अंशु चौधरी
आधुनिक सभ्यता का जब भी आकलन किया जाता है, तब उसकी प्रगति और विकास की कहानी के साथ-साथ, उसके भीतर का विडंबनात्मक संघर्ष भी ध्यान देने योग्य होता है। यह विडंबना इस तथ्य में निहित है कि हमारे समाज के अनेक वर्ग आज भी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए संघर्षरत हैं। यह केवल आर्थिक विषमताओं की दास्तान नहीं है; यह समाज के सामाजिक, नैतिक और मानवीय मूल्यों पर गहरे प्रभाव डालने वाली एक गंभीर स्थिति है। आदित्य रहबर की कविताएँ इस संघर्ष की सच्चाई को बखूबी उजागर करती हैं और हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं।
बुनियादी जरूरतों का संघर्ष
रोटी, कपड़ा और मकान, ये केवल भौतिक आवश्यकताएँ नहीं हैं, बल्कि ये मानव जीवन की गरिमा और उसके अस्तित्व का सूचक हैं। जब कोई व्यक्ति इन बुनियादी आवश्यकताओं को प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तो यह उसकी आत्मा के अंधकार में डूब जाने जैसा होता है। आर्थिक असमानता, बेरोजगारी, और सामाजिक कष्टों ने इन जरूरतों को प्राप्त करने की प्रक्रिया को जटिल बना दिया है। इसके परिणामस्वरूप, समाज में व्यापक और घातक मानसिक तनाव का उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
आदित्य रहबर की कविताएँ इस दुखद वास्तविकता का गहरा चित्रण प्रस्तुत करती हैं। उनकी प्रत्येक रचना में कष्ट, अभाव और संघर्ष की गूंज सुनाई देती है। वे न केवल उन लोगों के दर्द को सशक्तता से व्यक्त करते हैं, जिनकी बुनियादी आवश्यकताएँ आज भी अधूरी हैं, बल्कि यह भी प्रदर्शित करते हैं कि यह संघर्ष केवल व्यक्तिगत नहीं, अपितु सामूहिक है। जब एक वर्ग अपनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाता, तब समाज का ताना-बाना भी कमजोर होता है, और उसकी स्थिरता पर खतरा मंडराने लगता है। देखिए आदित्य रहबर ने कैसे इसे व्यक्त किया है:
आदमी का सबसे बड़ा शत्रु उसकी आवश्कताएँ रहीं हैं
मानो, हमने स्वयं के लिए नहीं आवश्यकताओं के लिए जीवन चुना है
जबकि आवश्कताएँ हमें धीरे धीरे चबाती हैं
ठीक वैसे ही जैसे हवा और पानी खा जाते हैं लोहे को।
हमारी देह लोहा ही तो है
एक-दूसरे के स्पर्श और टकराने में अब भेद नहीं कर पाती
एक चीख़ निकलती है, जिसका मूल्यांकन कर पाना
हँसते चेहरे के पीछे की उदासी ढूँढने से भी अधिक कठिन है।
सामाजिक और मानवीय मुद्दों की व्याख्या
आदित्य रहबर की कविताएँ हमें यह समझाने में दक्ष हैं कि यह समस्या केवल आर्थिक संकट की द्योतक नहीं है। इसके पीछे सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों की एक लंबी शृंखला, जो इन आवश्यकताओं को पूरा करने में बाधक बनती है। रहबर हमें दंगों, असुरक्षित जीवन, और न्याय की व्यवस्था में कमी जैसे विषयों पर सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। जब समाज की नींव कमजोर होती है, तो विकास के स्वप्न का साकार होना कठिन हो जाता है।
महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार, मानवाधिकारों का उल्लंघन, और जातीय असमानताएँ, ये सभी रहबर की कविताओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जब तक समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अवसर और अधिकार उपलब्ध नहीं होते, तब तक बुनियादी आवश्यकताओं का समाधान केवल एक स्वप्न रह जाएगा। उनका साहित्यिक दृष्टिकोण इस विषय पर गहराई से सोचने की प्रेरणा देता है कि सामाजिक चारदीवारी के भीतर निहित असमानताएँ समाज की संपूर्णता को प्रभावित करती हैं। देखिए कविता का एक अंश :
