन्दा मनुष्यों को दफन करने से रोक सके क्योंकि सत्ता के लिए इन दोनों में कोई फर्क नहीं है। ‘जब मैं…’ कविता में युवा कवि नदी, पर्वत, बर्फ, बादलों जैसे प्राकृतिक बिम्बों के सहारे एक समय-यात्रा करता है जिसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य सभी अन्तर्निहित है।

अभीष्ट यही कि गाने के लिए मौसम की नहीं एक गीत भर की जरूरत होती है। युवा कवि आदित्य शुक्ल एक अत्यंत प्रतिभाशाली, तार्किक, मार्मिक लेकिन बेचैन कवि हैं। इस बेचैन और गुस्साई कविताई को उन्होंने अपनी अनूठी सर्जनात्मक प्रतिभा से साधा है जिसका प्रतिफल है ये कविताएँ जो हमारे भीतर भी वही सधी हुई बेचैनी उत्पन्न करती हैं जो किसी बदलाव के लिए एक चैनेलाइज्ड और ज़रूरी तापमान होता है।

आदित्य शुक्ल की कविताएँ

1. गवैयों का मौसम

किसी वासन्ती दिन कूक बन तुम्हारे गाँव आ पधारूँ
किन्हीं पत्तों की ओट में छिप जाऊँ
किसी आखिरी उपलक्ष्य तुम्हें स्मृतियों में रखूँ
निरखू परखूँ
कि हे जय जीवन प्राण
इन वर्षों कहाँ-कहाँ भटका
कहाँ से कहाँ आ गई मेरी नौका इस संकट नदी में
कितनी हूक से उड़ा था पंछी
एक अजनबी की मानिन्द
अपने ही दरवाजे से गुजरता रहा
मुझे देखकर मेरे घर की दीवारें मेरा नाम पुकारती हैं
किसी दीन-सा निःसंग
यह गवैयों का मौसम।

 

2. समीकरण

संसार में कई तरह के सुखी लोग हैं
अपना बिछावन खुद बनाने वाले बेसहारा लोग
मरते हुए अकेली रात बिताने वाले विकल लोग
सांसारिक गणित से ऊबे हुए संत, चोर, हत्यारे, बाबा, पंडे, हलवाई, चाय-चौकीदार
दूबे, पाण्डे, चौबे, छब्बे, क्षत्रिय, वैश्य
अपनी-अपनी तरह से लोग रोना रोते हैं मनुष्यता के पतन का।

 

3. तीन छोटी कविताएँ

आवश्यक सूचनाः

इश्तिहार के लिए बोर्ड खाली है
किराए के लिए घर
चलने के लिए सड़क
खाने के लिए रेस्तरां
जलने के लिए श्मशान

आप किधर जा रहे हैं? नीचे दिए फोन पर सम्पर्क करें।

————

मौसम बदल चुका है
आदमी की नीयत भी
पहले बकरी से काम चला लेने वाला आदमी
आदमखोर हो गया है।

————

सूखी पत्तियाँ मुझ पर गिरती हैं
फूल नहीं गिरते
फूल सड़क पर बीच में गिरते हैं
करों-ट्रकों से कुचल जाने के लिए।

————

 

4. अभी इस जगह से कोई सिसक पड़ेगा

अंधकार मुझमें झिंगुर बनकर बजने लगा है
झाड़-झंखाड़ियों में बोल रहे हैं साँप
न घर में एक दीया है ना एक फूटी लालटेन
बिस्तर पर जगह-जगह गिरी हैं छिपकलियाँ
रोने की जगह नहीं है कोई मेरे लिए
हर ओर हर जगह कोई न कोई है
–रोने की फिराक में।

जहाँ कोई नहीं है, वहाँ भटकती है मृत आत्माएँ
अँधेरे से फूटती हैं अधूरी रह गई सिसकियाँ।

 

5. एक अदद बंदूक की जरूरत

मैं इतना अच्छा आदमी हूँ कि सनक गया हूँ
अँधेरे में मुझे आता देख एक साठ साला औरत अपना आंचल संभालती है
ये शर्म की बात उससे अधिक मेरे लिए
मैं अपने सौ से भी ज्यादा टुकड़े कर सकता हूँ
मेरे मस्तिष्क में कीड़ों का साम्राज्य उग आया है
उनकी टांगें मेरे सिर पर छोटे-छोटे सींग जैसी बढ़ रही हैं
आप मुझे कुछ भी ऑफर कर सकते हैं
बीड़ी, गांजा या बंदूक।

 