मैं जहाँ इस वक्त बैठकर कविताएँ लिख रहा हूँ
डर है मुझे, कि मेरी कविता को देश विरोधी घोषित कर मुझपर लगा दिया जायेगा आरोप देशद्रोही का और कर दिया जायेगा साबित किसी अलगाववादी दल का नेता
जबकि अपने देश के संविधान में मुझे पूरी निष्ठा है और रामचरितमानस से ऊपर अपने देश के संविधान की प्रति रखता हूँ
बचपन में अपनी पेंसिल छिन जाने पर लड़ जाता था मैं
माँ जब भाई से कम देती थी खाना तो अड़ जाता था मैं
क्रिकेट खेलते वक्त गलत निर्णय पर तूल जाता था मैं
बड़ा हो गया हूँ अब, सो चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
परिवर्तन की आवश्यकता
इस परिप्रेक्ष्य में, आदित्य रहबर की कविताएँ हमें यह प्रेरणा देती हैं कि हमें केवल संवेदनशीलता तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि हमें सक्रिय रूप से समाज में परिवर्तन लाने की दिशा में भी कदम उठाने चाहिए। इसके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक-न्याय के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। समाज में जागरूकता पैदा करने, समावेशी नीतियों का निर्माण करने, और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए ठोस कदम उठाने की महती आवश्यकता है।
संदेह ना हो कि लोगों ने आवाज़ उठाना छोड़ दिया है अन्याय के विरुद्ध
संदेह ना हो कि मौन अभिव्यक्ति ना रहा
संदेह ना हो कि दया का अस्तित्व नहीं रहा
मैं लिखता हूँ और बारहा लिखता हूँ ताकि यह संदेह ना रहे कि हम सभ्य नहीं थे
क्योंकि, हमने इतिहास से सीखा है
कोई समुदाय तब तक सभ्य नहीं समझा जाता
जब तक वह लिखना न जानता हो।
निष्कर्षत: कह सकते हैं कि आदित्य रहबर की कविताएँ न केवल आज के समाज की जटिलताओं को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी प्रेरणा देती हैं कि परिवर्तन के लिए विचार और प्रयास अनिवार्य हैं। उनका साहित्य इस बात का प्रमाण है कि रोटी, कपड़ा, और मकान केवल भौतिक आवश्यकताएँ नहीं, बल्कि ये मानव जीवन की गरिमा और स्वाभिमान का प्रतीक भी हैं। जब हम इन जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तब समाज के अन्य पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। यही हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।
इस दिशा में किए गए विचार और प्रयास ही समाज को एक उज्ज्वल और समृद्ध भविष्य में प्रवेश करवा सकते हैं, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता, और मानवाधिकार की रक्षा हो सके। आदित्य रहबर की कविताएँ इस दृष्टि को साकार करने की प्रेरणा देती हैं, और यह दर्शाती हैं कि साहित्य का महत्व एक प्रबुद्ध समाज के निर्माण में कितना अधिक है।
अदित्य रहबर की कविताएँ
1. चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
आसमान में चाँद देख रहा हूँ मैं
किन्तु चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
डर लगता है कहते हुए कि
इस बार ईद की सेवईयाँ खाने जावेद तुम्हारे घर आऊंगा
दोस्तों ने पिछली बार भी कहा था मुझसे
रामनवमी की रैली में तलवार लेकर जय श्री राम के नारे लगाने को
“मुझे पढ़ना है” के बहाने नहीं निकला थामैं उस दिन घर से बाहर
मैं जहाँ इस वक्त बैठकर कविताएँ लिख रहा हूँ
डर है मुझे, कि मेरी कविता को देश विरोधी घोषित कर मुझपर लगा दिया जायेगा आरोप देशद्रोही का और कर दिया जायेगा साबित किसी अलगाववादी दल का नेता
जबकि अपने देश के संविधान में मुझे पूरी निष्ठा है और रामचरितमानस से ऊपर अपने देश के संविधान की प्रति रखता हूँ
बचपन में अपनी पेंसिल छिन जाने पर लड़ जाता था मैं
माँ जब भाई से कम देती थी खाना तो अड़ जाता था मैं
क्रिकेट खेलते वक्त गलत निर्णय पर तूल जाता था मैं
बड़ा हो गया हूँ अब, सो चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
रामनवमी के मेले मुझे खूब पसन्द हैं
गेहूँ की दौनी करके थकी देह, जब मेले में जाने के लिए नहाकर तैयार होती है,तो रात में निकला चाँद अधिक दूधिया लगता है और देह की गंध मंडप में जल रही अगरबत्ती से अधिक सुगंधित लगती है
मेले की जलेबियां और समोसे का स्वाद लेना
जीभ के साथ किया गया सबसे सुन्दर न्याय है
किन्तु, अब मेला को मेला कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
एक लड़की से बरसों से प्रेम करता हूँ मैं
किन्तु कह पाने के भय से सहमा हूँ
बगल के गाँव में पिछ्ले ही बरस एक लड़के को दिन दहाड़े मारकर जला दिया गया था
वह लड़का भी किसी लड़की से प्रेम करता था और वह यह कह पाने का साहस रखता था
इस देश में जितनी जोर से “अल्लाह हु अकबर” और ” जय श्री राम” के नारे लगाए जाते हैं,
उसका एक प्रतिशत भी अगर “मुझे तुमसे प्रेम है” कहने में खर्च कर देता
तो मुझे चाँद को चाँद कहते डर नहीं लगता
छठ पूजा में शाम को जब कोसी भरा जाता था तो
गीतहारिन आती थीं गीत गाने
साथ में रबीना, समीना और तेतरी दाई भी होती थीं
सबको आता था सुन्दर स्वर में गाने “काँच ही काँच के बहंगियाँ, बहंगी लचकत जाय…”
समीना, रबीना सुबह उठकर जाती थी मदरसा कुरान पढ़ने और उधर से ही कुरान सीने से लगाए पहुँच जाती थी छठ घाट
अब पिछले कुछ सालों से नहीं आती हैं तेतरी दाई और न समीना, रबीना
अब वे दूर से देखने लगे हैं छठ घाट
शायद! उन्हें भी छठ को छठ कहते डर लगने लगा है
टीवी पर न्यूज देख रहा हूँ
“विपक्षी दल के नेता की सदस्यता खत्म”
न्यूज चैनल का नाम रिपब्लिक भारत है ,किन्तु
रिपब्लिक भारत को रिपब्लिक भारत कहते डर लग रहा है
लोकतांत्रिक होने का भय दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है
विपक्ष कटता जा रहा है और
हम जन गण मन अधिनायक की जय हो रटते जा रहे हैं
भारत भाग्य विधाता बनता जा रहा है।
2.तुम सुंदर ही नहीं हो, बहुत सुंदर हो
तुम सुंदर ही नहीं हो
बहुत सुंदर हो
तुम जब भी किसानों की बात करती हो
भ्रष्ट सिस्टम की बात करती हो
परिवर्तन की बात करती हो
और ज्यादा सुंदर लगने लगती हो
तुम्हारी सुंदरता इसलिए नहीं है
कि तुम चेहरे से सुंदर हो बल्कि
तुम्हारी बेबाकी,तुम्हारा अल्हड़पन
तुम्हारा आजाद ख्याल,तुम्हारा मन
तुम्हारी इच्छा सुंदर है
तुम जब बेड़ियों से मुक्त समाज की खातिर लड़ती हो
नव भारत की कल्पना करती हो
तो तुममें सावित्री बाई फुले,शांति और सुनिती की परछाई दिखती है
जो तुम्हारी सुंदरता में गुणात्मक वृद्धि कर देती है