6. नींद ही है कि सच है

अधखुली आँखों से नींद टपकती
बिस्तर रेशमी होता जाता है। तुम्हें आधा देखते और आधा छूते मैं पूछता हूँ
देखो तो सुबह होे आई है क्या, यह झुटपुटा-सा क्यों है, सूरज लाल है क्षितिज पर देखो तो।
मानसून की पहली बारिश है हो रही। सड़कें भींग गई है। कोई दो प्रेमी इस मिट्टी के रास्ते से गुजरे हैं। बारिश हो रही है। आँखों से टपकती है नींद बिस्तर रेशमी होता जाता है तुम कहती हो चलो कहीं चले चलते हैं।
दूर।
तो क्या तुम मेरे साथ गाँव चलोगी, वहाँ हम खेतों में काम करेंगे और गन्ने और मक्के उगाएंगे

गाँव के लोगों ने कामचोरी में आकर ऐसी खेती करना बंद कर दी है या शायद वे उम्मीद करते-करते ऊब गए हैं अब कुछ और नहीं, अब ईश्वर ही उनका एकमात्र सहारा है। वे अब मंदिरों और प्रार्थनाओं में अधिक मान्यताएँ रखने लगे हैं। बजाए इसके कि वे खेती करते।

गाँव चलोगी क्या

या अगर मन बदल जाए तो मैं तुम्हारे साथ गाँव को जाने के लिए बैठे ट्रक पर से अचानक उतरकर कहूँ
कि नहीं नहीं। चलो पहाड़ों पर चलते हैं जहाँ हमें कोई भी जानता नहीं। तो फिर भी तुम चलोगी क्या?

तुम मौन हो स्वप्न में मौन हो। पर तुम्हारी आँखें खुली हैं। पूरी की पूरी। तुम्हारी आँखों में दृश्य चल रहा होगा। दृश्य हमें मौन कर देते हैं फिर तुम कहती होः

हाँ, चलो न। चलो कहीं भी। कहीं से उतर कर कहीं भी चले चलेंगे। मैं थोड़ा-बहुत जितना भी जीना चाहती हूँ वो बस तुम्हारे साथ। अगर हम पहाड़ों पर चले तो वहाँ एक स्कूल चलाएँगे। अब मुझे कभी-कभी बच्चों को पढ़ाने का मन करता है।

यह कहकर अकस्मात् तुम्हारी आँखों से नींद टपकती है। बिस्तर किसी विशाल समुद्र में तब्दील हो जाता है।

मानसून की पहली बारिश है अलस्सुबह, अखबार बेचने वाला पुराने रेनकोट में आधा भीगते और चिल्लाते हुए कहीं से आ रहा है और कहीं ओर को चला गया। अखबार में पता नहीं कैसी-कैसी खबरें हैं। कोई अच्छी खबर होती तो वह मेरे घर की बाल्कनी में भी अखबार फेंक जाता या पिछले महीने का बकाया मांगने आ जाता जब मैं या तुम अधखुली नींद में एक घण्टे बाद आने को कह देते।

नींद ऐसे टपकती है कि सब कुछ रेशम हो जाता है शहतूत के पौधे पर लगे फल मीठे हो जाते हैं और हम तोड़ते बीनते खाते जाते हैं। नींद टपकती आँखों के सामने न जाने किस फूल के पौधे पर तितलियाँ मंडरा रही हैं तितलियाँ ही हैं कि न जाने कुछ और और स्वप्न में नींद का ऐसा खुमार है कि तितलियाँ ही जान पड़ती हैं वे।

 

7. बस स्टैण्ड पर

बस स्टैण्ड पर लोग-बाग बातें कर रहे हैं
और हो रही है बारिश
हवाएँ उड़ा लाई हैं कुछ हरे पत्ते
कागज के टुकड़े
जो ठिठक गए हैं आकर पोल के पायताने जमे पानी में

लोग-बाग बातें कर रहे हैं
उनकी बातें में हैं तमाम बातें
बस की अब नहीं है उन्हें कोई चिन्ता
बस आएगी अपने नियत समय पर
बादल गरजेंगे
बारिश होगी
रास्ते में लग जाएगा जाम
पोल के पायताने जमा रहेगा पानी
दूर रेडियो पर बजती रहेगी जानी-पहचानी धुन
बादल गरजते रहेंगे
लोग-बाग बातें करते रहेंगे
बस-स्टैण्ड एक दृश्य बनकर लटक जाएगा सड़क किनारे
लोगों की बातों में इन बातांे का नहीं होगा कोई जिक्र
नहीं होगा कोई जिक्र कि कैसे कौन हवाएँ उन्हें यहाँ लाकर ठिठका देती हैं
और फिर यकायक उड़ा भी ले जाती हैं
वे तो जानते तक नहीं
अपना रूकना, ठहरना, दृश्य बन जाना
बस के आने तक होगा दृश्य
टूट जाएगा फिर
लोग हँसते-मुस्कुराते इधर-उधर चले जाएँगे
अपनी-अपनी छतरियाँ खोले
फिर कहीं और ठिठक जाने के लिए।