सबसे बड़ी बात
तुम मुझे इसलिए भी सुंदर लगती हो
क्योंकि-
तुममें एक क्रांति का ओज दिखता है
और क्रांतिकारी लोग मुझे बेहद पसंद है।
3. हम सभ्य नहीं थे
मैंने गाँव को लिखा
इसलिए नहीं कि मुझमें गाँव है
मैंने दोस्तों को लिखा
इसलिए नहीं कि साले मुझ सा ही लगते हैं
मैंने नदियों को लिखा
पहाड़ों को लिखा, फूलों को लिखा
काँटों को लिखा
इसलिए नहीं कि उनसे मेरा वास्ता है
मैंने शहरों को लिखा
इसलिए नहीं कि उसको कई सालों तक काटा हूँ
मैंने माँ को लिखा
पिता को लिखा, भाई को लिखा, बहन को लिखा
उस लड़की को लिखा जो मेरे बहुत पास रहती है
इसलिए नहीं कि मैं उन सबसे प्रेम करता हूँ
मैंने छल को लिखा
इसलिए नहीं कि मुझे हर बार मिला
मैंने मोह को लिखा
इसलिए नहीं कि मैं उसमें फँसा रहा
मैंने जीत लिखा
मैंने हार लिखा। इसलिए नहीं कि ये मिलते रहे
मैंने विद्रोह लिखा
इसलिए नहीं कि मैं ज़िदा हूँ
मैंने मौन लिखा
इसलिए नहीं कि मैं मरा हुआ हूँ
मैंने दया लिखा
इसलिए नहीं कि मैं दयालु हूँ
मैं लिखता हूँ और बारहा लिखता हूँ
मैं इसलिए लिखता हूँ ताकि कल को हमारी आने वाली पीढ़ी हमारे सभ्य होने पर संदेह ना करे
संदेह ना करे कि मुझे किसी लड़की से प्रेम नहीं हुआ
संदेह ना करे कि मेरे दोस्त मेरे अपने नहीं थे
संदेह ना करे कि मुझे माँ, बाप, भाई, बहन का प्यार न मिला
संदेह ना करे कि मुझमें गाँव की मिट्टी नहीं सनी
संदेह ना करे कि शहरों का अकेलापन ने मुझे नहीं काटा
संदेह ना करे कि काँटों ने उतना ही सुकून दिया जितना फूलों ने
उन्हें संदेह ना हो कि
छल नहीं इस दुनिया में
संदेह ना हो कि
हार और जीत नहीं इस दुनिया में
संदेह ना हो कि मोह से उबर गई है दुनिया
संदेह ना हो कि लोगों ने आवाज़ उठाना छोड़ दिया है अन्याय के विरुद्ध
संदेह ना हो कि मौन अभिव्यक्ति ना रहा
संदेह ना हो कि दया का अस्तित्व नहीं रहा
मैं लिखता हूँ और बारहा लिखता हूँ ताकि यह संदेह ना रहे कि हम सभ्य नहीं थे
क्योंकि, हमने इतिहास से सीखा है
कोई समुदाय तब तक सभ्य नहीं समझा जाता
जब तक वह लिखना न जानता हो।
4. भारत माता की जय
21 वीं सदी गैस चूल्हे पर नहीं पक रही
लकड़ियों के सहारे ले रहे हैं हम अपने युग का स्वाद
ऐसा नहीं है कि सिलिंडर व्यर्थ जा रहा
बहुत उपयोगी है सरकार का दिया सिलिंडर
ऐसा धन्नु काका बता रहे थे
पिछले साल बाढ़ का पानी उसी ने पार करवाया था
ऐसे ही थोड़ी महँगी है
पेट ना सही, जान तो बचा रही है…
विद्यालयों में नहीं दिखता शिक्षा क्षेत्र की बढ़ोतरी
इसलिए अब मैं बैकों के सामने खड़ा होकर ढूँढता हूँ साक्षरता दर
लोन का प्रतिशत बताता है
विद्यालयों में बढ़ती घटती बच्चों की संख्या का अनुपात
संसद की बन रही नई इमारत से
मर्सिया गाने की आवाज़ सुनाई पड़ती है
ईंटों की जगह देहें जोड़ी जा रही
राहत के नाम पर धार्मिक पताका लहराया जा रहा और
लोगों का पेट भरने के उनके मुँह में राष्ट्रवाद का निवाला ठूँस दिया जा रहा…
गाँव में बेटियों की विदाई साहूकार के बटुए में अटकी है
खेतों का पानी पार्टी कार्यालय के पौधों का प्यास बुझा रही
बुढ़िया काकी का इलाज़ दिल्ली से चलता तो है
किन्तु, गाँव आते आते दम तोड़ देता है
दो बच्चों के बाप महेशर भाई
रिक्शे से माप रहे हैं सरकार की योजनाएँ
मेरे दोस्त नारों में ढूँढ रहे हैं सरकारी नौकरी
और मैं देख रहा हूँ
योजनाओं को भीड़ में बदलते हुए
मुझे कोई बचाओ इस भीड़ से
मेरा दम घुट रहा है
मेरी कान फट रही है
भजन चीखों में तब्दील हो रहे हैं
आदमी भेड़ियों की शक्ल में हैं
सभी बारी बारी से राष्ट्र को नोच रहे हैं और
सबकी जुबान पर एक ही नारा है “भारत माता की जय”
पता नहीं क्यों यह नारा कम; भूख से उपजा विलाप अधिक लग रहा।
5. हताशा की परिभाषा
मैं शहर और गाँव के ठीक बीचों बीच खड़ा हूँ
मेरे पास संपत्ति के तौर पर मेरी एक देह है
जो अपेक्षाओं और उम्मीदों की चोट से जर्जर हो चुकी है
हताशा की अगर सबसे सुंदर परिभाषा देनी हो या लिखनी हो
तो मेरे चेहरे को पढ़कर आसानी से लिखी या देखी जा सकती है
पांच फीट पांच इंच में समेट रखी है
दुनिया की तमाम कहानियाँ; जो किसी लेखक और पाठक के हिस्से नहीं आईं।
मेरी त्वचा पर सरकारी योजनाओं, उदेश्य और प्रेम की काई जम चुकी है
अब मैं सांस लेने के लिए भी संघर्ष करता हूँ।
सफलातों के किस्से फिक्शन फिल्मों जैसे लगते हैं,
जिन्हें देखकर सिवाय झूठी मुस्कान के कुछ भी नहीं आतें
मैं अपनी शक्ल हर उस आदमी में देखता हूँ
जो लाईब्रेरी के किसी कोने में स्वयं को खपा रहा है, ताकि एक समय बाद उसकी जरूरतें आवश्यकता से ज्यादा टांग ना पसार सके।
आदमी का सबसे बड़ा शत्रु उसकी आवश्कताएँ रहीं हैं
मानो, हमने स्वयं के लिए नहीं आवश्यकताओं के लिए जीवन चुना है
जबकि आवश्कताएँ हमें धीरे धीरे चबाती हैं
ठीक वैसे ही जैसे हवा और पानी खा जाती है लोहे को।
हमारी देह लोहा ही तो है
एक-दूसरे के स्पर्श और टकराने में अब भेद नहीं कर पाती
एक चीख़ निकलती है, जिसका मूल्यांकन कर पाना
हँसते चेहरे के पीछे की उदासी ढूँढने से भी अधिक कठिन है।
6. हमारा परिचय
हमने रोटी मांगी
उसने कहा-
धर्म बचाओ
हमने पहचान मांगी
उसने कहा-
काग़ज़ दिखाओ
हमने रोज़गार मांगा
उसने कहा-
आत्मनिर्भर बनो।
लड़ रहे हैं लड़ाई अपनी
बचा रहे हैं धर्म अपना
धर्म जो कहता है-
अपना हक़ छीन कर लो
पुलिस की फाईलों में
अब हमारा परिचय ‘देशद्रोही’ है।
7.भारत
वह ऐसा कभी नहीं चाहता था
ना होना था उसे
हमने नारों को शीशें की तरह पिघला कर डाल दिया उसकी कानों में
वह अपनी ही चीख़ को न सुन पाने की बेचैनी है
सदियों पहले जहाँ मस्जिदें खड़ी की गईं
मंदिरें बनाई गईं
उनके नीचे धान की बालियाँ, गेहूँ के दाने और
कपास के पौधे दबे हैं
हमारी पीढी सभ्यताओं की इस हत्या का मूकबधिर गवाह हैं
मजहबी झंडों ने किया है आदम जात को नंगा,और हमारी आधुनिकता ने उस नंगेपन को बौद्धिकता का चोला पहनाया है
वह सर्दियों में ठिठुरता है, गर्मियों में जलता है और
चुनाव में ख़ाक हो जाता है
वह चौराहे पर सूखा हुआ बरगद है
जिसके छाँव में राहगीर नहीं रुकता,
व्यापारी रुकता है और किसी इमारत के लिए दरवाजे़ गिनता है
वह भीड़ के पैरों तले कुचली हुई देह है
जिसपर निशान है राष्ट्रवाद के
धब्बे हैं धर्मांधता के और बहता खून है आदमियत का।
8. हमारे होने की पहली और आखिरी शर्त
खेत की डनेर पर औंधे मुंह
पड़ी हैं कृषि योजनाएं
महिला सशक्तिकरण के नारे आए दिन
चलती बसों में, खेतों में; और न्यायालय की सीढ़ियों पर चीखती हुई आवाज़ में मिलती हैं
श्रम कार्ड बंधुआ मजदूरों का डिजिटल हस्ताक्षर बन गया है
स्वास्थ्य बीमा योजना