 

8. वे मेरे गाँव की कब्र

मेरे गाँव में एक भी कब्र नहीं है
लेकिन खूब खुली-खुली जगहें हैं,
घास है,
ईंट/पत्थर/सीमेंट/कामगार हैं
लोग-बाग मरते भी हैं बहुधा
मेरे गाँव
फूल के बगीचे हैं
मेरे अपने फूल के पौधे।
काश, मेरी अपनी कब्र भी होती
खुले आसमान के नीचे
कहीं भी,
जिस पर अंकित होता मेरा परिचय, मेरे शब्द
मेरे स्वप्न
मेरी असफलताएँ
एक-एक कर
अपने सारे फूल मैं उस कब्र पर चढ़ा आता,
यूँ
फूलों का बोझ मेरे सर से उतर जाता।

 

9. कुर्सी की आत्महत्या के बाद

एक दिन भटक कर वापस लौट आई कुर्सी की आत्मा
अपनी आत्महत्या के पूरी उन्नीस दिन बाद
जिसके गले में लटका फाँसी का फंदा
लतर रहा था जमीन पर गंदा होकर
आकर, घर लौटकर कुर्सी की आत्मा
कुर्सी पर गिर गई निढाल
आत्मा का स्पर्श मिला
हलचल हुई कुर्सी के कुछ हिस्सों में
पायों में, हत्थों में
रेंगने लगे लकड़ी के कीड़े
ज्यों अचानक थमा हुआ रक्त बहने लगता है नसों में, धमनियों में
रेंगने लगे लकड़ी के कीड़े छोटे-छोटे काले-भूरे कीड़े
किर्र-किर्र आवाजें करने लगे,
थमे हुए अँधेरे समय में होने लगा स्पंदन
कांपने लगा चेहरा
भुरभुराने लगे पाये बुरादा बनकर
अपनी आत्महत्या के ठीक उन्नीस दिन बाद लौट आई कुर्सी की आत्मा
कि उसकी लकड़ी से कोई ताबूत न बना दें लोग
किसी जिंदा या मरे हुए इंसान को दफनाने के लिए।

 

10. जब मैं

जब मैं नदी था
जैसे जब मैं पर्वतों पर था
हरे पेड़, रंगहीन पत्थरों के बीच
मैंने कल्पना की एक निर्मल नदी की
नदी जो हालांकि
पहाड़ की चोटियों से उतर पत्थरों से लड़-टकरा
मेरे सामने से बह निकल रही थी
मैंने तब उस नदी की कल्पना की
जिसमें मेरी अंधी आँखों के सामने श्रद्धालु लोग नहा रहे थे।
नदी जो तब वर्तमान थी, वहीं मेरे आँखों के सामने
असल में तब वह नदी मेरे भविष्य का हिस्सा थी
जिसमें मैं बह रहा था …
जब मैं पठारों से होकर गुजरा
पठारों पर तब सफेद बर्फ (!) की बर्फबारी हुई
यह बर्फबारी जो हुई तो तब, मगर आने वाले भविष्य का हिस्सा थी

जब मैं समुद्र तट
रेत पर लिख रहा था अपनी प्रेयसी का नाम
हिंसक लहरें जिसे मिटा मिटा देती
मुझे फिर फिर लिखने को विवश कर
तब उस वर्तमान में
बादलों के बीच होकर गुजरा एक जहाज
अतीत के फ्लैशबैक की मानिन्द।
जहाज के नीचे समुद्र में तमाम समुद्री जहाज
समानान्तर लकीरें बनाते जा रहे होते थे कहीं..
तब मैं अपने उस वर्तमान में
अतीत की तरह घटित हुआ
जिसे भविष्य मान लिया गया।

 

 

 


 

कवि आदित्य शुक्ल, जन्मः 27 नवम्बर 1991, गोरखपुर (उ.प्र.)। पढ़ाई-लिखाई गोरखपुर से। सृजनः ब्लॉग लेखन और विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ और ललित गद्य
प्रकाशित। ‘सात समन्द की मसि करौ’ नामक एन्थॉलॉजी में कविताएँ संकलित।

सम्प्रतिः सॉफ्टवेयर क्वालिटी एनालिस्ट

मोबाइलः 7836888984

ई-मेलः shuklaaditya48@gmail.com

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

 

 

 

 

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