निजी अस्पतालों में अंतिम सांसे ले रही है
छात्र पढ़ते हुए ढूंढ रहे हैं
प्राइवेट कंपनियों में दस से बारह हजार की नौकरियां और
पूछने पर बता रहे हैं कि वे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे हैं
युवाओं की एक भीड़ करने में लगी है सरकारों की आलोचनाएं
कुछ ने ली है देश के शीर्ष शिक्षण संस्थानों से शिक्षित होने का प्रमाण पत्र
प्रमाण पत्र से याद आया
आजकल वे सभी अपनी जाति का प्रमाण पत्र लिए
खत्म कर रहे हैं सामाजिक बनावट की सदियों पुरानी व्यवस्था और चिल्ला रहे हैं कि उन्हें भी दिया जाए जात के नाम पर अधिकार
शोषक और शोषित वर्ग अब बंट गए हैं
सभी जातियों में उनके कुछ होनहार ने संभाल ली है
जाति व्यवस्था खत्म करने की कमान
अब सब लिख रहे हैं अपने नाम के आगे
अपनी जातियों के, वर्गों के सरनेम
बुद्धिजीवियों ने अपना एक कंफर्ट जोन बना लिया है
बोलना वहीं हैं जहां से उन्हें मिल सके लाइम लाइट
और चमकना किसे पसन्द नहीं होता
वो बात अलग है कि कमरे की फर्श भी चमकती है,
शौचालय की सीट भी चमकती है (अगर वो सार्वजानिक न हो तो) और चमकते जूते भी हैं चाटुकारों के द्वारा साफ़ किए जाने के बाद
सबका दावा है कि
वे देश बचा रहे हैं, लाखों साल पुरानी सभ्यता बचा रहे हैं
फिर कौन है जो विध्वंसक है?
वो जो चुप है?
वो जो सिर्फ चिल्ला रहा?
वो जो मुस्कुरा रहा?
वो जो लड़ रहा?
या हम जो इन सबमें कहीं नहीं?
याद रखना साथी
होने की पहली और आखिरी शर्त है
प्रतिवाद!
9. आत्मघटित
जीवन की सबसे सुंदर कविता
तभी लिखी गई
जब लिखने वाले को पता नहीं था कि
कविता क्या होती है?
बाप की देह से आती पसीने की गंध
तब समझ आई
जब उनके देह का नमक पिघल कर
धीरे धीरे बेटे के चेहरे पर चढ़ आया
प्रेम में होते हुए
हम कितने निष्ठुर बन जाते हैं
यह विरह के दिनों में महसूसा गया
सबसे क्रूर एहसास है
अपनों की समझ तब हुई
जब संसाधनों की पूर्णता के बावजूद
हमें लानते मिलती रही और अवसाद से निजाद पाने के लिए
लगाता रहा मनोचिकित्सक के चक्कर
फर्श पर पैर फिसलने की वजह
जब दो दिनों तक बिस्तर पर पड़ा रहा तो जाना
माटी की कीमत
माँ के दिन भर खटते रहने पर
पिता का गुस्सा हो जाना अखरता रहा
तबतक जबतक मैं किसी स्त्री का
जीवनसाथी नहीं बन गया
फेसबुक पर दर्जनों कविताएँ लिखकर
हम क्रांतिवीर तो कहलाए
किंतु, शब्दों की चोट ने जितना हमें दुत्कारा
उसे झेल पाने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाए
मेरी एक दोस्त हमेशा कहती है
प्रसव पीड़ा का दुःख
प्रसव पीड़ा में होकर ही समझा जा सकता है
मेरी दोस्त ठीक कहती है
बिना दुखी हुए दुख के आसपास हम गीदड़ की तरह भटक सकते हैं
दुखी नहीं हो सकते
मैं २५ की उम्र में बेरोजगारी पर कविताएँ लिख रहा हूँ
मुझसे बेहतर कोई नहीं बतला सकता कि इस देश में बेरोजगारी एक अभिशाप है।
10. छोटका बाबा
हमारे छोटका बाबा को किसी ने बताया-
कि पूजा रखिये आपके बेटे का दिमाग ठीक हो जायेगा
उनके बेटे की मती मार गई है
ऐसा सबको पता था
वो कभी इस राज्य तो कभी उस राज्य भ्रमण करते
सब कहते थें –
कोई देवी का असर है
दो मंडप वाला पूजा रखेंगे
तो और बेहतर होगा
ऐसा सलाह देने वालों ने बताया
बाबा ने सलाह मान लिया
पूजा ठान लिया
कर्ज़ लिये
कुछ जमा पूंजी भी लगाई
पूजा हो और भोज ना हो
ये कैसे होगा?
समाज में क्या इज्ज़त रह जायेगी
सो भोज भी हुआ
भगत आये थे पूजा कराने
अपने ही जात के थे
कहते हैं-
अपने जात का देवता भी है
खूब सेवा हुई बाबा की
मेवा,मिसरी
क्या-क्या नहीं मिला उन्हें!
दोनों मंडपों को
दरवाजे के पास ही जमींदोज कर दिया गया
रिवाज़ है –
उसका एक टुकड़ा भी ना बिखर पाये कहीं ।
पूजा के दो दिन बाद से ही
बाबा के घर
पैसे देने वाले की नोंक-झोंक शुरु हो गई
और बेटे का फ़िर से किसी और राज्य का भ्रमण!
बीच वाले बाबा पूजा के छह महीने बाद चल बसे
और उनके छह महीने बाद
छोटका बाबा
मंडप दो था न
भरपाई तो करनी थी
पैसे लगाये थे
तन भी लगाना पड़ा
फ़िर से भोज हुआ
लोग कहने लगे –
भोज नहीं करेंगे तो समाज क्या सोचेगा ?
ब्राह्मणों को भी तो खिलाना होता है
तभी तो शांति मिलेगी उनकी आत्मा को !
इस बार बाबा नहीं थें
बाबा का ही भोज था
समाज फिर से खाने आया
सब कह रहे थे
बढ़िया बना है खाना
सबने खूब खाया
उनके लिए भोज तो भोज ही है
पूजा का हो या श्राद्ध का।
11. हम साहित्य के संक्रमण काल में मिले थे
मैं कविताओं की बात करता
वो कविताओं में मेरी बात करती
खेतों की सूखती माटी की तरह था
हमारा साथ
हम बरसात ढूंढते रहे और पानी की बूंदों के बदले
रेत के कण से नहाएं
विद्रोही की कविताओं में की कोशिश ढूंढने की
प्रेम में क्रान्ति का अर्थ
क्रान्ति नदी पार करने जितना आसान थी
जबकि प्रेम सरकारी नौकरी पाने जितना
हम सरकारी नौकरी के इश्तेहारों में
अपना कल ढूंढते
सफलताओं के किस्से सिर्फ़ हमारे लिए गढ़े जाने लगें
हमारा प्रेम राज्य के संग्रहालय का सबसे आकर्षक दावेदार था
हम बहेलिए द्वारा मारे गए पंछी नहीं थें
हम तंज में पले लोग थे
तंजों में ही मारे गए
हम प्रेम में थे लेकिन बेरोजगार थे।
12. माफ़ करना दोस्त मैं तुम्हारे खिलाफ़ हूँ
आदर्श
चिंताएँ और
विचार धाराओं की टांग
गाँव आते-आते लंगड़ी हो जाती है
प्रगतिशीलता का लिबास
आदर्शवाद का चोला
कविताओं के उद्देश्य
और चिंताओं की लंबी-चौड़ी लिस्ट
शहरीकरण की आंधियों में उड़ जाते हैं
बचतीं हैं तो बस मुआवज़े के लिए की गई अर्जियों की प्रतियाँ
जिन्हें कुछ समय बाद
हम भूजा और जलेबी से लिपटा हुआ पाते हैं
संसद की योजनाएँ
और नेताओं के भाषण
गाँव के सिवान तक आते-आते दम तोड़ देते हैं
पहुंचती हैं तो सिर्फ़ उम्मीदों की बयार
जो दस से पंद्रह दिनों में
वापस चली जाती है
और फिर बचतीं हैं
किसानों की दम तोड़ती देह
खेतों की सूखती माटी
और जिजीविषा के पौधे
जो हरे हैं तमाम वायदों और आविष्कारों की अनुपस्थिति के बावजूद
विज्ञान की तरक्की
और महिलाओं की स्थिति
न्यूज चैनलों की सामाग्री भर है
विज्ञान आज भी
हर दिन राजस्थान के सुदूर इलाकों में दम तोड़ता है
जब पानी के लिए लोगों का झुंड मैराथन दौड़ रहा होता है
नारीवादी आंदोलन
अंतिम सांसें ले रहा होता है
जब गांव के किसी घर में पति का पत्नी को पीटना
समाज की उपलब्धि
और पत्नी का पति को आजिज आकर पीट देना
पुरुष की कायरता मान ली जाती है
चौरासी लाख योनियों में श्रेष्ठ होने के सारे वायदे
वहीं दम तोड़ देते हैं
जब इक्कीसवीं सदी में भी
किसी दलित के घोड़ी चढ़ने पर
हमारा समाज उसे दिनदहाड़े पीट-पीटकर मार डालता है
और हम अपने श्रेष्ठ होने का प्रमाण देते हैं
ए सी कमरे में बैठकर
किसानों पर चर्चा तो की जा सकती है
लेकिन बाढ़ में बह गयी फसल का दुख महसूस नहीं किया जा सकता
बैसाख और ज्येष्ठ की धूप जब पीठ पर पड़ती है
तो लगता है जैसे किसी ने गर्म सरिया रख दिया हो पीठ पर
यह बात भी हमें तब पता चलेगी
जब तक दिनभर झुके-झुके धान के खेतों में
हमारी कमर नहीं जवाब दे जाती
डिजिटल इंडिया एक मिथक बनकर रह जाता है
उन गांवों के लिए
जहाँ आजतक हम एक सेल फोन नहीं पहुंचा पाये हैं
प्रधान मंत्री की मन की बात
और उनके वर्चुअल संवाद
आसमानी जान पड़ते हैं
जहाँ लोग अपनी आजीविका के लिए
भाला-बरछी लिये
दिनभर जंगलों में अपना पेट भरने का उपाय ढूंढ रहे होते हैं
मोबाइल की स्क्रीन में डूबे युवा
और संपन्नताओं के शहर में यायावरी करती हमारी पीढ़ी
इन्हें कभी नहीं स्वीकार करेगी
करे भी तो कैसे?
इनके ना कभी पैर में छाले पड़े हैं
ना रोटी के लिए तरसना पड़ा है
जिनके लिए गाँव
पर्यटन स्थलों की तरह है
बेरोजगारों का रोना
झूठी संवेदनाओं को प्रदर्शित करने का जरिया है
महिलाओं की स्थिति पर मात्र इसलिए बोलना
ताकि उन्हें क्लबों में सिगरेट और शराब पीने का अधिकार मिल सके
उन्हें मिल सके अधिकार जहाँ वो फेमिनिज्म के नाम पर
कर सके भद्दा मजाक है
वे महिलाएं जो आज भी रूढ़िवादी समाज की चक्की में
हर रोज पीसी जाती हैं
जिन्हें आज भी आदर्शवाद और संस्कृति की आड़ में
बना रखा गया है आदर्श बंधुआ मजदूर
जिनकी मजदूरी पितृसत्ता समाज को खुश रखना भर है
जिनके लिए महिला सशक्तिकरण जैसे शब्द आसमान में तारे गिनने के समान है
उनके हक की खातिर कौन सा शब्द आयेगा
या यह शब्द सिर्फ़ शहरों तक ही सिमट कर रह जायेगा ?
अगर तुम्हारे लिए
यही होना देश का विश्वगुरु होना है
तो माफ़ करना दोस्त
मैं तुम्हारे खिलाफ़ हूँ।
कवि आदित्य रहबर, बिहार के मुज़फ्फरपुर जिले के गांव गंगापुर के निवासी हैं। इन्होंने लंगट सिंह कॉलेज मुज़फ्फरपुर से इतिहास विषय में स्नातक किया । वर्तमान में हिन्दी साहित्य से मास्टर्स कर रहे हैं। एक कविता संग्रह ‘नदियाँ नहीं रुकतीं’ प्रकाशित है। शॉर्ट फिल्में लिखते हैं। एक शॉर्ट फिल्म ‘ईदी’ इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में चुनी गई थी। वहीं दूसरी लार्ज शॉर्ट फिल्म ‘विराम’ को लोगों द्वारा लाखों की संख्या में देखा जा रहा। इसे भी मद्रास फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली है।
संपर्क: 7488336262
टिप्पणीकार अंशु कुमार चौधरी, दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक, और वर्तमान में इसी विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं। प्रभाकर प्रकाशन, दिल्ली के संपादक-निदेशक हैं तथा “विष्णु खरे: विलाप का आलाप” नामक पुस्तक के संपादक।